नाज़
सड़क के दाहिने किनारे पर, कोने में, नगर निगम के बोर्ड से सटे हुए कुछ पत्थर करीने से रखे थे। सुबह 9 बजते ना बजते एक बुढ़िया उन पत्थरों पर अपनी दुकान सजा लेती थी, इस दुकान में कई तरह की अंगूठियां, नगीने, पत्थर और तरह-तरह की चीजें होती थीं। हालंाकि शहर में इस तरह की कई दुकाने अलग-अलग जगहों पर दिखाई दे ही जाती हैं, लेकिन आमतौर पर इस तरह की दुकानदारी अकेले नहीं होती और अक्सर कुछ तीन-चार दुकाने एक साथ लगाई जाती हैं। ये बुढ़िया पिछले कुछ एक महीने से ही यहां आकर बैठने लगी थी, शायद इससे पहले अपने ही जैसे लोगों के साथ दुकान लगाती रही हो। पहरावे और चेहरे-मोहरे से राजस्थानी घूमन्तू लगती थी, लेकिन भाषा से कतई नहीं। शहर में काफी अर्सा रहने का असर हो सकता है। बुढ़िया के सामने बहुत मुश्किल ही कोई गाहक दिखाई देता था, जैसे इस तरह की दुकानदारी अकेले नहीं होती, उसी तरह इस तरह की खरीदारी भी अकेले नहीं होती। आमतौर पर जहां पुराने ऐतिहासिक और मशहूर खण्डहरों के सामने, किसी पुराने और भरे हुए बाज़ार के आस-पास ही इस तरह की दुकाने दिखाई देती हैं और वहीं उन्हे ग्राहक भी मिलते हैं, अब कोई ऑफिस के लिए निकलते हुए, या सब्जी खरीदने जाते हुए तो, सस्ते नगीने, पत्थर या अंगूठियां नहीं खरीदना चाहेगा ना। लेकिन वो बुढ़िया लगातार आती थी, अपनी दुकान सजाती थी, और शाम को सामान को थैले में समेट कर चली जाती थी। कहां से आती थी, कहां चली जाती थी किसी को नहीं पता था। लोग उसे आते देखते थे, बैठे हुए देखते थे, जाते हुए देखते थे। लेकिन शहर की भागदौड़ में वो कुछ इतना दिलचस्प किरदार नहीं थी कि लोग अपनी रोज़मर्रा की जिंदगी से नज़र हटाकर उसकी तरफ देखें।
पुलिस ज्वाइन किए हुए उसे अभी एक ही साल हुआ था, लेकिन उस एक साल में ही उसने काफी कुछ सीख लिया था, किसे प्यार से समझाना है, किसे आंख दिखानी है, किसे गाली दी जा सकती है, और किसे एक आध डंडा भी लगाया जा सकता है, ये सब उसने इतनी फुर्ती से सीखा था कि अब तो उसके सीनियर भी अक्सर उससे सलाह करते थे कि फलां से कितना हिसाब बांधा जाए। उसके परिवार में उसके अलावा कोई पुलिस में नहीं था, पुलिस तो क्या कोई सरकारी नौकर तक नहीं था, पिता किसान थे, मां घरेलू महिला थीं, और भाई परचून की दुकान करता था, वो भी समझ लीजिए कि एक दुघर्टना थी कि वो पुलिस में आ गया था। स्कूल पास करने के बाद भेड़चाल में उसने कॉलेज का फॉर्म भरा, कॉलेज के आखिरी साल में जब पुलिस में कॉन्सटेबल की भरती निकली तो फिर भेड़चाल में ही फॉर्म भर दिया, और उसकी भरती हो गई। आज वो अपना डण्डा घुमाता हुआ शहर की सड़कों पर निकलता था और कल तक जिन शहरियों को विस्मय और ईर्ष्या से देखता था, आज उन्ही से पैसे वसूलता था। रेहड़ी पटरी हो, कोई जवान लड़का गाड़ी चलाता हो, या फिर छोटी-मोटी गुमटी उसका पैसा बंधा हुआ था। ये पैसा पूरे थाने में बंटता था, उपर से लेकर नीचे तक सभी का हिस्सा तय था, और सभी चाहे वो उस इलाके में गश्त करते हों या नहीं, उस पैसे में से बिना किसी हिचकिचाहट के अपना हिस्सा लेते थे। यहां ईमानदारी का मतलब सिर्फ इतना था कि कोई अपने-आप जाकर पैसा नहीं वसूलता था।
जब ये बुढ़िया आकर बैठी थी तो किसी ने भी उसपर ध्यान नहीं दिया था, हर किसी को अपने काम से काम था, लेकिन जब वो वहीं जम गई तो उसका ध्यान बुढ़िया पर गया, ये उसकी गश्त का इलाका था और कोई भी चाहे, धंधा छोटा हो या बड़ा उसका हिस्सा दिए बिना वहां काम नहीं कर सकता था, उसे तो इलाके के भिखारी तक हिस्सा देते थे। पानी वाला, चाय वाला, दूध वाला, अखबार वाला, जूस वाला, सिगरेट-पान वाला, भिखारी गर्चे के हर कोई उसे पैसा देता था, और वो लेता था, फिर ये बुढ़िया क्यों नहीं देगी? वो डण्डा घुमाता हुआ बुढ़िया के पास पहुंचा।
”क्यों....?”
उसने निरर्थक सा सवाल किया। बुढ़िया ने सिर्फ खाली नज़रों से उसकी तरफ देखा, जैसे पूछ रही हो क्या?
”यहां क्यों बैठी है?” उसने आवाज़ में थोड़ी और पुलिसिया ठसक भरते हुए कहा। बुढ़िया फिर भी कुछ नहीं बोली, सिर्फ उसकी तरफ देखती रही।
”चल अपना ताम-तम्बूरा उठा और चल दे यहां से.....” वो कभी भी सीधा महीने की वसूली की बात नहीं करता था, होता यूं था कि जब वो किसी को अपनी जगह छोड़ने के लिए कहता था तो जगह पर बैठने वाला खुद ही खुशामद करते हुए अपनी कीमत तय करता था और थोड़े मोलभाव के बाद वही महीना सेट हो जाता था। उसके बाद का काम आसान था। बस लगी-बंधी तारीख पर वहां पहुंचो और अपना महीना लेकर आगे चलते बनो, ठीक वैसे ही जैसे फिल्मों में गुंडो को हफ्ता वसूलते हुए दिखाते हैं। लेकिन ये बुढ़िया तो उसे खाली नज़रों से घूर सी रही थी, उसने सोचा अगर उसे सामान पर डण्डा जमाओ तो शायद वो कुछ बोले, उसने डण्डा उठाया कि ज़ोर से मारे, लेकिन जब वो सामान को लगा तो ऐसे जैसे सिर्फ छुआ हो, सामान सिर्फ हिलकर रह गया। वो परेशान हो गया।
”अरे कुछ बोलेगी भी.....?” आखिर उसने परेशान होकर बुढ़िया से कहा।
” जी......” बुढ़िया की कंपकंपाती आवाज़ निकली,
”यहां नहीं बैठना.....”
”तो कहां जाउं....”
अब बिना कुछ कहे कुछ नहीं हो सकता था।
”यहां बैठना है तो हर महीने डेढ़ सौ रुपये देने होंगे।”
बुढ़िया सिर्फ उसे घूरती रही।
”क्या समझी.....” बुढ़िया की हर चीज़ उसे परेशान कर रही थी, झुर्रियों वाला चेहरा, लगातार घूरती आंखे, कंपकंपाती आवाज़।
”अरे पुलिस को दिए बिना कोई सड़क पर दुकान नहीं लगा सकता....” उसने बेवजह कहा। कहने के बाद ही उसे लगने लगा कि उसने बेकार ही बुढ़िया को ये कह दिया, ये तो कोई कहने की बात नहीं थी, लेकिन फिर ये कोई राज़ भी तो नहीं था।
बुढ़िया ने अपनी कमर में फंसी हुई लूगड़ी को निकाला, उसमें कुछ मैले-कुचैले, नुचड़े हुए से दो और पांच के नोट थे।
”.....अच्छा-अच्छा रख ले, फिर दे दियो।” बुढ़िया की तरफ बिना नज़र डाले वो वहां से निकल पड़ा। उसके दिल में कुछ अजीब सा हो रहा था, जैसे कोई मुठ्ठी में लेकर दिल भींच रहा हो, उससे सांस नहीं ली जा रही थी, फिर अचानक जैसे सांस का दर खुल गया, और वो कौली भर-भरके सांस लेने लगा। जब दिल भर सांस ले ली तो उसका दिमाग चलने लगा, उसने सोचा कि आखिर ऐसा क्यों हुआ। जब से पुलिस में आया था तबसे उसने ऐसा कुछ नहीं सोचा था। रिश्वत आर पुलिस, नहीं रिश्वत नहीं, हफ्ता वसूली और पुलिस का तो चोली-दामन का साथ है, उसने कभी किसी पर दया नहीं दिखाई थी, दिखाना तो दूर इस बारे में सोचा तक नहीं था, फिर इस बुढ़िया से उसे क्या लेना-देना हो गया था कि उसके सामने जाने से उसका दिल इस कदर बेचैन हो गया था। अब गश्त में उसका मन नहीं लग रहा था, तो वो थाने चल दिया। थाने की इमारत बहुत पुरानी थी, ठंडी रहती थी और अगर वो कोने की अपनी सीट पर बैठ जाए तो कोई उस पर ध्यान भी नहीं देगा। वो थाने चल दिया।
थाने में घुसते ही उसका सामना मधुकर पांडे से हो गया, मधुकर का काम सबसे हफ्ता जमा करके उसे रैंक और डिविजन के हिसाब से बांटना था, इसलिए वो सबको जानता था, नाम से भी और काम से भी। उसके अंदर आते ही मधुकर ने कहा, ” कल दे रहा ह ैना.....”
”क्या...?” उसने जानते हुए भी पूछा।
मधुकर ने दांये हाथ के अंगूठे को तर्जनी के साथ पैसा गिनने के अंदाज में झटका और मुस्कुरा दिया।
” हां हां.....” उसने अनमने भाव से कहा। पूरे इलाके की हफ्ता वसूली हो चुकी थी, पैसा उसके पास ही था। ”रुक....” उसने कहा, ”ये ले....” और अपनी जेब का सारा पैसा निकाल कर मधुकर के हाथ में रख दिया। मधुकर ने पैसे गिने, अपनी उपर वाली जेब से छोटी सी डायरी निकाली उसमें हिसाब लिखा और फिर सिर हिलाता हुआ वहां से चल दिया। कल उसे अपने हिस्से के पैसे मिल जाएंगे। वो टोपी उतार कर धम्म से कुर्सी पर बैठ गया। जाने कब उसकी आंख लग गई।
सपने में उसने देखा कि वो बुढ़िया से पैसे मांग रहा है और बुढ़िया रिरिया रही है, फिर उसने बुढ़िया के सामान पर डण्डे बरसाने शुरु कर दिए, फिर अचानक देखा कि वो सामान पर नहीं बुढ़िया पर डण्डे बरसा रहा था। बुढ़िया रिरिया रही थी, उसकी आंखो से खून बह रहा था, फिर वो खून उसके सिर पर गिर गया, उसके चारों तरफ सस्ते नगीने और अंगूठियों का ढेर लगा था, उपर बुढ़िया थी और उसका खून टपक रहा था, वो नीचे खड़ा हुआ था और बुढ़िया का खून टपक-टपक कर उसकी जीभ पर गिर रहा था। वो चौंक कर जाग गया। उसने इधर-उधर देखा, पास की टेबल पर मधुकर हिसाब बना रहा था, दूसरे कमरे से किसी की पिटाई की आवाज़ आ रही थी, खिड़की से देखा तो एक लड़की इन्सपैक्टर फूल सिंह के सामने खड़ी हुई थी और किसी बात के लिए मिन्नत कर रही थी, फूल सिंह उसे झिड़क रहा था और लेकिन वो लड़की नहीं मान रही थी।
उसने सर झटक कर अपने ख्यालात को एक झटका दिया और कुर्सी से उठकर खड़ा हो गया, अपनी बेल्ट को पकड़ कर उपर खींचा और बाहर की तरफ चल दिया। यूं आमतौर पर पुलिसवालों को थाने में हज़ारों काम होते हैं, उसे भी थे लेकिन, ये सारे काम ऐसे होते हैं कि आज नहीं किए तो कल किए जा सकते हैं, बाहर की टेबल पर प्लास्टिक का वाटर कूलर रखा था, उसने गिलास उठाकर पानी पिया। फिर थोड़ा ज़ोर से उसके ढक्कन पर गिलास रखकर बाहर की तरफ चल पड़ा।
थाने की दीवार के साथ दीपू चायवाला था, पुलिसवाले उससे हफ्ता नहीं लेते थे, सिर्फ इतना था कि कोई पुलिसवाला उसे चाय के पैसे नहीं देता था, अगर कभी देने ही हुए तो शिकायत करने वाला, मामला सुलटाने वाला, या पकड़ ही पैसा देता था। वहां जाकर उसने चाय पी, एक फैन खाया और फिर कपड़े झाड़ता हुआ उठ खड़ा हुआ, वापस जाने के लिए थाने के अलावा कोई और जगह नहीं थी। लेकिन थाने वो जाना नहीं चाहता था। फिर से सड़क पर चल पड़ा, बिना कुछ सोचे वो उस जगह पहुंच गया था जहां वो बुढ़िया बैठती थी, बुढ़िया के सामने कोई औरत खड़ी थी, बुढ़िया उसे कोई पत्थर बेच रही थी, शायद। उसका मन किया कि वो जाकर बुढ़िया को वहां से भगा दे, लेकिन फिर अपना चेहरा मोड़ कर वो वापस थाने की दिशा में चल दिया।
उसकी ड्यूटी शाम 9 बजे खत्म होती थी, लेकिन 9 क्या और 9.30 क्या, घर वो तब जाता था जब एस एच ओ थाने से निकल लेता था, यानी कभी 11, कभी 12 तो कभी 2, हालांकि आने का टाइम फिक्स था। लेकिन आज वो अपनी रिपोर्ट पूरी करके निकल लिया।
दूसरे दिन थाने आने का उसका मन नहीं किया, आज हिसाब का दिन था, जो लोग तन्ख्वाह तक के दिन नहीं आते थे वो भी आज सारे काम रोक कर थाने आते थे, तनख्वाह का क्या है वो तो मिल ही जानी है। लेकिन वो आंख लपेटे पड़ा रहा, अभी थाने से कोई आता होगा। छुट्टी लेना तो दूर की बात, थाने का कोई आदमी बिना बताए इधर-उधर तक नहीं जा सकता, लेकिन वो पड़ा रहा, उसे पूरी रात नींद नहीं आई थी। पूरी रात वो नींद की कोशिश करता रहा, और अब भी पूरी शिद्दत से इसी कोशिश में लगा था कि नींद आ जाए। आखिर जब धूप खिड़की में से होती हुई सीधी उसके पेट पर पड़ने लगी तो वो उठकर खड़ा हो गया और बिना कुछ सोचे सीधा बाथरूम में गया। नहा धोकर बाहर निकला और सड़क पर चल पड़ा, उसके कमरे और थाने के बीच उस बुढ़िया ठिया पड़ना ही था, पड़ा। वो बुढ़िया अभी तक वहां नहीं पहुंची थी, आज शायद देर से आती। वो कुछ और सोचने की कोशिश करता हुआ वहां से आगे निकल गया।
थाने पहुंचा तो लगभग सभी को उसका इंतजार था, हिसाब करने में वो मधुकर की मदद किया करता था लेकिन कल वो रुका ही नहीं था, मधुकर उससे खूब नाराज़ था। फिर एस एच ओ ने बुला लिया, उसकी शिकायत भी यही थी कि वो उसे बताकर क्यों नहीं गया था। सुन सुना कर वो बाहर आया और अपनी कुर्सी पर बैठ गया, थोड़ी देर में मधुकर आया और उसे उसका हिस्सा दे गया। उसने पैसे जेब में रख लिए, फिर वो उठकर चाय पीने चला गया। चाय पीकर उसने अनायास अपनी जेब में हाथ डाला और पैसे निकाले, जो मधुकर ने उसे दिए थे, उसका हिस्सा, उनमें पांच और दो के कुछ मुचड़े हुए नोट थे। उन्हे हाथ लगाते ही उसका मन मितला गया, जबान पर खट्टा सा स्वाद आ गया। उसने फौरन मग उठाकर पानी मुहं में डाला और कुल्ला किया। उसे याद आया कि उसने कल से कुछ नहीं खाया है।
वो पीछे वाली मार्केट में चला गया, वहां जाकर उसने दो अण्डे का आमलेट खाया और एक चाय पी, जब दुकानदार को देने के लिए पैसे निकाले तो फिर वही पैसे हाथ आए जो मधुकर ने उसे दिए थे। इस बार वो खुद को रोक नहीं सका और भड़भड़ा कर जो कुछ अभी खाया था वो मुहं के रास्ते बाहर आ गया।
वो वापिस थाने आया और अपनी कुर्सी की पुश्त पर सिर टिका कर आंखें बंद कर लीं। वो सोया नहीं था लेकिन उसकी आंखों कें सामने फिर से बुढ़िया का फैला हाथ और उसमें मुचड़े हुए दो और पांच रुपये के नोट आने लगे, उसने आंखें खोल लीं। वो झंुझला कर उठा और फिर से थाने से बाहर निकल गया, सीधा बुढ़िया के ठीए पर पहुंचा, बुढ़िया अब तक नहीं पहुंची थी। कुछ गड़बड़ थी, दोपहर हो चुकी थी, अगर किसी को अपनी दुकान लगानी हो तो वो सुबह लगाता है, या शाम को लगाता है और उसे पक्का पता था कि बुढ़िया अपना ठीया सुबह जमाती थी। पहले तो उसने सोचा कि आस-पास से पता करे, लेकिन फिर इरादा छोड़ दिया। पता नहीं किसी को कुछ पता होगा भी या नहीं। वो अन्यमनस्क सा वहां से चल दिया।
उसके बाद बुढ़िया फिर कभी वहां नहीं दिखाई दी, शायद यहां दुकानदारी नहीं चलती देख कर अपने पुराने ठीए पर चली गई हो, या कहीं एक्सीडेंट का शिकार हो गई हो, शहरों में अक्सर एक्सीडेंट होते ही रहते हैं, या हो सकता है कि अपने गांव, जहां की भी वो हो, वहां वापस चली गई हो......यानी बहुत सारी संभावनाएं थीं। लेकिन उसके बाद वो वहां नहीं दिखाई दी, लेकिन वो अक्सर वहीं गश्त करता दिखता था, वही चाय वाले, रिक्शेवाले, रेहड़ी वालों से हफ्ता वसूल करता, अपना पुलिसिया रौब गांठता, थाने से आता-जाता। लेकिन सबको पता है कि वो हफ्ते के हिसाब में नुचड़े हुए नोट नहीं लेता।

कहानी तो बहुत ही अछी और अलग है.
जवाब देंहटाएंएक ऐसी शक्सियत जिसने पुलिसवाले की अंतर आत्मा को झिंझोड़ कर रख दिया.
एक आम पाठक के अंतर मन को छुआ है.
मुझे लगता है की शायद, उस रात उस बुडिया की पिटाई हो रही थी.
और शायद उसकी बेटी थी वोह लड़की, पर अब पाठको को कहानी के अंत की कल्पना करनी होगी.
पर प्यास अभी भी है.
बेहद उम्दा/
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