सोमवार, 30 सितंबर 2013

लालू और बारगेनिंग




लालू और बारगेनिंग

चलिए साहब, आपकी मन की मुराद पूरी हुई, लालू को चारा घोटाले में सज़ा सुनाई गई और सुनते हैं कि उन्हे जेल भी भेज दिया गया। यूं घोटाले और नेता का चोली-दामन का साथ होता है। वो नेता ही क्या जिसने कोई घोटाला ना किया हो, वो घोटाला ही कैसा किसमें किसी नेता का हाथ नो हो। अजी साहब ये लोकतंत्र चल ही इसलिए रहा है क्योंकि इसमे घोटाले होते हैं, अगर घोटाले ना हों तो लोकतंत्र ना चले एक दिन भी। भारतीय जनता के लिए किसी भी घोटाले की खबर कोई बड़ी या आश्चर्यजनक खबर नहीं होती, हमारे लिए तो आश्चर्यजनक खबर वो बनती है जिसमें कोई नेता, या राजनीतिक शख्सियत ईमानदार निकल आए, कोई ऐसा हो जिस पर किसी घोटाले का आरोप ना लगा हो। लेकिन मानने वाली बात ये है कि 17 साल तक आप उसका बाल भी बांका नहीं कर पाए। तो अब लालू का सज़ा क्यों हुई, क्या किसी गाय-भैंस ने जाकर अर्जी लगाई थी कि उनके खिलाफ हुए अन्याय की सज़ा किसी को दी जाए और यूं उनके साथ न्याय किया जाए। 

मैं बताउं आपको, लालू को सज़ा इसलिए नहीं हुई कि उन्होने घोटाला किया, उन्हे सज़ा इसलिए हुई कि उनके पास बारगेन करने के लिए कुछ बचा नहीं रहा होगा। बारगेन किया होता, या कुछ बचा रहा होता तो इत्ती सब फजीहत नहीं हुई होती, आखिर मुलायम भी तो क्लीन-चिट के साथ ठसक से बैठे हैं, जयललिता, माया, कनीमोझी, राजा, रानी, सिपहसालारों तक को क्लीन चिट देने को उत्सुक बैठे सी बी आई के आला अफसरों ने लालू को ठीक फैसले से पहले दिन क्लीन चिट नहीं दी तो इसका सीधा सा मतलब ये, कि लालू के पास बारगेन करने को कुछ नहीं है। बारगेन में बड़ी पॉवर होती है साहब, लालू को रेल मिली तो बारगेन से, और अब जेल मिली तो यूं कि बारगेन नहीं हुआ। कुछ था ही नहीं। 

लालू बहुत चतुर राजनेता हैं, क्यों, लालू बहुत घाघ रहे, अपने जमाने में, अब शायद बुढ़ौती आ गई, हारने-हूरने के बावजूद, कुछ माल अलग से बांधकर रखना था, ताकि ऐसे आड़े वक्त काम आ सके। अगर टेबल के नीचे से कांग्रेस को कुछ सरका पाते, तो शायद ये फजीहत नहीं झेलनी पड़ती। कोर्ट के फैसले का क्या है, यार लोगों, अगर फैसला आ भी जाए, तो अपने लोगों को बचाने के लिए उसके खिलाफ, अध्यादेश, कानून-फानून बनाया जा सकता है, कोर्ट है किस खेत की मूली हमारे आगे। हम तो संविधान की ऐसी-तैसी फेरने को तैयार बैठे हैं। 

एक साल में 7 करोड़ की धनराशी 700 करोड़ में बदल जाए, देश के हर शहर में और विदेश के हर देश में अपने नाम की संपत्ति हो जाए, कौन देखता है, और देखता है तो पड़ा देखता रहे सुसरा। जब तक बारगेनिंग पावर है, कोई कुछ नहीं कर सकता। जयललिता ने अपने बेटे की शादी की, और ऐसी की कि इस शहाना शादी को गिनीज़ बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉडर्स में जगह मिल गई, जब पूछा कि भाई इतना पैसा कहां से आया, तो मासूमियत से कह दिया, कि जनता ने दिया, अबे जनता ने दिया, या खुदा ने छप्पर फाड़ कर दिया, हिसाब तो रखा होगा। लेकिन बात सिर्फ यही है, हिसाब रखो, ना रखो, बारगेनिंग के लिए कुछ ना कुछ जरूर रखो।

अब लालू के लिए, हमारा तो यही मानना है कि अब भी, यानी कि अब भी अगर बारगेनिंग के लिए कुछ ना कुछ पेश करें, तो हो सकता है, कि सी बी आई क्लीन चिट दे दे, या केस क्लोज़ करने की अर्जी लगा दे, या फिर हो सकता है कि चारा घोटाले की फाइलें ही गायब हो जाएं, फिर लगे सारी ढूंढने, कागज़ का पुर्जा तक नहीं मिलेगा। यहां तो भैया लोगों गवाह गायब हो जाते हैं, कागज़ की फाइलें क्या चीज़ हैं। 

चुनाव आने ही वाले हैं, अगर लालू अब भी कोई कमाल दिखा दें, बढ़िया वाला माल बारगेनिंग के लिए पेश कर दें तो अब भी उनके ग्रहों की दशा-दिशा सुधर सकती है। बाकी आसाराम, निर्मल बाबा, और बाकी बाबाओं की चरण रज भी ले लें, शायद कोई काम बन जाए।




शुक्रवार, 13 सितंबर 2013

फांसी



फांसी


अच्छा हुआ फांसी हुई, फांसी यानी मृत्युदंड, यूं मृत्युदंड और भी कई तरीकों से दिया जा सकता है, लेकिन मौत की सज़ा अगर आसान हो तो फायदा क्या, और उसे ज्यादा मुश्किल भी नहीं बनाया जा सकता। मुश्किल होती है। इसलिए भारत की सचेत और प्रतिभाशाली न्यायपालिका ने आज तक फांसी की सज़ा में कोई रद्दोबदल नहीं किया है, हालांकि राज्य ने इसके लिए कई तरीके ढूंढ निकाले हैं। जैसे पहले के जमाने में मौत की सज़ा के लिए अपराधी को तोप के मुहं से बांध का उड़ा दिया जाता था, घटिया जमाना था। तोप जो है भारी होती है, कहां-कहां ले जाते फिरेंगे, और फिर जब आदमी उड़ जाए तो उसकी बोटियां समेटते फिरो, इसलिए तोप की जगह इंसान को रिवॉल्वर या बंदूक पर लगा कर उड़ा दिया जाता है, और बढ़िया बात ये कि अब इससे भी कोई फर्क नहीं पड़ता कि वो अपराधी है या नहीं, है ना मज़े की बात। 
फांसी के कई फायदे हैं। जनता में डर बना रहता है, फिर अगर पीड़ित ”इस मामले में बलात्कार पीड़ित” फांसी लगा ले, और आप उत्पीड़ित को फांसी दे दें, तो लीजिए किस्सा खतम। टी वी चैनलों को कुछ दिनों तक टी आर पी बढ़ाने का मौका मिल जाता है, कोई ना कोई टी वी चैनल तो ”फ से फांसी” नाम का प्रोग्राम भी लेकर आ सकता है, जिसमें अब तक कितनी फांसियां दी गई, कौन फांसी देने वाला जल्लाद सबसे मशहूर था, फांसी की रस्सी के कितने फायदे हैं, यानी इनसे भूत-प्रेत भागते हैं, या किसी और तरह की चमत्कारिक शक्ति की बातें, जैसी चीजें हो सकती हैं। देश का प्रबुद्ध वर्ग, ”ऐसे वहशियाना अपराध के लिए फांसी से उचित और कोई सज़ा नहीं हो सकती” कहकर चिंतामुक्त हो सकता है। जिन लोगों को किसी भी सामाजिक मुद्दे से कोई सरोकार ना हो, वो ये सोचकर खुश हो सकते हैं कि आखिर सरकार कुछ तो कर ही रही है। और सबसे बड़ी बात, फांसी का समर्थन करके, या राज्य फांसी देकर, इन अपराधों से जुड़े आधारभूत सवालों से बच सकते हैं। मूरख लोग पूछते हैं साहब, मैं तो महज़ हरकारा हूं। 
एक साहब ने कहा कि यानी अपराध का कारण अपराधी ही है, ये व्यवस्था नहीं है, इसलिए फांसी दे दी जाए। अपराधी खत्म तो अपराध खत्म, क्यों जी। फिर इससे राज व्यवस्था को क्लीन चिट मिल जाती है, उसे और कुछ करने को नहीं बचता। क्या जरूरत है ऐसी व्यवस्था का इंतजाम करने की जिसमें अपराध ना हो, ऐसी व्यवस्था क्या काफी नहीं है जिसमें आप फांसी दे सकते हैं, उम्र भर जेल में सड़ा सकते हैं, थाने में बलात्कार कर सकते हैं, और अपराधी को तिल-तिल मरने के लिए मजबूर कर सकते हैं। पर फिर वही बात, बातें हैं बातों का क्या। हमारे मित्र लोग बहुत खुश होंगे, वहशी दरिंदो को फांसी मिली, भई जश्न होना चाहिए। कभी राष्ट्र की सामुहिक चेतना को तुष्ट करने के लिए, कभी व्यवस्था की चुप्पी के लिए, और कभी सिर्फ इसलिए भी हो सकती है कि आपका मन कर रहा है। 
सवाल ये है, और ये सवाल उन लोगों से है जो फांसी का समर्थन इसलिए कर रहे हैं कि इससे लोगों में अपराध करने के खिलाफ डर बैठेगा, कि भाई लोगों, क्या वजह है कि 16 दिसंबर के बाद से अपराध तो बढ़ते ही जा रहे हैं, और उपर से ऐसी घटनाएं भी सामने आ रही हैं, कि बलात्कार के बाद लड़की को जान से ही मार दो, ना बचेगी लड़की, ना रहेगा सबूत और ना होगी फांसी। एक महिला हैं, जिन्होने असल में यही अंदेशा जताया था, सच हो रहा है। मेरे कुछ मित्र हैं जो अक्सर ये तर्क उठाते हैं कि जब तक व्यवस्था परिवर्तन ना हो, तब तक क्या करें, बिल्कुल सही दोस्तों, जब तक व्यवस्था परिवर्तन ना हो, तब तक लोगों को फांसियां देते चलो, ये तो मजबूरी है, करना ही होगा।
खैर हम क्यों मगज़ मारें इस सबमें, क्या कहते हो, फांसी देखने चलोगे, पॉपकॉर्न का बड़ा वाला डिब्बा ले लेंगे, कोल्ड ड्रिंक ले लेंगे, और फिंगर चिप्स या कोई और चिप्स ले लेंगे, फांसी देखने चलेंगे। बड़ा मज़ा आएगा। थोड़ा मौज-मेला रहेगा, एक रात का प्रोग्राम रहेगा। फांसियां अक्सर रात में होती हैं, या भोर के समय, सुबह-सुबह, भई सुबह-सुबह होगा तो हम तो ना जा पाएंगे, रात देर से सोते हैं ना, इतनी सुबह ना उठा जाएगा। तुम हो आना, और हो सके तो कुछ फोटोग्राफ्स भी ले आना, फेसबुक पर डालेंगे। देखना कितने लोग लाइक करते हैं। 
फांसी से दुनिया में देश का नाम होता है, अब और किसी चीज़ में तो हम नाम कर ना सके, इससे ही सही। बल्कि फांसी के नए तरीके विकसित किए जाने चाहिएं, छोटे अपराधों की सज़ा भी फांसी होनी चाहिए, हाथ काट डालने, और आंख फोड़ने जैसी सज़ाएं भी फिर से शुरु की जानी चाहिए। और इसमें विदेशी निवेश को आमंत्रित किया जाना चाहिए, आप समझ नहीं रहे हैं कि आप कितनी बड़ी सोने की खान पर बैठे हैं, ये तो ऐसा देश है जिसमें इस तरह के अपराध, या किसी भी तरह के अपराध होते रहेंगे, इसलिए फांसियों की तादाद बढ़ेगी ही, घटेगी नहीं। बच्चों को फांसी की ट्रेनिंग दी जानी चाहिए, फांसी-फंासी करके एक रिएलिटी शो होना चाहिए, जिसमें कुछ लोगों को फांसी दी जाएगी। शो इनस्टेंट हिट होगा मेरी गारंटी है, सारा सरकारी अमला देखेगा, पूरी न्यायपालिका, और राज सत्ता तो देखेगी ही। माल काटोगे गुरु, बना गेरो। 
खैर, बहुत दिनो बाद अफज़ल गुरु और कसाब को फांसी मिली थी, तो सोचा था यार एक-एक इंसान को फांसी दे रहे हैं, कुछ ज्यादा होते तो मज़ा आता, लीजिए चार होग गए। राज्य व्यवस्था निपुण होती जा रही है, ज्यादा इंतजार नहीं करना पड़ेगा जब हम और ज्यादा लोगों को फांसी मिलते हुए देखेंगे। तब तक के लिए शुभ फांसी।

बुधवार, 11 सितंबर 2013

उ पी कोर्ट में दो दिन




किसी भी भारतीय नागरिक के जीवन में कोर्ट यानी न्यायालय बहुत ही महत्वपूर्ण जगह है। जो नहीं गए वो किसी भी मामले में जाएं, ना हो सके तो अपने मित्रों या मित्रों के सुदूर मित्रों के मामलों में जाएं, और ज्ञान हासिल करें, क्योंकि जो गए हैं वही जानते हैं कि कोर्ट जैसी जगह का जीवन में कितना महत्व हो सकता है। भारतीय दर्शन जो विनय, सद्ाशयता, और बंधुत्व सिखाता है, वो बिना कोर्ट के दर्शन किए पूरा हो ही नहीं सकता। हालत ये है कि बहुत संभव है कुछ दिनों में भारतीय कोर्ट तीर्थ का दर्जा पा जाए और ये माना जाने लगे कि कोर्ट जाकर प्राणी सभी दुखों से दूर होने, माया के सत्य को और जीवन के यथार्थ को समझने लायक हो जाए। सोच कर आश्चर्य होता है कि आखिर जब कोर्ट नहीं थे तो मानव को अपने नश्वर होने का, कुछ ना होने का, दर्प को खत्म करने का और अपने असतित्व के नाममात्र होने का भान आखिर कैसे होता होगा। बचपन में जब मैं ”दुष्कर्म करने वालों का न्याय” नाम का कैलेंडर दिवार पर लगा देखता था तो उसमें भांति-भांति के चित्र होते थे, जिनमे मृत्यु के बाद यम के दरबार में लोगों को आरे से चिरते, कोड़े खाते, तेल के कड़ाहे में उबलते आदि चित्र दिखते थे, उन सबके बजाय अगर सिर्फ यही दिखा दिया जाता कि कोई मनुष्य कोर्ट के बाहर या अंदर खड़ा है तो उसके चेहरे और शरीर के दयनीय हाव-भाव देखते ही संसार का हर मनुष्य पाप करने से तौबा कर लेता। 
कोर्ट की महिमा अपरंपार है, सुना था ईश्वर किसी को अस्पताल या कोर्ट-कचहरी का मुहं ना दिखाए, कभी इस पर विश्वास नहीं किया था। अस्पताल को मैं स्वास्थय देने वाला मानता था, लेकिन फिर मैने सफदरजंग देखा, भारत के जिन-जिन शहरों में घूमा ”और लगभग सभी बड़े शहरों में घूम ही लिया” उनमें अस्पतालों की हालत देखी तो पहले मेरा यही विश्वास टूटा कि अस्पताल स्वास्थय देने वाले होते हैं, क्योंकि ये अस्पताल तो ऐसे हैं जिनमें अच्छे-खासे, भले-चंगे आदमी का स्वास्थय खराब हो जाए। वो तो भला हो भारतीय जीवट का, कि इन्ही में जाकर चंगा हो जाता है, लेकिन जीवट होना चाहिए, क्योंकि अगर साधारण बुखार है और लाइन में 5 घंटे खड़े होने का जीवट नहीं है तो बहुत संभव है कि शरीर यहीं रह जाए और प्राण डॉक्टर की आज्ञा लेकर बुखर समेत प्रयाण कर जाए। कोर्ट की हालत भी कुछ ऐसी ही है। जैसे सातवें आसमान पर ईश्वर है वैसे ही यहां धरती पर, जहां भगवान जन्म लेते हैं, यानी भारत में, जज होते हैं, जो हर मनुष्य के कर्मों के हिसाब से, या अपने मन के हिसाब से, ”यकीन मानिए कानून का इसमें कोई लेना-देना नहीं होता” उसके भाग्य का फैसला करते हैं। अब मान लीजिए कि आप पर पुलिस ने चोरी का केस लगाया है, और बदकिस्मती से आपके भाग्य का फैसला करने वाला जज, अभी-अभी अपनी बीवी से लड़कर आया है, तो आपको कठोरतम सजा मिल सकती है, वहीं आप अपील करें, और अगर उसी जज के सामने आपका केस आया, और आज उसकी बीवी ने उससे प्यार से बात की होंगी तो वही हो सकता है सबूतों के अभाव में आपको कतई बरी ही कर दे। तो यारों, मामला कानून-फानून का नहीं है, और सही भी है, जजों की मेधा के आगे ये सुसरे दो कौड़ी के कानून क्या बला हैं भई। 
तो भईया ऐसे ही, अपनी किस्मत कुछ यूं बुराई से टकराई कि हमें दो दिन तक उ पी कोर्ट के चक्कर काटने पड़े। ये ना बताएंगे कि मामला क्या था, क्योंकि बात कुछ नाज़ुक है, लेकिन हां ये बता सकते हैं कि हम वहां अपने भाग्य का नहीं, बल्कि अपने किसी निकट के साथी के भाग्य के फैसले में अपना सहयोग करने गए थे। खैर किसी तरह पहुंचे, कोर्ट तक पहुंचने के रास्ते से ही पता चल रहा था कि ये कोर्ट न्याय करने के लिए नहीं बल्कि सज़ा करने के लिए बनवाई गई है, इसलिए इस कोर्ट को हिंदी में न्यायालय नहीं अपितु सज़ालय कहना ज्यादा उचित होगा। कोर्ट की भौगोलिक अवस्थिति कुछ इस तरह की है कि पहुंचने वाले को वहां जाना ही सज़ा लग सकता है, लेकिन रब खैर करे, इस सज़ालय में पहुंचना आपकी सज़ा का सिर्फ इन्ट्रोडक्शन होता है। पिक्चर अभी बाकी है मेरे दोस्त!
आप कोर्ट में पहुंचेंगे तो सबसे पहले आपकी नज़र जाएगी अंदर जाने वाले दरवाजे पर, सज़ालय प्रांगण में अंदर जाने के लिए जर्बदस्त सुरक्षा उपकरण लगे हैं, जो इस बात की मिसाल हैं, जो आपको बाद में इस नश्वर संसार की निरर्थकता पर विश्वास करने पर मजबूर करते हैं। जैसे ब्रहम् का विचार करते हुए कहा जाता है कि वो है, वो नहीं है। माया दिखती तो है लेकिन होती नहीं है, उसी तरह सज़ालय की हर चीज़ की तरह, ये सुरक्षा उपकरण होकर भी वहां नहीं हैं, और इंसानों के साथ-साथ गाय, कुत्ते और जो भी जानवर सभ्यता के विकास क्रम में मानव के साथ शहरों में रहने को शापित हुए बेरोकटोक अंदर जा पाते हैं। उन्हीं बेचारों के साथ हम भी अंदर चले गए। सज़ालय के अंदर का नजारा और आश्चर्यचकित कर देने वाला था, इंसानों को भेड़ों की तरह रस्से से बांध कर लाया गया था, पता चला कि ये ”मुल्जिम” हैं जो बाकायदा अपने ”मुजरिम” होने का इंतजार कर रहे हैं। जेल के अलावा ये सज़ालय ही है जहां इनके रिश्तेदार, दोस्त वगैरह इनसे मिल-जुल पाते हैं। अब ये बेचारे जिनके आगे दो से चार पुलिस वाले ऐसे चलते हैं, जैसे उनके मालिक हों, और ये उनके पालतु बहुत ही बेचारी तस्वीर पैदा करते हैं। 
खैर, इन पर दोबारा आएंगे, तो बात है उ पी के इन सज़ालयों की, जहां, जज-ईश्वर, पेशकार-पंडित, बाकी कर्मचारी कर उगाही करने वालों की तरह काम करते हैं। अब आप यूं अंदाजा लगाइए कि कर उगाही करने वाले कर्मचारी बहुत ही बेशरमी से दान-दक्षिणा जमा करते हैं, जो पंडितों के पास जाती है, और ये सारी दान-दक्षिणा ईश्वर के नाम पर, उसके काम के नाम पर जमा की जाती है। ईश्वर इन सब करमन को देखता है और मूक बेचारे की तरह बैठा रहता है।
नास्तिक होने के चलते मुझे ईश्वर में कतई यकीन नहीं है, लेकिन बहस के लिए मान लीजिए कि अगर ईश्वर है, तो वो पक्का इन्ही के जैसा होगा। डॉक्टरी के पेशे के लिए कहा जाता है कि अगर डॉक्टर के चेहरे पर मुस्कान हो तो मरीज़ की आशा बंधती है, इसके उलट इनके चेहरे के भावों को देखें तो अच्छे खासे मुल्जिम को ये लगने लगे कि बस दिन पूरे हुए, लेकिन ऐसा होता नहीं है, क्योंकि अगर तुमने दान-दक्षिणा ठीक-ठाक दे दी है, और ठीक कनेक्शन वाला बिचौलिया रखा है तो बहुत संभव है कि तुम्हे बेल मिल जाए, बस ये ध्यान रखना कि तुम्हारी विरोधी पार्टी ने अगर तुमसे ज्यादा दान-दक्षिणा दे दी, तो तुम गए। मेरा मतलब यहां खेल कानून का नहीं है, क्योंकि, ”सुसरे दो कौड़ी के कानून क्या बला हैं”। 
अब खेल तो आप समझ ही गए होंगे कानून का नहीं है, खेल है पैसा कौड़ी का। तो साहब हम पहुंचे इस सज़ालय में, और दो दिन में वो तमासा देखा जो सड़क किनारे, मर्दानगी बढ़ाने वाले नुस्खे बेचने के लिए दिखाए जाते हैं, उनसे बेहतर तमासा था। हमारा बिचौलिया, खुले दरवाजे से अंदर जाता था, तरह-तरह के मुहं बनाकर दक्षिणा वसूलने वालों की चिरौरी करता था, फिर बाहर आता था, और हम कभी बैठे, कभी खड़े सबका मुहं ताकते थे। वो फिर अंदर जाता था, और फिर शक्ल पर चिरौरी वाले भाव लाकर कुछ कहता था, फिर बाहर आता था, और हम कभी बैठे, कभी खड़े सबका मुहं ताकते थे। कुल जमा मामला ये था कि सभी बहुत व्यस्त सा दिख रहे थे और हम कभी बैठे, कभी खड़े सबका मुहं ताकते थे। पूरे दिन यही करते हुए, यानी लोगों के मुहं ताकते हुए, जब हमारा खुद का मुहं सूख गया तो हमारे बिचौलिए ने आकर बताया कि, ”आज काम ना हो पाएगा” जाहिर है उसकी चिरौरी में कमी थी, लेकिन काम ना हो पाने का ठीकरा उसने फोड़ा हमारे उपर, ”आपके कागज़ ठीक नहीं हैं” ”तो भाई कम से कम ये बता दो कि कौन कागज में क्या कमी है, और कब आएं” ”ना आ तो कलई जाना, कल करवा देंगे” ”पर जब कागजों में कमी है तो कल कैसे होगा” तब वो नाराज़ होकर चला गया। पंडितों से, पंडों से, उनके शोहदो से, और बिचौलियों से बहस नहीं करनी चाहिए, और ईश्वर की ओर तो आप देखें भी तो, साफ उंगली से इशारा होता है कि बाहर चलो, आ गए मुहं उठाके।
खैर, दूसरे दिन पहंुचे, आज भीड़ कम थी, वकीलों की हड़ताल जो थी। हमारा बिचौलिया भी पूरी तरह तैयार था, उसका चिरौरी वाला चेहरा बता रहा था कि आज काम हो ही जाएगा। लेकिन आज हम भी तैयारी करके आए थे, हम भी उसके साथ-साथ अंदर गए, जब-जब वो चिरौरी करता, हम भी बेचारों जैसा मुहं बना लेते, और जब-जब वो बाहर आता, हम भी बाहर आ जाते। अंततः उसकी और हमारी चिरौरी चल गई, और ईश्वर प्रसन्न भये। हमारी अरज सुनी गई, और हमने भर फेफड़ा राहत की सांस ली।

बुधवार, 4 सितंबर 2013

आसाराम से आशा



चित्र गूगल साभार
सुन-सुन कर कान पक गए, उफ! धूर्त, पाखंडी, मूर्ख, धंधेबाज़.....ना जाने पिछले कुछ दिनों में बाबा आसाराम के लिए मैने क्या-क्या नहीं सुन लिया। बोलने वाले बोलते हैं, रुकते थोड़े ही हैं। तुम जो ये सब बोल रहे हो, जो भी बोल रहे हो, क्यों बोल रहे हो, अधम हो तुम सब, धर्म के रास्ते पर इस तरह के विचार, रे बाबा’ उफ... सुन कर कान पक गए। बाबा आसाराम ने ऐसा क्या कर दिया कि तुम सबने उन्हे ना जाने क्या-क्या कहना शुरु कर दिया। तुम लोग तो ऐसे बात कर रहे हो जैसे बाबा ने धर्म से विमुख कोई काम कर दिया हो। तुम नासमझ लोग, विधर्मियों जैसी बातें शायद इसलिए कर रहे हो, क्योंकि तुम्हे सच्चा ज्ञान नहीं है, असल में वे लोग जिन्हे धर्म का, धर्म की मर्यादा का, धर्म की असीमित महानता का, धर्म की धार्मिकता का, धर्म के इतिहास का ज्ञान है, वे सभी बाबा आसाराम के कृत्यों का गुणगान ही कर रहे हैं। लेकिन जो धर्म की महानता से अज्ञान हैं, वे अज्ञानवश ही बाबा के विरोध में इस तरह की बातें कर रहे हैं जैसे बाबा ने कोई अपराध किया हो।
सच कहूं तो ये सब पाश्चात्य सभ्यता और संस्कृति के दुष्प्रभाव का फल है जो बाबा आसाराम को जेल जाना पड़ा है, उनके पद-पूजकर, उन्हे पुष्प मालाएं पहना कर, उनकी मूर्तियां बनानी चाहिएं, अगर मूर्ति ज्यादा लगे तो कम से कम ग्रंथों में पूज्यनीय तरीके से उनका जिक्र किया जाना चाहिए। उन्होने वही काम किया है जो धर्म के अनुसार सभी ऋषि-मुनि, बाबा, साधु-संत आज तक करते आए हैं। तुम पूछते हो कि ऐसा क्या...तुम्हे ज्ञान नहीं है। बताओ ज़रा मत्स्यगंधा के साथ आखिर क्या हुआ था। ऋषि पराशर ने उसे बीच नदी में नाव पर ही दबोच लिया था, और उसका तुमने क्या किया, वो तुम्हारे महान पुरुषों में है, और ये तो अभी एक ही उदाहरण है, तुम्हारे वेद, पुराण, कथा कहानियों के हर पन्ने पर इस आशय के उदाहरण भरे पड़े हैं। बाबा आसाराम ने वही किया, जो परंपरा है, जिसके अनुसार साधु-संतो को इस तरक के करम करने की छूट हासिल है। वो बाबा ही क्या जो महिलाओं की इच्छा जानने-समझने का प्रयास करे, वो साधु ही क्या जो बलात्कार जैसे काम ना करे, वो संत ही क्या जो महिलाओं को, बच्चियों को दबोच कर उनसे अपनी ”हवस” पूरी ना करे। 
माफ कीजिएगा मैने ”हवस” शब्द का प्रयोग किया, असल में बाबाओं की ”हवस” में भी पवित्रता होती है, इस ”हवस” को आम आदमी की ”हवस” नहीं माना जा सकता। ये ”हवस” असल में उन बच्चियों की आत्मा की शुद्धता के लिए होती है, जिनका दैहिक और मानसिक शोषण किया जाता है। तुम भौतिक चीजों पर मरने वाले लोग क्या समझोगे इन बातों को। असल में ये जगत माया है, माया पर मरने वाले इन आध्यात्मिक बातों को नही समझ सकते। बाबा आसाराम उस बच्ची का दैहिक शोषण करके उसकी आत्मा को शुद्ध कर रहे थे, साध्वी उमा भारती समझती हैं, बेशक उनकी बिरादरी के महान, ज्ञानी, संत भी इस बात को समझते हैं, तुम नहीं समझते, और तुमसे ये सब समझने की उम्मीद भी हमें नहीं है। हिंदु धर्म को कंटकों में खींचने वाले,  अधम-नीच-संसारी इंसान बाबा आसाराम के इस कृत्य के पीछे छुपे आध्यात्मिक रहस्य को कभी नहीं समझेंगे। वो नहीं समझेंगे कि जब ब्रह्मा ने अपनी बेटी के साथ बलात्कार किया, तभी ये परिपाटी पड़ गई कि सारे संत, ऋषि मुनि बच्चियों से बलात्कार करेंगे, अन्यथा इन बच्चियों का कोई आत्मिक शुद्धिकरण संभव नहीं है।
एक बात जो खटकनी चाहिए थी, लेकिन बात हिंदु धर्म पर कीचड़ उछालने की है, इसलिए तुम्हे नहीं खटकी। बात ये कि उस रात उस लड़की ने क्या पहना था, ये सब तुमने नहीं पूछा, तुमने नहीं पूछा कि क्या उसने आसाराम को ये कहा था, ”तुम मेरे भाई समान हो, मुझे छोड़ दो” संभव था आसाराम, ओ माफ कीजिएगा, बाबा आसाराम उसे छोड़ देते। आसाराम ने पहले ही कह दिया था कि अगर किसी लड़की का बलात्कार हो रहा हो, तो उसे ये कहना चाहिए, बलात्कारी उसे छोड़ देंगे। तब उस लड़की ने ऐसा क्यों नहीं कहा, तुम हिंदु धर्म का अपमान करने वालों से मैं ये पूछना चाहता हूं कि जब एक बाबा पहले ही ये कह चुका है कि बलात्कारी के सामने लड़की को ये वाक्य कहते हुए हाथ जोड़ कर गिड़गिड़ाना चाहिए तो वो लड़की क्यों नहीं गिड़गिड़ाई। लेकिन तुम ये सब आसाराम से क्यों पूछोगे, तुम्हे तो किसी तरह हिंदु धर्म की बुराई करनी है, तुम तो किसी भी तरह बस हिंदु धर्म की बुराई करोगे। अब देखना आसाराम का क्रोध तुम्हे भुगतना पड़ेगा, भारत के सारे चुनावों में सारी पार्टियां हार जाएंगी, सिर्फ वही पार्टी जीतेगी जो बाबा आसाराम के समर्थन में उतरी हुई है।
जितने लोग कल तक आसाराम के पैर छूते थे, चरणामृत पीते थे, आज कोई आसाराम के साथ नहीं है। लेकिन आसाराम को डर नहीं है, उन्होने हिंदु धर्म की लाज रख ली है, और एक बार फिर दिखा दिया है कि लड़कियों पर महिलाओं पर विश्वास नहीं किया जा सकता। जो लड़की अपने गुरु की ज़रा सी छेड़छाड़, या हाथचलाकी की पुलिस में शिकायत करके उसे जेल भिजवा दे, उसका आध्यात्मिक उद्धार नहीं हो सकता। इसीलिए अब बाकी बाबा महिलाओं से दूर ही रहेंगे, और योग से ऐसे चमत्कार दिखाएंगे कि लड़के ही बच्चे पैदा करने लगेंगे और सिर्फ लड़के ही पैदा होंगे, ताकि लड़कियों का झंझट ही ना रहे, ना रहेगा बांस, ना बजेगी बांसुरी। 
हालांकि बाबा आसाराम की बहुत फजीहत हो चुकी है, लेकिन भारत देश अब भी हिंदु धर्म की ध्वजा को नीचा नहीं होने देगा, हमे आशा है कि भारतीय सरकार और भारतीय जेल आसाराम को बाबा बने रहने देंगे, उन्हे बाइज्जत बरी कर देंगे। अब भी आसाराम से आशा बंधी हुई है। वे फिर से भारतीय आघ्यात्म के शिखर पर जाएंगे, और अपने पौरुषमय योग, से और भी कई लड़कियों की आत्मा को शुद्ध करेंगे। 

महामानव-डोलांड और पुतिन का तेल

 तो भाई दुनिया में बहुत कुछ हो रहा है, लेकिन इन जलकुकड़े, प्रगतिशीलों को महामानव के सिवा और कुछ नहीं दिखाई देता। मुझे तो लगता है कि इसी प्रे...