रविवार, 28 जुलाई 2013

राज़



चित्र गूगल साभार
 गर्मियों की शाम अक्सर अलसाई होती है, जब हवा ना चल रही हो, और सूरज चले जाने और ठहरे रहने के बीच थोड़ा सोच में पड़ा हो, तब शाम का माहौल कुछ ऐसा होता है जैसे सबकुछ ठहर सा गया हो, या इतना धीरे चल रहा हो कि ठहरा हुआ सा लगे। वो ऐसी ही गर्मियों की अलसाई सी शाम थी जब मैं बस से उतर कर अपने घर की तरफ जा रहा था। दोपहर को सतीश भाई के घर में युवा कवि मंच की बैठक हुई थी और मेरी ताज़ा गज़ल को बहुत सराहा गया था, हालांकि उस वक्त मैं आशिकी के दर्द को पीने और अश्कों से होठों को सीने जैसी गज़लें लिखता था, लेकिन इसी के चलते खुद को बहुत आला दर्जे़ का शायर, कवि और साहित्यकार समझता था। उम्मीद करता था कि सब लोग मुझे सराहेंगे, जो नहीं सराहते थे उनके लिए मुझे लगता था कि अभी इन्हे शायरी या साहित्य की समझ नहीं है, इसलिए शायद मेरी कविता समझ नहीं आई होगी। मेरे अपने घर में लोग पढ़ते-पढ़ाते थोड़ा कम ही थे, हालांकि पढ़ाई पर काफी जोर हुआ करता था, लेकिन वो जोर पढ़ने पर कम, अच्छे नंबर लाने पर ज्यादा हुआ करता था, और घर वालों की उम्मीदों पर खरा उतर पाने की वजह से मुझे ये छूट मिली हुई थी कि मैं कविताएं करूं, और युवा कवि मंच जैसी साहित्यिक मंडलियों का सदस्य बन सकूं।

मेरा घर दिल्ली के एक मघ्यवर्गीय इलाके में डी डी ए फ्लैटस् में, दूसरी मंजिल पर था। आज की मेरी गज़ल को सराहा गया था और मैं खुद से बहुत खुश था इसलिए घर आने के बावजूद मेरा घर जाने का मन नहीं था। जब ऐसा मन हो तो मैं अपने ब्लॉक की छत पर चला जाता हूं। छत असल में कॉमन थी, उस पर किसी एक फ्लैट मालिक का अधिकार नहीं था, इसलिए लोग उस छत का अपनी तौर पर अलग-अलग इस्तेमाल करते थे, सबसे उपर वाले फ्लैट में वर्मा जी रहते थे और वर्मानी छत पर कपड़े सुखाती थी। 203 वाला सुभाष छत पर सिगरेट पीने आता था, और मैं, मैं छत पर खुद से मिलने जाता था। डी डी ए के फ्लैट हमेशा ब्लॉक की सूरत में बनते हैं, और इसी तरह एक ज्वाइंट बिल्डिंग में चार ज्वाइंट छतें होती हैं, जिन पर हर फ्लैट के लिए टंकियां लगी होती हैं। ये टंकियां पानी भरने के अलावा भी बहुत से काम आती हैं, जैसे छुपम-छुपाई खेलते बच्चों के लिए छुपने की जगह, घर वालों से छुपा कर पढ़ने वाले साहित्य को रखने की जगह, बीड़ी-सिगरेट वालों के लिए अपनी बीड़ी सिगरेट छुपा कर रखने की जगह। मेरे लिए ये जगह यूं अच्छी थी कि गर्मियों में छत पर आने वालों की तादाद ना के बराबर होती थी और इसलिए मैं, बहुत देर तक छत पर अकेला रह पाता था। छत पर अपनी गज़लों का तबसरा करता, ये सोचता हुआ कि किसने मुझसे क्या और कैसे कहा था और इसका क्या मतलब था। मेरी अगली गज़ल कौन सी होगी, उसे मैं किस अंदाज़ में पढंूगा। 

मैं खुश-खुश सा सीढ़ियां चढ़ा, मेरा घर दूसरी मंजिल पर था, वहां और छत पर मुझे खामोशी से जाना था, क्योंकि अगर मेरी मां को पता चल जाता कि मैं आ गया हूं तो वो पक्का मुझे कोई ना कोई काम बता देती। जैसे डेयरी से दूध लाना, या मंडी से सब्जी लाना, उसे क्या पता कि मैं बड़ा शायर हूं, और शायर लोग इस तरह के काम नहीं करते। मां को पता लगे बिना छत पर जाने का तरीका ये था कि दबे पांव घर के सामने से निकल कर उपर पहुंचो और दरवाजे को दोनो हाथों से पकड़ कर थोड़ा उठंगा करके खोलो ताकि उसमें से आवाज़ ना निकले, और फिर तीसरे ब्लॉक की छत पर पहुंच जाओ। तीसरे ब्लॉक की छत तक पहुंचते हुए मैने कोई आवाज़ नहीं की, अब तो इसकी इतनी प्रैक्टिस हो गई थी कि मुझे आवाज़ दबाने के लिए कोई विशेष प्रयास तक नहीं करना पड़ता था। 

तीसरे ब्लॉक की छत पर मैं अपनी पसंदीदा जगह पर पहुंचा यानी पानी की टंकियों और दीवार के बीच की वो जगह जहां ईंटों का एक प्लेटफार्म सा बना था और थोड़ी सी जगह थी, इतनी भर कि आदमी वहां लेट सकता था, और पानी की टंकियों की ठंडक को अपनी पीठ पर महसूस करने के लिए बैठ भी सकता था। अगर आप वहां बैठे हों तो दूर से लोगों को वहां आप दिखाई नहीं दे सकते थे। मैं दबे पांव वहां तक पहुंचा, लेकिन वहां मेरे से पहले कोई था। 

टंकी के पीछे 203 वाला सुभाष था, लेकिन वो वहां अकेला नहीं था, वहां 303 वाली प्रभा भी थी। सुभाष का सिर प्रभा की छातियों पर था और उसकी पैंट उतरी हुई थी, प्रभा के कपड़े भी आधे उतरे, आधे बदन पर थे, और दोनो ही अजीब-अजीब आवाज़ें निकाल रहे थे। उन्हे इस हालत में देखकर मैं एकदम चौंक गया था। वहीं खड़ा उन्हे देख रहा था, पहले प्रभा ने मुझे देखा और वो भी एकदम चौंक गई, अचानक उसकी आंखों में डर आ गया, सुभाष ने सिर उठाकर उसे देखा और फिर पीछे मुड़कर मुझे देखा। मैने उसकी आंखों में भी साफ डर देखा। फिर दोनो ने हड़बड़ी में अपने कपड़े ठीक किए। जब वो अपने कपड़े ठीक कर रहे थे, तो मैं अचानक होश में आया, पहले तो मैने सोचा कि कुछ कहूं, कुछ ऐसा कहूं कि ठीक लगे, लेकिन उस वक्त मुझे कुछ नहीं सूझा तो वापस अपने ब्लॉक की तरफ भाग लिया। 

मैं अपने घर में आकर सीधा सोने के कमरे में चला गया और बिस्तर पर लेट गया। जो हुआ था, जो मैने देखा था, उसके बारे में सोचने लगा। प्रभा 303 नंबर फ्लैट वाले प्रताप की पत्नि थी, अभी एक साल पहले ही उनकी शादी हुई थी। प्रताप के पिताजी कृषि भवन, या शास्त्री भवन या ऐसे ही किसी भवन में काम करते थे, और प्रताप किसी ठीक-ठाक से रेस्टोरेंट में वेटर था। प्रताप और प्रभा की शादी बहुत ही साधारण सी शादी थी, बिल्कुल वैसी जैसी ऐसे फ्लैटस् में रहने वालों की होती है। लेकिन प्रभा काफी खूबसूरत थी, शादी के पहले हफ्ते तो वो किसी को दिखाई ही नहीं दी, जो कि आम बात है। इसके बाद वो कभी-कभी बाहर दिखने लगी, और पिछले 5-6 महीने से तो वो अक्सर बाहर दिखाई देने लगी थी। कभी छत पर कपड़े सुखाते हुए, तो कभी सब्जी खरीदते हुए। मैने उसे अक्सर देखा था, लेकिन कभी मन में ”ऐसा” कोई ख्याल नहीं आया था। दूसरी तरफ सुभाष था, बेरोजगार, अपने बाप के पैसे चुराने वाला, कॉलोनी में इधर-उधर से बोतलें और लोहा-लंगड़ इकठ्ठा करके कबाड़ी को बेच कर बीड़ी-सिगरेट पीने वाला, ज्यादातर समय घर पर पड़ा रहने वाला, और हर दूसरे दिन अपने बाप से पिटने वाला। ज्यादातर फटी जेब वाली कमीज़ पहने रहता था, और अगर घर में नहीं होता था, तो या तो छत पर कोने में बैठा रहता था, या फिर बाजार वाले रास्ते के कोने वाले पार्क में किसी पेड़ के नीचे बैठा मिलता था। और तीसरी तरफ मैं था, पढ़ने-लिखने वाला, अच्छी शक्ल सूरत वाला, कॉलोनी में काफी समझदार समझा जाने वाला लड़का। उम्र में सुभाष मेरे ही जितना था, लेकिन स्कूल उसने 10वीं के बाद छोड़ दिया था, फिर कई काम धंधों में लगा, लेकिन किसी में टिका नहीं था और इसलिए आजकल, काफी अर्से से वो बेरोजगार था। लेकिन उसे इस बात की चिंता नहीं लगती थी। मेरी उससे कभी-कभार ही बात होती थी, मामूली सी। वैसे भी उसके और मेरे रास्ते बिल्कुल अलग थे जिनके मिलने की कोई गुंजाइश थी ही नहीं। 

बिस्तर पर लेटे-लेटे यही सोचते हुए मेरी आंख लग गई, मां ने खाने के लिए जगाया, और खाना खाकर मैं फिर सो गया। रात भर मुझे उसी घटना के सपने आते रहे। असल में मैने बहुत कम देखा था, बहुत ही कम, लेकिन सपनों में हर चीज़ इतनी साफ दिखाई दे रही थी जैसे सपने में वहीं दृश्य चल रहा हो और हर अगला सपना पहले सपने से ज्यादा साफ, ज्यादा गहराई से दिखता रहा। सपने में वो सब भी दिखाई दिया जो असल में नहीं दिखाई दिया था। सुबह बहुत अजीब सी थी, रात भर मैं सपनों में डूबता-उतराता रहा था, ऐसे सपने जो मुझे इससे पहले कभी नहीं आए थे, बल्कि मुझे सपने आते ही बहुत कम थे। रात के सपने जेहन में ताज़ा थे। 

मैं कुछ सोच रहा था, कुछ नहीं सोच रहा था, सुबह के सारे काम मशीन की तरह कर रहा था, क्योंकि मेरा दिमाग वहीं अटका हुआ था, छत पर, टंकी के पीछे। इसी तरह का कुछ सोचता-सोचता मैं बाहर निकला और देखा तो सामने प्रभा खड़ी थी। मैने झट अपनी नज़रें कहीं और फिरा दीं। मुझे यकीन है प्रभा ने मुझे जरूर देखा होगा, लेकिन मै ये देखने के लिए नहीं रुका कि मुझे देख कर उसने क्या किया। मै बाज़ार की तरफ निकल गया था, मुझे उम्मीद थी कि सुभाष मुझे वहीं कहीं मिल जाएगा। वहां नहीं तो बाग में पेड़ के नीचे। हालांकि मुझे पता नहीं था कि मै उससे क्या बात करूंगा, लेकिन मेरी समझ में यही आ रहा था कि मुझे सुभाष से बात करनी चाहिए। मुश्किल ये थी कि वो दिखाई ही नहीं दे रहा था, हमारी कॉलोनी का छोटा सा तो बाज़ार था, उसके मैं तीन चक्कर काट चुका था, दो बार पार्क में देख चुका था, वो अपने घर पे नहीं था, इसका मुझे पक्का पता था। और रोज़ तो मैं कॉलेज जाने से पहले दो या तीन बार उसे देख ही लेता था, और आज मैं कॉलेज जा नहीं रहा था कि उससे मिल सकूं और वो गधे के सींगों की तरह गायब हो था। आखिर थक-हार कर, मन मार कर मैं कॉलेज के लिए निकल गया, क्योंकि मैं पूरे दिन बाज़ार के चक्कर नहीं लगा सकता था और अगर मैं पार्क में बैठ जाता तो......ये हो ही नहीं सकता था। 

इसी उहापोह में चार-पांच दिन निकल गए, ये दिन, समय हर चीज भुला देता है जैसे नहीं थे, मैं कुछ भी भूला नहीं था, बल्कि मेरे रात के सपने ज्यादा स्पष्ट हो गए थे, रात के सपनों की छोड़िए दिन में प्रभा दिखती थी तो मेरी आंखों के आगे छत वाला दृश्य घूम जाता था, यकीन मानिए बिल्कुल एकता कपूर के सीरियलों की तरह मेरी आंखे उसे देख ही नहीं पाती थी, बल्कि मुझे बार-बार छत वाला दृश्य याद आता था। मैने बहुत कोशिश की, कि उस बात को भूल जाउं, किताबें पढ़ने की कोशिश की, और भी तमाम काम करने की कोशिश की, लेकिन मैं वो घटना ना भूल पाया, कोढ़ में खाज ये कि प्रभा का फ्लैट 303 मेरे घर के सामने ही था, वो गाहे-बगाहे मुझे दिखती थी, और मुहं फेर लेती थी, उसका पति दिखता था, और मुझे नमस्ते करता था। मैने सोचा कि इससे अब ऐसे ही निजात पाई जा सकती है कि या तो वो ये शहर छोड़ कर चली जाए, या मैं ये शहर छोड़ कर चला जाउं, मुश्किल ये थी कि उसके साथ छत पर टंकी के पास मैं नहीं सुभाष था। 

लेकिन, मैं क्यों नहीं था। आखिर प्रभा जैसी लड़की को, सुभाष जैसे लड़के में क्या दिखा, उसे मैं क्यों नहीं दिखाई दिया। मुझमे कोई कमी नहीं थी, मेरी सामाजिक प्रतिष्ठा भी सुभाष के मुकाबले बहुत ज्यादा थी। लेकिन प्रभा ने अपने पति की पीठ पीेछे मुझसे नहीं, सुभाष से संबंध बनाए। ये बात इस घटना के तीसरे दिन अचानक मेरे दिमाग में आई थी। और तब से मेरा जीना हराम हो गया था। पहले मुझे लगा था कि प्रभा अपना चरित्र और अपनी इज्जत खराब कर रही है, लेकिन अब लगा कि अगर वो ऐसा कर भी रही है तो आखिर उस सुभाष के साथ क्यों कर रही है, उसे अगर अपना चरित्र खराब करना है तो मेरे साथ करे, क्योंकि मेरे हिसाब से मैं सुभाष से कहीं ज्यादा बेहतर विकल्प था। सुभाष उसका क्या ही भला कर सकता था, उसे कोई कविता लिखना, गज़ल कहना थोड़े ही आता था, वो तो मुझे आता था, लिखना छोड़ो उसे तो पढ़ना भी नहीं आता होगा, वो तो बेरोजगार था, निठल्ला। जबकि मैं एक सुसंस्कृत, सुसभ्य, पढ़ा-लिखा लड़का था, इसलिए मेरे हिसाब से प्रभा को अपने पति के अलावा किसी और से संबंध बनाने थे तो उसकी पहली पसंद मुझे होना चाहिए था ना कि सुभाष को। इस बात ने दिमाग में आने के बाद मुझे बहुत बुरी तरह बेचैन कर दिया था।

अब मुझे प्रभा दिखाई देती थी तो मै नज़रें नहीं चुराता था, ना ही इधर-उधर देख रहा था, बल्कि बहुत बेशर्मी से उसे घूर रहा था। मैं उसे ये जतलाना चाहता था कि मेरे पास उसका राज़ है और उसे मुझसे डरना चाहिए। जो मैने देखा था, उसके बारे में सोचते-सोचते मैं अपनी तौर पर इस नतीजे पर पहंुचा था कि प्रभा ने नैतिकता की सीमाओं का उल्लंघन किया है और उसे इसकी सज़ा मिलनी चाहिए। हालांकि अब बीच-बीच में मैं ये भी सोच रहा था कि अगर वो मुझसे इस तरह के संबंध बनाती तो मैं उसके साथ क्या-क्या करता। जब मैं प्रभा से अपने संबंधों के बारे में सोचता था तो मुझे नैतिकता का कोई ख्याल नहीं आता था, क्योंकि मुझे लगता था कि मैं किसी भी मायने में सुभाष से बेहतर था। 

मैं किसी तरह सुभाष से मिलना चाहता था, उसे डराना चाहता था, मैं उससे ये कहना चाहता था कि मुझे उसके और प्रभा के बारे में पता है और मैं उसके इस राज़ को फ़ाश करने वाला हूं। इससे मुझे क्या फायदा होता, पता नहीं। मुझे लग रहा था कि इससे कम से कम मैं इस बदहाल जेहनी हालत से निजात पा जाउंगा। लेकिन सुभाष मुझे मिल ही नहीं रहा था। मैं दिन भर में दर्जनों बार उसके घर की तरफ झांकने जाता था, कई बार बहुत-बहुत देर तक पार्क में इंतजार करता था, बाज़ार के कई-कई चक्कर लगाता था कि वो कहीं बैठा दिख जाए तो उसे पकडूं। लेकिन वो मुझे कहीं दिखाई नहीं दिया।

फिर आखिरकार एक दिन मैं अपने एक दोस्त के साथ साइकिल पंचर वाले की दुकान पर खड़ा था कि सुभाष दिख गया। मैं दौड़ कर उसके पास गया और उसे पुकारा। ऐसा पहली बार हुआ था कि मैने उसे कहीं पुकारा हो। वो मुझे देखकर चौंका, लेकिन वहीं खड़ा रहा। मैं उसके पास आकर खड़ा हुआ, और उसे देखने लगा। वो भी मेरी आंखों में आंखें डालकर देख रहा था। मैने पिछले कुछ दिनों में उससे बात करने के हजारों तरीके सोचे थे। उन सभी तरीकों में वो मेरे सामने गिड़गिड़ा रहा था, किसी को अपना राज़ ना बताने के लिए मुझसे मनुहार कर रहा था, और मैं उससे बहुत उंची किसी जगह से उसे नैतिकता, सामाजिक आदर्श, अपने कर्तव्य की बातें कहकर ये बता रहा था कि मैं चुप नहीं रह सकता, कि मैं अपने आस-पास ऐसा पाप नहीं होने दे सकता। लेकिन अब जब वो मेरे सामने था तो मुझे कुछ सूझ ही नहीं रहा था कि मैं क्या कहूं। मैने सिर्फ यही कहा कि मुझे तुमसे बात करनी है, और पार्क की तरफ चल दिया। वो मेरे पीछे आ रहा था।

मैने उससे बात करने के लिए पार्क का सबसे एकांत कोना चुना था, पार्क हालांकि बहुत छोटा था, मैं चाहता था कि जब मैं उससे बात करूं तो कोई हम दोनों को एक साथ ना देख ले। इसलिए मैं उसे पार्क के भीतरी कोने की तरफ ले गया। वहां जाकर भी मेरे दिमाग में ऐसी कोई बात ही नहीं आ रही थी जिससे बात शुरु की जा सके। आखिर मैं उससे कहता भी क्या। फिर उसी ने बात शुरु की। पहले मेरा हाल-चाल पूछा, सरसरी तौर पर इधर-उधर की बातें की, और फिर हम दोनो ही उस घटना पर आ गए। उस दिन की बात करने में वो थोड़ा हिचक रहा था, जो होना ही था, और उसकी इस हिचक से मुझे थोड़ी हिम्मत मिली और मैने उसे धमकाना शुरु किया। मैने उसे डर दिखाया कि अगर मैने किसी के सामने उसका और प्रभा का राज़ फ़ाश किया तो उसकी क्या हालत होगी, प्रभा का तो जीना ही मुहाल हो जाएगा। कौन पति ऐसी औरत को अपने घर में रखेगा जो किसी और के साथ संबंध बनाए हो। पति चाहे वेटर हो या मैनेजर, पति होता है। थोड़ी ही देर में मैने उसे काफी सारी धमकियां दे डाली थीं, और उसके सामने उसकी और प्रभा की हालत का बहुत ही भयानक चित्र खींच डाला था। वो चुप था और सुन रहा था। उसने इस पूरी बातचीत के दौरान कुछ नहीं कहा था। आखिर उसने पूछा कि मैं चाहता क्या। मैं चाहता क्या था ये तो खुद मैं भी नहीं जानता था। वो आखिर मुझे दे ही क्या सकता था, मैं उसे ब्लैकमेल करके पैसे नहीं ले सकता था, क्योंकि उसके पास पैसे होते नहीं थे, किसी भी हालत में वो मुझसे कमतर ही था। सिर्फ एक बात को छोड़कर। प्रभा ने अपने पति की पीठ पीछे संबंध बनाने में मुझे नहीं उसे चुना था। 

मैं थोड़ी देर चुप रहा, ये सोचता रहा कि किस तरह उसके सामने ये प्रस्ताव रखूं कि वो प्रभा से कहे कि.......पूरी बात सुनकर वो परेशान हो गया। वो मुझसे बार-बार कह रहा था कि मैं ऐसा ना करूं, लेकिन मेरे पास उसका राज़ था, मेरे पास प्रभा का राज़ था, अगर मैं उनका राज़ फ़ाश कर दूं तो उनकी जिंदगी तबाह हो जाएगी। मैं उसे अल्टीमेटम देकर चला आया। 

मुझे पूरा यकीन था कि वो प्रभा से इस बारे में बात करेगा, और प्रभा को जब पता चलेगा कि मैं क्या चाहता था तो वो भी तैयार हो जाएगी। अगर मैं उनका राज़ फ़ाश कर दूंगा तो सबसे ज्यादा नुक्सान प्रभा का ही था। फिर अगर उसे पति के अलावा किसी एक आदमी के साथ संबंध बनाने में एतराज़ नहीं था तो फिर मेरे साथ संबंध बनाने में क्यों होगा। जबकि मैं हर हाल में सुभाष से ज्यादा बेहतर विकल्प था। 

तीन दिन तक सुभाष फिर मुझे दिखाई नहीं दिया। लेकिन प्रभा की तो मजबूरी थी, वो रोज़ मुझे दिख जाती थी। अब मैं उसकी तरफ देखकर मुस्कुराने लगा था, मेरी मुस्कुराहट अधिकार की मुस्कुराहट थी, ये कहती हुई सी, कि तुम अब वो करोगे जो मैं चाहूंगा। चौथे दिन सुबह कॉलेज जाते हुए सुभाष ने मुझे रोका और कहा कि वो तैयार है। आज शाम को 4 बजे प्रभा छत पर मुझे मिलेगी। मै जो चाहूं उसके साथ कर सकता हूं। मेरे जेहन में एक अजीब सा नशा तारी हो गया। मैं जो चाहूं उसके साथ कर सकता हूं, जो चाहूं। मैं क्या चाहता था। मैने पिछले कुछ दिनों में बहुत सारी योजनाएं बनाई थीं, बहुत सारे सपने देखे थे, क्या मैं वही सब चाहता था। क्या मैं ये चाहता था कि प्रभा के साथ वो सब करूं जो वो सुभाष के साथ करती है। क्या मैं ये चाहता था कि प्रभा और सुभाष हमेशा मुझसे डर कर रहें। डर तो दोनो का था, लेकिन कीमत तो प्रभा को चुकानी थी, क्योंकि सुभाष आखिर मुझे दे ही क्या सकता था। तो क्या मैं ये चाहता था कि प्रभा अपनी इस मजबूरी में मेरे साथ वो सब करे जो वो सुभाष के साथ करती थी। पूरे दिन कॉलेज में मैं यही सब सोचता रहा। जब तक मेरे पास उनका राज़ है, वो मेरी हर इच्छा पूरी करेगी। जब तक मैं उसे डरा कर रखूंगा वो वही करेगी जो मैं चाहूंगा। लेकिन क्या मैं सच में ऐसा चाहता था। क्या मैं सच में चाहता था कि मैं वो सब करूं।

मैं उस शाम को छत पर नहीं गया, मैने छत पर जाना ही बंद कर दिया। मैने उसके बाद प्रभा की तरफ देखना भी बंद कर दिया। सुभाष ने कई बार मुझे बाज़ार में या रास्ते में रोक कर बात करने की कोशिश की, लेकिन मैने उससे बात नहीं की। सिर्फ एक बार मैने उससे पीछा छुड़ाने के लिए कहा, कि मैं उससे या प्रभा से कुछ नहीं चाहता। उनका राज़ राज़ ही रहेगा, मैं ये बात किसी को नहीं बताउंगा। मुझे नहीं पता कि सुभाष और प्रभा के लिए ये राहत की बात थी या नहीं, लेकिन उस दिन छत पर ना जाकर मुझे बहुत राहत मिली। उनका ये राज़ हमेशा राज़ ही रहा।

शुक्रवार, 26 जुलाई 2013

अमेरिकी वीसा






इस बात में कोई शक नहीं है कि अमेरिका एक महान देश है, सुंदर देश है और बढ़िया देश है। अमेरिका की महानता का जितना चर्चा किया जाए कम है, उसकी सुंदरता काबिल-ए-तारीफ है और वो कितना बढ़िया देश है इसकी तो सिर्फ कल्पना ही की जा सकती है। इतिहास गवाह है कि सदियों से हमारे देशवासी अमेरिका जाकर बसने को लालायित रहे हैं, अगर बस ना सकें तो कम से कम एक बार वहां का चक्कर लगा आने का मोह कोई नहीं छोड़ पाया आज तक, अहा, गौरवर्ण पुरुष और मनमोहिनी, स्वछंद, गोरी-गोरी महिलाएं, जिनके केश ”उर्दू में जुल्फें” और नयन ”उर्दू में आंखें” भिन्न रंगों की होती हैं। वे स्वछंद होती हैं, आपकी तरफ देख कर किसी वजह से या बेवजह भी मुस्कुरा सकती हैं, आपसे बिना झिझक हाथ मिला सकती हैं, और अगर आपकी किस्मत अच्छी हो तो आपके साथ दोस्ती भी कर सकती हैं, और फिर.....जो ना हो जाए वो कम है। आह! स्वपन जैसा देश है अमेरिका। मेरे कई मित्र गए हैं, जो भी गए हैं, वहां से अपनी फोटुएं भेजते या फेसबुक पर चिपकाते हैं, हर फोटू में इतने खुश नज़र आते हैं कि क्या कहने.....। अमेरिका जाकर आप डॉलर कमा सकते हैं। जब हम छोटे थे तो हमें जो सूचना मिली थी उसके अनुसार वहां, झाडू लगाने वाले के पास भी कार होती थी, यानी हर इंसान अमीर होता था, और हर इंसान पैसे में खेलता होता था। स्वर्ग जैसी व्याख्या होती थी अमेरिका की, जो अमेरिका जाता था वो पूरे परिवार के लिए गर्व और आश्चर्य का विषय होता था, और अगर किसी ने वहां कि गोरी मेम से शादी कर ली, तो समझिए पूरा परिवार भारत की 1947 से पहले वाली स्थिती में पहुंच जाता था। उस जोड़े के अलावा घर के सभी सदस्य दोयम दर्जे के नागरिक की तरह हो जाते थे। अब भी शायद ऐसा ही हो, बल्कि ऐसा ही होगा, जो डॉलर कमाता हो, वो हमसे तो अमीर ही हुआ भई। तो ऐसे स्वार्गिक देश में जाने की नरेन्द्र मोदी की इच्छा हो तो ये कोई आश्चर्य का विषय नहीं होना चाहिए। 
आपको हो या ना हो, मुझे बहुत दुख है कि नरेन्द्र मोदी को अमेरिका अपने यहां आने का वीज़ा नहीं दे रहा है। अपने जीवन में एक इंसान जो कर सकता है नरेन्द्र मोदी ने वो सब कर लिया, पैसा कमाया, शोहरत कमाई ”भई बदनाम होंगे तो क्या नाम ना होगा?” बस एक चीज़ रह गई, अमेरिका नहीं जा पा रहे। अमेरिका को भी सोचना चाहिए, तमाम तरह के गुण्डे, मवाली, धोखेबाज़, हत्यारे, अमेरिका जाते हैं, घूमते हैं, बल्कि वहां की नागरिकता हासिल कर लेते हैं, लेकिन ”बेचारे” नरेन्द्र मोदी को ही वीज़ा नहीं दे रहा। जितनी कोशिश नरेन्द्र मोदी अमेरिका के वीज़ा के लिए कर रहे हैं, उतनी अगर ईश्वर की तपस्या की होती तो वो आ गया होता, ”चल बेटा, मांग वरदान क्या मांगता है” तब मोदी कह देते कि ”हे भगवान! बस एक बार अमेरिका का वीज़ा दे दीजिए।” भई हद होती है, मुझे सच में बहुत दुख है, और नरेन्द्र मोदी के लिए बहुत कष्ट भी हो रहा है, उसे वीज़ा दिलवा दीजिए भाई, अब तो इतना ज्यादा अन्याय हो गया है उसके साथ, कि डर लगता है कहीं कुछ उल्टा-सीधा ना कर बैठे। 
और शर्म आनी चाहिए आपको कि आप चाहते हैं कि नरेन्द्र मोदी को अमेरिकी वीज़ा ना मिले, आप अमेरिका को लेटर लिख रहे हैं कि नरेन्द्र मोदी को वीज़ा ना दिया जाए। हद है। जब नरेन्द्र मोदी बनेगा ना पी एम, तो उन सभी को जिन्होने इस लेटर में साइन किया है, जेल में डाल देगा, बता दे रहा हूं आपको। बस प्रकाश कारत को छोड़ देगा, क्योंकि उन्होने अभी ही साफ कर दिया है कि लेटर में उनके साइन, उनके नहीं हैं। खैर नरेन्द्र मोदी की नज़रें फेसबुक और बाकी सोशल मीडिया पर भी हैं, उन लोगों का रिकॉर्ड तैयार करवाया जा रहा है, जो नरेन्द्र मोदी को अमेरिकी वीज़ा ना दिए जाने की हिमायत कर रहे हैं, एक बार नरेन्द्र मोदी को पी एम बन जाने दो, फिर दिखाते हैं तुम्हे। 
लेकिन पहली बात तो ये है कि मुझे अमेरिका पर गुस्सा, कि वो अभी तक क्यों नरेन्द्र मोदी को वीज़ा नहीं दे रहा। बताइए तो भला, बेमुरव्वती की हद होती है। नरेन्द्र मोदी ने क्या-क्या नहीं कर डाला, अमेरिका को खुश करने के लिए। दर्जन में तेरह के भाव में जमीन, किलो में 1100 ग्राम के भाव से बाकी चीजें़, आओ, आओ लूट ले जाओ, बस यही बाकी रह गया कि नरेन्द्र मोदी थड़े पर खड़े होकर चिल्लाएं, ”सब माल - दो रुपये, ले लो - दो रुपये, लूट लो - दो रुपये” जैसे जनपथ पर शर्ट-पैंट बेचने वाले चिल्लाते हैं। 
अब तो अमेरिका को पसीज जाना चाहिए, अब तो नरेन्द्र मोदी को वीसा दे ही देना चाहिए, चाहे तो मैं भी वहां जाकर उनसे फरियाद करने को तैयार हूं, मोदी चाहे कैसा भी हो, पर किसी इंसान को इतना तरसाना इंसानियत नहीं है। देखिए अभी राजनाथ गए, होने को तो भारत की मुख्य विपक्षी पार्टी का प्रतिनिधी होने के चलते वो अमेरिका से हज़ारों मुद्दों पर बात कर सकते थे, लेकिन ये नरेन्द्र मोदी के लिए अमेरिका वीसा का मुद्दा इतना महत्वपूर्ण है कि वहां इसके अलावा और कोई बात हो ही नहीं सकती थी। न्यूकलियर डील, खुदरा में एफ डी आई, बी टी, आर्थिक राहत, अफगानिस्तान, पाकिस्तान, मीडिया......मेरा मतलब ना जाने कितने ही ऐसे मुद्दे हो सकते थे जिन पर राजनाथ अपनी बातें रखकर अमेरिका को ये बता सकते थे कि भारत की मुख्य विपक्षी पार्टी आखिर इनके बारे में क्या सोचती है, लेकिन उन्होने इस वक्त के सबसे बड़े मुद्दे को यानी नरेन्द्र मोदी के अमेरिकी वीसा को चुना, कमाल का दूरदर्शी राजनेता ऐसा ही होता है, वो तात्कालिक जरूरत की बात को प्राथमिकता देता है। नरेन्द्र मोदी जो देश के भावी प्रधानमंत्री हैं, चाहे कुछ ही लोगों के सही, दिल में उनकी एक छवि है, एक जगह है, उनके लिए राजनाथ द्वारा वीसा की मांग करना एकदम सही कदम था, इसकी तारीफ की जानी चाहिए। 
नरेन्द्र मोदी भी एकदम सही कर रहे हैं, भारत का कोई भी प्रधानमंत्री, या भावी प्रधानमंत्री अगर अमेरिका के राष्ट्रपति की चरणरज अपने माथे पर ना लगा ले, सही अर्थों में सफल प्रधानमंत्री नहीं हो सकता। मैं उनकी इस इच्छा से पूरी तरह सहमत हूं, और इस बात से मुझे गहन सदमा और दुख पहुंचा है कि राजनाथ के भयंकर प्रयत्नों के बावजूद अमेरिका मोदी को वीसा नहीं दे रहा है। 
नरेन्द्र मोदी समर्थकों, तमाम हिंदु राष्ट्रवादियों, और भाजपा समर्थकों से मेरा उत्साही अनुरोध है कि वो अमेरिका के खिलाफ मार्च निकालें, कि उसने नरेन्द्र मोदी को वीसा नहीं दिया, खुद कभी अमेरिका ना जाने का संकल्प करें, और अपने जितने भी यार, रिश्तेदार अमेरिका में मौजूद हैं, उन्हे फौरन वापस बुला लें, अमेरिका ने आखिर समझा क्या है, हम उसे दिखा देंगे कि उसने वीसा ना देकर, और ना देने की जिद करके नरेन्द्र मोदी का जो अपमान किया है, हम उसे उसका करारा जवाब देंगे। पूरे देश में एक लहर सी दौड़ जानी चाहिए, जहां लोग मोदी के समर्थन में कभी अमेरिका ना जाने का वचन लें, और पूरी दुनिया को ये दिखा दें कि यदि कोई नरेन्द्र मोदी को अपने देश में आने का वीसा नहीं देगा तो हम भी उस देश नहीं जाएंगे। 
लेकिन साथ ही अमेरिका को ये पत्र भी भेज दें कि महामहिम सरकार, कृप्या नरेन्द्र मोदी को वीसा दे दीजिए। उसमें अपने पसीने, थूक और आंसू से साइन करेंगे। जो नरेन्द्र मोदी को अमेरिका का वीसा ना मिलने से खुश हैं, उन कायरों को बता देंगे कि नरेन्द्र मोदी ”शेर” है, और अमेरिका का वीसा तो उसे जरूर मिल कर रहेगा। 
अंत में यही कहूंगा कि मुझे नरेन्द्र मोदी की ”काबिलियत?” और अमेरिका की ”इंसानियत?” पर कोई शक नहीं है, आज नहीं तो कल, अमेरिका ना सिर्फ नरेन्द्र मोदी को वीसा देगा, बल्कि राजकीय सम्मान के साथ बुलाकर स्वागत करेगा, आखिर दोनो मौसेरे भाई हैं। लेकिन अभी तो दुख है कि बिचारे नरेन्द्र मोदी को इतने जतन करने के बाद भी अमेरिकी वीसा नहीं मिल रहा है। 

गुरुवार, 25 जुलाई 2013

हाई कमान और पार्टी लाइन




चित्र गूगल साभार 

पिछले दिनों अखबार में एक बयान पढ़ा कि देश के राजकुमार, राहुल बाबा ने कहा कि पार्टी कार्यकर्ताओं को ”पार्टी लाइन” पर ही चलना चाहिए। बयान तो बहुत सलीके का है, लेकिन राहुल बाबा के इस बयान से उनकी पार्टी यानी कांग्रेस के लोगों में अफरा-तफरी मच गई। बात कुछ यूं है कि कांग्रेस के कार्यकर्ताओं को आज तक, यानी जबसे कांग्रेस का जन्म हुआ है, ”पार्टी लाइन” का पता ही नहीं है। इतिहास कहता है कि वर्तमान कांग्रेस या भूतपूर्व कांग्रेस में ”पार्टी लाइन” नाम की कोई चीज़ ही नहीं थी, बल्कि वो तो जानते ही नहीं कि ”पार्टी लाइन” नाम की किसी चीज़ को असतित्व भी हो सकता है। हमारे देश में जितने भी दल हैं, ”कौम नस्टों” को छोड़ कर, वो कुछ इस सिद्धांत पर काम करते हैं, कि कुर्सी मिल जाए, फिर उसके लिए जो भी करना पड़े वो सब स्वीकृत है। इसलिए अब तक ये पता हीं नहीं था कि ”पार्टी लाइन” होती है और उसे मानना पड़ता है। 

हालात कुछ यूं हैं कि कुछ साल पहले जब दिल्ली विश्वविद्यालय के छात्रसंघ में जब एन एस यू आई, यानी नेशनल स्टूडेंटस् यूनियन ऑफ इंदिरा, के ”जवान” जीते तो जाहिर है टी वी पर उनका इन्टरव्यू हुआ, जिसमें उनसे पूछा गया कि वो अपनी जीत का श्रेय किसे देते हैं, जवाब था, सोनिया जी और राहुल जी, तो आप स्टूडेंटस् को क्या संदेश देंगे, सोनिया जी और राहुल जी, आप स्टूडेंटस् के लिए क्या करेंगे, सोनिया जी और राहुल जी, आप खुद क्या सोचते हैं, सोनिया जी और राहुल जी..........यानी जो कुछ भी उनसे पूछा गया उसका जवाब सोनिया और राहुल के अलावा कुछ था ही नहीं, क्योंकि उन्हे पता हीं नहीं था कि पार्टी लाइन नाम की कोई चीज होती है, उनके लिए तो पार्टी भी सोनिया राहुल थे और लाइन भी।

मुश्किल कुछ यूं है कि ”पार्टी लाइन” शब्द असल में कम्युनिस्टों की देन है, अब कम्यूनिस्ट ठहरे कौम नस्ट, उनकी हर बात किसी ना किसी विशेष कारण से होती है, इन ”कौम नस्टों” ने ”पार्टी लाइन” तक बना गेरी है। जबकि बुर्जुआ पार्टियां, असल में इस सिद्धांत पर काम करती हैं कि जो तात्कालिक नेता ने कह दिया वही पार्टी लाइन हो गई, जो मन आए कर डालो, पार्टी लाइन तो बनती-बिगड़ती रहती है। इसलिए पहले मोहनदास जो भी कह दें, वो पार्टी लाइन हो जाती थी, जैसे अंहिसा के सिद्धांत का कट्टरता से पालन करते हुए भी विश्व युद्ध को सहायता देना स्वीकार करना, या आजादी के लिए ग्रामीणों के आंदोलन को ये कहके दबा देना कि ये आंदोलन नहीं है, सिर्फ असंयत व्यवहार है। फिर जब आजादी मिली, तो नेहरू का कहना पार्टी लाइन हो गया, जो असहमत हो उसके लिए बाहर का रास्ता, फिर इंदिरा का दौर आया तो लोकतांत्रिक देश में इमरजेंसी तक कांग्रेस की पार्टी लाइन हुई, फिर राजीव गांधी के जमाने में सिखों के खिलाफ साम्प्रदायिक दंगे, बाबरी मस्जिद का ताला खुलवाना, उत्तर-पूर्व जाकर ये कहना कि ईसाइत के अलावा यहां कोई धर्म नहीं चलेगा, पार्टी लाइन थी, और अब जो भी सोनिया, राहुल कहें वो पार्टी लाइन है।  इसके अलावा पार्टी लाइन में हर वो काम शुमार होता है जो पार्टी का कोई ऐसा इंसान कर दे, जिसे आप हटा नहीं सकते, नीचे नहीं भेज सकते। या कभी-कभी यूं भी होता है कि काम कर दिया जाता है और बाद में सोच कर उसे पार्टी लाइन घोषित कर दिया जाता है। बाकी कुछ लोगों का ये अनुमान भी है कि भाई-भतीजावाद, दल-बदल, भ्रष्टाचार आदि भी कांग्रेस की अघोषित पार्टी लाइन रही है। लेकिन मुसीबत ये है कि ये जितने भी काम हुए ये पार्टी लाइन के नाम पर नहीं हुए, ये हुए हाई कमान के आदेस के नाम पर। कांग्रेस का सदियों से ये रिवाज रहा है कि जिससे भी, जिस भी विषय पर, जो भी पूछो वो पार्टी हाईकमान के आदेस का मंतर थमा देता है, जो इस आदेस को नहीं सुनता वो अंतरआत्मा की आवाज को सुन लेता है और किसी और पार्टी में जाकर शामिल हो जाता है। तो राहुल बाबा के पार्टी लाइन के आदेश का क्या मतलब निकाला जाए, कांग्रेसियों की यही परेशानी है। 

अभी का तो क्या है कि कांग्रेस पार्टी के सारे नेता, ”ज्यादातर का कोई जनाधार ही नहीं है” वकील हैं। कपिल सिब्बल, मनीष तिवारी वगैरह और भी ना जाने कौन-कौन, जो वकील नहीं हैं वो भयानक बड़बोले बूर्बक हैं, थरूर, बेनी, दिग्विजय औ ना जाने कौन-कौन, और इनका काम कुछ यूं है कि जैसे ही कांग्रेस पर, या इसके किसी नेता पर भ्रष्टाचार का कोई आरोप लगता है, ये बात की शुरुआत ही करते हैं कि ”घोटाला नहीं हुआ।” जैसे 2 जी घोटाला, कोलगेट, और भी बाकी जितने भी घोटाले रहे, उनमें कांग्रेस का पहला जवाब था, घोटाला कोई हुआ ही नहीं। मुझे पूरा यकीन है कि अगर किसी ने कपिल सिब्बल से ये पूछ लिया कि, जनाब आपके सिर के बाल सफेद हो गए हैं, तो उसका पहला जवाब होगा, कि मेरे सिर पर बाल ही नहीं हैं, सफेद क्या होगा। या फिर ये बड़बोले जाने क्या-क्या बोल जाते हैं, और पूरा मुद्दा असली मुद्दे से भटक कर इस बात पर स्थिर हो जाता है कि किसने-किसको-कब क्या कहा था। तब दिग्विजय ये साबित करने पर उतारू हो जाते हैं कि उनसे बड़ा हिन्दु कोई नहीं, और माकन इस बात को साबित करने की कोशिश करते हैं कि हम दूसरे दर्जे नाकारा हैं, पहले दर्जे के तो आप हैं। जैसे हमने गरीबी नहीं हटाई तो आपने ही कौन सा हटा दी, या हमने शिक्षा नहीं दी तो आपने ही कौन दे दी, आदि आदि। तो ये है इनकी पार्टी लाइन। 

बात का लब्बो लुबाब ये कि राहुल बाबा तो कह गए, कि पार्टी लाइन पर चलो, और हमारा तो एकमात्र सिद्धांत है कि जो हाईकमान कहे वही हमारा सिद्धांत, चाहे वो समझ में आए या नहीं, तो हम चलना तो चाहते हैं पार्टी लाइन पर, पर यहां पता तो हो कि सुसरी पार्टी लाइन है क्या, या कहां है।  तो मेरी मानो भाई लोगों, सारे मिलके, एक मांग पत्र तैयार करो, जिसमें सिर्फ एक ही मांग हो, कि बाबा राहुल, या सोनिया, या जो भी बेहतर कर सके, वो पार्टी लाइन, परिभाष समेत लिख कर, काडर के बीच बंटवा दे, ताकि राहुल बाबा की बात को माना जा सके। और कम से कम इस पार्टी लाइन को तो चलने दिया जाए कि, ”हाई कमान का आदेस है।”


मंगलवार, 16 जुलाई 2013

आपदा, अनुदान और शर्तें......



उत्तराखंड में जो आपदा आई है उसके बारे में अखबारों में पढ़ा जाए तो थोड़ा असमंजस में पड़ सकते हैं। कुछ रिपोर्टों के मुताबिक ये दैवीय आपदा थी, कुछ इसे प्राकृतिक आपदा बता रहे हैं। कहीं टी वी में देखा था कि मुख्यमंत्री ने साफ कर दिया था कि इसे मानव निर्मित आपदा कहना “बचकानापन” है। खैर आपदा है, ज्यादा बड़ी शायद चली गई, थोड़ी-थोड़ी अभी जारी है। लगातार खबरें आ रही हैं, कि फलां गांव के कुछ घरों में दरारें पड़ गई हैं, या कुछ जगह खेत या पहाड़ धसक गए हैं। कुछ नदियां लगातार खतरनाक गति से बह रही हैं। मेरा ख्याल है कि ये सबसे सही वक्त है कि जब पहले इस बात का फैसला किया जाए कि ये आपदा असल में दैवीय है, प्राकृतिक है या कुछ और है। मानवनिर्मित इसलिए नहीं कि माननीय मुख्यमंत्री बहुत ज्ञानी हैं और अगर वो एक बार टी वी कैमरा के सामने कह चुके हैं कि ये मानव निर्मित आपदा नहीं हो सकती तो इसका मतलब नहीं हो सकती। और ये सही भी है, आखिर बारिश, बाढ़, भू-स्खलन जैसी चीजें इंसान तो नहीं बना सकता, इसलिए ये कहना कि ये सब मानव निर्मित आपदा है सच में बचकानापन ही माना जाएगा।  
बड़प्पन का काम मुख्यमंत्री ने ये किया है कि लापता लोगों की कुल और सटीक संख्या बता दी है और इस तरह जो कयास लग रहे थे उन पर विराम लगा दिया है। आपदा में गायब कुल लोग हैं सिर्फ 5746, इसी बात पर मुझे अकबर-बीरबल की एक कथा याद आती है। अकबर ने बीरबल से पूछा कि “ये बताओ कि आखिर इस राज्य में कौए कितने हैं” बीरबल ने फौरन जवाब दिया कि “जनाब कुल 5746 कौए हैं” अकबर ने कहा “और अगर इससे ज्यादा निकले तो.....” बीरबल ने कहा कि “जनाव वो कौए दरअसल अपने रिश्तेदारों से मिलने आए कौए होंगे....” “और अगर कम निकले तो....” “जाहिर है अपने राज्य के कौए भी तो अपने रिश्तेदारों से मिलने बाहर जाते होंगे, जहांपनाह......” 
जाहिर है कि मेरा इरादा आपदा पीडि़तों पर व्यंग्य कसने का नहीं है, लेकिन एक ऐसा मुख्यमंत्री जिसे ये तक नहीं पता कि राज्य में गांव कितने हैं, इतने कम समय में अगर इस कदर निश्चित संख्या बता दे तो इस जवाब की तुलना बीरबल के जवाब से की जाएगी या नहीं। ऊपर से तुर्रा ये कि माननीय मुख्यमंत्री इन लापता/मृत लोगों को मुआवजा भी शर्तों के आधार पर देने की बात कर रहे हैं। यानी अगर आपका कोई आदमी लापता है तो आपको मुआवजा मिलेगा, या अनुदान जैसा भी वो कहें। लेकिन अगर लापता व्यक्ति वापस आ गया तो फिर आपको मुआवजा/या अनुदान जो भी वो कहें वापस करना होगा। अम्....पहला सवाल....तो जनाब जिसने पैसा वापस ना किया, या ना कर पाया उसका क्या होगा। जेल, या उससे भी बुरा कुछ, आप अपना अनुदान वसूलने के लिए उसके साथ कोर्ट की कार्यवाही करेंगे क्या? दूसरे, ये गरीब लोग, जो पहले की आपदा में अपना सब-कुछ खो चुके हैं, तबाकी की कगार पर हैं, आपसे अनुदान इसलिए ले रहे हैं क्या, कि उसे किसी आले में रखकर रोज़ उसके सामने धूप-अगरबत्ती जलाएं, कि लापता व्यक्ति के वापस आते ही आपका पैसा, वो चाहे मुआवज़ा हो या अनुदान आपको वापस कर सकें। अजीब मजाक है, जिन लोगों पर आपको शर्तें लगानी चाहिएं वे तो बिना शर्त के आपके पहाड़, जंगल काटते हैं नदियों का दोहन करते हैं, और खुल का मुनाफा लूटते हैं, और जब लोग आपदा का शिकार होते हैं तो उन्हे अनुदान भी आप शर्तों में बांध कर देते हैं, कि बेटा रोटी का निवाला तो डाल रहे हैं तुम्हारे मुहं में, लेकिन देखो अगर आपदा का शिकार तुम्हारा रिश्तेदार अगर भूले-भटके आग या वापस, तो हलक मे ंहाथ डाल कर निकाल लेंगे हां.....समझ लेना। 
जनाब माननीय मुख्यमंत्री साहब, असल में जब हम मानव निर्मित आपदा की बात करते हैं, तो माफ कीजिएगा, हम बच्चों वाली बात नहीं कर रहे होते, हम असल में आपकी और आपके भाजपाई बंधुओं की उन काली करतूतों का पर्दाफाश कर रहे होते है, जिन्होने इस आपदा की भूमिका तैयार की थी, क्योंकि ये तो बच्चा भी जानता है कि अगर नींव को कमजोर कर दिया जाए तो घर ढहते देर नहीं लगती, क्या आप नहीं जानते। ये तो बच्चों के स्कूल सिलेबस में ही पढ़ा दिया जाता है कि अगर पहाड़ से पेड़ों को काट दिया गया तो भू-कटान होगा, जिससे भारी क्षति हो सकती है। लगता है मुख्यमंत्री जी ने बच्चों की ये किताबें नहीं पढ़ी, और अगर पढ़ी हों तो भूल गए हो सकते हैं, जो कि स्वाभाविक भी है, क्योंकि मुख्यमंत्री का पद इतनी जिम्मेवारी का पद होता है कि बच्चों को पढ़ाई जाने वाली, प्रकृति के साथ छेड़छाड़ ना करने वाली ये बातें भूल जाएं तो कोई अस्वाभाविक बात ना होगी। 
समस्या ये है कि इस राज्य के भोले-भाले लोग ये नहीं भूलते, और ना ही भूल सकते हैं, वो याद रखते हैं कि उनके लगातार विरोध के बावजूद, इन पहाड़ों को, इनके जंगलों, खेतों, नदियों को लगातार पूंजीपतियों को बेचा जाता रहा, ये नहीं भूल सकते कि आपने और आपसे पहले वाली सरकार ने, और इन पूंजीपतियों ने मिलकर इस पूरे पहाड़ को और पहाड़ी राज्य को बरबाद कर दिया है। 
आपदा के समय, माननीय मुख्यमंत्री जी, ये लोग आपके बयान, और भाषणबाज़ी तीरों की जगह, आपकी सहायता चाहते थे, आपकी सहानुभूति चाहते थे, आपदा में मरने वालों की लाशों पर राजनीति की अपनी धार को पैना करने का मौका ना आप छोड़ रहे हैं, और ना ही दिल्ली में जाकर राज्य पर राष्ट्रपति शासन लगाने की मांग करने वाले आपके पूर्ववर्ती छोड़ पा रहे हैं, लेकिन असल में आपदा पीडि़तों को इससे क्या लाभ हो रहा है, ये देखने वाला कोई नहीं है। लोग भूख-प्यास से मर रहे हैं, बीमारियों और हताशा से मर रहे हैं, और पूरी उम्मीद है कि लोग आपके अनुदान की शर्तें पूरी करने के चक्कर में भी मरेंगे ही। मुझे डर है कि कहीं आपदा से जूझते ये लोग आपके मंतव्यों की सच्चाई को समझ कर कहीं आप पर ही शर्तों को पूरा करने का दबाव ना डालने लगें, तब ना आपके लिए कोई ठौर बचेगा, ना ही जेपी जैसे पूंजीपतियों के लिए और ना ही आपके पूर्ववर्तियों को सिर छिपाने का कोई मौका मिलेगा। 

शनिवार, 13 जुलाई 2013

नरेन्द्र-कुत्ता




शीर्षक से आप ये ना समझिएगा कि मैं नरेन्द्र को कुत्ता कह रहा हूं, या उसका अपमान या बेइज्जती कर रहा हूं, असल में मैं इस लेख का जो शीर्षक बनाना चाहता था, वो बहुत लंबा था, अब शीर्षक लंबा हो तो लोग लेख ही क्यों पढ़ेंगे, शीर्षक पढ़कर ही काम चला लेंगे। क्योंकि हिंदी पाठक बहुत आलसी होता है, सरसरी निगाह से देखता है और बस्स्स्स्स्स.....हो गया। यानी समझ गया। अबे जो नीचे लेख लिखा है उसे तो पढ़, मेरा मतलब है पढ़ो, तो अगर शीर्षक लंबा होगा तो लोग लेख नहीं सिर्फ शीर्षक पढ़ कर रह जाएंगे, इसलिए मैने शीर्षक में से जो दो सबसे महत्वपूर्ण शब्द थे, यानी ”नरेन्द्र और कुत्ता” उठा लिए और उसे शीर्षक बना दिया। इसलिए कृप्या शीर्षक को अन्यथा लें, और पूरा लेख पढ़ें, अच्छा लगे या बुरा, कमेंट जरूर करें।

अभी तो हर जगह कुत्तों और कुत्तों के बच्चों, यानी पिल्लों की बात चल रही है। नरेन्द्र ने कह क्या दिया कुत्तों के बारे में, कि हर आदमी को कुत्तों के बारे में अपने विचार प्रकट करने की थोड़ी जल्दी मच गई। कुछ लोगों का कहना है कि नरेन्द्र ने कुत्तों की तुलना इंसान से की है, कुछ का कहना है कि वो फासिस्ट है, कुछ तो खैर उसे कातिल, बेरहम और ना जाने क्या-क्या समझते हैं, और समझते रहेंगे। गलती इनकी भी नहीं है, नरेन्द्र का अपना स्वभाव, हाव-भाव, चाल-चलन कुछ ऐसा है कि वो कहता कुछ है, छपता कुछ है, और लोगों की समझ में कुछ और ही आता है। 

वैसे नरेन्द्र ने ऐसा कुछ नहीं कहा कि आप लोग ऐसी सब गलत-सलत बातें करें, उसने एक फालतू सवाल के जवाब में एक सार्थक जवाब देने की कोषिष की, यानी ऐसा जवाब जिसे सुन कर आप उसके व्यवहार, चरित्र आदि के बारे में जान जाएं, लेकिन आपने ऐसी जहमत नहीं उठाई। ये नरेन्द्र की खूबी है, आप जितना मांगते हैं, वो उससे ज्यादा देता है, कभी-कभी तो आपको मांगना ही नहीं पड़ता और वो दे देता है। 

अब यही देखिए, क्या आपने कभी नरेन्द्र को कहा कि आपको प्रधानमंत्री पद का कोई उम्मीदवार चाहिए, लेकिन उसने खुद को पेष कर दिया, क्या आपने कभी कहा था कि आपको विकास का एक मॉडल चाहिए, उसने बिना कहे पेश कर दिया, सच और झूठ पर आप बहस करते रहिए, उसने तो मॉडल पेश कर दिया। असल में नरेन्द्र जैसा व्यक्तित्व कई हजारों वर्षों में एक बार पैदा होता है, फिर मर जाता है, मेरा मतलब है जीवन तो नश्वर है, लेकिन यहां महत्व ऐसे व्यक्तित्व के पैदा होने का है। तो नरेन्द्र जैसे व्यक्तित्व के बारे में आप कोई अनर्गल बात ना सोचें और ना बोलें, और ना लिखें। 

तो सुनिए हुआ असल में क्या था, नरेन्द्र से पूछा गया कि ”क्या आपको साल 2002 में जो हुआ उसका अफसोस है?” अब नरेन्द्र तो नरेन्द्र है, उसने आपको उससे ज्यादा देना है जो आपने मांगा है, या वो दे देना है जो आपने नहीं भी मांगा। तो उसने क्या जवाब दिया, उसने कहा, ”देखिए अगर आप कार चला रहे हों तो आप ड्राइवर होते है।” जवाब के इस हिस्से को समझिए, अगर आप कार चला रहे हों तो आप ड्राइवर होते हैं, ये बात वही कह सकता है जिसने कार चलाई हो, अगर आपने कार ना चलाई हो तो आपको पता ही नहीं चल सकता कि आप ड्राइवर तभी कहलाए जाएंगे जब आप कार चलाते होंगे। गूढ़ार्थ को समझिए, इतने नेक नरेन्द्र की सद्भावनाओं पर गौर करें। उसने आपको कुछ सच्चाईयां बताई हैं। जो सवाल पूछा गया था, वो स्पष्ट नहीं था, सवाल था कि ”साल 2002 में जो हुआ क्या आपको उसका अफसोस है?” अब नरेन्द्र के इन्टरव्यू में कोई ये पूछेगा तो ये नरेन्द्र का फर्ज बनता है कि वही बताए कि साल 2002 में वही था जो गाड़ी चला रहा था, यानी ड्राइवर था। वरना कन्फ्यूज़न हो सकती थी, तो पहले उसने साफ किया कि उससे ये सवाल इसलिए हुआ है कि वही था जो कार चला रहा था, फिर उसने कहा कि, ”अगर चलती कार के नीचे कुत्ता भी आ जाए तो किसे अफसोस नहीं होगा”, यानी सबको अफसोस होगा। अब यहां भी आपको इस जवाब में गूढ़ार्थ देखने होंगे, आखिर नरेन्द्र है। तो उसने कहा कि अगर कार के नीचे कुत्ता आया होता तो उसे अफसोस होता। 

अब अगर आप इसका मतलब ये निकालने लगे कि उसने दंगे में मरने वालों की तुलना कुत्तों से की है तो ये अन्याय है। नरेन्द्र ने साफ कहा कि ”अगर” गौर कीजिए, ”अगर” पिल्ला भी कार के नीचे आ जाए तो उसे अफसोस होगा, साफ है कि उसका मतलब है कि उसे 2002 में जो हुआ उसका कोई अफसोस नहीं है, क्योंकि जाहिर है, 2002 में कोई ”पिल्ला” नहीं मरा था, बल्कि कुछ लोगों को माराकाटा गया था। अब नरेन्द्र जैसे व्यक्तित्व से आप इंसानों की हत्या पर अफसोस की बात सोच भी नहीं सकते। क्योंकि.....क्योंकि......क्यांेकि नरेन्द्र, नरेन्द्र है, वो आप हम जैसा नहीं सोचता, वो एक महान व्यक्तित्व है, और महान व्यक्तित्व पिल्लों की मौत का अफसोस कर सकता है, इंसानों की हत्या का नहीं, हमें उससे ऐसी उम्मीद नहीं करनी चाहिए। हमें उससे कैसी भी उम्मीद नहीं करनी चाहिए, वो बिना मांगे देता है, जितना मांगे उससे ज्यादा देता है। 

आपको मेरी इन बातों पर यकीन नहीं है। पूछिए रतन टाटा से, उन्होने गुजरात में कार लगाने के लिए जगह नहीं मांगी थी, नरेन्द्र ने खुद दी, और फिर इतना दिया, इतना दिया कि दुनिया की सबसे महंगी कार, शायद रतन टाटा मुफ्त में बना कर जनता को बेच रहे हैं, और भी ना जाने कितनी देशी-विदेशी कम्पनियां हैं जिन्हे नरेन्द्र मुफ्त में दे रहे हैं, जितना चाहिए उससे ज्यादा दे रहे हैं, और इस काम में जितने भी किसानों, मजदूरों की बली दी भी जाए तो उन्हे कोई मलाल नहीं है, ना अफसोस है, क्योंकि वे सिर्फ पिल्लों की मौत पर ही अफसोस जता सकते हैं, ऐसे ही हैं नरेन्द्र।

तो आप मांगे ना मांगे, नरेन्द्र ने खुद से जिद कर ली है कि वे इस देश को खुद के रूप में एक ”..........” प्रधानमंत्री देंगे, फिर चाहे आप मांगे ना मांगे, और हो सकता है कि उसके बाद इस देश में पिल्लों की दर्दनाक मौत कभी ना हो। इंसानों की बात रहने दीजिए, मरते ही रहते हैं, इसमें नरेन्द्र जैसे व्यक्तित्वों के अफसोस करने लायक कुछ है भी नहीं।

शुक्रवार, 12 जुलाई 2013

मैट्रो - दिल्ली - अश्लीलता




वैसे दिल्ली मैट्रों में जो हुआ, वो गलत था, अगर अब भी हो रहा है तो गलत ही हो रहा है। प्रेम का प्रदर्शन भारतीय सभ्यता में इतना अश्लील तो कभी ना था। मुझे पता है, अभी भारतीय सभ्यता में मीन-मेख निकालने वाले, कृष्ण द्वारा गोपियों के कपड़े चुराने वाले प्रसंग का उल्लेख करने लगेंगे, लेकिन मेरे भाई, कृष्ण ने गोपियों के सिर्फ कपड़े चुराए थे, उनके साथ वो सब नहीं किया था जो मैट्रो में आप लोगों ने देखा। फिर कृष्ण को गोपियों के साथ एक अलग किस्म का, खास वाला रिश्ता था, मुख मैथुन की बात तो वो सोच ही नहीं सकते थे, और सौ बातों की एक बात, उस समय मैट्रो होती ही नहीं थी, और ये सब जो दिखाया गया, वो जमुना में नहीं हुआ था, मैट्रो मे हुआ है।

याद रखिए, मैट्रो में, वैसे मैट्रो में हो या पार्क में, गली में हो या घर में, सवाल इसके होने का है, ये जो हुआ वो बहुत गलत हुआ है। क्योंकि प्रेम का प्रदर्शन भारतीय सभ्यता में इतना अश्लील तो कभी ना था, लड़की को देखते ही गश खाकर गिर जाना, दोनो का एक दूसरे की विरह में गर्म सांसे छोड़ना, सूख कर कांटा हो जाना, भूख-प्यास खत्म हो जाना, आदि-आदि, जैसे सुसंस्कृत तरीकों से प्रेम प्रदर्शित कीजिए, ये क्या कि आप लोग मिलने लगो, हाथ-वाथ पकड़ने लगो, या और भी अंतरंग दिखने की कोशिश करो, ऐसे काम कहीं भी अच्छे नहीं लगते, ऐसे कामों पर बैन लग जाना चाहिए। बल्कि मैं तो ये तक कहूंगा कि दुनिया के कोने-कोने पर, हर घर में, बिना किसी जगह को छोड़े, खुफिया कैमरा लगा होना चाहिए, अगर कोई इस तरह की कोई अश्लील हरकत करता हुआ देखा जाए, तो फौरन उसे गोली मार दी जाए। इस तरह की कोई भी हरकत, चाहे वो आप अपने बेडरूम में ही क्यों ना करें, तब तक अलाउ ना की जाएं, जब तक कैमरा के सामने आप अपना आयु प्रमाण पत्र, मय मैरिज सर्टिफिकेट के पेश ना करें। 

मैं जानता हूं कि आप कहेंगे कि ये छोटे अपराध की बड़ी सजा होगी, लेकिन याद रखिए कि जनता को ऐसे ही डरा-धमका कर, गोलियों के साए में हम शांति, सभ्यता और संस्कृति की बात कर सकते हैं। अब यही देखिए, कश्मीर एक रोमांटिक जगह थी, स्वर्ग कहते थे लोग उसे, कुछ बेवकूफ अब भी कहते हैं, हमने वहां फौज लगवा दी, अब स्वर्ग में फौज बैठी गोलियां भांज रही है, बलात्कार कर रही है, रोमांस गया भाड़ में, भागा दुम दबाकर, रंज यही है कि स्स्साल्ला यही रोमांस शायद दिल्ली मैट्रों में घुस गया। 

दुख ये भी है कि दिल्ली मैट्रो जैसी, विश्व विख्यात सर्विस को बदनाम कर दिया गया है। दिल्ली मैट्रो में खाना खाना, गाना गाना, नियत जगह के अलावा कहीं बैठना, हंसना, मुस्कुराना, तेज़ चलना, आदि, सब मना है। ऐसे में दिल्ली मैट्रो में ऐसी हरकतें, सच कहें दिल पर कटारी चल गई। अब आप ही बताइए, फौज ने हजारों बलात्कार किए, पुलिस ने हजारों बलात्कार किए, नेता लोग रोज ही ना जाने कैसे-कैसे कुकर्म करते हैं। पर कभी किसी ने ऐसा सब किसी सार्वजनिक जगह पर नहीं किया, और ना ही ये सब कैमरा में टेप हुआ। ये होता है सभ्य सभ्यता का सभ्यतापूर्ण आचरण। ऐसे ही थोड़े कि गए मैट्रो में और अंट-संट सब करने लगे। वैसे आप ये सब कहीं भी करें, ये सब टेप हो सकता है, टेप लीक हो सकता है, आप चाहें ना चाहें सारी दुनिया के सामने आ सकता है, इसलिए एक तो ये कहना कि आप ये सब एकांत समझ कर ही कर रहे थे, गलत है, क्योंकि आखिर तो हमको दिख ही गया ना कि आप क्या कर रहे थे, और आपको ऐसा करने का कोई अधिकार नहीं है। समझे आप?

मेरे हिसाब से, ये जो यंग जेनरेशन, खराब हो चुकी है, मेरा मतलब जिसकी संस्कृति भ्रष्ट हो चुकी है, उसे देश निकाला दे देना चाहिए और बाकि अपने देश में सिर्फ उन युवाओं को रखना चाहिए, जो इस तरह की सभ्यता के विरोध में, लाठिया, तलवारें, चाकू, त्रिशूल या इस तरह के जो हथियार हथियाए जा सकते हैं, उनका प्रयोग करते हैं। ये खास वाली यंग जेनरेशन अपना नाम, काम, और चरित्र बंदरों, भालुओं जैसा रखती है, दुनिया की हर महिला को अपनी मां-बहन मानती है, दूसरे धर्मों को छोड़ कर, क्यूंकि उनके साथ तो आप कुछ भी करने के लिए स्वतंत्र हैं, कुछ अपने ही धर्म में जो नीची जात के हैं, उन महिलाओं को भी छोड़कर, क्योंकि उनके साथ तो कुछ भी किया जा सकता है, बाकी जो महिलाएं बचीं, उनमें जिनसे विवाह करना है, उन्हे छोड़कर सबको मां-बहन मानते हैं। ये जो भी करते हैं, वो अंधेरे में, सीढ़ी के नीचे वाले कमरे में, खेत में, या मंदिर के पीछे करते हैं, वहां खुफिया कैमरा क्या, बिजली तक नहीं होती। अगर कभी कैमरा आता भी है तो तभी जब ये खुद ऐसा चाहते हैं, यानी जब सार्वजनिक रूप से लड़कियों की बेइज्जती करनी हो, उन्हे परेशान करना हो, जैसी चीजें.....वरना कोई मजाल की इनकी हरकतों को कोई कैमरा में पकड़ भी ले। 

खैर बात का लब्बो-लुबाब ये है साहब कि दिल्ली मैट्रो में जो हुआ, वो नहीं होना चाहिए था, और इस ”कांड” का दोष फुटेज लीक पर नहीं डाला जा सकता, क्योंकि मैट्रो के बोरिंग सफर को, थोड़े ही कोई लीक करता, कोई मसालेदार-चटकारेदार फुटेज को तभी तो उसे लीक किया जा सकता है। इसलिए मैट्रो गार्डस्, पुलिस, सी बी आई, सी आई डी आदि को इस बात की जांच करनी चाहिए कि इस तरह की हरकतें करने वाले, मैट्रों में ना बैठें, पार्कों, गलियों, नदि किनारों, समुद्र के बीचों, या ऐसी कोई भी जगह जो हों, उनमें ना जा सकें। इसके अलावा ये कोशिश भी की जानी चाहिए कि इस तरह के समय में जब डिब्बे खाली होने की संभावना हो तो वहां कोई ना कोई छुप कर बैठा रहे, ताकि अगर कोई ऐसी हरकत करने की कोशिश करे, तो उसे रंगे हाथों, दबोचा जा सके। बाकी लीक करने वालों को धन्यवाद कि उन्होने ऐसी राष्ट्रीय शर्म वाली चीज की तरफ हमारा ध्यान आकर्षित करवाया, हमे उम्मीद है कि वे आइंदा भी इसी तरह अन्य सार्वजनिक जगहों पर लोगों के निजी आचरण को खुफिया तरीके से टेप करके, सार्वजनिक करते रहेंगे। 

गुरुवार, 11 जुलाई 2013

कचरा





चित्र गूगल साभार
भाग - 2


पता नहीं किसने पुलिस को फोन किया था, लेकिन पुलिस वहां आ पहुंची थी। पुलिस के दो जवान, ”हालांकि किसी भी एंगल से वो जवान नहीं थे” अपनी पुलिसिया निगाहों से कचरे का अवलोकन करते हुए लोगों की बातें सुन रहे थे। हर आदमी का अपना बयान जुदा था, हर इंसान की बात अपनी जगह सही थी। हर कोई कचरे की इस लड़ाई का दोषी अपने हिसाब से किसी ना किसी को ठहरा रहा था। पुलिसवाले दो थे, आमतौर पर ऐसे मामलों में जो पुलिसवाले मौकाएवारदात, संक्षिप्त में मौके पर पहुंचते हैं, उनमें से एक अपना हाथ उठाकर, मुहं खोलकर, थोड़ा धमकाकर, थोड़ा मनुहार से बातचीत करते हुए मामले की तह तक जाने की कोशिश करता है और दूसरा, उस तह के किनारे पर खड़ा हुआ नोट्स बनाता है। हालांकि वे दोनो ही इसके सिवाय कुछ नहीं करते थे, कि थाने की पुलिस के आने तक मामले को जस का तस रखा जाए। 

लेकिन ये मामला कुछ अलग सा था, कचरा सामने पड़ा था, बदबू मार रहा था, उसकी वजह से गली रुकी हुई थी, हालांकि गली के रुकने की दूसरी वजह उस कचरे पर झगड़ा करते लोग भी थे जिन्होेने कचरे से बची हुई गली को पूरी तरह घेर लिया था, और पुलिसवाले ये समझने की कोशिश कर रहे थे कि आखिर मामला सुलझाया कैसे जा सकता है।

गोविन्द जी की पत्नि का कहना था कि श्रीलाल अपना कचरा उनके घर के सामने से उठाए वरना वो किसी भी तरह की थाना-चौकी करने के लिए तैयार हैं, उनकी बात जायज़ थी। इधर श्रीलाल, पहले तो इसी बात से इन्कार कर रहे थे कि कचरा उनका है, और फिर अगर उनका है भी तो अब वो नये आदमी के कचरे के नीचे से अपना कचरा आखिर निकालें कैसे? इनकी बात भी जायज़ थी। तीसरे यानी नये आदमी, जो कि कराएदार था, उसका कहना था कि आखिर वो इस कचरे में से अपना कचरा अलग कैसे करे? बात तो उसकी भी जायज़ ही थी। और पुलिस वालों को समझ नहीं आ रहा था कि आखिर इन जायज़ बातों में से किसी बात को नाजायज़ माना जाए और फैसला किया जाए। पुलिस वालों की ट्रेनिंग ”मौके” पर पता चली बातों में से नाजायज़ बात को ट्रेस करके समस्या का समाधान करने की होती है, या फिर जिससे रिश्वत मिल जाने के चान्स हों, उसकी बात को जायज़ बनाने की होती है। लेकिन एक तो यहां सारी ही बातें जायज़ थीं, दूसरे तीन मुख्य लड़ाकों में कोई भी रिश्वत देने को तैयार ”बकरा” नहीं दिख रहा था। पुलिस वालों को यहां अपना टाइम खराब होता दिखाई दे रहा था। आखिर पुलिसवाले ये साबित करके जाने को तैयार हुए कि इस मामले में कुछ नहीं रखा, लेकिन मुहल्ले वाले उन्हे जाने देने को तैयार नहीं थे। कुछ अपने कर्तव्यबोध के चलते और ज्यादा इसलिए क्योंकि उन्हें खींचा जा रहा था, पुलिस वालों ने लालाजी की बैठक में फौरी चौकी जमा ली, आस-पास लोगों का जमावड़ा था, एक सोफे पर पुलिसवाले बैठे थे, सामने लालाजी बैठे थे। घर लालजी का था इसलिए उनका बैठना लाजमी था, बाकी पुलिसवाले तो, खैर पुलिसवाले थे इसलिए वो बैठे थे, बाकी लोग खड़े थे, इसलिए भी कि एक तो वो सब तमाशबीन थे और दूसरे इसलिए भी कि, लाला जी की घुच्ची सी बैठक में कुर्सियां लगाने की ज्यादा जगह थी भी नहीं। 

खैर तो सारे लोग बाग जब जम गए तो, इजलास शुरु हुई। मामले को फिर से सुना गया, हर जाविए से उसे देखा गया, लालाजी के विचार और शिकायत को भी ध्यान से सुना गया। जिसकी एवज़ में उन्होने पुलिसवालों को ठंडा शरबत भी पिलाया। थोड़ी देर की चखचैं में जो अंतिम नतीजा निकल रहा था, वो पुलिसवालों की आंखों में दिखाई दे रहा था। नये किराएदार की बात को बाकायदा नाजायज़ ठहराने की तरफ सारी बातचीत का रुख मुड़ता लग रहा था। फिर उसके खिलाफ आरोपों को गिनाया जाने लगा, जिसमें लाला जी का हाथ झटकना और रमनभाई और मेहता जी के साथ हाथापाई की बात भी शामिल थी। मामला आगे बढ़ा तो उसे चुप करके दूसरे की बात को तरजीह दी जाने लगी थी, कुल मिलाकर तय था कि पैसा अकेले लालाजी, या लालाजी और बाकी लोग देंगे, और कूड़ा उठाने का जिम्मेदार नये आदमी यानी किराएदार को माना जाएगा और उसे कूड़ा उठाना या उठवाना पड़ेगा। 

आखिरकार वही हुआ जिसका अंदाजा था, पुलिसवालों ने फैसला सा सुनाते हुए उस नये आदमी को आदेश दिया कि वही कूड़ा उठाएगा या उठवाएगा, वरना वो उनके साथ थाने चले। मुहल्ले के सभी लोग हर्षनाद सा करते हुए लालाजी की बैठक में से निकल आए। पीछे लालाजी ने कुछ मोलभाव सा करते हुए और श्रीलाल जी और गोबिन्दजी से कुछ मशवरा करके पुलिसवालों को 1000 रु. भेंट किए और अपनी विजय का मजा लेने बाहर आ गए। 

लेकिन बाहर तो नज़ारा ही कुछ अलग सा था। कचरे की रेहड़ी वाले रेहड़ी खड़ी करके कचरा उठा रहे थे, और लोग उन्हे खामोश देख रहे थे। लालाजी की बैठक से निकल कर पुलिसवाले गली के बाहर की तरफ चले गए जहां उन्होने अपनी पीली पल्सर खड़ी कर रखी थी, नये किराएदार ने अपनी साइकिल ली, और अपने घर की तरफ निकल गया, धीरे-धीरे भीड़ अपने-अपने घर पहुंच गई, सभी को अपने घर का कचरा निकलवाना था, लाला जी खड़े हुए सड़क पर से कचरा उठाते कचरे वाले को देखते रह गए।

बुधवार, 10 जुलाई 2013

कचरा




”समय पर कचरा उठाने वाला ना आए तो सारा घर गंधा जाता है” बुआ ने बाथरूम से निकलते हुए कहा, वो पास ही चूल्हे में लकड़ियां डाल रहा था। उसने एक बार बुआ की तरफ देखा और फिर कचरे की तरफ, कचरे वाली बाल्टी पूरी भरी हुई थी और थोड़ा सा कचरा बाहर भी पड़ा हुआ था, रात बारिश होने की वजह से कचरे में पानी पड़ गया था और घर का कचरा भी घूरे की तरह बजबजा रहा था। कचरे की मीठी बदबू पूरे घर में फैली हुई थी, लेकिन कोई कुछ कर नहीं सकता था। पहले लोग रेलवे लाइन के पास कचरा फेंक आते थे, लेकिन जब से रेलवे वालों ने वहां अपनी कॉलोनी बना दी थी, बस्ती का कचरा फेंकने की जगह खत्म हो गई थी और अब सारे मुहल्ले वाले कचरे वाले की रेहड़ी का रास्ता देखते थे। हालांकि उसका निश्चित समय था और वो उसी समय आता था जब उसे आना होता था, लेकिन पिछले दो दिनो से कचरे की रेहड़ी का कुछ पता नहीं था। पूरी बस्ती में, हर घर में दो दिनों का कचरा जमा हो चुका था और लोगों को समझ नहीं आ रहा था कि आखिर इसका क्या किया जाए। 

पहले का हिसाब अच्छा था, जामवती नाम की एक भंगन आती थी, जिसका काम घर-घर से कूड़ा जमा करना होता था, वो अपने साथ एक टोकरी लिए रहती थी, जिसमें लोग कूड़ा डालते थे, उसमें एक छोटी सी झाड़ू भी होती थी, जिससे वो आस-पास का कूड़ा बिना कुछ कहे समेट कर उठा लेती थी, वो बस्ती की हर गली में जाती थी, और गली का कूड़ा जमा करके जाने कहां ”शायद रेल की पटरियों पर ही” फेंक आती थी। इसके बदले में उसे हर घर से कुछ खाना मिलता था, घर में मां सुबह के खाने में से उसका खाना अलग करके रखती थी, जिसमें रोटी,सब्जी, होती थी, कभी-कभी मिठाई और सीधा भी रखा जाता था। खैर वो दिन तो जाने कबके हवा हो चुके थे। अब जामवती कूड़ा जमा नहीं करती थी, अब कूड़ा जमा करने का काम दो लड़कों का था जो कूड़े की रेहड़ी लेकर आते थे और बाहर से ही आवाज़ लगाते थे ”कूड़ा डाल दो” लोग अपने कूड़े के डिब्बे की तरफ इशारा करते थे और वो एक बड़े से झोले में कूड़ा जमा करके उसे रेहड़ी में उढ़ेल देते थे। सुबह 8 बजे से ही गलियों के कोनो में उनकी रेहड़ी दिखने लगती थी, और 12 बजते ना बजते वो बस्ती को मुख्य रास्ते से जोड़ने वाले चौराहे पर रेहड़ी को खड़ा करके कूड़ा बीनते थे। गीला कूड़ा एक तरफ, सूखा कूड़ा एक तरफ, फिर..... जाने वो उस कूड़े का क्या करते थे। लेकिन पिछले दो दिनो से ना जामवती दिखाई दी थी और ना ही कूड़े की रेहड़ी।

तीसरे दिन सुबह-सुबह उसकी गली में ही झगड़ा हो गया, श्रीलाल ने अपना कूड़ा गोविन्द जी के घर से सामने फेंक दिया था। अब गोबिन्द जी की पत्नि श्रीलाल को गालियां दे रही थी, और श्रीलाल आधा गेट के अंदर- आधा बाहर उन गालियों का जवाब दे रहा था। अजीब मंजर था, हालांकि श्रीलाल का दावा था कि ये कचरा उसने नहीं फेंका, लेकिन गली में सबको पता था कि हर हफ्ते कपूर के तेल की बोतल श्रीलाल के घर ही आती है, और कूड़े में कपूर के तेल की बोतल पड़ी साफ दिख रही थी। इधर श्रीलाल जी और गोविन्द जी की पत्नि का झगड़ा चालू था कि साइकिल के कैरियर पर कचरे का डिब्बा उठाए एक सज्जन आ पहंुचे, वे अपनी साइकिल को गली में पड़े कूड़े से बचाकर निकाल ले जाना चाहते थे, लेकिन जाने क्या हुआ, कैसे हुआ कि साइकिल का पिछला पहिया कूड़े पर पड़ा, एक तरफ को फिसला और फिर वो, हें हें करते रहे कि कूड़े के डिब्बे समेत पूरी साइकिल एक तरफ को उलट गई। डिब्बे का कूड़ा भी, गली में पहले से पड़े कूड़े में जा मिला। जो थेाड़ा बहुत रास्ता गली में पैदल चलने वालों के लिए बचा हुआ था वो भी बंद हो गया। 

श्हारों की गलियों में वैसे ही पैदल चलने की गुंजाइश बहुत कम होती है, जबसे बैंकों ने इन्सटॉलमेंट वाला सिस्टम लागू किया है, मोटरसाइकिलों ने शहर के मुहल्लों की गलियों में कब्जा जमा लिया है। यूं लगता है कि सबने ये मोटरसाइकिलें इसीलिए खरीदी हैं ताकि उन्हे गलियों में खड़ा किया जा सके। उपर से घर बनाने वाले अपने घर के सामने गली में घर की दीवार के साथ चबूतरा बनवाना अपना जन्मसिद्ध अधिकार समझते हैं और इसे लेकर भी अक्सर मुहल्लों में सिर फुटौवल हो ही जाती है। खैर, गली में बने हुए चबूतरों और गली के दोनो तरफ खड़ी मोटरसाइकिलों के चलते बीच में कुछ 1 या 1.5 फुट का जो रास्ता बचा रह गया था, वो कूड़े से भर गया था। 

गली के कचरे में नये आदमी का कचरा मिल गया था। ये नया आदमी कोने वाले मकान के तिवारी जी के यहां नया किराएदार आया था। जब ये नया कचरा पुराने कचरे में मिला तो पहले तो सभी अवाक से चुप हो गए, फिर तीनो एक साथ शुरु हो गए। पहले डिब्बा गिरने की आवाज़, और उसके अचानक बाद एकाएक शोर की आवाज़ ने पूरे मोहल्ले के जमा होने लायक सामग्री उपलब्ध करवा दी थी। अचानक लोग अपने-अपने घरों से निकल कर उस कचरे के ढेर के पास जमा होने लगे थे। सबके पास अपनी राय थी, सबके पास अपना समाधान था, किसी का कहना था कि इस कचरे को वो नया आदमी उठाए, कोई चाहता था कि एम सी डी को फोन लगाया जाए, किसी ने कहा कि कचरे वाले लड़कों को ढूंढना चाहिए तो कोई सीधा पुलिस को बुलाने की बात कर रहा था। वो नया आदमी जो कचरा गिरने पर पहले बचाव की मुद्र में था अब अपनी साइकिल का हैंडल पकड़े सभी को देख रहा था और महौल भांपने की कोशिश में अजीब सा मुहं बना रहा था। जाहिर था कि वो अपना कचरा उठाने को तैयार नहीं था, और फिर आखिर ये पता कैसे चलता कि उसका कचरा कितना और कौन सा था।

फिर अचानक ही हाथापाई सी शुरु हो गई। हुआ कुछ यूं कि वो नया आदमी धीरे से पीछे हुआ और फिर साइकिल घुमाकर चलने की तैयारी करने लगा, उसके इस गुपचुप एक्शन को लालजी ने देख लिया, अब लालजी, लालजी ठहरे, यूं तो वो भी मुहल्ले में नये ही थे, लेकिन एक तो उन्होने यहां एक मकान खरीदा था, दूसरे वो इस किराएदार से कदरन पुराने थे। जाने किस अधिकर से उन्होने उचक कर उस नये आदमी की कोहनी पकड़ ली और उसे वापिस खींचते हुए बोले, ”तू कहां जा रहा है......” उस नये आदमी को शायद उनके कोहनी पकड़े जाने से इतना एतराज नहीं हुआ जितना उसे ”तू” पुकारे जाने से, और वो कुछ धमकी तो कुछ ”देखलूंगा” वाले लहज़े से.....सो उसने पलट कर लालाजी के हाथ को झटका दे दिया। लालजी बड़े व्यापारी थे, लेकिन बड़े पहलवान तो नहीं ही थे, उनके हाथ ने उनके शरीर समेत झटका खाया और अचानक ही उनके गले से कुछ, ”बचाओ” कुछ ”मार डाला” टाइप आवाज़ निकली। आपस में बातों के जरिए अपने एक्शनस् के बारे में बताते लोगों का ध्यान लाला जी की तरफ गया, तो देखा कि वो और नया आदमी एक दूसरे को ”खा जाने” वाली नज़रों से घूर रहे हैं, लाला जी ने अपने बायें हाथ से अपना दायां हाथ पकड़ा हुआ है, और ऐसा लग रहा है जैसे वो नये आदमी पर बस झपट पड़ने को तैयार हैं, इधर नया आदमी भी अपने फुल तेवर में था, और वो लालाजी को आखंे दिखा रहा था। 

सुभाष जो अब तक तटस्थ सा इस सारे नज़ारे का अवलोकन करता हुआ अपनी पीठ खुजा रहा था। सुभाष इस मुहल्ले का ऐसा दादा था जिसे अब तक किसी से चुनौती नहीं मिली थी, उसका काम था गली के अंत में लगे खंभे के साथ एक पैर खंभे पर रखे हुए गुटका चबाना, आते-जाते लोगों को घूरना, ”सिर्फ लड़कियों को नहीं, सबको” छोटे बच्चों को डराना धमकाना, या गाहे-बगाहे किसी रेहड़ी वाले को डरा-धमका कर उसकी रेहड़ी से कुछ सामान उठा लेना। उसे लगा कि जैसे ये उसके एरिया का मामला है, उसने आव देखा ना ताव नये आदमी को थप्पड़ मार दिया, वैसे ये वही सुभाष था जिसने कुछ दिन पहले लाला जी के घर की दीवार के पास बाइक खड़ी की थी और लालाजी के एतराज करने पर उन्हे भी थप्पड़ मारा था। लेकिन इस समय मामला कुछ और था और उसे ऐसा लग रहा था जैसे लालाजी की इज्जत उसकी अपनी इज्जत है, जिसे उस नये आदमी ने लालजी का हाथ झटक कर बेइज्जत किया है। सुभाष का ये थप्पड़ नये आदमी को पूरी तरह नहीं लगा था, नया आदमी उम्र में, डील-डौल में और कद में उससे बड़ा था, दूसरे वो कचरे के एक तरफ खड़ा था और सुभाष कचरे के दूसरी ओर, पैरों को कचरे से बचाने के चक्कर में सुभाष का हाथ पूरी तरह नये आदमी के गाल पर नहीं पड़ा था, बस उंगलियां छू भर गईं थीं। लेकिन नया आदमी इस हमले से बचने के लिए पीछे हटा तो सीधा रमन भाई से टकराया जिन्होने उसे आगे घकेला तो उसका एक पैर सीधा कचरे के उपर जाकर पड़ा, फिसलने से बचने के लिए उसने हाथ आगे बढ़ाया और वो हाथ मेहता जी के सिर पर पड़ा.......इसके बाद पूरा भभ्भड़ मच गया।


जारी.....

शनिवार, 6 जुलाई 2013

इशरत कहां?



चित्र गूगल साभार 

मुझे पता है कि उसका असली नाम इशरतजहां था, और ये भी पता है कि वो गायब नहीं है बल्कि उसकी हत्या हो चुकी है. मानिए या ना मानिए, ये सभी को पता है कि उसकी हत्या किसने की, किसके आदेश पर की, क्यों की। इसलिए ये सब सवाल बेमानी हो जाते हैं, हमें तो तब भी पता था कि उसकी हत्या हुई है जब सारे अखबार और टी वी चैनल चीख-चीख कर हमें बता रहे थे कि उसकी हत्या नहीं हुई है, कि वो एक आतंकवादी थी, कि वो ”पुलिस” के साथ मुठभेड़ में मारी गई है। जिस देश में हर रोज़ एनकाउंटर होता हो, ”खबर चाहे ना हो” उस देश में किसी भी एनकाउंटर को सच मानना कहां की समझदारी है। पुलिस वाला किसी को थप्पड़ मार दे, तो आपको एतराज नहीं होता, आश्चर्य नहीं होता, आप सवाल नहीं करते कि आखिर ये अधिकार उसे किसने दिया कि वो किसी को थप्पड़ मार सकता है, धमकी दे सकता है, गाली दे सकता है। क्योंकि जब आप पुलिस के थप्पड़ पर आवाज़ नहीं उठाते तब आप असल में उसे बता रहे होते हैं कि आपको उसके किसी को गोली मार देने पर एतराज नहीं है। क्योंकि गोली हो या थप्पड़, मामला अधिकार का होता है, अगर किसी पुलिस वाले को, किसी नागरिक को थप्पड़ मारने का अधिकार ना हो, तो क्या वो गोली मारने की हिम्मत करेगा? 

कुछ लोगों का मानना है कि ये तो ”गंदी” राजनीति है, जैसे अगर ”अच्छी” राजनीति होती तो इशरतजहां, सादिक, या ऐसे कई लाखों नामालूम लोगों की जिंदगी बचाई जा सकती थी। उन दोस्तों के लिए दिल तोड़ने वाली खबर ये है कि राजनीति गंदी या अच्छी नहीं होती, सत्ता को चलाने का एक तरीका है, जिसमें शामिल लोग उसे किस तरह, किस के लिए इस्तेमाल करते हैं, यही मुख्य बात होती है। किस मूर्ख ने कहा कि हम लोकतंत्र में हैं, महल जैसी इमारतों में रहने वाले शासक, रास्तों के नाम ”राजपथ”, ईश्वर प्रदत्त अधिकारों से लैस महारथी, जिनसे आप सवाल तक नहीं पूछ सकते, अपना सामान्य काम करने पर पुजने वाली सेना, जो सोचती नहीं है, करती है, और गरीब-गुरबा आम आदमी, जो इंसान की तरफ जीने के लिए भी, गधे की तरह मेहनत करता है। और हम कहें कि ये लोकतंत्र है।

सत्ता के लिए किसी को बदनाम करना, उसे आतंकवादी, राज्य के लिए खतरा बताना, ऐसे ही मार देना, हमेशा से होता आया है, आज भी हो रहा है। आपको गलतफहमी ये हुई है कि आपको लगा कि इस तरह की घटनाएं किसी समय कम हुईं, या नहीं हुईं, असल में आपकी सबसे बड़ी भूल ये है कि, आपने सोचा कि सत्ता आपके हाथों में आ गई है, माफ कीजिएगा ऐसा कभी कुछ नहीं हुआ, और अगर आपने ऐसा सोचा तो ये आपकी भूल है।
इशरत हो, बिलकीस बानो हो, मनोरमा देवी हो, या सोनी सोरी, यहां रोज़ एनकाउंटर होता है, एनकाउंटर स्पेशलिस्ट बनते हैं, और हम, बेचारों की तरह, मुहं बाए देखते रहते हैं, तब तक, जब तक खुद हमारे ही एनकाउंटर होने की बारी नहीं आ जाती। मुझे याद है कि दिल्ली के एक मॉल में एक एनकांउटर हुआ, एक डॉक्टर ने उस एनकाउंटर को अंजाम होते हुए देखा, उस डॉक्टर ने मीडिया को बताया कि पुलिस वाले कुछ लड़कों को लेकर आए, उन्हे कार से निकाला और गोली मार दी। क्या हुआ? पुलिस ने, प्रशासन ने, मीडिया ने, उन डॉक्टर साहब की ही जिंदगी के बखिए उधेड़ दिए, जब इशरत की बात आई तो क्या हुआ? जब ये साबित हुआ कि वो आतंकवादी नहीं थी, तो ये साबित करने की कोशिश की जाने लगी कि वो चरित्रहीन थी, तीन ”मर्दों” के साथ घूम रही थी। सवाल ये है कि अगर वो आतंकवादी थी, या वो आतंकवादी थे, तो भी एनकाउंटर क्यों हुआ, सवाल उस गोलीबारी के पीछे के मकसद का है, सवाल उस गोलीबारी के पीछे की राजनीति का है। 
ये भी इसी देश की विडंबना है कि आरोपित को खुद ये साबित करना होता है कि वो अपराधी नहीं है, मरे हुए को भी खुद ही साबित करना पड़ता है कि उसे बाकायदा साजिश में मारा गया था। यूं सत्ता किसी को इस लायक नहीं छोड़ती कि वो अपनी बेगुनाही साबित कर सके, लेकिन मान लीजिए कि किसी ने ऐसा कर दिखाया तो, तो फिर शुरु होती है एक और साजिश, एक और साजिश और फिर एक और साजिश। 

इशरत जहां मामले में आई बी के राजिन्दर कुमार लगभग फंस चुके हैं, सी बी आई ने रिपोर्ट दाखिल कर दी है, या करने वाली होगी, और इसके बाद खुलेगा भानुमति का पिटारा, अब मुझे जो शक है वो ये कि इस मामले को दबाने के लिए कहीं इन साहब पर कोई हमला होगा। इस साजिश में शामिल लोग उस हैसियत वाले हैं कि उन्हे परेशान करने वाले लोग जिंदा नहीं रहते। इशरत मारी गई, सादिक मारा गया, कौसर बी और उनके पति की हत्या कर दी गई, अब इनका नंबर है। और मान लीजिए कि इनका ऐसा हश्र नहीं भी होता, तो ये बात यकीनी है कि इनका कैरियर खत्म है। अगर इनके फंसने पर, इन रसूख वाले लोगों में से किसी पर भी आंच भी आई तो ये गए। 
मुझे एक वाकया याद आता है, मेरी एक दोस्त कश्मीर गई थी, अपने कुछ दोस्तों के साथ शाम के समय घूमने निकली और एक ढ़ाबे में बैठकर चाय पीने लगी, हंस-हंस कर बातें करने लगी, चार पुलिसवालों ने आकर उसके दोस्तों को पकड़ लिया, उसे जर्बदस्ती थाने ले गए, और इतनी फजीहत की, कि उसे ना जाने किस-किस से फोन करवाने पड़े कि वो छूटी। अगर वो गोरी चमड़ी वाली कोई महिला होती, तो शायद पुलिस कुछ ना कहती, लेकिन एक हिंदुस्तानी दिखने वाली लड़की यूं हंस-हंस के बातें कर रही थी, ये पुलिसवालों को नागवार गुज़रा, और उसका खुद का कहना है कि बहुत संभव था कि उन्हे मार कर, आतंकवादी कह दिया जाता, वो तो शुक्र है कि ऐसी नौबत आने से पहले ही फोन करवा दिया गया। एक एनकाउंटर होने से बच गया। 

एक बड़ी बात जो आमतौर पर सामने आ रही है, वो है ”फर्जी” एनकाउंटर की। अब मेरा यकीन है कि आप ज़रा ध्यान से ये बात सोचेंगे,  जो सच में मुठभेड़ होती है पुलिस की, तो यकीन मानिए बहुत घमासान होता है, उसे पुलिसवाले एनकाउंटर नहीं कहते, उसे वो अपने उपर हमला कहते हैं, बाकी जितने भी एनकाउंटर होते हैं, वो ऐसी जगह होते हैं, जहां सिर्फ पुलिस वाले और मरने वाले होते हैं, ऐसे समय होते हैं जब आस-पास और कोई नहीं होता, यकीन मानिए ऐसे एनकाउंटर कभी पिकेट पर नहीं होते, कभी किसी जांच के दौरान नहीं होते, कभी राह चलती सड़क पर नहीं होते, हमेशा पुलिस की सुविधा के हिसाब से ही होते हैं। 
जाने अभी और कितनी इशरत होंगी, जाने अभी और कितने सादिक होंगे, ना जाने इन रसूख वाले लोगों का अगला शिकार कौन होगा, कहां होगा, ये जो इशरत ही हत्या हुई है, इसके कातिलों का तो राज़ फ़ाश हुआ है, हो रहा है, होगा। लेकिन जाने अगली इशरत कौन होगी, कहां होगी?



सोमवार, 1 जुलाई 2013

उत्तराखंड त्रासदी और ज्योतिष






चित्र गूगल साभार

उत्तराखंड त्रासदी से मसूद भाई परेशान हैं उनका कहना है कि इसके लिए जिम्मेदार हैं भारत के सभी ज्योतिषाचार्य.....खासकर टीवी पर आकर भविष्य बांचने वाले, लेकिन भाई मेरे समाधान भी वही बता सकते हैं, आप माने ना माने उनके समाधान में बड़ी ताकत होती है। कल देखा सुबह-सुबह एक साहब एक कुत्ते को जर्बदस्ती गोलगप्पा खिलाने की कोशिश कर रहे है।, कुत्ता बेचारा बहुत परेशान था, मैने कुत्ते की परेशानी से परेशान होकर पूछ लिया कि आखिर बात क्या है, उन्होने बताया कि बाबा ने बताया है कि अगर कुत्ते को 21 दिन तक गोलगप्पा खिलाया तो शक्ति मिल जाएगी। कुत्ता खाना नहीं चाहता था, मैने कहा बाबा को खिला दो, वो आराम से खा लेंगे, और शक्ति भी मिल जाएगी। खैर, कह मैं ये रहा था कि इस त्रासदी के लिए ज्योतिष में समाधान है, कैसे और क्या करना है वो तो मैं भी बता दूंगा, जानना चाहते हैं? 
नहीं जानना चाहते तो भी सुनिए, अमाव के दिन ”रात में नहीं”, घर के मलबे में दबी तेल की बोतल में से एक बूंद तेल निकालें, उसे दायें हाथ की तर्जनी पर लगा कर अंगुष्ठ से मसलें, इस मसला-मसली में उन सभी देवताओं को याद करें जिनकी आप आज तक पूजा करते आए हैं, इतनी देर में ये सारा तेल आपकी तर्जनी में लग गया होगा, अब बाढ़ वाली नदी के किनारे टूटे पड़े पीपल के, अगर ना मिले तो किसी भी पेड़ के सूखे पत्ते पर वो तेल लगाएं, ऐसी सड़क के किनारे जाएं जो आपदा में टूटी हो, इसके किसी ऐसे पत्थर को लें जिस पर कोलतार लगा हो, इस कोलतार लगे पत्थर पर भी तेल लगाएं, फिर वो पत्थर सात बार केदारनाथ जी वाली दिशा में हिलाएं, मुख पर श्री श्री जैसी मुस्कान लाएं, और जोर से चीखें, पत्थर को विधानसभा या संसद की दिशा में फेंके। इसके बाद अपने टूटे हुए घर में वापस आ जाइए। 

ये अनुष्ठान बहुत आसान भी है और बहुत मुश्किल भी, आसान इसलिए कि इसमें किसी किस्म का खतरा या खर्चा नहीं है, मुश्किल यूं कि अगर आपको मलबे में तेल की बोतल ना मिले, या आपके यहां का पेड़ टूट का बह गया हो, या आपका पूरा गांव ही तबाह हो गया हो, तो आप कुछ नहीं कर सकते, दूसरे आपके लिए श्री श्री वाली मुस्कान भी पूरी होनी चाहिए, आर्ट ऑफ लिविंग के ज्यादा प्रयोग से ही ऐसी मुस्कान आती है, और वो एक महंगा कोर्स है, उसे सिर्फ अमीर लोग करते हैं, आप जैसे गरीब लोगों को पता ही नहीं होगा कि वो मुस्कान होती कैसी है। तीसरे हो सकता है कि आपको यही ना पता हो कि ये सुसरी विधानसभा या संसद किस दिशा में है।

ये सूतक होता है, यानी पातक, यानी आप पागल हैं। अगर आपने अपना घर वास्तु के हिसाब से बनाया होता तो आपको ये आपदा झेलनी ही नहीं पड़ती, मुख्यमंत्री, उप मुख्यमंत्री, बाकी मंत्री, विधायक, सबने देहरादून, दिल्ली में अपना जो घर बनाया है वो वास्तु के हिसाब से है, उसमें बुच्चक दोष नहीं है, इसलिए वो सब आपदा से बच गए, आपका घर आपके अपने हिसाब से बना था, इसलिए वो आपदा में है। 

फिर केदारनाथ बाबा की लीला, जो यात्री उनका दर्शन करने आए थे, सब उनके लिए परेशान थे, बहुत शोर मच रहा था कि उन्हे बचाओ, उन्हे हर्जाना दो, उनकी सेवा करो, केदार बाबा की लीला, तुम तो गए नहीं थे यात्रा में, केदार बाबा के दर्शन करने, तुम्हे क्यों बचाए कोई, तुम पापी, ना वास्तु के हिसाब से घर बनाते हो, ना बाबा के दर्शन करने जाते हो, और नालायक इतने कि इस आपदा का जिम्मेदार बताते हो यहां बनने वाले डैम, प्रोजेक्ट, टनल को। जिन्होने ये डैम-टनल बनाए हैं, उन सबके घर भी वास्तु के हिसाब से बने हैं, उन पर देवी, या देवता ”जिसे भी वो माने उन” की असीम कृपा है। तुम पर भी हो सकती थी लेकिन तुमने उनका विरोध करके ये कृपा खत्म कर दी। अब भुगतो।

खैर अब भी समय है, संभल जाओ, केदार बाबा को प्रसन्न करो, मुख्यमंत्री को प्रसन्न करो, बाकी श्रृद्धानुसार छोटे मंत्रियों विधायकों को भी प्रसन्न कर सकते हो। अगर ये सब प्रसन्न हो गए तो हो सकता है कि घर-वर बनाने के लिए पैसा मिल जाए, जितना आबंटित होगा उससे कम मिलेगा समझे ना, तुम्हारे झोंपडे़ के पैसे से ही वास्तु वाले घर के लिए जुगाड़ होगा, शिकायत ना करना, ओके। खाने के लिए भी कुछ करेंगे, बस इन्हे प्रसन्न करो। ठीक है।

अरे हां, एक बात बताना भूल गया, एक राहुल बाबा करके हैं, वो इस तरह की आपदा में आ सकते हैं, उन्हे गरीबों, मुसीबतज़दा लोगों के घर रुकने का शौक है, अगर वो आ जाएं तो उन्हें अच्छा खाना-वाना खिलाना, ठीक है, वो प्रसन्न हो गए तो अपनी ममी से कहकर तुम्हारे दिन फिरवा देंगे, उपर से फ्यूचर किंग हैं, तो.......बाकी अनुष्ठान आपको बता ही दिया है। पूरा कीजिए और कहिए जय बाबा.......की।

महामानव-डोलांड और पुतिन का तेल

 तो भाई दुनिया में बहुत कुछ हो रहा है, लेकिन इन जलकुकड़े, प्रगतिशीलों को महामानव के सिवा और कुछ नहीं दिखाई देता। मुझे तो लगता है कि इसी प्रे...