मंगलवार, 20 जून 2017

किसी जमाने की बात



किसी जमाने की बात बताता हूं। जब भी कोई पुरानी बात करनी हो तो ”किसी जमाने की बात है” कह कर बात शुरु करने से लोगों पर यथोचित प्रभाव पड़ता है। क्योंकि जिस जमाने की बात कही जा रही है, वो ये जमाना नहीं है, ऐसा लोग मान लेते हैं। यूं जब बात मानने मनाने की हो रही हो तो कुछ भी माना जा सकता है। खैर मैं आपको किसी जमाने की बात बता रहा था। तो बात उस जमाने की है जब एक रुपये में पूरा परिवार पूरे महीने खाना खा सकता था, आम आदमी पैट्रोल के बारे में जानता ही नहीं था इसलिए उसके सस्ते या महंगे होने से उसे कोई खास फर्क नहीं पड़ता था। संतरा संतरे के ही सीज़न में मिलता था और आम सिर्फ गर्मियों में पाया जाता था, बोतल वाले रस का आम का रस कहने की कोई हिम्मत भी नहीं कर सकता था। वो जमाना ही कुछ और था, जमना बहती थी, मतलब दिखता था कि बह रही है, उसके पास जाने पर बदबू नहीं आती थी, और जाहिर है इसलिए उसकी सफाई का कोई अभियान या सरकारी कार्यक्रम भी नहीं चलता था, तो उसकी वजह से नेताओं की कमाई भी नहीं होती थी। गंगा काफी साफ थी, हालांकि उसमें पाप धोने तब भी दुनिया भर के लोग जाते थे, लेकिन उसे साफ करने की कसम खाकर कोई साध्वी मरने का प्रण नहीं करती थी। ज़रूरत ही नहीं थी। 
तो जमाना यूं था और जमाने में रहने वाले यूं थे कि सुबह-सुबह उठ जाते थे और पजामा पहने-पहने ही दातून करते हुए टहलने चले जाते थे। ग़ुरबत तब भी थी ही, लेकिन भूख से लोग या तो नहीं मरते थे या फिर बहुत कम लोग मरते थे, यानी लोगों को पेट भर खाने को मिल जाता था। उस वक्त मरने की वजहें दूसरी हुआ करती थीं, हैजा, चेचक या प्लेग, ऐसी बिमारियां थीं जिनसे लोग मर जाया करते थे। हालांकि मरने के लिए इससे छोटी बिमारियां भी काम में लाई जाती थीं, लेकिन उनसे मरने वाले लोगों की तादाद कम होती थी, और लोगों के मरने की इस कमी में डॉक्टर या दवाइयों का कोई हाथ नहीं होता था, लोग अक्सर इसलिए जिंदा रह जाते थे कि चलो इस बिमारी से इतने मर लिए अब हम अगली बिमारी में मरेंगे, इसमें नहीं। सरकार इन बिमारियों के लिए कुछ करती नहीं थी, एक तो इसलिए कि वो कुछ कर ही नहीं सकती थी, जब तक बिमारी के लिए कुछ करने के हुक्म को विदेश से मंगाया जाता था, तब तक जिनको मरना होता था, वो मर चुके होते थे और जिनको अगली बिमारी का इंतजार करना होता था वो जिंदा होते थे। बिमारी अपना हिसाब-किताब करके खत्म हो चुकी होती थी। 
उसी जमाने में जब चमनलाल ने पहली बार लीलावती को देखा तो उसकी सांस जैसे रुक सी गई। परेशन मत होइए सिर्फ मुहावरा है, सांस रुक सी गई मतलब एक लम्हे के लिए सकते में आ गया बेचारा। सकते की हालत में यूं नहीं कि लीलावती बहुत खूबसूरत थी, बल्कि इसलिए कि उसने इससे पहले कभी किसी लड़की का उघाड़ा कंधा नहीं देखा था, किसी का तो क्या अपनी बीवी का भी नहीं देखा था, जिसके साथ उसकी जोड़ी सीधे भगवान के घर से बन कर आई थी। गौना नहीं हुआ था, कंधा छोड़िए, ठीक से नाक तक नहीं देख पाया था चमनलाल अपनी बहू की। तो जब चमनलाल ने लीलावती का उघाड़ा कंधा देखा तो, जैसा कि मैने बताया, ”उसकी सांस जैसे रुक सी गई”। किसी मनोवैज्ञानिक से पूछिएगा कि ऐसा क्यों हुआ तो वो आपको इसके दर्जनों सही और गलत कारण बता देगा, लेकिन मैं सही बात बताउं तो बात यूं थी कि चमनलाल ने जबसे कोकशास्त्र की एक पैसे वाली किताब पढ़ी थी तभी से वो सम्भोग कैसे करें, पर अंग्रेजी कैसे पढ़ें से ज्यादा ध्यान देने लगे थे। लीलावती के उघाड़े कंधे से उनके कोकशास्त्रीय ज्ञान की सरिता में कलकल थोड़ा ज्यादा जोर से होने लगी थी। आज की ज़बान में बंदा फ्रस्ट्रेटिड था। 
चमनलाल के बाप, उस जमाने में बाप को बाप ही कहा जाता था, ये पापा और डैडी बहुत बाद में शुरु हुआ, वैसे कुछ लोग बाप को बाबूजी जैसे घटिया और बहुउपयोगी सम्बोधन से भी बुलाते थे, लेकिन वैसे लोगों की तादाद कम थी। तो चमनलाल के बाप रौशनलाल सरकारी डाकिया थे और ज्यादा अनुपात में सिफारिश और कम अनुपात में भाग्य की वजह से उसी शहर में पोस्ट ऑफिस में थे, जिसमें रहते थे। वरना डाकियों को तो जंगलों, दूर-दराज के गांवों में डाल दिया जाता था। डाकिया होने की वजह से उन्हे पूरे शहर में चिठ्ठियां पहुंचानी होती थी, और चिठ्ठियां पहुंचाने के लिए उन्हे बड़े साहबों के बंगलों पर भी जाना होता था, जहां कुत्ते और चौकीदार उन्हे दरवाज़े से अंदर तक नहीं घुसने देते थे। उनकी बहुत इच्छा होती थी कि वो उन बंगलों के अंदर तक जाएं, लेकिन ऐसा करने का कोई रास्ता नहीं था। फिर कुछ सालों के बाद, शायद बारह या पंद्रह सालों के बाद उन्होने खुद बंगलों के अंदर जाने की इच्छा छोड़ दी। अब उनकी इच्छा या सपना कह लीजिए, अक्सर बाप लोग अपनी इच्छाओं को अपना सपना कहकर बेटों के गले में डालते हैं। तो चमनलाल के बाप रौशनलाल का सपना ये था कि उनका बेटा यानी चमनलाल, जो कि इकलौता था, बाकी उसके सात भाई और दो बहने हैजा, माता, और अन्य बिमारियों की भेंट चढ़ चुके थे, बड़ी पढ़ाई करे और इसके बाद सरकारी अफसर बने, फिर घूस खाए और फिर इतना बड़ा बंगला बनाए, और फिर वो उसमें बैठें, और फिर कोई डाकिया आए और उनका कुत्ता या चौकीदार उसे अंदर घुसने से रोके। इस पूरे स्वपन प्रकरण में वो सिर्फ एक ही चीज़ पर थोड़ा बहुत असमंजस में थे, कि रोकने वाला चौकीदार हो या कुत्ता। कुत्ता उन्होने आज तक पाला नहीं था, उनका पाला सिर्फ गलियों के आवारा कुत्तों से हुआ था, जो बंगलों पर ही नहीं, बाकी गलियों में भी उनकी जान के दुश्मन थे। लेकिन चौकीदारों से उनका पाला सिर्फ इन बंगलों पर ही पड़ता था, अब वो कुत्तों की फौज खड़ी करके सारे शहर में तो दौड़ा नहीं सकते थे, इसलिए वो जब अपने बेटे चमनलाल के बंगले में होने का सपना लेते थे तो उसमें चौकीदार ही देखते थे, कुत्ता यदा-कदा ही उस सपने में दाखिल होता था। इसीलिए चमनलाल के उपर ये बोझ था कि वो पढ़ाई पूरी करे, जिसके लिए वो दिन-रात लगा रहता था, इसीलिए उसकी शादी होने के बावजूद, उसका गौना नहीं किया गया था, जबकि उसकी उमर के लड़के दो-तीन बच्चों के बाप तक बन चुके थे। खुद चमनलाल के ससुर दो-तीन बार दबाव बना चुके थे, दहेज बढ़ाने का लालच तक दे चुके थे। लेकिन रौशनलाल नही माने। 
और फिर यूं हुआ कि चमनलाल ने लीलावती का उघाड़ा कंधा देख लिया। अब ये बात उस जमाने के भी एक हिस्से की बात है, जिसमें चमनलाल कॉलेज के दूसरे साल की पढ़ाई कर रहा था। अब ये भी भाग्य की बात थी, या पिंडी वाले पीर बाबा की भस्म का चमत्कार था कि चमनलाल पढ़ाई में अच्छा था, जहां ज्यादातर लड़के कॉलेज के हर साल में दो या तीन साल लगाकर पास होते थे, वहीं चमनलाल ने एक साल में एक ही साल की पढ़ाई की और अब पास होने वाला था। ”पिंडी वाले पीर बाबा की भस्म रौशनलाल की मां ने चमनलाल की मां को तब चटाई थी जब चमनलाल पेट में था।” 
अब यहां ये बताना भी लाजिमी है कि आखिर ये नौबत क्योंकर आ गई कि चमनलाल को लीलावती का उघाड़ा कंधा दिखाई दिया, तो जनाब ये जानने के लिए हमें उस जमाने की, उस सुबह के पांच बजे से किस्सा शुरु करना पड़ेगा, जबकि लोग पजामा पहन कर दातून करते हुए टहलने जाते थे। चमनलाल जो पढ़ाई में तेज़ थे, अच्छे बच्चों की अच्छी आदतें भी अपने पास रखते थे, जैसे सुबह उठना, टहलने जाना, चाय ना पीना, बीड़ी ना पीना, आदि आदि। तो सुबह पांच बजे आदत के अनुसार चमनलाल उठे, और बाहर निकल कर लोटे में रखे पानी से कुल्ला किया, इसके बाद दरवाजे के नीम से दातुन तोड़ने के लिए छत पर चले गए। उन्हे आंगन का छोटा नीम पसंद नहीं था, उसमें कड़वाहट थोड़ी कम थी जो कि चमनलाल जी की निगाह में नीम की कमी थी। उनके हिसाब से जिस नीम में कड़वाहट कम होगी उस नीम में तो औषधीय गुण भी कम होंगे, तो ऐसे नीम से दातुन करने का क्या फायदा। इसी कायदे से वो उन मास्टरों को बेकार मानते थे जो अपने शार्गिदों को मारते नहीं थे, जो ना मारे वो मास्टर आखिर क्या पढ़ाएगा। ऐसा उनका मानना था। बस इसीलिए वो दरवाजे वाले बड़े नीम की दातुन करते थे, जिसके लिए छत पर जाना जरूरी होता था क्योंकि उसकी पतली टहनियां थोड़ी उपर की तरफ थीं, और पेड़ पर चढ़ने वाली बदमाशी चमनलाल ने कभी की नहीं थी। 
दूसरी तरफ लीलावती जो लाला भागमल की बेटी थी, या यूं कहें कि जो लाला भगमल की चौथी बेटी थी, उस दिन सोने के लिए छत पर आई थी, क्योंकि घर पर दरसपुर वाले फूफा जी के घरवाले आए हुए थे। जब रिश्तेदार घर पर आएं हों तो घर के कमरों को उनके इस्तेमाल में दे दिया जाता है, ये बात हम सभी को मालूम है, अब शायद ऐसा नहीं होता। अब यूं होता है कि रिश्तेदार या तो आता नहीं, या उसे समय से चलता कर दिया जाता है, ताकि आपको तकलीफ ना हो। पर ये बात उस जमाने की है जब रिश्तेदारों की तीमारदारी के लिए तकलीफ लेना लोग अच्छाई मानते थे। दरसपुर वाले फूफा जी से भागमल जी की बनती थी, और फूफाजी के बारे में ये मशहूर था कि वो बड़े अच्छे-अच्छे रिश्ते लगाते थे, इसलिए चार बेटियों के बाप भागमल जी को फूफा जी के लिए पूरा घर ही दे देना बहुत मामूली सी बात थी। इस वजह से लीलावती उस दिन छत के उपर सो रही, सोने को उसके साथ उसकी तीनो बहने, मां, दादी और घर की नौकरानी रंगीली भी उसके साथ ही सोई थी, लेकिन मामला क्योंकि लीलावती का है, इसलिए यहां सिर्फ उसका जिक्र किया जाएगा। तो लीलावती उपर छत पर सो रही थी। 
रात रसोई निपटाते हुए बहुत देर हो गई थी। अपनी बहनों में सबसे बड़ी होने की वजह से रसोई की आधी-पौनी जिम्मेदारी लीलावती की होती थी, उसकी बहने स्कूलनुमा इमारत में जाती थीं, इसलिए वो रसोई का सारा काम नहीं करती थी, जबकि रंगीली का काम यही था कि वो लीलावती को रसोई का पूरा काम सिखा दे। घर में रिश्तेदार आए हों तो रसोई का काम बढ़ ही जाता है, लीलावती ने सबके खाने के बाद, रसोई का काम निपटाने के बाद, सफाई करने के बाद, साथ में खाना खाया, ये भी उसकी विवाहोपरांत ट्रेनिंग का हिस्सा था, पत्नि को पूरे परिवार के बाद खाना खाना चाहिए। खाना खाने के बाद जब वो और रंगीली अपना बिस्तर लेकर उपर पहुंचे तो उसकी दादी, मां, बहने सो चुकी थीं, उसे भीत के पास जगह मिली जहां उसने अपना गद्दा बिछाया और उस पर पड़ गई। ये बात उस जमाने की है जब लड़कियों को बचपन से ही बता दिया जाता था कि एक उमर में आकर उनका ब्याह हो जाना है, और वहीं रहना है जिस घर जाना है। ये स्त्रीवाद उस समय तक मध्यवर्ग में कम से कम नहीं आया था, और इसलिए लड़कियां हर चीज़ को अपना भाग्य समझ कर खुशी से मान लेती थीं। लीलावती गद्दे पर पड़ते ही सो गई। तीन साढ़े तीन बजे के करीब उसे ठंड लगी तो उसकी नींद खुल गई। उसे लगा कि उसे चादर ले आनी चाहिए थी। दिन गर्मियों और सर्दियों के बीच के थे और शाम तक मौसम खुशगवार रहता था, इससे पहले वो नीचे कमरे में सोती थीं, इसलिए पता नहीं चलता था, उपर सोने में लगा कि ठंड है। थोड़ी देर तो वो दंात दबाए लेटी रहीं, लेकिन ठंड का मामला यूं होता कि एक बार लगना शुरु हो तो फिर वो बढ़ती जाती है, कम नहीं होती। वो बिस्तर पर बैठ गई, नीचे जाने की हिम्मत नहीं हो रही थी, चारों तरफ अंधेरा था, और छिपकली की आवाज़ भी आ रही थी। गली के नीम की पत्तियां हवा से हिल रही थीं और शायद इसी वजह से उसे ठंड भी लग रही थी। कुछ देर तक ऐसे ही बैठे रहने के बाद वो उठ खड़ी हुई और भीत के पास चकर लगाने लगी, दो तीन चक्कर उसने झिझकते हुए काटे, फिर शरीर में थोड़ा गर्मी आई, और हिम्मत भी बढ़ी तो उसने और चक्कर लगाए। पूरब में सूरज निकलते हुए आसमान थोड़ा गंदला हो गया था। शहर की छतों से लाली नहीं दिखती, आमसान गंदला ही दिखता है। लीलावती की मां, दादी, बहने और रंगीली अभी सो ही रही थी, और लीलावती क्योंकि उठ चुकी थी, इसलिए उसे लगा कि उसे अब नीचे चले जाना चाहिए। वो अपना गद्दा उठाने के लिए झुकी तो उसकी कुर्ती पीछे को खिंच रही थी, एक तो वो पूरी रात सोई नहीं थी, दूसरे झुकने पर उसकी लूगड़ी जो उसने सिर पर रखी थी नीचे खिसक गई थी और अब ये कुर्ती पीछे खिंच रही थी। इस सबसे वो बहुत बुरी तरह झुंझलाई और उसने एक हाथ से कुर्ती का सिरा पकड़ कर झटके से नीचे खींचा। कुर्ती को शायद इतना तेज़ी से खींचे जाने की आदत नहीं थी, इसलिए उसके उपरले दो बटन टूट गए, और लीलावती का कंधा उघाड़ा हो गया। 
अब इधर का हाल सुन लीजिए। चमनलाल के बारे में ये आप जान ही चुके हैं कि वो अच्छी आदतों के मालिक थे, और सुबह उठ कर पजामा पहने-पहने दातुन करते हुए टहलने चले जाते थे, और इसलिए अपनी दातुन तोड़ने के लिए छत पर चढ़े थे। नीम की अच्छी सी दातुन तोड़ने के लालच में वो छत की भीत पर चढ़ लिए थे, और नीम की मोटी डाल की छोटी टहनियों के साथ छीना-झपटी कर रहे थे, अलग-अलग कोणों पर पैर जमाते हुए अपनी तरफ से थोड़ा खींच-तान करके सही सी दातुन देख रहे थे, कि उन्हे लीलावती की छत का नज़ारा दिखाई दिया। ना ना, उघाड़ा कंधा उन्होने बाद में देखा, पहले तो उन्हे यही दिखाई दिया कि लीलावती का पूरा जनाना परिवार, छत पर सो रहा है, और खुद लीलावती नहीं सो रही थी। उनकी छत और भागमल जी की छत के बीच एक गली थी, इसलिए ये तो मुमकिन नहीं था कि वो हर चीज़ सही से देख पाएं, तो भी इतना अंदाजा तो कोई भी लगा लेता है कि लीलावती भी वहीं कहीं लेटी थी, जो अब छत पर टहल रही थी। लीलावती, और चाहे जो कुछ भी हो, पर जवान थी, और जवानी में सब सुंदर होते हैं। खुद चमनलाल इसकी जीती-जागती मिसाल थे, अच्छा अगर इस मसल से काम ना चले तो अपने घरों के पुराने फोटो देखने शुरु कर दीजिए, हर कोई अपनी जवानी की फोटो में फिल्म का हीरो या हिरोइन लगता/लगती है। तो लीलावती की जवानी और हालिया हासिल कोकशास्त्रीय मजे के चलते एक बार भगामल जी की छत की तरफ भटकी निगाह, को चमनलाल ने फिर से व्यवस्थित नहीं किया और उनके जनाना की तरफ ही देखते रहे, जिनमें से एक नग जाग रहा था। लीलावती को हालांकि चमनलाल नहीं दिखे थे, वरना वो कम से कम बैठ ही जाती, हो सकता है लेट जाती, या ये भी हो सकता है कि नीचे चली जाती। खैर, उसने चमनलाल को नहीं देखा और चमनलाल थे कि उसे ही घूरे जा रहे थे। तभी वो रजाई उठाने और कुर्ती खींचने वाला वाकिया हुआ था। 
चमनलाल के दिमाग में वो कंधा ऐसे खुब गया जैसे कद्दू में तीर, ”हम दिल में तीर के कायल नहीं हैं” हालांकि कंधा मुलायम और गोल होता है और वो दिमाग में खुब नहीं सकता, लेकिन आप इसे भी मुहावरा समझ कर मान लीजिए। वैसे आप ये भी मान सकते हैं कि उस जमाने में हो सकता है कि ऐसा ही होता हो। जो भी हो, चमनलाल, अपने दिमाग से उस कंधे का ना निकाल पाए, उसके बाद चमनलाल ने जब भी किताब खोली उन्हे वो कंधा ही दिखाई दिया, रात को सपनो में कंधा, सुबह आसमान में कंधा, खाने की थाली में कंधा, नदी के पानी में कंधा, लीलावती का वो कंधा चमनलाल का वजूद बन गया। 
रौशनलाल जी ने उसके बाद पिण्डी वाले पीर बाबा की मन्नत भी पूरी कर दी, और दूसरे पीर-फकीरों को भी दिखाया, यहां तक कि रिश्तेदारों की भलमनसाहत वाली सलाहों को अनदेखा करते हुए डॉक्टर तक को दिखा मारा। लेकिन चमनलाल ना बोले, ना बोले, वो तो फटी-फटी आंखों से सामने ताकते रहे, क्योंकि उनके दिमाग पर कंधा सवार था। किसी ने सलाह दी की गौना करा दो, सब ठीक हो जाएगा। हो सकता है हो भी जाता, सेक्सुअल फ्रस्टेªशन से उपजा पागलपन, सेक्स से हो सकता है ठीक हो जाता। लेकिन समधी जी ने बात की नानी मार दी। बाप थे बेटी के, दुश्मन थोड़े ही थे कि कुएं में डाल देते, साफ मना कर दिया, कहां तो दहेज बढ़ाने पर राजी थे, कहां दहेज ना लेने की शर्त पर भी ना माने। चमनलाल, बाप के सपनो को लात मारते हुए लीलावती के उघाड़े कंधे के सपने लेते रहे, और उनके बाप रोते रहे। 
इधर लीलावती को, जिसकी वजह से एक अच्छा-भला आदमी पागल हो गया था, इस पूरे सीन के बारे में कुछ पता ही नहीं था। ना तो उसने उस दिन चमनलाल का छत पर देखा और ना ही उसे अपने उघाड़े कंधे के बारे में कुछ नाजायज़ लगा था, सही भी है, लड़के लड़कियों के हाथों की उंगलियां छू लेने पर कांप जाते हैं, हो सकता है लड़कियों को लड़कों की छुअन से ऐसा ही होता हो, लेकिन अपने ही हाथ, आंख, नाक मुंह पर तो कोई खुद नहीं मर-मिटता ना? तो अपना उघाड़ा कंधा उसके लिए मामूली बात थी, और वो खुद उसे एक मामूली बात की तरह भूल भी गई थी। फिर उसके दरसपुर वाले फूफा जी ने उसका रिश्ता, दरसपुर के ही गोपीचंद जी के बड़े बेटे निहालचंद के साथ लगा दिया था, जिसे किरासिन का लाइसेंस मिला था, और उसे नई दुकान के लिए पैसे की ज़रूरत थी, जो भागमल जी ने बिना संकोच पूरी कर दी थी। लीलावती अपने मायके में अपनी परिणती प्राप्त कर ससुराल के सपने ले रही थीं, उन्हे ये नहीं पता था कि उनके घर के बहुत ही पास कोई उनके, माफ कीजिएगा, उनके उघाड़े कंधे के सपने ले रहा है। 
फिर एक दिन चमनलाल उसी मुंडेर से गिर कर मर गए जिस पर से वो दातुन तोड़ रहे थे, और जहां उन्होने लीलावती का उघाड़ा कंधा देखा था। अब इसे आप कहानी का चमत्कारिक अंत कह लीजिए, या कोइन्सीडेंस कह लीजिए, जिस समय चमनलाल भागमल जी की छत की तरफ देखते हुए पैर फिसलने की वजह से गिर कर मर रहे थे, ठीक उसी वक्त लीलावती की भांवरे पड़ रही थी। 

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