चित्र गूगल साभार
गर्मियों की शाम अक्सर अलसाई होती है, जब हवा ना चल रही हो, और सूरज चले जाने और ठहरे रहने के बीच थोड़ा सोच में पड़ा हो, तब शाम का माहौल कुछ ऐसा होता है जैसे सबकुछ ठहर सा गया हो, या इतना धीरे चल रहा हो कि ठहरा हुआ सा लगे। वो ऐसी ही गर्मियों की अलसाई सी शाम थी जब मैं बस से उतर कर अपने घर की तरफ जा रहा था। दोपहर को सतीश भाई के घर में युवा कवि मंच की बैठक हुई थी और मेरी ताज़ा गज़ल को बहुत सराहा गया था, हालांकि उस वक्त मैं आशिकी के दर्द को पीने और अश्कों से होठों को सीने जैसी गज़लें लिखता था, लेकिन इसी के चलते खुद को बहुत आला दर्जे़ का शायर, कवि और साहित्यकार समझता था। उम्मीद करता था कि सब लोग मुझे सराहेंगे, जो नहीं सराहते थे उनके लिए मुझे लगता था कि अभी इन्हे शायरी या साहित्य की समझ नहीं है, इसलिए शायद मेरी कविता समझ नहीं आई होगी। मेरे अपने घर में लोग पढ़ते-पढ़ाते थोड़ा कम ही थे, हालांकि पढ़ाई पर काफी जोर हुआ करता था, लेकिन वो जोर पढ़ने पर कम, अच्छे नंबर लाने पर ज्यादा हुआ करता था, और घर वालों की उम्मीदों पर खरा उतर पाने की वजह से मुझे ये छूट मिली हुई थी कि मैं कविताएं करूं, और युवा कवि मंच जैसी साहित्यिक मंडलियों का सदस्य बन सकूं।
मेरा घर दिल्ली के एक मघ्यवर्गीय इलाके में डी डी ए फ्लैटस् में, दूसरी मंजिल पर था। आज की मेरी गज़ल को सराहा गया था और मैं खुद से बहुत खुश था इसलिए घर आने के बावजूद मेरा घर जाने का मन नहीं था। जब ऐसा मन हो तो मैं अपने ब्लॉक की छत पर चला जाता हूं। छत असल में कॉमन थी, उस पर किसी एक फ्लैट मालिक का अधिकार नहीं था, इसलिए लोग उस छत का अपनी तौर पर अलग-अलग इस्तेमाल करते थे, सबसे उपर वाले फ्लैट में वर्मा जी रहते थे और वर्मानी छत पर कपड़े सुखाती थी। 203 वाला सुभाष छत पर सिगरेट पीने आता था, और मैं, मैं छत पर खुद से मिलने जाता था। डी डी ए के फ्लैट हमेशा ब्लॉक की सूरत में बनते हैं, और इसी तरह एक ज्वाइंट बिल्डिंग में चार ज्वाइंट छतें होती हैं, जिन पर हर फ्लैट के लिए टंकियां लगी होती हैं। ये टंकियां पानी भरने के अलावा भी बहुत से काम आती हैं, जैसे छुपम-छुपाई खेलते बच्चों के लिए छुपने की जगह, घर वालों से छुपा कर पढ़ने वाले साहित्य को रखने की जगह, बीड़ी-सिगरेट वालों के लिए अपनी बीड़ी सिगरेट छुपा कर रखने की जगह। मेरे लिए ये जगह यूं अच्छी थी कि गर्मियों में छत पर आने वालों की तादाद ना के बराबर होती थी और इसलिए मैं, बहुत देर तक छत पर अकेला रह पाता था। छत पर अपनी गज़लों का तबसरा करता, ये सोचता हुआ कि किसने मुझसे क्या और कैसे कहा था और इसका क्या मतलब था। मेरी अगली गज़ल कौन सी होगी, उसे मैं किस अंदाज़ में पढंूगा।
मैं खुश-खुश सा सीढ़ियां चढ़ा, मेरा घर दूसरी मंजिल पर था, वहां और छत पर मुझे खामोशी से जाना था, क्योंकि अगर मेरी मां को पता चल जाता कि मैं आ गया हूं तो वो पक्का मुझे कोई ना कोई काम बता देती। जैसे डेयरी से दूध लाना, या मंडी से सब्जी लाना, उसे क्या पता कि मैं बड़ा शायर हूं, और शायर लोग इस तरह के काम नहीं करते। मां को पता लगे बिना छत पर जाने का तरीका ये था कि दबे पांव घर के सामने से निकल कर उपर पहुंचो और दरवाजे को दोनो हाथों से पकड़ कर थोड़ा उठंगा करके खोलो ताकि उसमें से आवाज़ ना निकले, और फिर तीसरे ब्लॉक की छत पर पहुंच जाओ। तीसरे ब्लॉक की छत तक पहुंचते हुए मैने कोई आवाज़ नहीं की, अब तो इसकी इतनी प्रैक्टिस हो गई थी कि मुझे आवाज़ दबाने के लिए कोई विशेष प्रयास तक नहीं करना पड़ता था।
तीसरे ब्लॉक की छत पर मैं अपनी पसंदीदा जगह पर पहुंचा यानी पानी की टंकियों और दीवार के बीच की वो जगह जहां ईंटों का एक प्लेटफार्म सा बना था और थोड़ी सी जगह थी, इतनी भर कि आदमी वहां लेट सकता था, और पानी की टंकियों की ठंडक को अपनी पीठ पर महसूस करने के लिए बैठ भी सकता था। अगर आप वहां बैठे हों तो दूर से लोगों को वहां आप दिखाई नहीं दे सकते थे। मैं दबे पांव वहां तक पहुंचा, लेकिन वहां मेरे से पहले कोई था।
टंकी के पीछे 203 वाला सुभाष था, लेकिन वो वहां अकेला नहीं था, वहां 303 वाली प्रभा भी थी। सुभाष का सिर प्रभा की छातियों पर था और उसकी पैंट उतरी हुई थी, प्रभा के कपड़े भी आधे उतरे, आधे बदन पर थे, और दोनो ही अजीब-अजीब आवाज़ें निकाल रहे थे। उन्हे इस हालत में देखकर मैं एकदम चौंक गया था। वहीं खड़ा उन्हे देख रहा था, पहले प्रभा ने मुझे देखा और वो भी एकदम चौंक गई, अचानक उसकी आंखों में डर आ गया, सुभाष ने सिर उठाकर उसे देखा और फिर पीछे मुड़कर मुझे देखा। मैने उसकी आंखों में भी साफ डर देखा। फिर दोनो ने हड़बड़ी में अपने कपड़े ठीक किए। जब वो अपने कपड़े ठीक कर रहे थे, तो मैं अचानक होश में आया, पहले तो मैने सोचा कि कुछ कहूं, कुछ ऐसा कहूं कि ठीक लगे, लेकिन उस वक्त मुझे कुछ नहीं सूझा तो वापस अपने ब्लॉक की तरफ भाग लिया।
मैं अपने घर में आकर सीधा सोने के कमरे में चला गया और बिस्तर पर लेट गया। जो हुआ था, जो मैने देखा था, उसके बारे में सोचने लगा। प्रभा 303 नंबर फ्लैट वाले प्रताप की पत्नि थी, अभी एक साल पहले ही उनकी शादी हुई थी। प्रताप के पिताजी कृषि भवन, या शास्त्री भवन या ऐसे ही किसी भवन में काम करते थे, और प्रताप किसी ठीक-ठाक से रेस्टोरेंट में वेटर था। प्रताप और प्रभा की शादी बहुत ही साधारण सी शादी थी, बिल्कुल वैसी जैसी ऐसे फ्लैटस् में रहने वालों की होती है। लेकिन प्रभा काफी खूबसूरत थी, शादी के पहले हफ्ते तो वो किसी को दिखाई ही नहीं दी, जो कि आम बात है। इसके बाद वो कभी-कभी बाहर दिखने लगी, और पिछले 5-6 महीने से तो वो अक्सर बाहर दिखाई देने लगी थी। कभी छत पर कपड़े सुखाते हुए, तो कभी सब्जी खरीदते हुए। मैने उसे अक्सर देखा था, लेकिन कभी मन में ”ऐसा” कोई ख्याल नहीं आया था। दूसरी तरफ सुभाष था, बेरोजगार, अपने बाप के पैसे चुराने वाला, कॉलोनी में इधर-उधर से बोतलें और लोहा-लंगड़ इकठ्ठा करके कबाड़ी को बेच कर बीड़ी-सिगरेट पीने वाला, ज्यादातर समय घर पर पड़ा रहने वाला, और हर दूसरे दिन अपने बाप से पिटने वाला। ज्यादातर फटी जेब वाली कमीज़ पहने रहता था, और अगर घर में नहीं होता था, तो या तो छत पर कोने में बैठा रहता था, या फिर बाजार वाले रास्ते के कोने वाले पार्क में किसी पेड़ के नीचे बैठा मिलता था। और तीसरी तरफ मैं था, पढ़ने-लिखने वाला, अच्छी शक्ल सूरत वाला, कॉलोनी में काफी समझदार समझा जाने वाला लड़का। उम्र में सुभाष मेरे ही जितना था, लेकिन स्कूल उसने 10वीं के बाद छोड़ दिया था, फिर कई काम धंधों में लगा, लेकिन किसी में टिका नहीं था और इसलिए आजकल, काफी अर्से से वो बेरोजगार था। लेकिन उसे इस बात की चिंता नहीं लगती थी। मेरी उससे कभी-कभार ही बात होती थी, मामूली सी। वैसे भी उसके और मेरे रास्ते बिल्कुल अलग थे जिनके मिलने की कोई गुंजाइश थी ही नहीं।
बिस्तर पर लेटे-लेटे यही सोचते हुए मेरी आंख लग गई, मां ने खाने के लिए जगाया, और खाना खाकर मैं फिर सो गया। रात भर मुझे उसी घटना के सपने आते रहे। असल में मैने बहुत कम देखा था, बहुत ही कम, लेकिन सपनों में हर चीज़ इतनी साफ दिखाई दे रही थी जैसे सपने में वहीं दृश्य चल रहा हो और हर अगला सपना पहले सपने से ज्यादा साफ, ज्यादा गहराई से दिखता रहा। सपने में वो सब भी दिखाई दिया जो असल में नहीं दिखाई दिया था। सुबह बहुत अजीब सी थी, रात भर मैं सपनों में डूबता-उतराता रहा था, ऐसे सपने जो मुझे इससे पहले कभी नहीं आए थे, बल्कि मुझे सपने आते ही बहुत कम थे। रात के सपने जेहन में ताज़ा थे।
मैं कुछ सोच रहा था, कुछ नहीं सोच रहा था, सुबह के सारे काम मशीन की तरह कर रहा था, क्योंकि मेरा दिमाग वहीं अटका हुआ था, छत पर, टंकी के पीछे। इसी तरह का कुछ सोचता-सोचता मैं बाहर निकला और देखा तो सामने प्रभा खड़ी थी। मैने झट अपनी नज़रें कहीं और फिरा दीं। मुझे यकीन है प्रभा ने मुझे जरूर देखा होगा, लेकिन मै ये देखने के लिए नहीं रुका कि मुझे देख कर उसने क्या किया। मै बाज़ार की तरफ निकल गया था, मुझे उम्मीद थी कि सुभाष मुझे वहीं कहीं मिल जाएगा। वहां नहीं तो बाग में पेड़ के नीचे। हालांकि मुझे पता नहीं था कि मै उससे क्या बात करूंगा, लेकिन मेरी समझ में यही आ रहा था कि मुझे सुभाष से बात करनी चाहिए। मुश्किल ये थी कि वो दिखाई ही नहीं दे रहा था, हमारी कॉलोनी का छोटा सा तो बाज़ार था, उसके मैं तीन चक्कर काट चुका था, दो बार पार्क में देख चुका था, वो अपने घर पे नहीं था, इसका मुझे पक्का पता था। और रोज़ तो मैं कॉलेज जाने से पहले दो या तीन बार उसे देख ही लेता था, और आज मैं कॉलेज जा नहीं रहा था कि उससे मिल सकूं और वो गधे के सींगों की तरह गायब हो था। आखिर थक-हार कर, मन मार कर मैं कॉलेज के लिए निकल गया, क्योंकि मैं पूरे दिन बाज़ार के चक्कर नहीं लगा सकता था और अगर मैं पार्क में बैठ जाता तो......ये हो ही नहीं सकता था।
इसी उहापोह में चार-पांच दिन निकल गए, ये दिन, समय हर चीज भुला देता है जैसे नहीं थे, मैं कुछ भी भूला नहीं था, बल्कि मेरे रात के सपने ज्यादा स्पष्ट हो गए थे, रात के सपनों की छोड़िए दिन में प्रभा दिखती थी तो मेरी आंखों के आगे छत वाला दृश्य घूम जाता था, यकीन मानिए बिल्कुल एकता कपूर के सीरियलों की तरह मेरी आंखे उसे देख ही नहीं पाती थी, बल्कि मुझे बार-बार छत वाला दृश्य याद आता था। मैने बहुत कोशिश की, कि उस बात को भूल जाउं, किताबें पढ़ने की कोशिश की, और भी तमाम काम करने की कोशिश की, लेकिन मैं वो घटना ना भूल पाया, कोढ़ में खाज ये कि प्रभा का फ्लैट 303 मेरे घर के सामने ही था, वो गाहे-बगाहे मुझे दिखती थी, और मुहं फेर लेती थी, उसका पति दिखता था, और मुझे नमस्ते करता था। मैने सोचा कि इससे अब ऐसे ही निजात पाई जा सकती है कि या तो वो ये शहर छोड़ कर चली जाए, या मैं ये शहर छोड़ कर चला जाउं, मुश्किल ये थी कि उसके साथ छत पर टंकी के पास मैं नहीं सुभाष था।
लेकिन, मैं क्यों नहीं था। आखिर प्रभा जैसी लड़की को, सुभाष जैसे लड़के में क्या दिखा, उसे मैं क्यों नहीं दिखाई दिया। मुझमे कोई कमी नहीं थी, मेरी सामाजिक प्रतिष्ठा भी सुभाष के मुकाबले बहुत ज्यादा थी। लेकिन प्रभा ने अपने पति की पीठ पीेछे मुझसे नहीं, सुभाष से संबंध बनाए। ये बात इस घटना के तीसरे दिन अचानक मेरे दिमाग में आई थी। और तब से मेरा जीना हराम हो गया था। पहले मुझे लगा था कि प्रभा अपना चरित्र और अपनी इज्जत खराब कर रही है, लेकिन अब लगा कि अगर वो ऐसा कर भी रही है तो आखिर उस सुभाष के साथ क्यों कर रही है, उसे अगर अपना चरित्र खराब करना है तो मेरे साथ करे, क्योंकि मेरे हिसाब से मैं सुभाष से कहीं ज्यादा बेहतर विकल्प था। सुभाष उसका क्या ही भला कर सकता था, उसे कोई कविता लिखना, गज़ल कहना थोड़े ही आता था, वो तो मुझे आता था, लिखना छोड़ो उसे तो पढ़ना भी नहीं आता होगा, वो तो बेरोजगार था, निठल्ला। जबकि मैं एक सुसंस्कृत, सुसभ्य, पढ़ा-लिखा लड़का था, इसलिए मेरे हिसाब से प्रभा को अपने पति के अलावा किसी और से संबंध बनाने थे तो उसकी पहली पसंद मुझे होना चाहिए था ना कि सुभाष को। इस बात ने दिमाग में आने के बाद मुझे बहुत बुरी तरह बेचैन कर दिया था।
अब मुझे प्रभा दिखाई देती थी तो मै नज़रें नहीं चुराता था, ना ही इधर-उधर देख रहा था, बल्कि बहुत बेशर्मी से उसे घूर रहा था। मैं उसे ये जतलाना चाहता था कि मेरे पास उसका राज़ है और उसे मुझसे डरना चाहिए। जो मैने देखा था, उसके बारे में सोचते-सोचते मैं अपनी तौर पर इस नतीजे पर पहंुचा था कि प्रभा ने नैतिकता की सीमाओं का उल्लंघन किया है और उसे इसकी सज़ा मिलनी चाहिए। हालांकि अब बीच-बीच में मैं ये भी सोच रहा था कि अगर वो मुझसे इस तरह के संबंध बनाती तो मैं उसके साथ क्या-क्या करता। जब मैं प्रभा से अपने संबंधों के बारे में सोचता था तो मुझे नैतिकता का कोई ख्याल नहीं आता था, क्योंकि मुझे लगता था कि मैं किसी भी मायने में सुभाष से बेहतर था।
मैं किसी तरह सुभाष से मिलना चाहता था, उसे डराना चाहता था, मैं उससे ये कहना चाहता था कि मुझे उसके और प्रभा के बारे में पता है और मैं उसके इस राज़ को फ़ाश करने वाला हूं। इससे मुझे क्या फायदा होता, पता नहीं। मुझे लग रहा था कि इससे कम से कम मैं इस बदहाल जेहनी हालत से निजात पा जाउंगा। लेकिन सुभाष मुझे मिल ही नहीं रहा था। मैं दिन भर में दर्जनों बार उसके घर की तरफ झांकने जाता था, कई बार बहुत-बहुत देर तक पार्क में इंतजार करता था, बाज़ार के कई-कई चक्कर लगाता था कि वो कहीं बैठा दिख जाए तो उसे पकडूं। लेकिन वो मुझे कहीं दिखाई नहीं दिया।
फिर आखिरकार एक दिन मैं अपने एक दोस्त के साथ साइकिल पंचर वाले की दुकान पर खड़ा था कि सुभाष दिख गया। मैं दौड़ कर उसके पास गया और उसे पुकारा। ऐसा पहली बार हुआ था कि मैने उसे कहीं पुकारा हो। वो मुझे देखकर चौंका, लेकिन वहीं खड़ा रहा। मैं उसके पास आकर खड़ा हुआ, और उसे देखने लगा। वो भी मेरी आंखों में आंखें डालकर देख रहा था। मैने पिछले कुछ दिनों में उससे बात करने के हजारों तरीके सोचे थे। उन सभी तरीकों में वो मेरे सामने गिड़गिड़ा रहा था, किसी को अपना राज़ ना बताने के लिए मुझसे मनुहार कर रहा था, और मैं उससे बहुत उंची किसी जगह से उसे नैतिकता, सामाजिक आदर्श, अपने कर्तव्य की बातें कहकर ये बता रहा था कि मैं चुप नहीं रह सकता, कि मैं अपने आस-पास ऐसा पाप नहीं होने दे सकता। लेकिन अब जब वो मेरे सामने था तो मुझे कुछ सूझ ही नहीं रहा था कि मैं क्या कहूं। मैने सिर्फ यही कहा कि मुझे तुमसे बात करनी है, और पार्क की तरफ चल दिया। वो मेरे पीछे आ रहा था।
मैने उससे बात करने के लिए पार्क का सबसे एकांत कोना चुना था, पार्क हालांकि बहुत छोटा था, मैं चाहता था कि जब मैं उससे बात करूं तो कोई हम दोनों को एक साथ ना देख ले। इसलिए मैं उसे पार्क के भीतरी कोने की तरफ ले गया। वहां जाकर भी मेरे दिमाग में ऐसी कोई बात ही नहीं आ रही थी जिससे बात शुरु की जा सके। आखिर मैं उससे कहता भी क्या। फिर उसी ने बात शुरु की। पहले मेरा हाल-चाल पूछा, सरसरी तौर पर इधर-उधर की बातें की, और फिर हम दोनो ही उस घटना पर आ गए। उस दिन की बात करने में वो थोड़ा हिचक रहा था, जो होना ही था, और उसकी इस हिचक से मुझे थोड़ी हिम्मत मिली और मैने उसे धमकाना शुरु किया। मैने उसे डर दिखाया कि अगर मैने किसी के सामने उसका और प्रभा का राज़ फ़ाश किया तो उसकी क्या हालत होगी, प्रभा का तो जीना ही मुहाल हो जाएगा। कौन पति ऐसी औरत को अपने घर में रखेगा जो किसी और के साथ संबंध बनाए हो। पति चाहे वेटर हो या मैनेजर, पति होता है। थोड़ी ही देर में मैने उसे काफी सारी धमकियां दे डाली थीं, और उसके सामने उसकी और प्रभा की हालत का बहुत ही भयानक चित्र खींच डाला था। वो चुप था और सुन रहा था। उसने इस पूरी बातचीत के दौरान कुछ नहीं कहा था। आखिर उसने पूछा कि मैं चाहता क्या। मैं चाहता क्या था ये तो खुद मैं भी नहीं जानता था। वो आखिर मुझे दे ही क्या सकता था, मैं उसे ब्लैकमेल करके पैसे नहीं ले सकता था, क्योंकि उसके पास पैसे होते नहीं थे, किसी भी हालत में वो मुझसे कमतर ही था। सिर्फ एक बात को छोड़कर। प्रभा ने अपने पति की पीठ पीछे संबंध बनाने में मुझे नहीं उसे चुना था।
मैं थोड़ी देर चुप रहा, ये सोचता रहा कि किस तरह उसके सामने ये प्रस्ताव रखूं कि वो प्रभा से कहे कि.......पूरी बात सुनकर वो परेशान हो गया। वो मुझसे बार-बार कह रहा था कि मैं ऐसा ना करूं, लेकिन मेरे पास उसका राज़ था, मेरे पास प्रभा का राज़ था, अगर मैं उनका राज़ फ़ाश कर दूं तो उनकी जिंदगी तबाह हो जाएगी। मैं उसे अल्टीमेटम देकर चला आया।
मुझे पूरा यकीन था कि वो प्रभा से इस बारे में बात करेगा, और प्रभा को जब पता चलेगा कि मैं क्या चाहता था तो वो भी तैयार हो जाएगी। अगर मैं उनका राज़ फ़ाश कर दूंगा तो सबसे ज्यादा नुक्सान प्रभा का ही था। फिर अगर उसे पति के अलावा किसी एक आदमी के साथ संबंध बनाने में एतराज़ नहीं था तो फिर मेरे साथ संबंध बनाने में क्यों होगा। जबकि मैं हर हाल में सुभाष से ज्यादा बेहतर विकल्प था।
तीन दिन तक सुभाष फिर मुझे दिखाई नहीं दिया। लेकिन प्रभा की तो मजबूरी थी, वो रोज़ मुझे दिख जाती थी। अब मैं उसकी तरफ देखकर मुस्कुराने लगा था, मेरी मुस्कुराहट अधिकार की मुस्कुराहट थी, ये कहती हुई सी, कि तुम अब वो करोगे जो मैं चाहूंगा। चौथे दिन सुबह कॉलेज जाते हुए सुभाष ने मुझे रोका और कहा कि वो तैयार है। आज शाम को 4 बजे प्रभा छत पर मुझे मिलेगी। मै जो चाहूं उसके साथ कर सकता हूं। मेरे जेहन में एक अजीब सा नशा तारी हो गया। मैं जो चाहूं उसके साथ कर सकता हूं, जो चाहूं। मैं क्या चाहता था। मैने पिछले कुछ दिनों में बहुत सारी योजनाएं बनाई थीं, बहुत सारे सपने देखे थे, क्या मैं वही सब चाहता था। क्या मैं ये चाहता था कि प्रभा के साथ वो सब करूं जो वो सुभाष के साथ करती है। क्या मैं ये चाहता था कि प्रभा और सुभाष हमेशा मुझसे डर कर रहें। डर तो दोनो का था, लेकिन कीमत तो प्रभा को चुकानी थी, क्योंकि सुभाष आखिर मुझे दे ही क्या सकता था। तो क्या मैं ये चाहता था कि प्रभा अपनी इस मजबूरी में मेरे साथ वो सब करे जो वो सुभाष के साथ करती थी। पूरे दिन कॉलेज में मैं यही सब सोचता रहा। जब तक मेरे पास उनका राज़ है, वो मेरी हर इच्छा पूरी करेगी। जब तक मैं उसे डरा कर रखूंगा वो वही करेगी जो मैं चाहूंगा। लेकिन क्या मैं सच में ऐसा चाहता था। क्या मैं सच में चाहता था कि मैं वो सब करूं।
मैं उस शाम को छत पर नहीं गया, मैने छत पर जाना ही बंद कर दिया। मैने उसके बाद प्रभा की तरफ देखना भी बंद कर दिया। सुभाष ने कई बार मुझे बाज़ार में या रास्ते में रोक कर बात करने की कोशिश की, लेकिन मैने उससे बात नहीं की। सिर्फ एक बार मैने उससे पीछा छुड़ाने के लिए कहा, कि मैं उससे या प्रभा से कुछ नहीं चाहता। उनका राज़ राज़ ही रहेगा, मैं ये बात किसी को नहीं बताउंगा। मुझे नहीं पता कि सुभाष और प्रभा के लिए ये राहत की बात थी या नहीं, लेकिन उस दिन छत पर ना जाकर मुझे बहुत राहत मिली। उनका ये राज़ हमेशा राज़ ही रहा।














