शनिवार, 18 मई 2013

बाज़ार और गधा


बाज़ार और गधा



पिछले कुछ सालों में हमारे देश ने बहुत तरक्की कर ली है, तरक्की की ये अद्भुत कहानी उस साल शुरु हुई है जब भारत ने अपने दरवाजे़ दुनिया भर के बाज़ार के लिए खोल दिए, उसके स्वागत में लाल कालीन ”रेड कार्पेट” बिछा दिया और अपनी आत्मा को सदा-सर्वदा के लिए बाज़ार यानी मार्केट के लिए ”प्रतिबद्ध” कर दिया। ”प्रतिबद्ध” असल में बहुत ही ताकतवर शब्द है, इसका मतलब ही होता है किसी विचार के लिए बंध जाना, पहले लोग ”कटिबद्ध” शब्द का प्रयोग करते थे, और जब किसी विचार से अलग होना होता था तो सिर्फ धोती ढ़ीली कर लेते थे, कमर यानी कटि खुलते ही वो कटिबद्धता से मुक्त हो जाते थे और जो चाहे करते थे, उनकी ईमानदारी पर कोई संशय या आरोप नहीं लग पाता था। इसीलिए उस जमाने में दल-बदल भी बहुत होता था। खैर आधुनिकता ने बहुत सारे बदलाव किए और जमाने के साथ-साथ संसद में धोती वालों की जगह जीन्स वाले, पैंट वाले, पजामे वाले ज्यादा आने लगे, जो धोती वाले आते भी हैं वो धोती को लुंगी की तरह पहनते हैं और इस तरह कटिबद्ध होने से बचे रहते हैं। खैर इस तरह कटिबद्धता पर ”प्रतिबद्धता” ने विजय पाई और अब सभी ”प्रतिबद्ध” हैं जिसके खुलने या ढ़ीले होने की कोई गुंजाइश नहीं है। क्योंकि ”प्रतिबद्धता” का तो यूं है भैया कि आज इसके लिए ”प्रतिबद्ध” हो जाओ तो सुविधानुसार कल उसके लिए ”प्रतिबद्ध” हो जाओ। 

यही वजह है कि अक्सर एक ही हफ्ते में आपको दो या दो से अधिक यानी बहुवचन में भ्रष्टाचार के खुलासे मिलते हैं, पहले ऐसा नहीं होता था, अक्सर महीने-दो महीने पर किसी एक भ्रष्टाचार का किस्सा सुनने में मिलता था और जीवन काफी नीरस था। बाजार के खुलकर सामने आने का सबसे बड़ा फायदा, जो मेरे हिसाब से इतिहास की किताबों में लिखा जाना चाहिए, वो ये है कि जिन्दगी हंगामाखेज़ हो गई।

एक हंगामें पे मौकूफ है घर की रौनक
नग्माए शादी ना सही, नौहए ग़म ही सही।

तो साहब अब लीजिए आप लोग, एक हफ्ते में, और कभी-कभी तो एक-एक दिन में कई-कई भ्रष्टाचारों के खुलासे हो रहे हैं। और हर किस्म के लोग भ्रष्टाचार आदि में संलग्न हैं, राजनेता नफरत भरे भाषण ”मुझे हेट स्पीच” कहने में ऐतराज़ है” देकर बाइज्जत बरी हो जा रहे हैं, खिलाड़ी जुए के खेल में जुआ खेलने पर पकड़े जा रहे हैं, हत्यारे संदेहलाभ पाकर छूट जा रहे हैं, और कुछ लोग फाइलें इधर-उधर ”साफ कहें तो गायब” कर रहे हैं। और क्या चाहिए जिंदगी से, कुछ लोग इससे आहत भी हैं, मर्माहत भी हैं, लोगो के मर्म पर मलहम लगाने वाले लोग भी मौजूद हैं। अभी एक स”र्दु”ज्जन ने कहा कि भई सी बी आई को तोता कहने से उसकी साख घटी है, उसके मोराल में कमी आई है, मुझे इस बात से सहमत भी होना है और असहमत भी होना है। होता है कभी-कभी ऐसा, आप मर्म को समझें, शब्दों के पीछे लठ्ठ लेकर ना पड़ें। सी बी आई की साख को बट्टा उसके करमों से लगा है ना कि उसके करमों के उजागर होने से, और वो बट्टा लगाने वाले भी आप हैं। तो इस बात से तो मैं सहमत हूं कि सी बी आई की साख को बट्टा लगा है, भारी बट्टा लगा है, लेकिन इस बात से असहमत हूं कि वो बट्टा उसे तोता कहने से लगा है, वो बट्टा इसलिए लगा है क्योंकि उसे आपने तोता बना रखा है, और भैया तोते को लोग तोता नहीं कहेंगे तो क्या कौआ कहेंगे।

इधर क्रिकेट के नाम पर सिर तुड़वाने वाले, पिचें खोदने वाले, और जंग छेड़ने की धमकी देने वालों के लिए एक और मुसीबत हो गई है। कोई ज्ञानी भाई मुझे समझाए कि आखिर ये गड़बड़ है क्या? आपने बोलियां लगा कर, सट्टे लगा कर एक खेल का आयोजन किया, उसमें अगर किसी खिलाड़ी ने अपने निश्चित टेलेंट पर कुछ पैसा कमा लिया तो भाई इसमें गड़बड़ क्या और कैसी है। श्री संत हों चाहे अजहरुद्दीन पैसा कमाने के लिए जो करो सब बढ़िया है, बाज़ार तो यही कहता है, वरना टाटा क्या रिश्वत नहीं देता, टेप्स सबके सामने हैं, अंबानी खानदान क्या बिना रिश्वत के खरबों के वारे-न्यारे कर रहा है, मुकद्मों पर मुकद्में चल रहे हैं। और भैया बाज़ार का तो उसूल ही है, 

अवसर जो हो लपक लो, ना लपको तो भूल
हाथ में आया अर्श पर, फिसल गया तो धूल

अब ये तो बुरी बात है जो लोगों के साथ हो रही है, एक तरफ तो आप बाज़ार को ही विकास का पैमाना बता रहे हो, और दूसरी तरफ बाज़ार के उसूलों पर चलने वालों को आप दोषी मान रहे हो। खेल को पैसे के लिए खेलना आपने शुरु किया, श्रीसंत ने तो सिर्फ उसे थोड़ा और स्पेसिफिक कर दिया। क्या बुरा किया। किसी जमाने में ग्लैडिएटर वाले खेल होते थे जब लोग सरेआम लड़ाकों पर बोलियां लगाते थे, और जो जीतता था वो पैसा कमाता था, क्या वो सही था, अगर हां तो उसमें अगर कोई ग्लैडिएटर अपनी जान की कीमत पर कुछ पैसा अपने लिए कमा ले तो क्या ही गलत है। पिच पर कौन था, श्री संत, बॉल कौन फेंक रहा था, श्री संत, क्या वो ऐसा बिना किसी पैसे के लालच में कर रहा था, नही, क्या पूरी टीम का कोई भी खिलाड़ी बिना पैसा लिए खेल रहा था, नहीं, क्या टीम के मालिक या संयोजक इस खेल से कोई पैसा नहीं कमा रहे थे, जरूर कमा रहे थे, क्या ये जुआ नहीं है, है। तो फिर गलत क्या किया श्री संत ने। सिर्फ यही कि इस जुए में आपको शामिल नहीं किया, जुए की इस कमाई में उपर वाले लोगों को शामिल नहीं किया। हालांकि क्रिकेट जैसे वाहियात खेल के लिए इस तरह गंभीर बात करना भी बेकार ही है लेकिन जुए के इस खेल में जुआ खेलने वाले को जब दोषी माना जाए, आरोपी माना जाए तो मैं भी मर्माहत होता हूं इसलिए इतना लिखना पड़ा, वरना मेरे हिसाब से तो ये सारा मामला ही ऐसा है जैसे कोई बात करे कि गधा रेंक रहा था इसलिए वो आरोपी है, उसने पाप किया है।

सोमवार, 13 मई 2013

कपिल की मुकरियां - १



कपिल की मुकरियां 

१ 
जो मन आये वो कह जाये 
छवि में मंद मंद मुस्काए 
डांट सुने बन बिल्ली भीगी 
क्या सखी साजन न सखी दिग्गी 


२ 
मौन रहे या बोले हल्का 
दिल का घुन्ना, भोला शकल का 
संत भाव से करता शोषण 
क्या सखी साजन ना मनमोहन 


३ 
तन का उजला मन का काला 
मुस्काते मन को हर डाला 
माँ रोये हो जाता व्याकुल 
क्या सखी साजन न सखी राहुल 


४ 
हाथ हथेली  के गुण गावे 
उलटी सीधी बात सुनावे 
तन से भारी, ज़ेहन से खुक्कल 
क्या सखी साजन न सखी सिब्बल 


५ 
नयन खुमारी, अंटा दाबे 
ऊंघते सोते काज चलावे 
मन है व्यसनी देह कुंवारी 
क्या सखी साजन, न अटल बिहारी 


६ 
नाम देव का, काम पशु का 
लहू से राज की फसल सींचता 
मासूमो की कब्रें खोदी 
क्या सखी साजन, ना सखी मोदी 


७ 
पल में सज्जन, पल में गुंडा
हाथ चलाकी लुंडम लुंडा 
जहर डुबोकर बोले बानी 
क्या सखी साजन, ना अडवाणी 
 
८ 
लूटमार करता सहकारी 
खुद को कहता नेता भारी 
मोटा जैसे भैंस चरी 
क्या सखी साजन, ना गडकरी 

१० 
करे कुशासन कहे सुशासन 
झूठ भरे सब देवे भासन 
लगे तीन कहता है तीस 
क्या सखी साजन, नहीं नितीश 
११ 

जुल्फ उड़ा रह रह मुस्काता 
बिन बोले भी रह नहीं पाता 
सब कहें चुप वो बोले ज़रूर 
क्या सखी साजन न सखी थरूर 
१२ 
वोट का मुस्लिम, वोट का हिन्दू
बाकी उल्टे चाँद का बिंदु 
रक्खे गुंडागर्दी कायम 
क्या सखी साजन नहीं मुलायम 
१३
पहले खुद और बाद समाज 
ऐसे लाता समाजबाद 
जोड़ तोड़ सत्ता पर कायम 
क्या सखी साजन नहीं मुलायम 

१४

चारा चोर और बेहद घाघ 
अपनी ढफली अपना राग 
दिखे जोकर पर बहुत है चालू 
क्या सखी साजन ना सखी लालू 

१५

धुर उजले वो पहने वसन
धन क्रीडा में रत तन मन 
पैसे वालों का मन भावन 
क्या सखी साजन न पलनिअप्पम (चिदंबरम)

१६ 

जिसको चाहे उसको मारे 
सी एम् पी एम् डर से कांपें 
नकली मंत्री असली गुंडा 
क्या सखी साजन नहीं राजा कुंडा 

 १७

अमरीकी वो बीन बजाय 
लाखों का पैखाना जाए 
खर्च के अरबों गिनता एक 
 क्या सखी साजन नहीं मोंटेक 
 १८ 
झूठ कहे बेशर्मी साधे 
दब के भकोसे, दब दे पादे 
अपनी धुन में रहे मगन 
क्या सखी साजन न सखी रमन 

१९
उजले कपडे, दिल है खोटा 
चम्पू जुल्फ़ें, चश्मा मोटा 
ठगी के खेल का महारथी 
क्या सखी साजन नहीं सखी पी. 

२० 
अँधा हो रेवड़ियाँ बांटे 
बेटा बेटी मस्ती काटें 
चाल चले उलटी सीधी 
क्या सखी साजन नहीं करूणानिधि 

२१  

कुछ न देखे कुछ न दिखावे 
खुद न चले पर राज चलावे 
करे राज जाने किस विधि 
क्या सखी साजन नहीं करूणानिधि 


२२  
बिना हाड़ की जीभ हिलाए
सब कर्मन को शुद्ध बताए
आका खुश जनता बेचारी
क्या सखी साजन ना मनीष तिवारी
२३ 

बिना ज़रुरत बड़ की हांके 
काम होय तो बगलें झांके 
वो ना आवे किसी के काम 
क्या सखी साजन नहीं जयराम 
२४ 
आँखों में से धूर्तता झांके 
हरदम इधर उधर की हांके 
कोई ना लागे उसके साथ 
क्या सखी साजन नहीं राजनाथ 

२५ 
तन बुद्धा मन बिल्कुल शुद्धा
पद पूजक, पावक ओ प्रबुद्धा
जब तब मन हो जावे चंचल
क्या सखी साजन ना सखी बंसल

मंगलवार, 7 मई 2013

हवन्ता



हवन्ता


”तेरे जैसे बेटे से तो मैं निपूती ही अच्छी थी.......” घर से निकलते हुए उसकी मां ने उससे यही कहा था, खत्ते के पीछे वाली आधी दीवार के साथ लगा पेड़ की छाया में बैठा हुआ वो सोच रहा था, आखिर कौन मां ऐसा कह सकती है। लेकिन सही भी है वो कोई उसकी अपनी मां तो थी नहीं, और सौतेली तो सौतेली ही होती है। वो तो चाहेगी ही की मैं मर जाउं......”साल्ल्ला......” उसके मुहं से गाली निकलने वाली थी लेकिन जाने क्या सोच कर उसने खुद का रोक लिया, एक पल के लिए हाथ में पकड़ी सिगरेट को देखा और फिर टोटे को वहीं फेंक कर मसल दिया। वो सड़क के दूसरी तरफ को चल दिया, वहां उसके दोस्त उसका इंतजार कर रहे थे। खाने-खर्चे के लिए उसके अपनी मां की जरूरत नहीं थी, वो खुद ही इतने धंधे कर रहा था कि अगर चाहता तो अपनी मां को, उसके बेकार भाई को खुद भी पाल सकता था, पता नहीं वो वहां रह क्यों रहा था। शायद उसे लगता था कि उसके बाप की जायदाद में उसका भी कुछ हिस्सा था, या शायद उसे लगता था कि उसे अभी वो जगह नहीं छोड़नी चाहिए थी। 

वो 5 साल का था जब उसकी अपनी मां गुज़री थी, उसे तो बहुत कुछ याद भी नहीं है, बसे आते-जाते कुछ रिश्तेदार, या पड़ोसी उसे कभी-कभी याद दिला देते थे कि उसकी मां बहुत संुदर थी, उसे और उसकी बहन को बहुत प्यार करती थी, वगैरह-वगैरह.......उसने इन बातों में कोई खास दिलचस्पी नहीं ली थी, करना भी क्या था, एक बाप था जिसके पास उसके लिए कोई समय नहीं था, और इसकी उसे कोई परवाह भी नहीं थी, एक बहन थी जो अपने यानी घर के कामों में और अपने स्कूल वगैरह में ही इतनी उलझी रहती थी कि उससे मुलाकात ही या तो खाने के वक्त या तब जब वो घर पर ही होता था और वो स्कूल से आती थी, होती थी, बाकी समय वो या तो मां वाले कमरे में होती थी या फिर रसोई में कुछ ना कुछ करती रहती थी। 

उसके पिता ने दूसरी शादी तब की थी जब वो 7 साल का था, उसके रिश्तेदारों ने उसके खूब कान भरे थे, ”तेरी नई मां आएगी तो सबसे पहले तुझे घर से निकालेगी......” उसके दोस्त ने कहा, ”क्यों.....” ”मेरी मां कहती है....” या ”अब तू स्कूल थोड़े ही जाएगा......घर पर रहकर बरतन मांजेगा....” ”..........” ”सौतेली मां.......बच्चों को स्कूल थोड़े ही जाने देती है.....” ”........” वो रातों को सोता था तो उसे डर लगता था कि आखिर नई मां, या सौतेली मां उसके साथ क्या करेगी। लेकिन जब नई मां आई तो उसने ऐसा कुछ नहीं किया, ना तो उससे बरतन मंजवाए, ना उसका स्कूल छुड़वाया, ना ही बेवजह की मारपीट.......बस डांटती थोड़ा ज्यादा थी। पिता को अपने काम से ही फुरसत नहीं थी, उसे स्कूल से आने के बाद घर से बाहर जाने की इजाज़त नहीं थी, घर में रहो, स्कूल का काम करो, थोड़ा देर सो जाओ, फिर स्कूल का काम करो, फिर घर में ही थोड़ा खेल सकते हो, फिर खाना खाओ और सो जाओ, बहन बहुत छोटी थी, उसे तो पता भी नहीं था कि उसकी नई मां है, और उसे कुछ पता ही नहीं चला कि कब उसकी जिंदगी ऐसे ढल गई है जैसे उसकी नई मां चाहती थी। 

जब वो 21 साल का था तब उसके पिता का भी देहांत हो गया, पिता बीमार रहते थे, हमेशा, जब से उसने होश संभाला अपने पिता को बीमार ही देखा था, किसी प्राइवेट फर्म में काम करते थे, ठीक-ठाक तनख्वाह थी, लेकिन हमेशा बीमार रहते थे, हर रोज़ सुबह-शाम उसकी नई मां और पिता में परहेज़ और दवा को लेकर चख होती थी, मां उन्हे कुछ खास खाने के लिए मना रही होती थी या मना कर रही होती थी, और उसके पिता कुछ खाने की जिद कर रहे होते थे या कुछ ना खाने की ज़िद पर अड़े होते थे। लेकिन उसका इस सबसे कोई मतलब नहीं था। जब उसके पिता पहली बार अस्पताल में भर्ती हुए तो उनके ऑफिस ने सारा खर्चा उठाया था, दूसरी बार अस्पताल जाने के बाद पिता को रिटायर कर दिया गया, हालांकि किसी वजह से उनकी तनख्वाह ठीक समय पर उन्हे मिलती रही। उसके पिता ने भी कई जगहों पर पैसा लगा रखा था, इसलिए गरीबी नहीं झेलनी पड़ी, तब भी नहीं जब पिता का देहांत हुआ और ऑफिस से तनख्वाह आना बंद हो गया। 

रुपये-पैसे के मामले में नई मां बहुत समझदार थी, कर्मखर्च थी और सादगी से रहने वाली थी, इसीलिए उसके कॉलेज के आखिरी दिनों में भी उसकी कॉलेज की फीस बिना किसी दिक्कत के भर दी गई थी, कॉलेज के बाद उसका आगे पढ़ाई करने का मन ही नहीं था वरना वो जानता था कि उसे कम से कम पैसे की वजह से कहीं भी दिक्कत नहीं आने वाली थी। वो जानता था कि उसके कंधों पर परिवार की कोई जिम्मेदारी नहीं आने वाली, इसीलिए वो इस तरफ से काफी निश्चिंत था। अपने लिए वो कभी ना कभी किसी ना किसी काम में उलझा रहता था, कभी किसी के लिए ड्राइविंग कर लेता था, तो कभी किसी का कोई कम्प्यूटर जैसा कोई काम कर देता था, कभी ज्यादा ज़रूरत हो तो ऑटो चला लिया, या फिर किसी की शादी में जाकर फोटोग्राफी कर ली, कभी कहीं ट्रांसलेशन का काम कर लिया तो कभी किसी दुकान पर कुछ दिन सेल्समैन बन गया, गर्ज़े कि उसके पास काम की कमी नहीं थी, सिर्फ एक ही बात थी कि वो कहीं टिकता नहीं था, टिकता इसलिए नहीं था, कि उसके दिल को कहीं तसल्ली नहीं मिलती थी। काम ऑफिस का हो तो उसे लगता था कि उसकी कदर नहीं हो रही है और उसे पैसे कम मिल रहे हैं, काम फील्ड का हो तो उसे लगता था कि उसे कम पैसे मिल रहे हैं, और वो काम ज्यादा कर रहा है। लेकिन जिं़दगी तो खैर जैसे-तैसे करके कट रही थी। 

फिर एक दिन उसके दोस्त ने उसे कहा कि किसी को ड्राइवर की जरूरत है, वो खाली था और दो ही दिन पहले उसने मनोज से कहा था कि अगर वो चाहे तो उसकी दुकान पर कैमरा संभालने के लिए आ सकता है, फोटोग्राफी में उसका हाथ साफ था इसलिए अक्सर उसे काम मिल जाया करता था, लेकिन मनोज की दुकान पर संतोष लगा हुआ था इसलिए उम्मीद उसे कम ही थी, इसलिए उसने ड्राइविंग की नौकरी के लिए हां कर दी। जब वो नौकरी के लिए डिफेंस कॉलोनी गया तो उसके दिमाग में एक ही ख्याल था कि अगर उसे मना कर दिया गया तो वो नरेन्दर से ऑटो लेकर रात की शिफ्ट में चलाने लगेगा। वो जिस कोठी पर पहुंचा वहां दरबान का कोटरा बना हुआ था, दिल्ली की पॉश कॉलोनियों में हर कोठी के बाहर दरबान के लिए छोटा सा कोटरा बनाया जाता है, जिसमें पंखा, कूलर, फोन जैसे सामान होते हैं, और अगर कोठीवाले ज्यादा अमीर हों तो ये कोटरा पक्का भी होता है और उसमें ए सी भी लगा होता है। ये ऐसा ही कोटरा था जिसमें ए सी लगा था, खिड़की जैसी जगह थी, जिस पर काला शीशा लगा था, पहले तो उसे लगा कि सबकुछ बंद है, वो इधर-उधर तांक-झांक करने लगा, फिर अचानक वो खिड़की खुली और उसमें से एक सिर बाहर निकला, ”हां भई.....” ”वो......ड्राइवर के लिए बुलाया था मेरे को.....” ”नाम.....?” उसने नाम बताया, सिर वापस अंदर घुस गया, थोड़ी देर बाद साइड में से एक आदमी निकला और आगे जाकर दरवाजा खोल दिया। ”सीधे जाकर दांये मुड़ जइयो, वहीं कोई मिल जाएगा......” वो अंदर घुसा तो पीछे दरवाजा बंद हो गया.....” थोडा़ आगे चला तो एक अधेड़ महिला उसकी तरफ आती मिली......”ड्राइवर के लिए......?” उसने इस्बात में सिर हिलाया, महिला ने उसे अपने पीछे आने का इशारा किया....ड्राइंगरूम में एक आदमी बैठा था, उसके बैठने का अंदाज ही ऐसा था जैसे किसी बात का बेसब्री से इंतजार कर रहा हो, सीट गर्म हो वो बस उठकर भागने वाला हो। वो आकर खड़ा हुआ तो आदमी ने उसे सिर उठा कर देखा।
”......ड्राइविंग के लिए”
”जी....”
”हमममम....”
” सुभाष ने भेजा है ना.....”
”जी....”
”ठीक है.....उसने सब समझा दिया है ना........”
”जी....?” सुभाष ने उसे यहां का पता दिया था और बताया था कि उसे इसी आदमी से यानी इंदरजीत से बात करनी होगी जो एक तरह से यहां का मैनेजेर था, मैडम और सर की आवाजाही का, खाने में पसंद-नापसंदगी का, घर के राशन-पानी की खरीद जैसी चीजों का ध्यान रखता था। लेकिन इसके अलावा तो उसने कुछ नहीं बताया था, ये तक नहीं कहा था कि उसे सैलरी कितनी मिलेगी, उसी ने सोचा था कि अगर किसी कोठी में ड्राइविंग की जॉब होगी तो 6-7 हजार से कम तो क्या ही मिलेगा।
”अरे भई कुछ तो बताया होगा....”
”उसने तो बस ये कहा था कि जाकर इंदर भैया से मिल लेना....”
”अच्छा....” उसने कुछ देर सोचा फिर कहा।
”देखो....तुम्हे मिलेंगे 90000 रुपये महीना, और खाना, कभी-कभी यहीं सोना पड़ेगा, पीछे कमरा है जिसमे सभी ड्राइवर सोते हैं, ठीक है, तुमको ज्यादातर सोना बेबी के साथ रहना होगा, वो कॉलेज जाती हैं, फिर क्लब जाती हैं और अपने दोस्तों के साथ डिस्को-विस्को जाती हैं, ठीक है.....”
”जी....”
”सुबह ठीक आठ बजे यहां पहुंच जाना, वरना मैडम नाराज़ हो जाएगी, ठीक है?”
”जी....” अगर उसका तकिया कलाम ’ ठीक है ’ है तो उसे ’ जी ’ को अपना तकिया कलाम बनाना ही पड़ेगा, उसने सोचा।
वो थोड़ा सा आगे की तरफ झुक गया, और धीरे से बोला, ”सुभाष को तुझे बता देना चाहिए था, हर महीने 1500 रुपये मुझे देने होंगे....” वो सीधा होकर उसे घूरने लगा.....वो एकबारगी चौंका, लेकिन फिर बिना झिझक हां में सिर हिला दिया। क्या ही बुरा था वो तो वैसे ही 6-7 हजार की बात सोच रहा था, 9000 में 1500 उसे दे भी दिए तो 7500 तो महीना बनेगा ही, बाकी खाना यहीं खाना है तो क्या बुरा है।
”तो ठीक है, पीछे की तरफ गैराज है वहां से हांेडा सिटी निकाल ला, 9780 गाड़ी का नंबर है, याद रखियो, बाहर निकाल कर ला, तुझे गेट पर मिलता हूं.....गैराज में भूप सिंह होगा, मेरा नाम ले दियो....ठीक है।”
”जी....” उसने कहा और वहां से चल दिया, बड़ी गाड़ियां उसने खूब चलाई थीं, उसे ना गाड़ी निकालने में कोई प्राब्लम हुई ना उसे लेकर घुमाने में, कार में बैठते ही इंदर की जबान चलने लगी थी, मैडम किस बात पर नाराज़ हो जाती हैं, किस बात से खुश रहती हैं, उसे क्या करना चाहिए, सोना बेबी की क्या आदते हैं, कार किस स्पीड पर चलानी चाहिए, और लाख बातों की एक बात, मैडम इंदर पर बहुत भरोसा करती हैं, तो कोई भी बात हो इंदर को जरूर पता लगनी चाहिए। तनख्वाह के 1500 के अलावा, कोई बोनस, या ईनाम मिलेगा तो इंदर का उसमें आधा हिस्सा होगा। उसे इंदर की किसी बात से कोई ऐतराज नहीं था, अगर उसे वहीं काम करना था और इंदर मैनेजर था तो उसे उसकी हर बात माननी ही थी। वो कार वापस कोठी ले आया और गैराज में कार खड़ी करके वापस घर चला आया। 

घर में घुसा तो देखा मामा खाना खा रहा था और मां मामा से बतिया रही थी और उसे लगातार कुछ ना कुछ परोस रही थी। पिता के मरने के बाद यही एक बदलाव हुआ था घर में, मामा घर में आ बसा था, उसे अपना मामा पसंद नहीं था, बेकार, नाकारा और वाहियात, गुटखा खाता था और अपनी लाल आंखो को नीचे करके देखता था। हालांकि उसका मामा शादीशुदा था और 5 बच्चों का बाप था, लेकिन करता-धरता कुछ नहीं था, मां के मायके का इकलौता लड़का था इसलिए उसकी मां और बहनो ने उसे सिर पर चढ़ाया हुआ था, पिता के टाइम पर पिता ने मामा को दो बार नौकरी पर भी लगाया था, लेकिन दोनो ही बार मामा कोई ना कोई बहाना करके नौकरी छोड़ चुका था। खेत से आने वाले नगद और अनाज से उसका घरबार चलता था, लेकिन वो ज्यादातर अपनी बहनो के घर ही रहता था। मां उसका बहुत ख्याल रखती थी। पिता के सामने वो कम ही घर आता था और आता था तो एक-दो हफ्ता रहकर चला जाता था। लेकिन पिता की मौत के बाद उसका आना बढ़ गया था। पहले दो-तीन हफ्ते से समय बढ़ा फिर वो एक-दो महीने तक रुकने लगा और अब तो ऐसा लगता था जैसे वो वहीं रहता हो। हालांकि उसे मामा से कोई प्राब्लम नहीं थी, होती भी क्यों, वो अपने कमरे में मस्त रहता था और मामा से उसका साबिका ही नहीं पड़ता था। वो कमरे में घुसा बैठा और फिर उठकर किचन में चला गया, शायद उसके लिए भी खाना रखा हो, लेकिन किचन में खाना नहीं था, उसने फ्रिज खोलकर पानी निकाला और पीकर बोतल भरकर वापस रख दिया। थोड़ी देर जेब में हाथ डाले वो किचन में ही खड़ा रहा फिर अपने कमरे में जाकर सो गया।

शाम को उठा तो उसे बहुत तेज़ भूख लगी थी, मां से कुछ कहना ही बेकार था, वो उठकर बाहर चला गया और चायवाले के पास जाकर उसने दो अंडो का आमलेट और ब्रेड खाई और दो गिलास चाय पी, फिर कुछ देर अपने दोस्तों के साथ बैठ कर गपशप की और वापस घर आ गया। उसके कमरे में आने के कुछ ही देर बाद उसकी बहन उसके लिए खाना ले आई, उसने चुपचाप खाना ले लिया, खाया और फिर थाली रखने किचन में गया। 
”पूरे दिन कहां धक्के खाते हो भई.....” मामा किचन में ही था, फ्रिज में से कुछ निकाल रहा था।
पहले तो उसने सोचा कि सही से जवाब दे दे, फिर जाने क्यों उसने कहा, ”अपने काम से काम रखो.....”
तब तक मां भी किचन में आ गई थी, ”क्यों तेरे काम से काम क्यों न रखें.....इस घर में ये आवारागर्दी नहीं चलेगी.....”
दोपहर को किचन में खाना नहीं था, जबकि मामा कमरे में बैठकर खाना खा रहा था, उसका वही गुस्सा फूट पड़ा।
”.....ये घर किसी के बाप का नहीं है.....मेरे बाप का है....”
”तेरे बाप का है तो क्या तू अपनी आवारागर्दी करेगा......”
”जो मन चाहे वो करूंगा.....कम से कम किसी के टुकड़ों पर तो नहीं पलता....”
”मेरे से ऐसी बात करेगा ना तो.....”
वो एक झटके से किचन से बाहर चला गया, जाते हुए उसने देखा कि उसकी बहन कमरे में खाली बर्तन उठा रही थी। उसने अपनी बहन को देखा और फिर बाहर निकल गया, अब वो काफी देर बाद वापस आएगा। तब तक सब सो चुके होंगे।

इसके दूसरे दिन से ही उसने कोठी में अपनी नौकरी शुरु कर दी। सोना बेबी को कॉलेज लेकर जाना, फिर कॉलेज के बाहर इंतजार करना। उसे मोबाइल भी दिया गया था, इसलिए कभी-कभी मैडम उसे वापस बुला लेती थीं, तो उसे मैडम को लेकर दिल्ली की सभी महंगी मार्केटों में जाना होता था, या फिर बड़े होटलों में या किसी और पॉश कॉलोनी में मैडम की किसी दोस्त के घर। सोना बेबी अपने दोस्तों को अपनी कार में घुमाने ले जाती थीं, या फिर शाम को डिस्कोथेक ले जाती थीं। पर ऐसा बहुत कम होता था, अक्सर शाम को 5 से 6 बजे तक उसकी छुट्टी हो जाती थी। घर वालों को पता नहीं था कि वो कहां और क्या काम कर रहा था। उसकी एक वजह ये थी कि वो घरवालों से बात ही नहीं करता था। सुबह काम पर जाना और शाम को घर आना, बीच में कार में पूरी दिल्ली का चक्कर लगाना। इस सबके बीच में उसके पास खूब खाली टाइम होता था। सोना बेबी को कॉलेज ले जाने के बाद वो कॉलेज के बाहर गाड़ी लगाकर गाड़ी में ही रहता था, ऐसे में वो बुरी तरह बोर हो जाता था, इसलिए उसने अपनी पुरानी हॉबी को फिर से पकड़ लिया, उसे पढ़ने का शौक था, तो वो किताबें लाने लगा और खाली समय में पढ़ने लगा। उसने हिन्दी के अलावा, इंग्लिश के कई लेखकों को पढ़ा था, पढ़ना उसे इसलिए भी अच्छा लगता था कि किताबें उसे किसी और दुनिया में ले जाती थीं।

ऐसे ही एक दिन वो कॉलेज के बाहर कार में बैठा हुआ एक किताब पढ़ रहा था, कि सोना बेबी आ गईं, आज वो अकेली थीं, कार के शीशे पर ठक-ठक हुई तो उसने नज़र उठा कर देखा, चौंक कर किताब को सीट पर ही रख दिया और थोड़ा सीधा हो गया, फिर पीछे मुड़कर कार को अनलॉक किया और इंतजार करने लगा। अमूमल ऐसे में सोना बेबी पीछे बैठती थीं और फिर उसे आदेश देती थी कि कहां जाना है। सोना बेबी बैठी तो पूछा, ”क्या पढ़ रहे थे....” 
”कुछ नहीं.....यूं ही.....” सीट पर पितरों के हाड़ पड़ी थी।
”ज़रा दिखाओ तो....” उसने किताब उठा कर पीछे दे दी। 
”कैसी किताब है ये......पितरों के हाड़.....ये क्या नाम हुआ....”
”ये असम के बहुत ही फेमस ऑथर की किताब का हिंदी ट्रांसलेशन है। कहां जाना है।”
”ओ.... अम् घर चलो....”थेाड़ी देर चुप्पी रही और पीछे से किताब के पन्ने पलटने की आवाज़ आती रही।
”तुम ऐसी किताबें पढ़ते हो...”
”जैसी मिल जाएं.....”
”तो हू इज़ योर फेवरेट ऑथर.....”
”मुझे बहुत सारे ऑथर पसंद हैं.....कोई एक फेवरेट नहीं है”
”तो भी कोई तो सबसे ज्यादा पसंद होगा.....”
”हां.........मंटो है, परसाई है, ब्रेख्त है, चेखव है.....”
”तुम ये सब भी पढ़त हो......”
”हां....क्यों नहीं”
”ओह.....” आवाज़ में थोड़ा आश्चर्य था।
”मैं ग्रेजुएट हूं......पढ़ना मेरा शौक है।”

उस दिन के बाद से सोना बेबी का व्यवहार उसके प्रति बदल गया, पहले वो बिना बोले कार खोल कर बैठ जाती थी और फिर बताती थी कि उसे कहां जाना है, अब वो हैलो, हाय, गुड मॉर्निंग जैसी बातें करने लगी। धीरे-धीरे उनकी बातें बढ़ने लगीं, दोनो एक दूसरे को अपनी पसंदीदा किताबें देने लगे। एक दिन जब सोना बेबी कॉलेज से बाहर आई तो थोड़ा परेशान सी थी, उसने पूछा तो बताया कि कोई असाइनमेंट है जिसे करने के लिए कई किताबें पढ़नी होंगी और समय है नहीं क्योंकि एक दूसरा असाइनमेंट भी तैयार नहीं है। तब उसने मदद के लिए कहा, जब वो कॉलेज में था तो असाइनमेंटस् तैयार करना तो जैसे उसके बाएं हाथ का खेल था। खैर, उसने काम ले लिया और बहुत बढ़िया काम करके वापस भी किया, उसी दिन पहली बार सोना बेबी उसे अपने साथ रेस्टोरेंट में लेकर गईं, लेकिन रेस्टोरेंट में ना ना करते हुए भी बिल उसने ही दिया। यहां उसका रिश्ता सोना बेबी से बदल गया था। सोना का पूरा नाम सुनयना था, जिसे उसके पापा ने सोना कर दिया था और अब घर के सारे लोग उसे सोना बेबी ही कहकर बुलाते थे। पहले तो वो भी उसे सोना बेबी ही पुकारता था लेकिन रिश्ता बदलने पर उसे समझ में आया कि सोना बेबी को सोना नाम से चिढ़ है और वो चाहती थी कि वो उसे सुनयना के नाम से ही बुलाए। 

दोस्तों को ये बात पता चलनी ही थी, चली, कुछ ने उसे दिल से बधाई दी, कुछ ने ऐसे प्रेम की सफलता के किस्से सुनाए, जिसमें कल का ड्राइवर आज कोठी कारों का मालिक था और कुछ ने ऐसे प्रेम की असफलता के किस्से सुनाए जिसमें कल का ड्राइवर आज पागल होकर सड़कों पर दौड़ता फिर रहा था। उसने सभी को सुना, कई दिनों तक सुना, लेकिन उसे कोई फर्क नहीं पड़ता था, उसे अभी सब अच्छा लग रहा था। 

उनका रिश्ता धीरे-धीरे और करीबी होता गया, पहले सुनयना कॉलेज के बाद अपने दोस्तों के साथ घूमने जाती थी, अब उसे साथ घूमने जाने लगी, पहले दोनो कोई बात नहीं करते थे अब उसे लगता था जैसे जमाने भर की बातें वो सुनयना के साथ ही करता था। और सबसे बड़ी बात ये कि अब उसे सुनयना का इंतजार रहता था। हालांकि उसने भविष्य के कोई सपने नहीं बुने थे, उसे बस यही पसंद था कि ऐसा कुछ हो रहा है, उसे सुनयना का साथ अच्छा लगने लगा था, उसे सुनयना सुंदर लगने लगी थी। 

जब कभी वो अकेले में होता था तो बहुत सारे सपने लेता था जिनमें सुनयना उसकी बांहों में होती थी, या ऐसे ही बहुतेरे सपने जो किसी भी जवान आदमी को आ सकते हैं। लेकिन जब भी वो साथ होते थे वो कभी सुनयना को छूने की हिम्मत नहीं करता था, उसके दिल में एक झिझक सी थी, सुनयना से बहुत सारी बातें होती थीं, बहुत प्यारी बातें होती थीं, लेकिन उसने अब तक सुनयना का हाथ तक नहीं पकड़ा था, फिर एक दिन उसने हिम्मत करके सुनयना का हाथ छू लिया, सुनयना मुस्कुरा दी, उसकी हिम्मत थोड़ी बढ़ गई, दिल में हवा जैसी भर गई हो। वो पार्क में टहल रहे थे, उसने सुनयना की गोरी लंबी उंगलियों में अपनी उंगलियां फंसा दीं और चलने लगा।

जिन्दगी किस्से कहानियां नहीं होती, या जिन्दगी किस्से कहानियां ही होती है। अंग्रेजों की एक कहावत है, ”ट्रुथ इज़ स्ट्रेंजर देन फिक्शन” लेकिन सच में सोचा जाए तो फिक्शन आखिर है क्या, वहीं ट्रुथ का एक ऐसा रूप जो हमारी कल्पना में अभी नहीं आया हो। एक दिन वही हुआ, सुनयना और वो एक रेस्टोरेंट में बैठे थे जब किसी ने उन्हे देख लिया, उन दोनो की इन्टीमेसी और कैमिस्ट्री तो दूर से देखते ही पता चलती थी, सो जब उसने सुनयना को घर पहुंचाया तो गैराज के पास ही उसे इंदर मिल गया, इंदर ने उससे कोई खास बात नहीं की, बस उसे बताया कि कल से उसकी नौकरी खत्म है, उसे एक पैकेट दिया जिसमें दो महीने की तनख्वाह, इस महीने अब तक का हिसाब था। बस ऐसे ही नौकरी खतम हो गई। लेकिन नौकरियां खत्म होने से रिश्ते तो खत्म नहीं होते, उसे एक हफ्ता बाद पता चला कि क्या हुआ था। दो दिन तो उसने कोई कोशिश नहीं की, तीसरे दिन जब वो कॉलेज पहुंचा तो उसे पता चला कि सुनयना तो पिछले तीन दिनो से कॉलेज नहीं आ रही है। उसने लगातार कॉलेज जाना शुरु कर दिया, समझदारी ये दिखाई कि वो सामने वाले दरवाजे पर ना जाकर पीछे वाले दरवाजे पर जाता था, उसे सुनयना का फेवरेट स्पॉट पता था और उसकी नज़रे उसे वहीं ढूंढती थीं। छठे दिन उसे सुनयना वहां दिखाई दी तो सुनयना ने उसे एक चिठ्ठी दी। चिठ्ठी में उससे शाम को एक दोस्त के घर मिलने के लिए बुलाया था। 

जब वो मिले तो सुनयना ने ही उसे बताया कि आखिर हुआ क्या था। लेकिन वहीं उसे कुछ ऐसी बातें भी पता चलीं कि अगर उसे नहीं पता चलती तो ही शायद ठीक होता। सुनयना ने उससे पहले कभी ऐसा नहीं कहा था। सुनयना ने उसे कहा कि वो उसके साथ कहीं भी जाने को तैयार है, कहीं भी, किसी भी हालत में रहने को तैयार है। बस वो उस घर से चली जाना चाहती है। उसकी समझ में सुनयना की बातें नहीं आ रहीं थीं। वो अपने मां-बाप की इकलौती बेटी थी, अमीर मां-बाप की अमीर इकलौती बेटी। उसने सुनयना को समझाने की बहुत कोशिश की, लेकिन सुनयना की बस यही ज़िद थी कि वो उसे कहीं ले जाए। और फिर सुनयना रोने लगी.....उसने सुनयना से दूसरे दिन मिलने का वादा किया। उस रात वो बहुत परेशान रहा, आखिर वो क्या करे, क्या वो सुनयना को लेकर चला जाए। उसे अपने घर की चिंता नहीं थी। उसे ये चिंता भी नहीं थी कि वो करेगा क्या, करने को बहुत काम थे, और उसे कोई भी काम करने में एतराज़ नहीं था। लेकिन सुनयना बड़े बाप की बेटी थी, जिन्दगी अक्षय कुमार और रवीना टंडन की फिल्म नहीं थी, जो किसी घटना के बीच में खत्म हो जाए, फिर उसके अमीर मां-बाप की पुलिस में जान-पहचान भी हो सकती है। लेकिन अगर वो सुनयना से शादी कर ले तो.......अगर वो......उसे याद आया कि अलवर में उसके दोस्त थे जिन्होने उसे बताया था कि अगर अंटी में नावा हो तो रजिस्टर में बहुत पहले की तारीख में भी नाम लिखा जा सकता है। कल........

दूसरे दिन वो सुनयना के कॉलेज पहुंचा तो उसने फैसला कर लिया था। वो सुनयना को लेकर बस अड्डा आ गया। उन दोनो ने बस पकड़ी और वो अलवर पहुंच गए। रास्ते भर दोनो बहुत टेंस रहे थे, ना आपस में कोई खास बात की थी और ना ही ऐसी कोई व्यग्रता दिखाई थी जो अक्सर घर से भागने वाले प्रेमियों में पाई जाती है। उसने अपनी तरफ से सुनयना को आशवस्त करने के लिए उसके कंधे पर एक दो बार हाथ रखने की कोशिश की तो, लेकिन सुनयना के व्यवहार से उसे लगा कि उसे ऐसा नहीं करना चाहिए। उसकी जेब में काफी पैसा था, दो महीने की तनख्वाह तो इंदर ने दी ही थी, पिछले 8-10 महीनों में उसने खुद भी कुछ बचाया था। अलवर पहंुच कर उसने होटल ले लिया, ना ज्यादा महंगा ना ज्यादा सस्ता। वो फौरन अपने दोस्तों की खोज में निकल जाना चाहता था, लेकिन सुनयना ने उसे नहीं जाने दिया। उसने बैठ कर सुनयना को अपनी योजना के बारे में बताया, कुल मिलाकर सुनयना तैयार थी, लेकिन फौरन नहीं, वो उससे कुछ बात करना चाहती थी। 

और फिर वो बातें करने लगे, ढेर सारी बातें, सुनयना की बातें, तब उसे पहली बार पता चला कि ”ट्रुथ इज़ वाकई स्ट्रेंजर देन फिक्शन”। सुनयना पंद्रह साल की थी जब उसके पिता ने उसका रेप किया था, और तब से अब तक ये सिलसिला लगातार चल रहा था, पहले तो सुनयना को बहुत अजीब लगा था, उसने कई बार अपनी मां को इस बारे में बताने की कोशिश की थी, लेकिन या तो लड़कियां बता नहीं पातीं, या माएं समझ नहीं पाती, या जाने क्यों ये बातें हो नहीं पातीं, आखिरकार जब वो सत्रह साल की थी तो उसकी मां को इस बारें में पता चल ही गया। होना तो ये चाहिए था कि तब ये सब खत्म हो जाता, लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ, सिर्फ कोई समझौता भर हुआ, और उसके पिता ने उसे रेप करना बंद कर दिया, सिर्फ कुछ दिनों के लिए, फिर जब दोबारा सब शुरु हुआ तो.......वो सुन्न बैठा सुनता रहा, सुनता रहा। ऐसा कैसे हो सकता है। इतना अमीर घर, इतने सम्पन्न लोग, इतने सुसंस्कृत, सभ्य दिखने वाले लोग। वो दोनो पूरी रात नहीं सोए, सुनयना रोती रही और बात करती रही, वो आसंू दबाए रहा और सुनता रहा। 

बड़े लोग ऐसे ही बड़े नहीं होते, दूसरे दिन सुबह-सुबह सात बजे ही उसके दरवाजे पर दस्तक हुई, उसने ये सोच कर दरवाजा खोला कि शायद बैरा चाय लाया होगा, लेकिन दरवाजा खुला तो सामने तीन चार पुलिस वाले खड़े थे, सबसे आगे जो पुलिसवाला था उसने सबसे पहले एक झन्नाटेदार झांपड़ उसके मुंह पर दे मारा। उसे लगा जैसे किसी ने उसके दिमाग को मुठ्ठी में भींच दिया हो, उसे खड़े रहना भी भारी लगने लगा था। उसके बाद जो भी हुआ उसे उसकी सिर्फ धुंधली सी याद है। उसे याद है कि उसे गाड़ी में बैठा कर कहीं ले जाया गया था, रास्ते भर उसे पर चारों तरफ से थप्पड़ों, घूंसो की बारिश सी होती रही थी, गालियां पड़ती रही थीं। उसे याद है कि इस सबके दौरान सुनयना उसके साथ नहीं थी, शायद वो अपने घरवालों के साथ थी। फिर उसे याद है कि उसके शहर के बॉर्डर पर उसे उतार दिया गया था, इस हिदायत के साथ कि वो दोबारा सुनयना की तरफ का रुख ना करे, वरना एनकांउटर होने में कोई देर नहीं लगती। उसे याद है कि वो थका-हारा घर पहुंचा था और लुटा-पिटा अपनी चारपाई पर लेट गया था। फिर वो सो गया था।

जब उसकी आंख खुली तो पहले तो उसे समझ ही नहीं आया कि हुआ क्या था, फिर देखा कि उसकी बहन उसके लिए चाय का गिलास लिए खड़ी है। उसकी बहन, उसने बहुत दिनो बाद गौर से अपनी बहन की तरफ देखा। कितनी सुंदर थी, सिर्फ उसे ही पता था कि उसे चाय गिलास में पीना अच्छा लगता है, उसे बैंगन और मूली की सब्जी अच्छी नहीं लगती और वो खुद सफाई नहीं करता लेकिन सफाई पसंद है। उसकी बहन जिससे उसकी कई सालों से बात नहीं हुई थी, क्योंकि वो अपनी जिंदगी में इतना मसरूफ था कि उसे पता हीं नहीं था कि वो भी है। और जाने क्यों वो रो पड़ा, फफक-फफक कर रो पड़ा। उसकी बहन ने उसे संभाला, चाया का गिलास एक तरफ रखा और उसे संभाला।

उसने अपनी बहन को सबकुछ बात दिया, सबकुछ। वो उम्र में उससे छोटी थी, लेकिन आज वो सबकुछ बता देना चाहता था, उसने कोई बात नहीं छोड़ी। वो क्या करे, क्या करे। क्या किसी लड़की को ऐसे ही हालात के सहारे छोड़ देना चाहिए, उसने आज तक अपनी बहन से ऐसे सवाल नहीं किए थे। एक लड़की होने के नाते वो क्या सोचती है, क्या उसे सुनयना के घरवालों से लड़ना चाहिए, क्या उसे उसके ही हाल पर छोड़ देना चाहिए। क्या उसे लगता है कि ऐसा हो सकता है, या सुनयना ने उसे उल्लू बनाया है, आखिर वो क्या करे, क्या करे। 

उसने अपना सिर उठाया तो देखा कि उसकी बहन उसे घूर रही है, अजीब नज़रों से देख रही है। ”क्या ऐसा होता है?” उसने फिर पूछा। बहन उसे घूरती रही, तभी नीचे से उसकी बहन को पुकारते हुए मामा की आवाज़ आई और पहली बार उसे अपनी बहन की आंखों मंे सुनयना दिखाई दी।

महामानव-डोलांड और पुतिन का तेल

 तो भाई दुनिया में बहुत कुछ हो रहा है, लेकिन इन जलकुकड़े, प्रगतिशीलों को महामानव के सिवा और कुछ नहीं दिखाई देता। मुझे तो लगता है कि इसी प्रे...