बुधवार, 18 नवंबर 2015

बीच वाली दराज़


तस्वीरें पुरानी यादों की खिडकियां होती हैं। तस्वीरें अच्छी-बुरी नहीं होती, उनके साथ जुड़ी यादें होती हैं जो आपको या तो अच्छी लगती हैं, या फिर बुरी लगती हैं। तस्वीरें तो बहुत ही तटस्थता से आपको याद दिलाती हैं कि उस समय क्या हुआ था, कई बार ऐसा लगता है जैसे तस्वीरें बोल रही हों, हंस रही हों, या चल रही हों, या हो सकता है कि ऐसा सिर्फ मुझे लगता हो। ऐसा लगने पर मैं किसी को बताता भी नहीं हूं, जाने सामने वाला मुझे पागल ही ना समझने लगे। यूं मैं बहुत प्रैक्टिकल इंसान हूं। कम से कम दुनिया वाले तो यही कहते हैं, अपनी तमाम उम्र में अब तक मैने अगर कोई कॉम्पलीमेंट या ताना सबसे ज्यादा सुना है तो वो यही है कि मैं बहुत प्रैक्टिकल इंसान हूं। पहले लगता था कि ये लोग शायद पै्रक्टिकल का मतलब ही नहीं जानते, फिर इतने लोगों ने ऐसा कहा कि मुझे लगने लगा कि ये लोग ठीक ही कहते होंगे, इतने लोग झूठ थोड़े ही बोलेंगे जी। तो मैं भी खुद को प्रैक्टिकल मानने लगा, जबकि सच कहूं तो मुझे जैसा सपनों में जीने वाला, कल्पनाओं में मजे लेने वाला इंसान बहुत ही मुश्किल मिलेगा आपको। लेकिन अब अगर दुनिया कहती है कि आप प्रैक्टिकल हैं, तो हैं। 
सुबह-सुबह कमरे की हल्की-फुल्की सफाई में वो फोटो मिली थी, जिसे हाथ में पकड़े हुए मैं ये सब सोच रहा था, और शायद अभी और भी सोचता जबकि दीदी चाय लेकर आ गई थीं। दीदी का भी बढ़िया है, साढ़े आठ तक आ जाती हैं, लेकिन चाय बनाने में कम से कम 45 मिनट लगता है। मुझे आज तक समझ नहीं आया कि जब मैं चाय मांगता हूं तो मुझे पांच मिनट में ही चाय कैसे मिल जाती है, जबकि पहली चाय वो आने के 45 मिनट बाद देती है। मुझे हमेशा लगता है कि वो आने के बाद अपना कोई धार्मिक रिचुअल पूरा करती है, जैसे लोगबाग रोज़मर्रा के काम शुरु करने के बाद करते हैं। जैसे कोई ड्राइवर स्टीयरिंग को हाथ लगाकर अपने कान छूता है, या कोई बारबर कंघी-कैंची को हाथ लगाकर अपने कान छूता है। 
तो दीदी चाय ले आई और मैं फोटो को टेबल पर रखकर फिर से कम्प्यूटर में घुस गया। ये कम्प्यूटर भी कमाल चीज़ बनाई है बनाने वाले ने, एक पल को आप अंदर गए तो कई सदियों बाद ही निकलते हो, बिल्कुल ऐसा है जैसे आप बाज़ार जाते हो, दाल लेने के लिए और दाल छोड़ कर आपकी निगाहें हर चीज़ पर पड़ती हैं, और आप बाज़ार में गुम से हो जाते हो। अरे याद आया आज बाज़ार भी तो जाना है, काफी दिनो से सोच रहा हूं कि नया हेल्मेट ले लूं, ये हेल्मेट तो खत्म हो गया है। एक तरफ का स्ट्रैप टूट गया है, और गाड़ी चलाते हुए यूं सिर से खिसकता है कि बार-बार एक हाथ हैंडल से हटाकर हेल्मेट को ठीक करना पड़ता है। इस तरह गाड़ी चलाना, बहुत खतरनाक होता है। अभी उस दिन जब मैं घर वापस आ रहा था तो अचानक गाड़ी स्लिप हो गई, वो हेल्मेट ही था जिसकी वजह से मेरा सिर बच गया था। हेल्मेट तो ले ही लेना चाहिए, लीजिए मैं तो कम्प्यूटर पर ई-मार्केट में हेल्मेट ही देख रहा हूं। बहुत महंगे हेल्मेट हैं ये तो, इससे अच्छा तो दुकान पर जाकर ही ले लेना चाहिए। कम से कम बार्गेनिंग करने का सुख तो साथ मिलेगा। यहां तो एक ही कीमत होती है, लेना है तो लो नही तो टा टा, बाई बाई। 
ये फोटो नज़रों के सामने से नहीं हट रही है, बहुत पुरानी फोटो है, मैं बहुत कम उम्र का हूं, साइकिल रिक्शा चला रहा हूं। यहां की नहीं है, भरतपुर की फोटो हैं, भरतपुर जैसा पहले था, अब वैसा नहीं बचा, कतई नहीं। अब तो बहुत भीड़-भड़क्का हो गया है वहां। उन दिनों बहुत शांत था भरतपुर, हम दोनो गए थे, बस से....। मौसम खूबसूरत था, उम्र शानदार थी और दिल बहुत हसीन था, और हम दोनो गए थे। फोटो कुछ-कुछ पुरानी हो गई है, मुझे उस दौर में लगता था कि मैं बहुत उम्दा फोटोग्राफर हूं। बहुत देर में समझ में आया कि मुझे फोटोग्राफी नहीं आती, अब तो खैर करना भी छोड़ दिया। उस जमाने में जब रोल वाली रील होती थी, मेरे पास चार या पांच कैमरे थे। कहीं जाता था तो कम से कम तीन कैमरे तो हमेशा लेकर जाता था। बहुत सारी फोटो खीचीं, मैं हैप्पी क्लिकर था, बस बिना कुछ सोचे जो सामने आया कैमरा में कैद कर लिया। बहुत बाद में समझ में आया कि फोटो खींचना असल में बहुत ही सब्र और सन्नीयत का काम है। इतना सब्र मुझमें तब कहां था, और देखा जाए तो अब भी सब्र कहां है मेरी शख्सियत में। 
मैं अपने गुज़रे जमाने को देखता हूं तो सच में ये लगता है कि समय के साथ सबकुछ बदल जाता है। मेरे ही घर के पास, कल तक जहां भैंसे बंधती थीं, आज वहां रेलवे के फ्लैट है, जिनमें एक पूरी दुनिया बसती है, कभी पूरे इलाके में कीकर के पेड़ होते थे, आज देखने को भी नहीं मिलते। पता नहीं किसने कहा था कि खूब मजबूत होते हैं, समय के साथ हवा हो गए, कीकर के पेड़। सारी खूबसूरती चौकोर कंक्रीट के डिब्बों में कैद हो गई है, अब उसमें ही हरा भी ढूंढिए और बाकी कायनात के रंग उसी में मिलते हैं, जमीन वो निगल गए, आसमान को उन्होेने ढांप लिया, पेड़ों को उन्होने इस्तेमाल कर लिया और उन पर रहने वाले परिंदे जाने कहां चले गए। कोई नया पता भी ना दिया उन्होने कि कभी याद आए तो एक दो हरूफ लिख के हाल-चाल ही ले लिया जाए उनका। वो जमाने और थे साहब जब जमीन की थाह नहीं मिलती थी, आज तो जाइए कोरपोरेशन के ऑफिस में और पटवारी आपको हर जमीन की सही-सही हद बता देता है, उसका नंबर दे देता है। उसके पास यहां से वहां तक सब जमीन का साइज़ नापा हुआ रहता है। वो जमाने गए जब आसमान सबकुछ ढांपता था, आज तो हालत ये है कि मुंह छुपाता रहता है, दिखाई ही नहीं देता, जमाना हो गया, सही चेहरा देखे हुए आसमान का, धुुंधुआता सा, काला-काला सा दिखता है, पता नहीं दिखता नहीं कि लज्जित है। 
ये तस्वीर जिसकी मैं बात कर रहा हूं उस जमाने की है जिसमें ये सब चीजें जिनका मैने जिक्र किया अभी उतनी खराब नहीं हुई थी, कि बच्चों के फेफडे़ गुलाबी ही होते थे। तब मैं उसके साथ भरतपुर गया था। उस समय कुछ खास पता नहीं था, बस डिपो से बस पकड़ी और दूसरे दिन सुबह-सुबह भरतपुर बस स्टैंड पर उतर गए थे। वहीं पास में देखा एक ढाबा, जिसपे चाय पी, उसीने पूछा, ”कमरा चाहिए?” सोचा यहीं ले लिया जाए, पैसा कम लगेगा, ”हां” मैने कहा, उसने दिखाया उसी ढाबे के उपर चार कमरे थे, जिनमे चारपाई थी, गंदे गद्दे और दरवाज़े पर चिटकनी नहीं थी, बाथरूम बाहर था। मैं बिना कुछ बोले नीचे उतर आया और उसे इशारा कर दिया था। हमारा बहुत सारा काम इशारों में ही चल जाता था। 
कई बार होता है ऐसा, कि हमें किसी से बात करने की जरूरत ही ना हो, आंखों ही आंखों में बात हो जाए। तुम सब कुछ कह दो, और मैं सबकुछ समझ जाउं। ऐसा होता है कई बार, कई-कई घंटे तक हम बोलते ही नहीं हैं और हजारों किस्म की बातें हमारे बीच हो जाती है। ऐसा होता है कई बार, कि हम सबकुछ समझ जाते हैं, सबकुछ समझा देते हैं, और बोलते नहीं हैं। सिर्फ छूने भर से तसल्ली मिल जाती है, भरोसा हो जाता है, सबकुछ वहीं होता है, वहीं होता है, ऐसा होता है कई बार। जब सारी दुनिया सिर्फ उस एक पल में सिमट जाती है, जब सबकुछ होता है और कुछ नहीं होता। कभी-कभी इंतजार भी होता है, लेकिन वो इंतजार खलने वाला, चुभने वाला नहीं होता। मीठा होता है, अच्छा लगता है, इंतजार करना। थोड़ा खुमारी वाला होता है, ऐसा मौका, ऐसा......।
जब वो समय था, तो ऐसा था, ऐसा ही था। मैने कुछ नहीं कहा, उसने समझ लिया और बैग उठा लिया। उसके बाद हमने कई होटलों के चक्कर काटे, अपनी जेब के बाहर के कुछ होटल थे, तो कुछ बहुत ही नालायक से होटल थे। आखिर एक होटल मिला। वो बस स्टैंड और महल वाले होटल के बीच का होटल था। उसने मेरी तरफ देखा और मैं समझ या कि अब यही होटल लेना है। हमने वो होटल ले लिया, सर्दियों के दिन थे, नर्म धूप के और कड़क रातों के दिन थे। कुछ ना कहने के और कुछ ना सुनने के दिन थे। फिर भी उन दो दिनों में वहां बहुत कुछ कहा-सुना गया। 
ये तस्वीर उसी कहे-सुने का पंचनामा तो है। दिन अब भी वही हैं, नर्म धूप वाले, लेकिन धूप अब वैसी नहीं लगती। कहीं-कहीं से इसका पलस्तर उधड़ गया लगता है, समय ज्यादा हो गया, धूप चटक गई है, कहीं-कहीं से। तस्वीर भी यही कह रही है। समय हो गया। 
लीजिए चाय ठंडी  हो गई। मै अक्सर गुनगुनी चाय पीता हूं, बहुत पीता हूं, लेकिन गुनगुनी पीता हूं। जब तक मुहं भर चाय ना हो, स्वाद नहीं आता। इसीलिए मेरे घर में चाय के कप बहुत बड़े-बड़े हैं। सुड़क कर पीने वाली चाय में मुझे आज तक मजा नहीं आया, चाय का मज़ा घूंट भर कर पीने में है, ज़बान पे दर्ज हो, मुहर लगे दिल पे कि चाय पी है। वो लोग जो चाय को बिना किसी जज़्बे के पीते हैं, मुझे समझ नहीं आते। जो भी संपर्क में आया, उसे पहचाने बिना उसे कैसे दर्ज कर लेंगे, कैसे स्वीकार करेंगे या अस्वीकार करेंगे। कुछ तो होगा, जो चलेगा, बहेगा, रुकेगा। मुझसे नहीं होता। जैसे ये तस्वीर, उस रोज़ भी इसने बहुत कुछ कहा, किया था। आज भी ये बहुत कुछ कह, कर रही है। तस्वीर सिर्फ तस्वीर नहीं होती, यादों की खिड़की होती है। इसलिए मैं तस्वीरों को अपनी मेज़ की उस दराज़ में बंद करके रखता हूं जिसका कोई हैंडल नहीं है। जब तक बहुत शिद्दत से ना चाहो, नहीं खोल सकते। यादों को बेमुरव्वती से बरतना मुझे पसंद नहीं है। मैं इन यादों को भी जिंदगी जैसी गंभीरता से बरतता हूं, उसी खूबसूरती के साथ उन्हे हाथ में लेता हूं जिससे उन्हे बनाया था। वैसा ही अहसास होता है, जैसा याद बनते वक्त था। यादों के साथ जिस तरह का रिश्ता आप रखते हैं, अक्सर लोगों के साथ भी आपके वैसे ही रिश्ते होते हैं। ऐसा मेरा मानना है, हो सकता है कि आप कुछ अलग सोचते हों। 
मुझे बहुत कुछ करना है, सिर्फ तस्वीर हाथ में लिए बैठे रहने से कुछ नहीं होगा। इस घर की, खासतौर से इस कमरे की सफाई हमेशा बहुत सारा समय खा जाती है। थोड़ा समय लगता है सफाई में, मैं ज्यादा सफाई पसंद नहीं हूं ना, उतने से काम चला लेता हूं, जितने से काम चल जाता है। ज्यादा समय लगता है यादों को सहेजने, समेटने, बटोरने और फिर करीने से किनारे करने में.....अब यही लीजिए। इसीलिए मैं इस बीच वाली दराज़ को नहीं खोलता, इसमें इस तरह की बहुत सारी यादें जमा हैं, अगर खोला तो कई दिन बीत जाएंगे। फिर भी खोलनी तो होगी ये दराज़, आज किसी याद को निकालने के लिए नहीं, इस याद को फिर से सहेज कर रखने के लिए, इसी तरह बाहर रहेगी तो कहीं खो जाएगी। यादें ऐसी ही होती हैं, नहीं सहेजेंगे तो खो जाएंगी। बच्चों की तरह चंचल होती हैं, खेलते हुए कही दूर चली जाएंगी और फिर पुकारेंगे तो भी नहीं आएंगी। इसलिए इन यादों को सहेज कर रखने में समझदारी है। 
बहुत मुश्किल से वो बीच वाली दराज़ खोलकर मैने ये फोटो उसमें रख दी है, समय की चौखट पर यादों की एक खिड़की खुल गई थी। बंद कर दिया उसे दिल पर हाथ रखकर। फिर कभी सही....यादों की ये खिड़कियां वहीं रहेंगी, जहां रख दी जाएंगी। फिर कभी......

गुरुवार, 12 नवंबर 2015

भा ज पा, पाकिस्तान और गंगा मैया.....या....या....



ये भाजपा ने क्या कर दिया। मैं सोच रहा था कि मोदी की प्रचंड रैलियों की वजह से बिहार में होने वाली प्रचंड जीत से, विराधियों, अधम-पापियों के नर-मुंड लुढ़क जाएंगे, और अपनी प्रचंडता की ज्चाला में विजयी मोदी के प्रचंड विजय रथ की गति और तीव्र हो जाएगी जो, प्रचंडतम होती जाएगी और आर्यावर्त को विकास की प्रचंडतम-प्रचंडता से प्रचंडित पथ पर ले जाएगी। 
पर....ये क्या हो गया। प्रगतिशील सब खुश हैं, उन्हे पता नहीं है कि ये बिहार के लिए अंधेरे युग का आरंभ है। नितीश कुमार और लालू प्रसाद बिहार को पुनः अंधकार की गर्त में ढ़केल देंगे, मेरा मतलब बीच में कुछ समय जो सुशील मोदी की वजह से बिहार विकास के पथ पर रथ में बैठा हुआ आगे चला था, वही अब फिर से पतित हो जाएगा। बताइए तो पूरा देश विकास के रास्ते पर फर्र-फर्र दौड़ रहा है और बिहार.....बिहार बैठ गया है। मोदी को वोट दे ही देते तो क्या हो जाता बे....बिहारी रहेगा बिहारी.....इतना कहा मोदी ने कि मुझे वोट दो तो इतने हजार करोड़ का विशेष आर्थिक पैकेज दूंगा, बिहारियों ने नकार दिया, नितीश और लालू के सारे काले चिठ्ठे खोल दिए, बिहारियों ने उसे भी नकार दिया, गाय की रक्षा की गुहार की, बिहारियों ने गाय को कोई भाव नहीं दिया, और अंततः ये भी बताया कि पाकिस्तान की आंखें बिहार की हार-जीत पर ही लगी हैं और अगर मोदी नहीं जीते तो पाकिस्तानी कितने खुश होंगे, लेकिन बिहारियों ने इस पर भी कोई ध्यान नही दिया। चुनाव से पहले से ही गैया के नाम पर माहौल बनाया गया था। लोगों ने इसका विरोध भी किया। लेकिन आपको पता नई है, हमारे यहां तो गाय की पूंछ पकड़ कर लोग वैतरणी तक पार करने की बात करते हैं, मोदी गाय की पूंछ पकड़ कर चुनाव की वैतरणी पार करने की सोच रहे थे, तो आपको क्या दिक्कत है। दिक्कत वही है कि भारतीय परंपराओं, हिन्दु संस्कृति से आपका विश्वास उठ गया है, और अब मोदी जो करता है, जो भी करता है, या नहीं करता है, वो सब आपको बुरा लगता है। 
ये लोग मोदी से इतना जलते क्यों है भई। मैने पहले भी लिखा था, अब फिर लिखना पड़ रहा है। आपको पता नहीं है, असल में अभी पिछले से पिछले साल इन सब लेखकों-फेककों की, ये जो अरुनधति राय जैसे जो देशद्रोही, पाकिस्तानी हैं, इनकी एक बैठक हुई थी, जिसमें बाहर का पैसा लगा था, इन सबने वहां, उस बैठक में ये कसम खाई थी कि ये मोदी से जलेंगे, तबसे ये लोग लगे हुए हैं, मोदी से जलने के लिए। अभी इनका पूरा इतिहास खंगाला गजाएगा या बनाया जाएगा, और उसमें इन्हे मुसलमान या पाकिस्तानी करार दिया जाएगा। जैसे ये बात कि अरुंधति राय के अब से छठी पीढ़ी के पुरखे ने मस्जिद का पानी पिया था। ये बात किसी को नहीं पता, लेकिन आप स्वामी से पूछिए, अरे सुब्रमणियम स्वामी से, उसे पता है। जैसे कि गुलज़ार, असल में तो मुसलमान है, इसीलिए वो जो भी गाना लिखता है उसमें मुसलमानी भाषा उर्दू के शब्द डाल देता है। ये सब पता लगा कर देशभक्त नौजवानों को उससे अवगत कराया जाएगा। मोदी ने जितने अच्छे काम किए उन्हे देखते नहीं हैं ये देशद्रोही, बल्कि जो अच्छे काम हैं, उन्हे भी बुरा करके दिखाते हैं। बस इसी का परिणाम है कि बिहार में मोदी हार गया, मेरा मतलब है कि बिहार की हार के लिए मोदी को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता, हालांकि उन्होने तो अपनी पूरी कोशिश की, नहीं हार के लिए अमित शाह को भी जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता, हालांकि उन्होने भी पूरी कोशिश की थी। 
अभी हार-जीत छोड़ दीजिए, ये देखिए कि अमित भाई शाह ने कितना सही कहा था। जैसे ही बिहार में भा ज पा की हार की खबर आम हुई, भारत में बैठे पाकिस्तान के चहेतों ने, जैसे राजद, जदयू वालों ने पटाखे फोड़े, उन्हे अपनी जीत का नहीं, मोदी की हार की ज्यादा खुशी थी, वामपंथियों ने, देशद्रोहियों ने तक पटाखो फोड़े, अरे देशभक्त होते तो मोदी की हार के गम में दिवाली तक नहीं मनानी चाहिए थी। गडकरी जी को देखिए, ना पिछले 5 दिनों से एक लड्डू तक मुहं में डाला है, और ना ही पानी की एक बूंद गले से उतारी है। घर के पौधे बेचारे पेशाब की एक-एक बंूद के लिए तरसते हुए सूखे जा रहे हैं। लेकिन हार का गम इतना बड़ा है कि पौधों की फिक्र का समय नहीं है उनके पास। 
असल में मोदी जी का ये आकलन की देश की अधिकांश जनता, उनके प्रधानमंत्री बनते ही हिंदु रीति-रिवाज़ों, त्यौहारों और कर्म-कांडों की भाजपाई परिभाषा को स्वीकार कर लेगी, सफल नहीं रहा। जनता आखिर जनता होती है, धोखेबाज़ और हरजाई, उसने ना गाय का लिहाज किया ना गंगा मैया का, अपना फायदा देखती रही। छिः, जनता का पतन हो गया है। पहले जनता अपना नहीं राजा का भाला सोचती थी, और राजा के छोटे से छोटे सुख के लिए जीवन तक त्याग देती थी। जैसे राजा पड़ोस के राज्य की राजकुमारी को अपनी तीसरी रानी बनाना चाहता है, बस जनता उसके लिए अपना तन-मन-धन झोंक देती थी और उस लड़की को ले आया जाता था। अब ऐसा नहीं है, मोदी जी आखिर क्या चाहते थे, बिहार में छोटी सी जीत.....लेकिन इन बिहारियों को ये बर्दाश्त नहीं हुआ, और सिर्फ 53 सीटों में मोदी जी का निपटा दिया। 
आपको चाहे हो ना हो, मुझे इस बात का बड़ा दुख है। मोदी जी ने इतनी रैलियां की, इतना पैसा पानी की तरह बहाया, इतना गाय-गोरु का नाम लिया, आपको अपना धर्म याद दिलाया, धर्म की आन-बान-शान की कसमें दिलाईं, लेकिन बिहार की जनता ने मोदी को वोट ना देकर लालू का वोट दिया, नितीश को वोट दिया, और तो और तीन सीटों पर तो लाल रंग के झंडे यानी राष्ट्रवाद के सबसे बड़े दुश्मन वामपंथियों को तक जिता दिया। 
लेकिन एक बात की खुशी भी है, कम से कम, एक बार, चाहे वो किसी भी वजह से हो, पाकिस्तान का नाम भारत में पॉजिटिव सेंस में लिया जा रहा है। जो कोई भी लोकतांत्रिक अधिकारों का पैरोकार है, थोड़ा बहुत समझदार है, खुल कर बोलना चाहता है, मतलब जम्हूरियत पसंद अवाम के लिए पाकिस्तान नाम के देश का नाम तज़्वीज किया जा रहा है कि भई आप हिन्दुस्तान में मत रहिए, बल्कि पाकिस्तान चले जाइए। इधर यहां की अवाम भी यही कह रही है कि हिन्दुस्तान में तो असहिष्णुता बहुत ज्यादा है, इतनी ज्यादा कि आपके लिखे से, कहे से असहमत होने पर आपकी जान तक ली जा सकती है। सरकार के नुमाइंदे कह रहे हैं कि अगर ऐसा है तो आप पाकिस्तान जाकर रहिए। इसका कुल जमा-जोड़ मतलब यही हुआ ना जी कि जो भी तरक्कीपसंद है, जिसका कला, साहित्य, फिल्म, लेखन, गायन आदि से कोई भी लेना-देना है वो जाकर पाकिस्तान रहे, भारत में उसके लिए कोई जगह नहीं है, बाकि पाकिस्तान वाले इस बात से हो सकता है कि खुश हो रहे हों, भई भारत के सारे बुद्धिजीवी, लेखक, गायक, फिल्म बनाने वाले, कलाकार, सब पाकिस्तान जाकर रहेंगे तो पाकिस्तान की तो बल्ले-बल्ले हो जाएगी। 
तब फिर भारत में कौन रहेगा? ये एक ऐसा सवाल है जो भविष्य की ओर इशारा करता है। कौन रहेगा भारत में, या सही सवाल होगा कि भारत में या हिन्दुस्तान रहने की इजाज़त किसे दी जाएगी। भारत जैसी पवित्र भूमि में वही रहे जो इसकी पवित्रता में यकीन रखता हो, और इसकी पवित्रता की रक्षा करने के लिए दूसरों के तन-मन-धन का न्यौछावर करने में तनिक भी ना हिचके। जो हिन्दु संस्कृति के लिए किसी भी बच्चे को ज़िंदा जलाने में ना हिचके, जो हिन्दु धर्म के लिए औरतों का बलात्कार करने से और फिर उन्हे भी मार देने से ना झिझके, जो रात के खाने में गाय का गोबर और पीने में गाय के पेशाब का इस्तेमाल करने में गर्व महसूस करे। और सही भी है, इस पवित्र भूमि पर रहने, चलने, खाने और हगने का अधिकार उन्ही को मिल सकता है और किसी को नहीं। 
इसके अलावा खुशी इस बात की भी है कि मोदी को और उनके सहयोगियों को पाकिस्तान पर इतना भरोसा है। हर बात में पाकिस्तान को आगे कर देने वाला भरोसा तो अमरीका-इस्राइल में भी नहीं है। मतलब जो भी हो, सब पाकिस्तान पर डाल देने वाला भरोसा.....कमाल है। यहां तक कि बिहार में मोदी के चुनाव हारने पर पाकिस्तान में पटाखे फोड़ने वाली स्टेटमेंट कमाल है जी। 
लेकिन....लेकिन.....लेकिन.....ये बिहारियों ने मोदी के इस प्लान की राह में रोड़े अटका दिए। गैया के पोस्टर पर पोस्टर निकाले गए, लगातार लोगों को बताया गया कि मोदी और सिर्फ मोदी ही है जो गाय को बचा सकता है, करके दिखाया गया, पहले दादरी में एक आदमी को मारा गया, जिसके लिए कहा गया कि उसने गाय खाई थी, फिर गाय के नाम पर पूरा माहौल बनाया गया, ऐसा महौल बनाने की कोशिश की गई कि लोग चिकन भी खाएं तो गाय के नाम से डरें। पूरी कोशिश की गई कि लोग घास खाएं तो भी दाल से डरें। लेकिन इन बिहारियों के कान पर जूं ना रेंगी। इन्होने गाय की रक्षा के नाम पर बट्टा लगा दिया है। 
मेरा सिर्फ ये कहना है कि इतना सब होने के बावजूद भाजपा को मोदी जी पर, अमित शाह पर, गाय पर, पाकिस्तान पर से अपना भरोसा नहीं खोना चाहिए। किसी ने सही ही कहा है, भगवान के घर में देर है, अंधेर नहीं है, वैसे ही गाय के गोबर में देर है, अंधेर नहीं है। गाय के नाम पर लगे रहो, आज ना सही, 20 साल और देर सही, एक दिन ये मूढ़ बिहारी समझेंगे कि मोदी को जिताना ही सही में राष्ट्रवाद है, वही सच्ची देशभक्ति है, वही धर्म है और वही सच्चाई की जीत है। अभी आपको समझ नहीं आ रहा, कोई बात नहीं। आपको पाकिस्तान भेज दिया जा रहा है, जहां आपको सही बातें समझ में आ जाएंगी, फिर आप मोदी को पुकारेंगे, उन्हे वोट देंगे और आपकी आत्मा अमर हो जाएगी, जैसा कि गीता में कहा गया है, कि जो मोदी को, भाजपा को वोट देता है, उसे मोक्ष प्राप्त होता है, वो आवन-जावन के बंधन से छूट जाता है। इस सोच को ना मानने वाले व्यक्तियों को भारत से बाहर निकाल दिया जाएगा और फिर आप पूछेंगे कि भारत में कौन रहेगा। भारत में रहेंगे, रामदेव और पतंजलि बिस्कुट खाने वाले, आसाराम और उनके प्रेम ’छिछोरा-बलात्कार पढ़ें ’ झेल कर उसे भक्ति कहने वाले, श्री-श्री के पाद को खुशबू बताने वाले, इसके अलावा रहेंगे, तोगड़िया, प्रज्ञा ठाकुर, गडकरी, और सिंधिया और इन सबके भक्त....अगर आपको कोई एतराज़ है तो आप भी पाकिस्तान जा सकते हैं। 
आगे आने वाले चुनावों के लिए अभी से सबको ये सोच लेना चाहिए कि, वोट भा ज पा, गैया माता के नाम पर देना है, और मोदी को जिता कर पाकिस्तान को सबक सिखाना है, तो बोलो गंगा मैया की......ज्ज्ज्जै।

सोमवार, 2 नवंबर 2015

इतिहासकार और चेतन भगत और बहुत कुछ


जाने क्यूं भाई लोग अचानक चेतन भगत पर बिगड़ पड़े हैं। लीजिए....अब आपको ये भी बताना पड़ेगा कि चेतन भगत कौन हैं, लिखाड़ी हैं भौत बड़े, कई तो किताबें लिख मारीं, ऐसी-ऐसी लिखी हैं कि किसी ने पढ़ी भी नीं होंगी जैसी इन्होने लिख दी हैं। दुनिया जहान् की अकल को घुटने के नीचे दबाए रहते हैं, जब जो भी मसला दुनिया के सामने दरपेश आया, झट घुटना थोड़ा सा उंचा करते हैं और एक ज्ञान की बात दुनिया के मत्थे पर मार देते हैं। अभी मार दी एक बात, बोले ये इतिहासकारों का काम क्या होता है, मेरी समझ में नहीं आता। ”हालांकि समझ इनके सबकुछ आता है, ये अंदर की बात है” कहने लगे कि इतिहासकार यूं करते हैं कि अंदाजा लगाते हैं, पहले ये हुआ होगा, फिर ये हुआ होगा, और बस इसी तरह दिन खत्म हो जाता होगा। कहने का मतलब ये इतिहासकार जो हैं, झक मारते हैं, और क्या करते हैं। बस भाई लोगों ने शोर मचा दिया, लोग-बाग जिन्हे इतिहास पसंद है, इतिहास, समाजशास्त्र, साहित्य आदि-आदि फालतू की चीजें पसंद हैं, उन्होने शोर मचा दिया। लेकिन सच कहूं तो चेतन भगत ने कुछ गलत नहीं कहा है। ये इतिहासकार आखिर करते क्या हैं, किसी को पता चला है कभी? हुंह, बनते हैं अपने को पता नहीं क्या....वैसे देखा जाए तो ये सभी लोग जो अपने को कवि, साहित्यकार, विचारक, चिंतक आदि-आदि कहते हैं, ये करते ही क्या हैं? पता नहीं क्यूं सब लोग इन्हे इतना सिर पर चढ़ा लेते हैं। 
लिखना कहते हैं हमारे चेतन भाई के काम को, मनोरंजन का मनोरंजन और काम का काम। इनका लिख ऐसा होता है जैसे एक के साथ दूसरा प्रॉडक्ट फ्री मिलता है, जैसे टाइम भी पास हो, और नींद भी आ जाए। हमारे चेतन भगत भाई ने जो लिखा है वो इतिहास नहीं है, लेकिन स्वर्णाक्षरों में लिखे जाने वाली चीजें हैं, आप आज उसकी महत्ता नहीं समझ रहे हैं, क्योंकि आप सब बेवकूफ हैं, अभी उनके लिखे का सही मूल्यांकन नहीं हुआ है, मूल्यांकन होने दीजिए, उसे नोबेल मिलेगा, रेड क्रॉस मिलेगा, पद्मभूषण, परमवीर चक्र, भारत रत्म, सोवियतलैंड पुरस्कार, अकादमी अवार्ड, ग्लोडन ग्लोब......और वो क्या होता है, रेड कॉर्नर नोटिस आदि सबकुछ मिलेगा। अभी बस एक बार मूल्यांकन हो जाने दीजिए। अभी तो एक ही मिला है उन्हे अवार्ड, वो क्या है.....मेन्स वाला.....बुकर वाला....हां...अभी मूल्यांकन होने दीजिए बस।
भारत में क्या कहिए आज के हालात बहुत खराब हैं। लोग व्यक्तिगत विरोध को, नापसंदगी को बहुत बढ़ा-चढ़ा कर पेश करते हैं। हुआ यूं कि, एक दिन ये सारे इतिहासकार, फिल्मकार, संस्कृतिकर्मी, साहित्यकार, पत्रकार, आदि मिले और इन्होने सोचा, ”मतलब ऐसे ही सोचा, क्योंकि काम तो इनको कोई होता नहीं है” कि नरेन्द्र मोदी से नफरत की जाए, ”आप पूछ सकते हैं, नरेन्द्र मोदी से ही क्यों? लेकिन कोई जवाब नहीं मिलेगा” अब इतना साफ-सुथरा, सीधा-सच्चा, ईमानदार, व्यक्ति, और उससे नफरत, पर ये सब बेकार के, बेकाम के, इतिहासकार, फिल्मकार, संस्कृतिकर्मी, साहित्यकार, पत्रकार, आदि होते ही ऐसे हैं। खैर, तो दूसरे दिन से इन्होने नरेन्द्र मोदी से नफरत करना शुरु कर दिया। सबने एक-एक करके अपने पुरस्कार, जो दया करके राज्य की तरफ से इन्हे दिए गए थे, वापस लौटाने शुरु कर दिए। ”सच कहूं तो राज्य जिसे भी पुरस्कार दे, उससे एक शपथपत्र भरवा लेना चाहिए, कि कभी राज्य या सरकार के बारे में कुछ उल्टा-सीधा नहीं बोलेगा।”  बताइए एक तो दया दिखाते हुए इन नालायकों को पुरस्कार दो, फिर इनकी झें-झें भी सुनो। कुछ समझदार लोग, जैसे अनुपम खेर, आदि इन पागलों से दूर ही रहे, इतिहास में अनुपम खेर जैसे समझदार बहुत कम हुए हैं, लेकिन जो भी हुए हैं, उन्होेने अपने वक्तों का बहुत फायदा उठाया है। अंग्रेजों के जमाने में जागीरदारी ले ली, सर का खिताब ले लिया, अब राज्यसभा की सीट कहीं नहीं जाती, बाकी काफी सारे पुरस्कार हैं ही, ऑनरेरी अवार्ड हैं, आदि-आदि हैं। सरकार की तरफ रहो, तो दूरदर्शन में, फिल्म बोर्ड में, सेंसर बोर्ड में, जगह मिल ही जाती है। अब गजेन्द्र चौहान का देख लो, है किसी करम का, लेकिन बस ठाठ कर रहा है बैठा हुआ, ये सरकार की तरफदारी का इनाम है। 
खैर, विषय पर वापस आते हुए, चेतन भगत ने कुछ गलत नहीं कहा है। बल्कि वही कहा है जो अरुण जेटली एंड कंपनी लगातार कह रही है। असल में ईमानदारी से देखा जाए तो राज्य को आखिर सोचने समझने वालों की जरूरत हो ही क्यूं। ऐसे लोग समाज में क्यूं हों, जो जनता को उसके अधिकारों के बारे में, उसकी आज़ादी के बारे में, और बाकी चीजों के बारे में बताए। एक बात बताइए ईमानदारी से, यानी सोच-समझकर, सरकार चलाने के लिए किन चीजों की जरूरत है। बताइए, एक तो चाहिए पैसा, क्योंकि पैसा चाहिए ही चाहिए, वो मिलता है पूंजीपतियों से, दूसरा चाहिए काम करने वाले, यानी मजदूरों, किसानों से, बाकी कुछ क्लर्क आदि भी चाहिएं, लेकिन ऐसे नहीं जो ऑफिस के अतिरिक्त कुछ सोचें। यानी  शासक हो, प्रशासक हों, व्यापारी हों, मजदूर हों, पुलिस हों, सेना हो और बस। इनके अलावा आप बता दीजिए किसी और की जरूरत हो तो? अगर मान लीजिए कुछ मजा-मनोरंजन करना हो तो ऐसे ही होने चाहिए भांड-चारण, जैसे चेतन भगत हैं या अनुपम खेर हैं। और किसी की जरूरत ही क्यों हों। इसीलिए सरकार तमाम संस्थानों को, और अन्य कार्यस्थलों को ऐसा बना रही है ताकि छात्र हों या शिक्षक, या कोई और यहां तक कि किसान, मजदूर, ठेकामजदूर, घरेलू कामगार, यानी सभी, मशीन हो जाएं, जो बिना सोचे-समझे काम करें, और कुछ ना करें। 
अभी तवलीन सिंह ने लिखा, लोग बेकार ही अभिव्यक्ति की आज़ादी का रोना रो रहे हैं। इतनी आज़ादी तो आज तक किसी भी पी एम के वक्त में नहीं मिली, अरुण जेटली ने दोहरा दिया। मैं सहमत हूं। असल में आप समझते हैं कि अभिव्यक्ति की आज़ादी तभी होगी जब आपको बोलने दिया जाएगा। मैं कहता हूं कि अभिव्यक्ति की आज़ादी नाम के साथ थोडे़ ही आती है कि भाई कपिल बोलेगा तभी होगी अभिव्यक्ति की आज़ादी, अब चेतन भगत बोल रहे हैं, अनुपम खेर, तवलीन सिंह, अरुण जेटली, अमित शाह, योगी आदित्यनाथ, साध्वी, रामदेव, साधु, तमाम लोग, बोल रहे हैं, जो मुंह में आ रहा है वो बोल दे रहे हैं, तो ये क्या अभिव्यक्ति की आज़ादी नहीं है। अब उनकी आज़ादी के रास्ते में आपके अधिकारों को, जैसे जीने के अधिकार को, रुकावट नहीं बनने दिया जा सकता, इसलिए आपको एक-एक करके मार दिया जा रहा है।  कुल मिलाकर आपको ये तकलीफ हो रही है कि इन लोगां को आज़ादी क्यों मिल रही है, हां......सारा मामला आपकी नापसंदगी का है, आपको ना जाने क्यूं नरेन्द्र मोदी पसंद नहीं है। तवलीन सिंह को, अरुण जेट ली को, गडकरी आदि को यही समझ नहीं आ रहा कि आप लोगों को आखिर नरेन्द्र मोदी पसंद क्यों नहीं हैं। 
खैर ऐसी की तैसी आपकी, आप पसंद करें, नरेन्द्र मोदी को या ना करें, चाहे जो भी करें, लेकिन ये ना करें। मेरा मतलब है, पढ़ना-लिखना बंद करें। अव्वल तो पढ़ने-लिखने की जरूरत नहीं है। रोज सैंकड़ों-हजारों की संख्या में किताबें छप रही हैं, उन्हे ही लोग पढ़ लें बहुत है। और रही ज्ञान की बात तो ज्ञान था सदियों पहले हमारे देश में, उसे किताबों में डाल दिया गया है। वेद, पुराण, मनुस्मृति और गीता-रामायण आदि हैं, जिनमें सारा, ज्ञान-विज्ञान-समाजशास्त्र-साहित्य-कला-संस्कृति-दर्शन, आदि समाया हुआ है, और अब और किसी की जरूरत नहीं है। ना तुम्हारी ना तुम्हारे लिखे की, इसलिए चेतन भगत ने लिखा कि उन्हे समझ नहीं आया कि इतिहास कार करते क्या हैं। धन्य हैं, चेतन भगत, जो चैन से रहते हैं, इतिहास, राजनीति की तरफ आंख उठाकर भी नहीं देखते और जब जैसा मौका होता है, वैसा बोल देते हैं, तवलीन सिंह हैं, जो दो ही टाइम में जीती हैं, इमरजेंसी या आज, बीच का सारा वक्त इन्होने सो कर गुज़ारा है, इसलिए जैसा दिखता है, उलटा-सीधा लिख मारती हैं। चाहे उसका कोई मतलब बने या ना बने। 
कुल मिलाकर दोस्तों बहुत हसीन वक्त है, अब देखना सिफ ये है कि ये लेखक-फेकक, कवि-फवि समझते हैं, चेतन भगत, तवलीन सिंह और अनुपम खेर की बात ये उन्हे अपने ”खास” संस्कृति कृमियों को भेज कर समझाना पड़ेगा””a

महामानव-डोलांड और पुतिन का तेल

 तो भाई दुनिया में बहुत कुछ हो रहा है, लेकिन इन जलकुकड़े, प्रगतिशीलों को महामानव के सिवा और कुछ नहीं दिखाई देता। मुझे तो लगता है कि इसी प्रे...