मंगलवार, 27 मई 2014

ताजपोशी 


लीजिए साहब, ताजपोशी हो गई। अब ताजपोशी तो बनती ही थी। मोदी पहली बार संसद पहुंचे तो उनकी आंखे, गला, और शरीर के कई और हिस्से भर आए। लोगों ने कहा ”घड़ियाली आसूं हैं” हमने कहा, ”ये घड़ियाली आंसू नहीं हैं, ये धांसू आंसू हैं, अरे भई, रोना तो किसी को भी आ सकता है, कोई छाती पीट-पीट कर रोता है, कोई जेब से रेशमी रूमाल निकालता है और हल्के से आंख पोंछ लेता है, कोई आंसू बहने देता है ताकि खबर बन सके। खैर खबर की चिंता वो करें, जो लाठी-गोली खाएं, नारे लगाते-लगाते गला खराब कर लें, लेकिन खबर ना बन सकें, यहां तो छींक भी मार दें, तो एन डी टी वी और आज तक खबर यूं बनाएं, ”परसाई के शब्दों में, ”दर्शकों को याद दिला दें कि जब बुद्ध ने गृहत्याग किया था तो उन्होने ऐसे ही छींका था”। वैसे मेरी मानिए तो रोने-रवाने को छोड़िए, कई देखें हैं, दर्जनों लोगों की हत्या में जेल काट रहे हैं लेकिन बेल का ऑर्डर मिला तो आंखों में आंसू आ गए, एक साहब तो कोर्ट में रेप करना स्वीकार कर रहे थे, और रो पड़े, तो आंसू तो किसी को भी आ सकते हैं साहब, इनकी बातें मत करो। लेकिन यहां बात आंसुओं की नहीं होने वाली क्योंकि वो कल की खबर थी, बासी। आज की ताजी खबर यूं है कि भव्य ताजपोशी हुई, भव्यता में और फूहड़ता में कोई खास फर्क आमतौर पर नहीं देखा जाता, और यूं भी भव्यता और फूहड़ता में सामंतवाद का कोई सानी नहीं है। तो ताजपोशी में जो भव्यता थी वो भयावह थी, और फूहड़ता का आलम ये था कि सुना किसी नवे-नवे मंत्री का बेटा प्यास के मारे गिर पड़ा लेकिन पीने को पानी की एक बंूद नहीं थी।

ताजपोश्ी हुई और भव्य हुई, टीवी चैनल्स की माने तो भव्यतम हुई, इसमें तम् शब्द का अनर्थ कृप्या ना करें। ये किसी अंधेरे भविष्य की तरफ इशारा नहीं है। मोदी ने अपनी ताजपोशी बिल्कुल ऐसे की जैसे किसी राजा की ताजपोशी हो रही हो, सात देशों के राजाओं को न्यौता दिया गया, जब वे आए तो उनके चरणों पर फूल बरसाए गए, गुलाबजल भी छिड़का ही गया होगा, फिर सुना कि किन्ही साहब चारण ने विशुद्ध हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत का कार्यक्रम भी दिया, और भोज भी हुआ। यानी कि लगभग वो सभी काम हुए जो इस तरह के भव्य सामंती समारोह में हो सकते हैं। भव्यता का आलम ये कि इससे महत्वपूर्ण कोई और खबर थी ही नहीं, गोरखधाम एक्सप्रेस का एक्सीडेंट हुआ, सिफर, दंगे हुए, सिफर, लोग मरें, सुसरे मरते ही रहते हैं, उसकी क्या खबर बनानी, खबर भव्यता की हो, तो खुद भव्य हो जाती है, इसलिए सारे चैनल इस भव्यता के भव्य में डूबे रहे।

जो नहीं हुआ, जिसका मुझे भव्य दुख है, वो ये कि सभी सामंती संस्कार पूरे नहीं हुए। यानी? यानी कुछ चीजें हैं जो होनी चाहिए थीं, जो राजाओं की ताजपोशी पर अक्सर होती हैं। जैसे रात को रंगारंग कार्यक्रम होने चाहिए थे, अब भी हो सकते हैं, इंडिया गेट के लॉन में रंगीन बत्तियां लगा कर खूब रंगीन नाच होना चाहिए था, गरीबों को कम्बल, खाना, और बाकी चीजें बांटनी चाहिए थीं, और शुभेच्छा के तौर पर कुछ कैदियों को छोड़ देना चाहिए था। अब ये नहीं हुआ इसलिए मुझे ये ठीक नहीं लगा। मोदी को शपथ ग्रहण के बाद ये करना चाहिए था कि कुछ तीन-चार सौ कैदियों की रिहाई की घोषणा कर देनी चाहिए थी, पुराने जमाने में राजा लोग यही करते थे, जो हत्या, लूट आदि अपराधों में बंद हों, उनकी रिहाई हो जाए, मुझे उम्मीद है कि ये होगा, हो सकता है कि इसमें कुछ देर हो रही हो, लेकिन उम्मीदन वो सभी लोग छूट जाएंगे जो काफी अर्से से हत्याओं के सिलसिले में जेल में बंद हैं।

कुछ लोगों ने आस-पड़ोस से ताजपोशी के इस भव्य समारोह में बुलाए गए राजाओं पर आपत्ति की है, लेकिन ये गलत है, अपने देश में हजारों, लाखों तमिलों का जनसंहार करने वाले राजपक्षे, के चरणों में सुंदरियां गुलाब की पंखुड़ियां डालें, और फिर उनके कपड़ों पर गुलाबजल छिड़कें, बताइए, ऐसी तस्वीर कहां मिलेगी आपको। कुछ अराजकों का कहना है कि भई चीन को क्यों नहीं बुलाया, अरे बेवकूफों, एक तो सात का अंक शुभ होता है, जो सार्क देशों के साथ पूरा हो गया, फिर चीन अमेरिका विरोधी है, किसी अमेरिका विरोधी को बुलाकर मरना है क्या, और अभी तो सम्राट ”चक्रवर्ती” नहीं हुए हैं, अभी से अमेरिका से बैर क्यों मोल लें भला।

पुराने जमाने के राजा लोग ये भी करते थे कि ताजपोशी के फौरन बाद इधर-उधर शादी के लिए राजकुमारियों की तलाश में खोजी दौड़ा देते थे, अब ये हो सकता है या नहीं, इस पर बात हो सकती है।

बाकी रही चारण-भाटों की बात, तो अभी के सभी मीडिया चैनल इस कमी को बखूबी पूरा कर रहे हैं। इस भव्य ताजपोशी का सीधा प्रसारण रहा, फिर उसका पुर्नप्रसारण रहा, फिर पुर्नप्रसराण को कई संर्दभों में गर्दभ राग की तरह दिखाया जाता रहा, और उम्मीद है कि आगे भी दिखाया जाता रहेगा। मेरी इन सलाहों की तरफ ध्यान देकर अगर इस तरह के कार्यक्रम हों तो दिल अति प्रसन्न होगा और ताजपोशी के सभी सामंती संस्कार पूरे होंगे ऐसी कामना है।

शनिवार, 17 मई 2014

2014 में



2014 में मोदी को अप्रत्याशित सीटें मिली, वो जीत गया। टी वी पर देखा, कुछ लोगों ने उसी वक्त बीच सड़क पर हवन करना शुरु कर दिया था। सुना भाजपा कार्यालय में 2500 किलो लड्डू बने, बंटे का पता नहीं। सवाल ये है कि मोदी जीत गया, तो क्या? कुछ लोगों ने सिर पकड़ लिया, कुछ लोगों ने खाना छोड़ दिया, कुछ लोग ऐसे उदास हुए कि फोन ही बंद कर दिया। अरे भाई लोगों तुमने क्या सोचा था, ये तो सभी कह रहे थे कि इस बार सरकार भाजपा की बनेगी, हां ये जरूर है कि इतनी सारी सीटें जो मोदी को मिली हैं उसका अंदाजा हमारे इर्द-गिर्द के बहुत कम लोगों को था। लेकिन इससे भी क्या, चाहे जो हो जाए, हमारी जबान से तो ”अनलहक” ही निकलेगा। गम की अंधेरी सुबह को यारों के साथ बिताने के लिए ”ताकी जी हल्का हो जाए” अभी वक्त नहीं आया है, मोदी जीत गया है, उसे जीतना ही था। सब जानते हैं कि इस लोकतंत्र में वोट और जीत पैसे की होती है, जिस तरह फासिस्ट हों, पूंजीपति हों, मीडिया हो, उसे तो जीतना ही था। हमें संघर्ष करना था, हमने किया। ये बात दिल-दिमाग से निकाल दो कि संघर्ष की राजनीति को सुविधाजनक सड़क मिलती है, वो तो उबड़-खाबड़ रास्ते पर ही चलती है, और उसमें कभी-कभी खड्डे और खाइयां भी पार करनी पड़ती हैं। तो गम किस बात का, समझ नहीं आता कि भइया कौन सी सरकार थी जिसने तुम्हे, संघर्ष करने के लिए सुविधाएं मुहैया करवाई थीं, तुमने हर दौर में संघर्ष किया है, आज भी करना है और कल भी करना है। भूल गए क्या, हम लडेंगे साथी, उदास मौसम के खिलाफ, कि लड़ने की उम्मीद बाकी ना रहे, लड़ने की जरूरत तो रहेगी। तो हम लड़ेंगे हर उस तहरीर के खिलाफ जो अम्नो-चैन के खिलाफ हो, प्यार और दोस्ती के खिलाफ हो, इंसानियत के खिलाफ हो, गो कि अगर सारी दुनिया भी फासीवादी हो जाए, तो भी हम लडेंगे, और इसलिए कि अब तो लड़ने की और ज्यादा जरूरत है। तो साथी, ये उदास होने का नहीं, अपने हथियारों को पैना और धारदार करने का वक्त है। थकावट को जिस्म से अलग करके फिर से खड़े होने का वक्त है।

सुबह-सुबह एक मित्र ने कहा, कि मोदी डेमोक्रेटिक स्पेस खत्म कर देगा। मेरा मानना है कि डेमोक्रेटिक स्पेस कोई राजा, या तानाशाह खत्म नहीं कर सकता, वो तब खत्म होता है, जब जन-संघर्ष नहीं होता, बल्कि तानाशाह जितना दमन करता है उसके खिलाफ खड़े होने के उतने ही मौके आपके पास होते हैं, और बात सिर्फ इतनी है कि आप डर गए हैं, भागना चाहते हैं, समझौता करना चाहते हैं, या फिर धूल-गर्द झाड़ कर फिर से लड़ना चाहते हैं, क्योंकि लड़ने के लिए जज्बा और हौंसला चाहिए, स्पेस खुद-ब-खुद बन जाता है। एक बात जान लीजिए, मोदी के खिलाफ लड़ने को आ आ पा नहीं होगी, आप ही होंगे, मोदी से लड़ने के लिए कांग्रेस नहीं होगी, आप ही होंगे, मोदी से लड़ने के लिए कोई लालू, मायावती, नितीश नहीं होगा, आप ही होंगे और होगी आपके लड़ने की जरूरत। अंधेरी सुबह, धुंधुआता सूरज अभी नहीं उगा है, उतावले होने की जरूरत नहीं है, अंधेरी सुबह तब होगी, जब लड़ने को कोई नहीं बचेगा, जब आप हिम्मत हार जाएंगे। आजादी के इतने सालों बाद भी, बार-बार खड़े होने और दमन झेलने के बाद भी, ”मोदी डेमोक्रेटिक स्पेस खत्म कर देगा” की बात कुछ बचकानी सी लगती है। एक भी उदाहरण दीजिए, भारत का नहीं, पूरे विश्व का, किसने दिया डेमोक्रेटिक स्पेस, कहां मिला डेमोक्रेटिक स्पेस, और फिर जब जन-सैलाब उठा, तो उसने तानाशाही का ही स्पेस खत्म कर दिया। असल में सुविधा के साथ क्रांति के किनारे पर धूप सेंकने वालों को चिंता ये है कि अब उन्हे या तो खुल कर सामने आना पड़ेगा, या फिर सुविधाएं छोड़नी पडेंगी, और उन्हे चिंता ये हो रही है, कि पहले तो बहाने से ही पैसा भी कमाते थे और क्रांति भी ओढ़ी हुई थी, अब क्या करेंगे। कल ही कल में मैने कुछ ऐसे सीन देख भी लिए, कुछ दोस्तों ने कहना शुरु कर दिया, कि भैया अपन का क्या है, कभी विरोध में थोड़े ही थे, हां आप को इसलिए समर्थन कर दिया था कि वो भ्रष्टाचार के खिलाफ थी, दूसरे कुछ मित्रों ने अपने सगे संबंधियों को चेताना शुरु कर दिया कि, ऐसा-वैसा कुछ ना करें कि शासक सत्ता को वो विरोधी दिखाई दें, थोड़ा संभल कर रहें, घर पर रहें, चर्चा ना करें, करें तो अपने विचार ना बताएं, चुप रहें। यानी मोदी ने कुछ ना किया, आपने डेमोक्रेटिक स्पेस खत्म करने का काम शुरु कर भी दिया। 

लोगों ने कहा कि आपने तो केजरीवाल का प्रचार किया था, जी हां, जरूर किया था, वो एक रणनीतिक कदम था, और अगर दोबारा होगा तो भी हम वही करेंगे, कारण कि हम मोदी का विरोध करते हैं, और करते रहेंगे, उसके लिए हर संभव मंच और मोर्चे का इस्तेमाल करेंगे, संघर्ष का हर संभव तरीका इस्तेमाल करेंगे। जीत हार तो बाद की बात है, संघर्ष करना मूल बात है। सवाल ये है कि आपने क्या किया, जब संघर्ष अपने चरम पर था, तब आप कहां थे, आपने उस संघर्ष पर भी सवाल उठाया, और अब मोदी का चारण बनने की तैयारी कर रहे हैं, ध्यान रखिएगा, हम उन चारणों के खिलाफ भी संघर्ष करेंगे।

ये तो कहो, कि कांग्रेस क्या कम फासिस्ट है, आफस्पा, बेवजह मुस्लिम नौजवानों को आतंकवादी बताकर मार देना, या जेल में डाल देना, आपके अपने साथियों की सरेआम हत्याएं, किसी को भी नक्सली बता कर जेल में डाल देना, क्या फासिस्ट नहीं है, क्या हमने इसके खिलाफ संघर्ष नहीं किया, अपने कितने ही साथियों की शहादत हमने झेली है, क्या वो सब भाजपा के ही राज में हुआ? चुनाव के समय ही सांईबाबा की गिरफ्तारी क्या मोदी के इशारे पर हुई थी? चाहे कंाग्रेस हो या भाजपा हो, या कोई अन्य नवजनवादी ताकत हो, जब तक व्यवस्था नहीं बदलेगी तब तक ऐसे ही होगा, और आपके पास संघर्ष के अलावा और कोई चारा भी नहीं रहेगा। तब फैसला आपके हाथ में है, लड़ेंगे, लड़ते रहेंगे, या डर जाएंगे, बहाने ढूंढेंगे, चले जाएंगे, या खुद को बचाने की जुगत लगाएंगे। 

मेरा अपना मानना ये है कि अब तक दुश्मन छुप कर, मुखौटा लगा कर आता था, सामने होते हुए भी एक धुंध का बादल रखता था, ताकि किसी को उसका असली चेहरा दिखाई ना दे, लेकिन अब वो खुल कर सामने आया है, और अब बिना किसी दबाव-छुपाव के वो अपना काम करेगा, और हम, हम अपना काम करेंगे। जिन्हे कैरियर का डर है, वो जाएं उसकी शरण में, जो थक गए हैं, वो आराम करें, जो घबरा गए हैं, वो कोई और विकल्प तलाश कर लें। लेकिन जो इसे अपने काम के लिए एक मौके के तौर पर देख रहे हैं, जो जानते हैं कि बिन लड़े कुछ भी नहीं मिलता, वो लड़ें, क्योंकि दोस्तों, लड़ाई धारदार होने वाली है, संघर्ष तेज़ होने वाला है, आर या पार का मौका आने वाला है। ये वो समय है जो ये फैसला करता है कि कौन आपके साथ है और कौन आपके साथ नहीं है। ये मौका है, जो प्रतिबद्धताओं को उजागर कर देता है, जब आपके ही बीच के काफी सारे क्रांति का जाप करने वाले लोगों के चेहरों से मुखौटा उतरेगा, खुद को प्रगतिशील कहलवाने के सुख में मुब्तिला कई लोग, अब पाला बदलेंगे। अब आपके पार्टनर की असली पॉलिटिक्स दिखाई देगी। 
मैं नहीं चाहता था कि मोदी जीते, वो जीत गया तब भी मैं नहीं चाहता कि वो जीते, और वो ना जीते इसके लिए मैं पूरी जान लगा दूंगा। क्योंकि मोदी एक इंसान नहीं है, वो कारपोरेट, फासिज़्म और बर्बर दमन की विचारधारा का प्रतिनिधि है, इसलिए मैं उसे जीतने नहीं दूंगा, मनमोहनसिंह दस साल तक प्रधानमंत्री रहा, लेकिन मैंने उसे जीतने नहीं दिया, मैं मोदी को भी नहीं जीतने दूंगा। मैं उदास नहीं हूं, तैश में या उत्तेजित भी नहीं हूं, मैं व्यवहारिक हो रहा हूं, और ठोस बात करना चाहता हूं, इसलिए कह रहा हूं कि उठ खड़े हो और मोदी को दिखा दो कि कारपोरेट पंूजी की ताकत उसे प्रधानमंत्री की कुर्सी भले ही दिला सकती हो, लेकिन वो अपनी पूरी ताकत से भी उसे हमसे नहीं जिता सकती। इंकलाब जिंदाबाद। 

महामानव-डोलांड और पुतिन का तेल

 तो भाई दुनिया में बहुत कुछ हो रहा है, लेकिन इन जलकुकड़े, प्रगतिशीलों को महामानव के सिवा और कुछ नहीं दिखाई देता। मुझे तो लगता है कि इसी प्रे...