उत्तराखंड में जो आपदा आई है उसके बारे में अखबारों में पढ़ा जाए तो थोड़ा असमंजस में पड़ सकते हैं। कुछ रिपोर्टों के मुताबिक ये दैवीय आपदा थी, कुछ इसे प्राकृतिक आपदा बता रहे हैं। कहीं टी वी में देखा था कि मुख्यमंत्री ने साफ कर दिया था कि इसे मानव निर्मित आपदा कहना “बचकानापन” है। खैर आपदा है, ज्यादा बड़ी शायद चली गई, थोड़ी-थोड़ी अभी जारी है। लगातार खबरें आ रही हैं, कि फलां गांव के कुछ घरों में दरारें पड़ गई हैं, या कुछ जगह खेत या पहाड़ धसक गए हैं। कुछ नदियां लगातार खतरनाक गति से बह रही हैं। मेरा ख्याल है कि ये सबसे सही वक्त है कि जब पहले इस बात का फैसला किया जाए कि ये आपदा असल में दैवीय है, प्राकृतिक है या कुछ और है। मानवनिर्मित इसलिए नहीं कि माननीय मुख्यमंत्री बहुत ज्ञानी हैं और अगर वो एक बार टी वी कैमरा के सामने कह चुके हैं कि ये मानव निर्मित आपदा नहीं हो सकती तो इसका मतलब नहीं हो सकती। और ये सही भी है, आखिर बारिश, बाढ़, भू-स्खलन जैसी चीजें इंसान तो नहीं बना सकता, इसलिए ये कहना कि ये सब मानव निर्मित आपदा है सच में बचकानापन ही माना जाएगा।
बड़प्पन का काम मुख्यमंत्री ने ये किया है कि लापता लोगों की कुल और सटीक संख्या बता दी है और इस तरह जो कयास लग रहे थे उन पर विराम लगा दिया है। आपदा में गायब कुल लोग हैं सिर्फ 5746, इसी बात पर मुझे अकबर-बीरबल की एक कथा याद आती है। अकबर ने बीरबल से पूछा कि “ये बताओ कि आखिर इस राज्य में कौए कितने हैं” बीरबल ने फौरन जवाब दिया कि “जनाब कुल 5746 कौए हैं” अकबर ने कहा “और अगर इससे ज्यादा निकले तो.....” बीरबल ने कहा कि “जनाव वो कौए दरअसल अपने रिश्तेदारों से मिलने आए कौए होंगे....” “और अगर कम निकले तो....” “जाहिर है अपने राज्य के कौए भी तो अपने रिश्तेदारों से मिलने बाहर जाते होंगे, जहांपनाह......”
जाहिर है कि मेरा इरादा आपदा पीडि़तों पर व्यंग्य कसने का नहीं है, लेकिन एक ऐसा मुख्यमंत्री जिसे ये तक नहीं पता कि राज्य में गांव कितने हैं, इतने कम समय में अगर इस कदर निश्चित संख्या बता दे तो इस जवाब की तुलना बीरबल के जवाब से की जाएगी या नहीं। ऊपर से तुर्रा ये कि माननीय मुख्यमंत्री इन लापता/मृत लोगों को मुआवजा भी शर्तों के आधार पर देने की बात कर रहे हैं। यानी अगर आपका कोई आदमी लापता है तो आपको मुआवजा मिलेगा, या अनुदान जैसा भी वो कहें। लेकिन अगर लापता व्यक्ति वापस आ गया तो फिर आपको मुआवजा/या अनुदान जो भी वो कहें वापस करना होगा। अम्....पहला सवाल....तो जनाब जिसने पैसा वापस ना किया, या ना कर पाया उसका क्या होगा। जेल, या उससे भी बुरा कुछ, आप अपना अनुदान वसूलने के लिए उसके साथ कोर्ट की कार्यवाही करेंगे क्या? दूसरे, ये गरीब लोग, जो पहले की आपदा में अपना सब-कुछ खो चुके हैं, तबाकी की कगार पर हैं, आपसे अनुदान इसलिए ले रहे हैं क्या, कि उसे किसी आले में रखकर रोज़ उसके सामने धूप-अगरबत्ती जलाएं, कि लापता व्यक्ति के वापस आते ही आपका पैसा, वो चाहे मुआवज़ा हो या अनुदान आपको वापस कर सकें। अजीब मजाक है, जिन लोगों पर आपको शर्तें लगानी चाहिएं वे तो बिना शर्त के आपके पहाड़, जंगल काटते हैं नदियों का दोहन करते हैं, और खुल का मुनाफा लूटते हैं, और जब लोग आपदा का शिकार होते हैं तो उन्हे अनुदान भी आप शर्तों में बांध कर देते हैं, कि बेटा रोटी का निवाला तो डाल रहे हैं तुम्हारे मुहं में, लेकिन देखो अगर आपदा का शिकार तुम्हारा रिश्तेदार अगर भूले-भटके आग या वापस, तो हलक मे ंहाथ डाल कर निकाल लेंगे हां.....समझ लेना।
जनाब माननीय मुख्यमंत्री साहब, असल में जब हम मानव निर्मित आपदा की बात करते हैं, तो माफ कीजिएगा, हम बच्चों वाली बात नहीं कर रहे होते, हम असल में आपकी और आपके भाजपाई बंधुओं की उन काली करतूतों का पर्दाफाश कर रहे होते है, जिन्होने इस आपदा की भूमिका तैयार की थी, क्योंकि ये तो बच्चा भी जानता है कि अगर नींव को कमजोर कर दिया जाए तो घर ढहते देर नहीं लगती, क्या आप नहीं जानते। ये तो बच्चों के स्कूल सिलेबस में ही पढ़ा दिया जाता है कि अगर पहाड़ से पेड़ों को काट दिया गया तो भू-कटान होगा, जिससे भारी क्षति हो सकती है। लगता है मुख्यमंत्री जी ने बच्चों की ये किताबें नहीं पढ़ी, और अगर पढ़ी हों तो भूल गए हो सकते हैं, जो कि स्वाभाविक भी है, क्योंकि मुख्यमंत्री का पद इतनी जिम्मेवारी का पद होता है कि बच्चों को पढ़ाई जाने वाली, प्रकृति के साथ छेड़छाड़ ना करने वाली ये बातें भूल जाएं तो कोई अस्वाभाविक बात ना होगी।
समस्या ये है कि इस राज्य के भोले-भाले लोग ये नहीं भूलते, और ना ही भूल सकते हैं, वो याद रखते हैं कि उनके लगातार विरोध के बावजूद, इन पहाड़ों को, इनके जंगलों, खेतों, नदियों को लगातार पूंजीपतियों को बेचा जाता रहा, ये नहीं भूल सकते कि आपने और आपसे पहले वाली सरकार ने, और इन पूंजीपतियों ने मिलकर इस पूरे पहाड़ को और पहाड़ी राज्य को बरबाद कर दिया है।
आपदा के समय, माननीय मुख्यमंत्री जी, ये लोग आपके बयान, और भाषणबाज़ी तीरों की जगह, आपकी सहायता चाहते थे, आपकी सहानुभूति चाहते थे, आपदा में मरने वालों की लाशों पर राजनीति की अपनी धार को पैना करने का मौका ना आप छोड़ रहे हैं, और ना ही दिल्ली में जाकर राज्य पर राष्ट्रपति शासन लगाने की मांग करने वाले आपके पूर्ववर्ती छोड़ पा रहे हैं, लेकिन असल में आपदा पीडि़तों को इससे क्या लाभ हो रहा है, ये देखने वाला कोई नहीं है। लोग भूख-प्यास से मर रहे हैं, बीमारियों और हताशा से मर रहे हैं, और पूरी उम्मीद है कि लोग आपके अनुदान की शर्तें पूरी करने के चक्कर में भी मरेंगे ही। मुझे डर है कि कहीं आपदा से जूझते ये लोग आपके मंतव्यों की सच्चाई को समझ कर कहीं आप पर ही शर्तों को पूरा करने का दबाव ना डालने लगें, तब ना आपके लिए कोई ठौर बचेगा, ना ही जेपी जैसे पूंजीपतियों के लिए और ना ही आपके पूर्ववर्तियों को सिर छिपाने का कोई मौका मिलेगा।

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