किसी भी भारतीय नागरिक के जीवन में कोर्ट यानी न्यायालय बहुत ही महत्वपूर्ण जगह है। जो नहीं गए वो किसी भी मामले में जाएं, ना हो सके तो अपने मित्रों या मित्रों के सुदूर मित्रों के मामलों में जाएं, और ज्ञान हासिल करें, क्योंकि जो गए हैं वही जानते हैं कि कोर्ट जैसी जगह का जीवन में कितना महत्व हो सकता है। भारतीय दर्शन जो विनय, सद्ाशयता, और बंधुत्व सिखाता है, वो बिना कोर्ट के दर्शन किए पूरा हो ही नहीं सकता। हालत ये है कि बहुत संभव है कुछ दिनों में भारतीय कोर्ट तीर्थ का दर्जा पा जाए और ये माना जाने लगे कि कोर्ट जाकर प्राणी सभी दुखों से दूर होने, माया के सत्य को और जीवन के यथार्थ को समझने लायक हो जाए। सोच कर आश्चर्य होता है कि आखिर जब कोर्ट नहीं थे तो मानव को अपने नश्वर होने का, कुछ ना होने का, दर्प को खत्म करने का और अपने असतित्व के नाममात्र होने का भान आखिर कैसे होता होगा। बचपन में जब मैं ”दुष्कर्म करने वालों का न्याय” नाम का कैलेंडर दिवार पर लगा देखता था तो उसमें भांति-भांति के चित्र होते थे, जिनमे मृत्यु के बाद यम के दरबार में लोगों को आरे से चिरते, कोड़े खाते, तेल के कड़ाहे में उबलते आदि चित्र दिखते थे, उन सबके बजाय अगर सिर्फ यही दिखा दिया जाता कि कोई मनुष्य कोर्ट के बाहर या अंदर खड़ा है तो उसके चेहरे और शरीर के दयनीय हाव-भाव देखते ही संसार का हर मनुष्य पाप करने से तौबा कर लेता।
कोर्ट की महिमा अपरंपार है, सुना था ईश्वर किसी को अस्पताल या कोर्ट-कचहरी का मुहं ना दिखाए, कभी इस पर विश्वास नहीं किया था। अस्पताल को मैं स्वास्थय देने वाला मानता था, लेकिन फिर मैने सफदरजंग देखा, भारत के जिन-जिन शहरों में घूमा ”और लगभग सभी बड़े शहरों में घूम ही लिया” उनमें अस्पतालों की हालत देखी तो पहले मेरा यही विश्वास टूटा कि अस्पताल स्वास्थय देने वाले होते हैं, क्योंकि ये अस्पताल तो ऐसे हैं जिनमें अच्छे-खासे, भले-चंगे आदमी का स्वास्थय खराब हो जाए। वो तो भला हो भारतीय जीवट का, कि इन्ही में जाकर चंगा हो जाता है, लेकिन जीवट होना चाहिए, क्योंकि अगर साधारण बुखार है और लाइन में 5 घंटे खड़े होने का जीवट नहीं है तो बहुत संभव है कि शरीर यहीं रह जाए और प्राण डॉक्टर की आज्ञा लेकर बुखर समेत प्रयाण कर जाए। कोर्ट की हालत भी कुछ ऐसी ही है। जैसे सातवें आसमान पर ईश्वर है वैसे ही यहां धरती पर, जहां भगवान जन्म लेते हैं, यानी भारत में, जज होते हैं, जो हर मनुष्य के कर्मों के हिसाब से, या अपने मन के हिसाब से, ”यकीन मानिए कानून का इसमें कोई लेना-देना नहीं होता” उसके भाग्य का फैसला करते हैं। अब मान लीजिए कि आप पर पुलिस ने चोरी का केस लगाया है, और बदकिस्मती से आपके भाग्य का फैसला करने वाला जज, अभी-अभी अपनी बीवी से लड़कर आया है, तो आपको कठोरतम सजा मिल सकती है, वहीं आप अपील करें, और अगर उसी जज के सामने आपका केस आया, और आज उसकी बीवी ने उससे प्यार से बात की होंगी तो वही हो सकता है सबूतों के अभाव में आपको कतई बरी ही कर दे। तो यारों, मामला कानून-फानून का नहीं है, और सही भी है, जजों की मेधा के आगे ये सुसरे दो कौड़ी के कानून क्या बला हैं भई।
तो भईया ऐसे ही, अपनी किस्मत कुछ यूं बुराई से टकराई कि हमें दो दिन तक उ पी कोर्ट के चक्कर काटने पड़े। ये ना बताएंगे कि मामला क्या था, क्योंकि बात कुछ नाज़ुक है, लेकिन हां ये बता सकते हैं कि हम वहां अपने भाग्य का नहीं, बल्कि अपने किसी निकट के साथी के भाग्य के फैसले में अपना सहयोग करने गए थे। खैर किसी तरह पहुंचे, कोर्ट तक पहुंचने के रास्ते से ही पता चल रहा था कि ये कोर्ट न्याय करने के लिए नहीं बल्कि सज़ा करने के लिए बनवाई गई है, इसलिए इस कोर्ट को हिंदी में न्यायालय नहीं अपितु सज़ालय कहना ज्यादा उचित होगा। कोर्ट की भौगोलिक अवस्थिति कुछ इस तरह की है कि पहुंचने वाले को वहां जाना ही सज़ा लग सकता है, लेकिन रब खैर करे, इस सज़ालय में पहुंचना आपकी सज़ा का सिर्फ इन्ट्रोडक्शन होता है। पिक्चर अभी बाकी है मेरे दोस्त!
आप कोर्ट में पहुंचेंगे तो सबसे पहले आपकी नज़र जाएगी अंदर जाने वाले दरवाजे पर, सज़ालय प्रांगण में अंदर जाने के लिए जर्बदस्त सुरक्षा उपकरण लगे हैं, जो इस बात की मिसाल हैं, जो आपको बाद में इस नश्वर संसार की निरर्थकता पर विश्वास करने पर मजबूर करते हैं। जैसे ब्रहम् का विचार करते हुए कहा जाता है कि वो है, वो नहीं है। माया दिखती तो है लेकिन होती नहीं है, उसी तरह सज़ालय की हर चीज़ की तरह, ये सुरक्षा उपकरण होकर भी वहां नहीं हैं, और इंसानों के साथ-साथ गाय, कुत्ते और जो भी जानवर सभ्यता के विकास क्रम में मानव के साथ शहरों में रहने को शापित हुए बेरोकटोक अंदर जा पाते हैं। उन्हीं बेचारों के साथ हम भी अंदर चले गए। सज़ालय के अंदर का नजारा और आश्चर्यचकित कर देने वाला था, इंसानों को भेड़ों की तरह रस्से से बांध कर लाया गया था, पता चला कि ये ”मुल्जिम” हैं जो बाकायदा अपने ”मुजरिम” होने का इंतजार कर रहे हैं। जेल के अलावा ये सज़ालय ही है जहां इनके रिश्तेदार, दोस्त वगैरह इनसे मिल-जुल पाते हैं। अब ये बेचारे जिनके आगे दो से चार पुलिस वाले ऐसे चलते हैं, जैसे उनके मालिक हों, और ये उनके पालतु बहुत ही बेचारी तस्वीर पैदा करते हैं।
खैर, इन पर दोबारा आएंगे, तो बात है उ पी के इन सज़ालयों की, जहां, जज-ईश्वर, पेशकार-पंडित, बाकी कर्मचारी कर उगाही करने वालों की तरह काम करते हैं। अब आप यूं अंदाजा लगाइए कि कर उगाही करने वाले कर्मचारी बहुत ही बेशरमी से दान-दक्षिणा जमा करते हैं, जो पंडितों के पास जाती है, और ये सारी दान-दक्षिणा ईश्वर के नाम पर, उसके काम के नाम पर जमा की जाती है। ईश्वर इन सब करमन को देखता है और मूक बेचारे की तरह बैठा रहता है।
नास्तिक होने के चलते मुझे ईश्वर में कतई यकीन नहीं है, लेकिन बहस के लिए मान लीजिए कि अगर ईश्वर है, तो वो पक्का इन्ही के जैसा होगा। डॉक्टरी के पेशे के लिए कहा जाता है कि अगर डॉक्टर के चेहरे पर मुस्कान हो तो मरीज़ की आशा बंधती है, इसके उलट इनके चेहरे के भावों को देखें तो अच्छे खासे मुल्जिम को ये लगने लगे कि बस दिन पूरे हुए, लेकिन ऐसा होता नहीं है, क्योंकि अगर तुमने दान-दक्षिणा ठीक-ठाक दे दी है, और ठीक कनेक्शन वाला बिचौलिया रखा है तो बहुत संभव है कि तुम्हे बेल मिल जाए, बस ये ध्यान रखना कि तुम्हारी विरोधी पार्टी ने अगर तुमसे ज्यादा दान-दक्षिणा दे दी, तो तुम गए। मेरा मतलब यहां खेल कानून का नहीं है, क्योंकि, ”सुसरे दो कौड़ी के कानून क्या बला हैं”।
अब खेल तो आप समझ ही गए होंगे कानून का नहीं है, खेल है पैसा कौड़ी का। तो साहब हम पहुंचे इस सज़ालय में, और दो दिन में वो तमासा देखा जो सड़क किनारे, मर्दानगी बढ़ाने वाले नुस्खे बेचने के लिए दिखाए जाते हैं, उनसे बेहतर तमासा था। हमारा बिचौलिया, खुले दरवाजे से अंदर जाता था, तरह-तरह के मुहं बनाकर दक्षिणा वसूलने वालों की चिरौरी करता था, फिर बाहर आता था, और हम कभी बैठे, कभी खड़े सबका मुहं ताकते थे। वो फिर अंदर जाता था, और फिर शक्ल पर चिरौरी वाले भाव लाकर कुछ कहता था, फिर बाहर आता था, और हम कभी बैठे, कभी खड़े सबका मुहं ताकते थे। कुल जमा मामला ये था कि सभी बहुत व्यस्त सा दिख रहे थे और हम कभी बैठे, कभी खड़े सबका मुहं ताकते थे। पूरे दिन यही करते हुए, यानी लोगों के मुहं ताकते हुए, जब हमारा खुद का मुहं सूख गया तो हमारे बिचौलिए ने आकर बताया कि, ”आज काम ना हो पाएगा” जाहिर है उसकी चिरौरी में कमी थी, लेकिन काम ना हो पाने का ठीकरा उसने फोड़ा हमारे उपर, ”आपके कागज़ ठीक नहीं हैं” ”तो भाई कम से कम ये बता दो कि कौन कागज में क्या कमी है, और कब आएं” ”ना आ तो कलई जाना, कल करवा देंगे” ”पर जब कागजों में कमी है तो कल कैसे होगा” तब वो नाराज़ होकर चला गया। पंडितों से, पंडों से, उनके शोहदो से, और बिचौलियों से बहस नहीं करनी चाहिए, और ईश्वर की ओर तो आप देखें भी तो, साफ उंगली से इशारा होता है कि बाहर चलो, आ गए मुहं उठाके।
खैर, दूसरे दिन पहंुचे, आज भीड़ कम थी, वकीलों की हड़ताल जो थी। हमारा बिचौलिया भी पूरी तरह तैयार था, उसका चिरौरी वाला चेहरा बता रहा था कि आज काम हो ही जाएगा। लेकिन आज हम भी तैयारी करके आए थे, हम भी उसके साथ-साथ अंदर गए, जब-जब वो चिरौरी करता, हम भी बेचारों जैसा मुहं बना लेते, और जब-जब वो बाहर आता, हम भी बाहर आ जाते। अंततः उसकी और हमारी चिरौरी चल गई, और ईश्वर प्रसन्न भये। हमारी अरज सुनी गई, और हमने भर फेफड़ा राहत की सांस ली।