सोमवार, 16 मई 2016

मौत


समय सारे दुख भुला देता है। ये डायलॉग वो बचपन से लेकर अब तक ना जाने कितने लोगों के मुहं से कितनी ही बार सुन चुका था। ये समय सुसरा सबका ठेकेदार क्यों बना बैठा है? उसने जोर से सिगरेट का कश खींचते हुए सोचा। आखिर सभी लोग तो अपना दुख भुलाना नहीं चाहते होंगे, कुछ लोग याद भी करना चाहते होंगे। उसने सोचा। सिगरेट खत्म हो चुकी थी और वो टोटे को पीछे नाली में फेंक कर मुंडेर पर से उठ कर खड़ा हो गया। 


परशुराम ने चाय बना ली होगी, वो दादा के सामने सिगरेट नहीं पीता, हालांकि दादा को पता है कि वो सिगरेट पीता है। जब घर में होता है सिगरेट पीने के लिए यहीं आता है, नाले के पास सिगरेट वाले की दुकान पर, यहां चाय भी मिल जाती है। हालांकि उसे इस दुकान की चाय पसंद नहीं है, लेकिन चाय वो कैसी भी पी लेता है। पर आज परशुराम जल्दी आ गया था और अब तक उसने चाय बना ली होगी। परशुराम उसके दादा का ख्याल रखता था, जो अब करीब अस्सी बरस के हो चुके थे और उन्हे हर काम के लिए किसी की मदद दरकार थी। 
अरविंद के रिश्तेदारों में बस यही एक बचे थे जिनकी अरविंद को परवाह थी। वो सुबह उठकर उनके लिए पानी गरम करता था, फिर उन्हे नहलाता था, और फिर उन्हे तैयार करके बैठा देता था। इसी वजह से उसका रूटीन अच्छा हो गया था, पांच बजे उठना और फिर दादा को तैयार करके घूमने चले जाना, फिर आकर चाय बनाना, अखबार पढ़ना और ऑफिस की तैयारी करना। उसका ऑफिस घर से बहुत दूर नहीं था, और ना ही ऑफिस में समय की कोई पाबंदी थी, इसलिए उसे कोई खास परवाह नहीं थी कि वो कितने बजे घर से निकलता है, लेकिन दादा की वजह से उसे शाम के समय घर पर ही होना होता था, क्योंकि परशुराम पांच बजे के बाद घर पर नहीं रुकता था। वो ठीक नौ बजे आता था और पांच बजे चला जाता था, चाहे अरविंद तब तक घर पहंुचे या नहीं। 
एक बार ऑफिस की ही एक लड़की से उसका मुआश्का चल बैठा, उसे बहुत मज़ा आया। लेकिन जाहिर है, कोई नया इश्क करेगा तो समय मांगेगा, और वो पांच बजे के बाद ऑफिस तक में रुकने से कतराता था, तो लड़की के साथ बाहर घूमने कैसे जाता। लिहाजा उसका ये इश्क बहुत कम उम्र में ही फौत हो गया। उसे इसकी भी परवाह नहीं थी। उसकी लड़कियों में कुछ खास दिलचस्पी ही नहीं थी, दादा को दिखाई भी कम देता था और सुनाई भी कम देता था, इसलिए घर की प्राइवेसी में वो खुद को संतुष्ट रखता था। 
खाना खुद बनाता था और जैसा भी हो दादा चुपचाप खा लेते थे। काम ठीक था, सैलरी ठीक थी, और आगे का उसने कुछ सोचा नहीं था। जिंदगी चल रही थी जैसे सबकी चल रही थी, किसी की थोड़ा ज्यादा रुआब में तो किसी की थोड़ा कमतरी में। उसे अपनी जिंदगी से कुछ खास शिकायत नहीं थी, पिता ये घर छोड़ गए थे, बैंक बेलेंस भी छोड़ गए थे, और दादा के पास अपना भी कुछ रुपया था। बस यही था कि वो अकेला था, जो कभी-कभी उसे बुरा लगता था। ऐसे में वो किताबें पढ़ता था, लेकिन आखिर कोई किताबें भी कब तक पढ़ सकता था। 
परशुराम ने चाय बना रखी थी, जब वो घर में दाखिल हुआ तो परशुराम दादा को नाश्ता करवा रहा था। वो किचन में गया और अपने लिए एक गिलास चाय डाल लाया। आज उसे ऑफिस जल्दी जाना था, उसका एक प्रेजेंटेशन था, और ऐसे मौकों पर वो जल्दी जाना पसंद करता है। बाहर से कोई टीम आ रही थी जिसने उसके प्रापोज़ल पर ही काम उसकी कंपनी को देने की सहमती दी थी। कंपनी में उसके बॉस ने उसे इशारतन बताया था कि अगर कंपनी को ये प्रोजेक्ट मिल जाता है तो पहली बार वही इस प्रोजेक्ट को हेड करेगा और उसकी सैलरी भी बढ़ा दी जाएगी। हालांकि उसे सैलरी बढ़ने की उतनी खुशी नहीं थी, जितना इस बात का उत्साह था कि एक बार प्रोजेक्ट हेड हो जाने से उसके लिए और कई रास्ते खुल जाएंगे। 
वो तैयार हुआ और ऑफिस के लिए निकल पड़ा। ऑफिस में सिर्फ एलेक्स आया हुआ था, जिसने उसका बैग लिया और उसके कमरे में चला गया। उसकी आदत है कि वो ऑफिस में घुसते ही पहले एक कप चाय पीता है और उसके साथ सुट्टा लगाता है, फिर कोई काम करता है। अभी सबके आने में समय था, तब तक मैं कॉन्फ्रेंस रूम तैयार कर लूंगा, उसने सोचा। साढ़े बारह बजे टीम आ गई और उसका प्रेजेंटेशन चालू हुआ, दो बजे के करीब लंच की कॉल हुई और पौने तीन बजे वो फिर कॉन्फ्रेंस रूम में थे। प्रेजेंटेशन तो कुछ खास लंबी नहीं थी, लेकिन सवाल जवाब और बाकी चीजों में साढ़े चार बज गए। अब उसे घर जाना था, उसके बॉस को भी ये बात पता थी कि उसे घर जाना है, लेकिन टीम को भी छोड़ा नहीं जा सकता था। खैर पौने चार तक सब लोग चले गए, बॉस ने उसे बधाई दी और विश्वास दिलाया कि काम उन्हे ही मिलेगा और इस प्रोजेक्ट को वही हेड करेगा। 
वो सवा पांच बजे के करीब घर पहंुचा, तब तक परशुराम घर पर ही था। उसने घर पहंुच कर परशुराम को विदा किया, और थोड़ी देर दादा से बात करने के बाद बाहर वाले कमरे में आकर सोफे पर लेट गया। पता नहीं कब उसकी आंख लग गई, और मोबाइल की घंटी से उसकी आंख खुली। उसने पहले घड़ी की तरफ देखा, साढ़े सात, इस समय मुझे कौन फोन करेगा, उसका पहला ख्याल था। खैर फोन देखा तो किसी अंजान नंबर से फोन था। निवेदिता का फोन था, निवेदिता?? उसे समझ नहीं आया। फिर याद आया, टीम में एक लड़की थी, जिसने कुछ खास नहीं पूछा था। निवेदिता ने उसे बताया कि काम उन्हीं को दिया जा रहा है, और उसके ऑफिस से उसे इस प्रोजेक्ट का कोऑर्डिनेटर बनाया गया है। ”बहुत अच्छे....” उसने कहा। तय हुआ कि कल निवेदिता उसके ऑफिस आ जाएगी और फिर जो फॉर्मेलिटीस बाकी बची हैं, पूरी कर ली जाएंगी। 
उसने फोन काट कर खाने की तैयारी की, दादा को खाना खिलाया और फिर खुद भी खाया, और फिर ”लव इन द टाइम ऑफ कौलेरा” लेकर सोने चला गया। यही तो उसकी जिंदगी थी। 
..........
दूसरे दिन उसके ऑफिस में उससे पहले निवेदिता पहुंची हुई थी। वो उसे अपने कमरे में लेकर गया, और फिर उसे वहीं बैठा छोड़ कर बाहर आ गया, ऐलेक्स ने उसकी चाय रखी हुई थी, वो वहीं बाहर बैठ कर चाय और सिगरेट पीने लगा। थोड़ी देर में निवेदिता भी चाय का कप हाथ में थामें बाहर आ गई। ”मुझे भी एक सिगरेट मिलेगा” उसने सहज भाव से पूछा। अरविंद ने सिगरेट का पैकेट निवेदिता की तरफ बढ़ा दिया। निवेदिता ने बिल्कुल पेशेवर स्मोकर्स की तरह सिगरेट सुलगाया और कश खींचा। थोड़ी देर बाद वो दोनो उठ कर अरविंद के कमरे में आ गए और दोनो ने अपना काम शुरु कर दिया। प्रोजेक्ट कुछ खास मुश्किल नहीं था, और निवेदिता भी अपने काम में माहिर थी, इसलिए दोनो को ही साथ काम करने में मजा आने लगा था। शाम तक उसने काफी काम निपटा दिया था, अब बस प्रोजेक्ट को एग्जीक्यूशन पर जाना था। उस शाम वो निवेदिता के साथ ही ऑफिस से निकला और उसे ऑटो पकड़ा कर उसने घर का रुख किया। उसे पता नहीं क्यों कुछ अलग-अलग सा लग रहा था, कुछ तो फर्क था। आज वो आस-पास से बेपरवाह नहीं था, घर के पास वाले मैदान में खेलते बच्चे उसे दिखाई दिए, बसें, कारें, साइकिल पर जाते लोग, उसे सब िदखाई दे रहे थे, और अपने घर के आस-पास के पेड़ भी उसे दिखाई दिए। कमाल है, आज ऐसा क्या हो गया, उसने सोचा। और फिर जाने क्या सोचकर मुस्कुरा दिया। फिर उसे अपनी उस मुस्कुराहट पर गुस्सा आया, लेकिन वो अपने मूड में गुस्सा पैवस्त नहीं कर पाया। 
घर पहुंच कर उसने दादा से बात की, पर आज की बातों में भी फर्क था, जिसे शायद दाद ने भी महसूस किया, क्योंकि वो भी मुस्कुरा रहे थे। फिर वो किचन में गया और अपने और दादा के लिए बढ़िया चाय तैयार की। आज चाय भी बहुत अच्छी बनी थी। फिर उसने खाना बनाने के बारे में सोचा। वो बहुत सादा खाना बनाता है, क्योंकि किचन का काम तो उसे ही करना पड़ेगा। लेकिन आज उसने दाल भी बनाई और सब्जी भी, थोड़ा सलाद भी काटा, और फिर दादा को खाना देकर, मजे से खाना खाया। हालांकि पढ़ना उसे पसंद था, लेकिन आज कुछ पढ़ने का मन नहीं कर रहा था, वो दादा को कहकर बाहर निकल गया। आज उसका मार्केट में घूमने का मन था, शॉपिंग वो संडे को ही कर चुका था, लेकिन आज उसका घूमने का मन था। थोड़ी देर वो यूं ही गलियों में घूमता रहा, और फिर थक कर वापस आ गया। दादा सो चुके थे, वो भी अपने बिस्तर पर गया और लेट गया। 
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उसने और निवेदिता ने पांच महीने में प्रोजेक्ट खत्म कर दिया। इस बीच वो दोनो बहुत अच्छे दोस्त बन चुके थे। निवेदिता जानती थी कि वो शाम को घर जाता है, जो उसकी मजबूरी है। इसलिए वो कभी बाहर साथ घूमने तो नहीं गए, लेकिन अक्सर लंच दोनो ऑफिस से बाहर ही करते थे। निवेदिता खास अच्छी लड़की थी, बहुत इंटेलिजेंट, अपने काम में माहिर और बिंदास। 
वो निवेदिता के साथ अच्छा महसूस करता था, वो निवेदिता के बाद अच्छा महसूस करता था। वो निवेदिता के साथ रहना चाहता था। निवेदिता भी इशारतन ये जता चुकी थी कि वो उसे पसंद करती है। ”घर चलोगी मेरे....?” उसने पूछा। ”ऑफिस के बाद.....ज़रूर.....क्या खिलाओगे.....?” निवेदिता ने पूछा। ”बोलो क्या खाओगी?” उसने फौरन सवाल दागा। फिर खुद ही बोला, ”पास की दुकान में समोसे बहुत बढ़िया बनते हैं.....खाओगी?” ”हां....क्यूं नहीं....फिर तुम चाय भी तो पिलाओगे, जिसकी तुम इतनी बड़क मारते हो....” ”हां हां, क्यों नहीं.....”
शाम को वो दोनो उसके घर की तरफ चले, उसने घर जाकर पहले परशुराम को रिलीव किया, और दादा को निवेदिता से मिलवाया। वो थोड़ा सा आशंकित था कि जाने निवेदिता क्या सोचेगी। लेकिन निवेदिता तो दादा से ऐसे बात करने लगी जैसे ना जाने कबसे उन्हे जानती हो। ”तुम दादा के साथ बात करो, मैं समोसे लेकर आता हूं.....” वो मार्केट गया और पांच समोसे ले आया। घर आकर देखा तो निवेदिता उसकी किताबों का रैक देख रही थी। ”बहुत पढ़ते हो यार.....” ”हां.....वो ऐसे ही.....चाय बना रहा हूं” वो किचेन में घुस गया। थोड़ी देर बाद निवेदिता भी किचेन में आ गई। वो थोड़ा नर्वस था, आज तक उसकी किचेन में कोई लड़की नहीं आई थी। निवेदिता थोड़ा उचक कर कबर्ड पर बैठ गई, और अपने आप, लिफाफे में से निकाल कर समोसा खाने लगी। उसने समोसों को तस्तरी में डाल दिया और फिर चाय ढालने लगा। चाय लेकर वो बाहर आ गया, दोनो ने बातें करते हुए चाय खत्म की, और फिर थोड़ी देर और बात की। ”सिगरेट पिएं.....” अचानक निवेदिता ने पूछा। उसने एक बार दादा के कमरे की तरफ देखा। फिर थोड़ा संकोच में कहा, ”पीछे की तरफ चलकर पीते हैं......दादा हैं ना.....” वो दोनो बाहर आ गए। दोनो ने एक ही सिगरेट पिया और थोड़ी देर वहीं बैठकर बातें करने लगे। ”चलो.....अब मुझे जाना होगा, वरना देर हो जाएगी तो......” निवेदिता उठते हुए बोली। वो भी उठ गया। निवेदिता ने अपना बैग उठाया और दरवाजे की तरफ बढ़ी, वो निवेदिता के बिल्कुल पीछे था। दरवाजे के पास जाकर निवेदिता घूमी और उसे गले लगा लिया। वो अचकचा गया.......लेकिन उसे अच्छा लगा, और उसके हाथ निवेदिता की पीठ पर जाकर टिक गए। बहुत सुखद अहसास था। निवेदिता ने दरवाजा खोला और चली गई। 
उसे पूरी रात नींद नहीं आई। क्या हुआ, क्या हो सकता था, क्या हो सकता है? जैसे सवाल पूरी रात उसके दिमाग में घूमते रहे, और वो आंख फाड़े छत को देखता रहा। सुबह के तीन बजे उसे नींद आई और उठने में साढ़े सात बज गए। जब उठा तो जल्दी से दादा के कमरे की तरफ गया। दादा जाग चुके थे, और शायद उसे आवाज़ लगा कर थक चुके थे। खैर उसने दादा को किसी तरह शांत किया और फिर उन्हे नहलाया। फिर जल्दी से चाय बनाई, पूरा रुटीन खराब हो चुका था। जब तक वो सारे काम निबटाता तब तक परशुराम आ गया था, वो जल्दी से तैयार होकर ऑफिस चला गया। 
ऑफिस में निवेदिता के व्यवहार में कोई फर्क नहीं था। वो तो बिल्कुल ऐसे बात कर रही थी जैसे कल कुछ हुआ ही ना हो। और इधर वो था, जिसके रोम-रोम से ये आवाज़ आ रही थी कि उसकी जिंदगी बदल चुकी है। वो काम खत्म कर चुके थे, आज निवेदिता का उसके ऑफिस में आखिरी दिन था। अब अगर उसे निवेदिता को मिलना हो तो उसके ऑफिस जाना पड़ेगा। यानी अपने ऑफिस के बाद, जो संभव नहीं था, क्योंकि उसे अपने दादा की देखभाल करना थी, जिसके लिए उसे हर हाल में पांच बजे घर पहुंचना था। दिन खत्म हुआ, सब लोग ऑफिस से जाने लगे, निवेदिता ने सबाके बाय कहा, फिर ऑफिस में सबके सामने उसके गले लगी, और उसे स्पेशली थैंक्स कहा और चली गई। 
अब कुछ नहीं हो सकता। जिंदगी वैसी ही चलेगी, जैसी अब तक चल रही थी। वो घर जाते हुए सोच रहा था। आज उसका ध्यान पास के मैदान में खेल रहे बच्चों की तरफ नहीं गया, ना उसे पेड़ दिखाई दिए, ना बसें, ना मार्केट। घर में उसने बुझे मन से परशुराम को रिलीव किया, और दादा के साथ जाकर बैठ गया। वो कोई बात नहीं कर पाया। मन बुझा हुआ था। जब दादा के कमरे से बाहर निकला, तो सोफे पर बैठ कर उसने बिना सोचे सिगरेट निकाला और सुलगा लिया। दो कश लेने के बाद उसे ध्यान आया कि वो घर पे था, जहां दादा भी थे। उसने सिर हिलाया और सिगरेट को सुबह के चाय के गिलास में डाल दिया। सिगरेट बुझ गई। अस्सी साल के हो गए.....ये दादा को मौत क्येां नहीं आती। उसने सोचा और खाना बनाने के लिए उठ गया। 

गुरुवार, 12 मई 2016

आत्मा और राजनीति



चित्र गूगल साभार

अब आप चाहे कुछ भी सोंचे, लेकिन आत्मा की आवाज़ को जितना भारत में सुना जाता है उतना कहीं नहीं सुना जाता। आत्मा, आत्मा होती है, ये दिखाई नहीं देती, सुनाई नहीं देती, अभी तो कुछ मूढ़ लोग ये भी डाउट करने लगे हैं कि सुसरी होती भी है कि नहीं होती। पर जैसा कि अक्सर होता है और आगे भी होता रहेगा, भारतीय मनीषियों ने सदियों पहले आत्मा नाम के तत्व को खोज लिया था, हालांकि इसकी खोज में कई सदियां गुज़री, कुछ लोग तो पागल भी हो गए सुना, कुछ बहकी-बहकी सी बातें करने लगे, बोले: है - नहीं है, होता है - नहीं होता है, माने कुछ भी। पर आखिरकार आत्मा को खोज ही लिया गया, कुछ लोग तो परमात्मा तक का दावा करते हैं, लेकिन वो बात बाद में। अभी तो आत्मा नाम की इस चिड़िया के बारे में ही कह लिया जाए। देखिए मुझे पूरा भरोसा है कि आत्मा होती है। इस भरोसे के बहुत ही सरल-साधारण से कारण हैं, भैये अगर ये आत्मा नहीं होगी ना, तो भारतीय लोकतंत्र का बैंड बज जाएगा। जो लोग अभी रोज आत्मा की आवाज़ सुनकर अपनी पार्टी बदल रहे हैं, उन लोग का क्या होगा। 
चुनाव से पहले ”ए” पार्टी, चुनाव के बाद आत्मा की आवाज़ पर ”बी” पार्टी और फिर कुछ ही दिन बाद, फिर आत्मा की आवाज़ पर वापिस ”ए” पार्टी। मेरा एक छोटा सा सवाल है, ये आत्मा की कोई एक आवाज़ है या ये मिमिकरी करती है। मेरा मतलब कभी अमिताभ बच्चन की आवाज़ में बोलती होगी, कभी अमरीश पुरी की आवाज़ में, कभी हेमा मालिनी की आवाज़ में भी बोलती होगी। तो बातचीत कैसे होती होगी।
आत्मा ;अमिताभ बच्चन की आवाज़ मेंद्ध: अरे मैने तो पहले ही बोला था, तुझे ”बी” पार्टी में चले जाना चाहिए था।
नेता: लेकिन तब टिकट तो ”ए” पार्टी ने दिया था.....
आत्मा: लेकिन वो पार्टी खराब है, जो पार्टी तुझे टिकट ना दे, उसकी लोकतंत्र में आस्था नहीं हो सकती.....उसे छोड़ दे, ”बी” पार्टी में जा, वो अभी की अभी तुझे टिकट दे देंगे......
नेता: तो क्या लोकतंत्र की रक्षा के लिए मुझे ”बी” पार्टी में चले जाना चाहिए.....
आत्मा: बिल्कुल....जो तेरी रक्षा नहीं कर पाई, वो पार्टी लोकतंत्र की रक्षा कैसे करेगी......सच्चा लोकतंत्र वही होता है जो खुद के लिए होता है, जब तक ”ए” पार्टी तुझे टिकट देने को तैयार थी, वो लोकतांत्रिक पार्टी थी, जैसे ही उसने किसी और को टिकट दिया, उसका लोकतंत्र खराब हो गया........इसलिए तू आत्मा की आवाज़ सुन और ”बी” पार्टी में जा.....
और तब आत्मा की आवाज़ सुनके नेता ”बी” पार्टी में चला जाता है। अब आत्मा की आवाज़ को कौन नकार सकता है। भारतीय कोर्ट को भी आत्मा की आवाज़ को उसी तरह मानना चाहिए जिस तरह भारतीय लोकतंत्र ने मान लिया है, लोकमानस भी मानता है। और जब लोकमानस मानता है कि आत्मा की आवाज़ होती है तो भारतीय न्यायपालिका क्यों नहीं मानती कि आत्मा की आवाज़ होती है। 
मेरा मानना है कि आत्मा ही आवाज़ ही नहीं होती, बल्कि और भी बहुत कुछ होता है। जैसे कभी-कभी इन नेता लोगों की आत्मा को कष्ट भी होता है। आत्मा के कष्ट को आप अपच के कष्ट से अलग समझें, अपच इसलिए होता है कि नेता को कई बार एक ही दिन में कई पार्टियां अटैंड करनी होती हैं, हर जगह खाना पड़ता है, कई जगह कई तरह का खाना खाकर अक्सर नेता को अपच हो जाता है। लेकिन आत्मा को अपच नहीं होता, उसे कष्ट होता है। अब ये कष्ट किसी भी बात से हो सकता है। नेता की आत्मा को किसानों की आत्महत्या से कष्ट हो सकता है, चाहे उसकी आत्महत्या का कारण ये नेता और इनकी करनी ही रही हो। ये खास फर्क है अपच के कष्ट में आत्मा के कष्ट में, अपच के कष्ट में लगातार पेट से गुड़गुड़ की आवाज़ आती है, कभी-कभी गैस भी निकलती है। आत्मा का कष्ट सौ फीसदी, अकष्ट जैसा कष्ट होता है, इसमें आंखों से कुछ आंसू निकल सकते हैं, ना भी निकलें तो कोई परवाह नहीं। अपच का कष्ट आस-पास वालों को पता चलता है, आत्मा के कष्ट का सिर्फ नेता को पता चलता है या उनके चमचों को। 
वैसे नेताओं की आत्मा आम आदमी की आत्मा से अलग होती है, जिसकी आवाज़ या जिसका कष्ट बहुत ही मौके पर जाहिर होते हैं। जेसे आत्मा की आवाज़ नेता को तभी पाला या पार्टी बदलने के लिए कहती है जब पाला बदलने से उसका फायदा होता हो, कष्ट भी नेता की आत्मा को तभी होता है जब उसे कोई फायदा हो। यूं आत्मा का जो रूप गीता में बताया गया है, वो बिल्कुल ही झूठ है, बताइए, ना सर्दी लगती है, ना गर्मी लगती है, ना हवा में उड़ती है ना आग में जलती है, ना पानी में गलती है, अजर है अमर है। हो ही नहीं सकता साहब। नेता लोगों की आत्मा गीता वाली आत्मा नहीं है, या फिर ये आत्मा का नया, डबल सिम वाला, एडीशन होगा, जो सिर्फ खास लोागों को ही मिलता होगा। मुझे लगता है जैसे ही कोई नेता बनता है उसे अलग से आत्मा लगा दी जाती होगी, ताकि वक्त जरूरत उसे आवाज़ आती रहे, या कष्ट होता रहे।  
आत्मा की आवाज़ से लेकिन कभी-कभी मुश्किल भी हो जाती है। अब ये भाई लोग जो कांग्रेस सरकार से निकल कर भा ज पा की गोद में बैठे थे, वो आत्मा की आवाज़ पर लोकतंत्र ही बचाने गए थे, लेकिन आत्मा की आवाज़ सुनकर बेचारे संकट में पड़ गए। एक नेत्री हैं, सुना पहले वो कांग्रेस में थीं, फिर आत्मा की आवाज़ पर भा ज पा में चली गईं, फिर उसी आत्मा की आवाज़ पर फिर कांग्रेस में आ गईं, और इस बार फिर से भा ज पा के लिए वोट कर दिया। आत्मा की बात है, हम आप नहीं समझेंगे। 
ज़रा देर के लिए ये सोच कर देखिए कि हम लोगों की भी आत्मा होती तो....? मेरा मतलब है तो क्या होता। हमारी आत्मा भी हमें आवाज़ देती.....मतलब बताती। कब क्या करना है, कब आंखें को आंसू से भरना है, कब रुंधे गले से बोलना है। लेकिन हमारा आत्मा सचमुच कष्ट में होती। बताइए जब 220 रुपये की दाल शरीर खाता तो क्या आत्मा को कष्ट नहीं होता। मुझे लगता है कि आत्मा को पसीना भी आता होगा। अब नेता लोग तो दिन भर ए सी हॉल में बैठते हैं, ए सी कार में घूमते हैं, पर किसानों की आत्मा को सोचिए, मजदूरों की आत्मा को सोचिए, अरे खुद अपनी आत्मा का सोचिए, इतनी गर्मी में आत्मा को पसीना तो आएगा ही। तो वो क्या करेगी। पंखे से तो पसीना जाता नहीं, बाहर धूप है। तब आत्मा को कष्ट होगा। यही फर्क है आपकी यानी आम आदमी की आत्मा में और किसी नेता की आत्मा में। नेता की आत्मा को पसीना आने से कष्ट नहीं होता, उसे किसान की आत्महत्या से, या लोकतंत्र की हत्या से कष्ट होता है, कभी-कभी प्रसन्नता भी होती है, लेकिन वो सिर्फ तब जब उसका खुद का फायदा हो। 
चित्र गूगल साभार
ज़रा सोचिए कि एक किसान जब आत्महत्या करता होगा, तो क्या उसकी आत्मा उसे आवाज़ देती होगी। और अगर हां, तो बातचीत कैसी होती होगी।
आत्मा: कोई रास्ता नहीं बचा दोस्त......लटक जा।
किसान: लेकिन मेरा परिवार, बीवी, बच्चे.....
आत्मा: अबे मूरख......तूने जीकर ही कौन उन्हे सुख दे दिए, अब भी आधे पेट खाकर जिंदा हैं, कल भी ऐसे ही रहेंगे......या.....
किसान: या.......
आत्मा : छोड़ ना......”उबासी” अब लटकना है तो जल्दी लटक, ताकि मैं भी निकलूं और चल के देखूं शायद इस बार किसी नेता की आत्मा बन सकूं.......
किसान: क्या कोई और रास्ता नहीं है......
आत्मा: ”थोड़ा गुस्से में.....” बता तो दिया......नेताओं की आत्माएं उनके साथ ऐश कर रही हैं, वो तेरे हिस्से को लोन, सब्सिडी, पानी, बिजली, स्कूल, अस्पताल, और जमीन भी अपने दोस्तों को दे चुकी हैं.......अब इसके अलावा तेरे पास कोई चारा नहीं है कि तू आत्महत्या कर ले......
और किसान बिचारा आत्महत्या कर लेता है। ये आत्माएं भी अपना सुख देखती हैं। इनका क्या है, किसान, मजदूर से जल्दी छुटकारा मिला तो किसी नेता की आत्मा बनने के लिए लाइन में लग गईं, नेता या पूंजीपति मिला तो जिंदगी सुधर गई। कई बार आत्माओं को इसके लिए रिश्वत भी देनी पड़ती होगी। 
अभी तो यूं लगता है कि देश की राजनीति असल में आत्माएं ही चला रही हैं, किसी को कष्ट हो जाता है, कोई प्रसन्न हो जाती है, तो किसी की आत्मा आवाज़ देती है, और राज्यों की, कभी-कभी तो देश की सरकारों में उलट-फेर हो जाता है। इस देश का लोकतंत्र सही मायनों में ये आत्माएं ही चला रही हैं मेरी मानिए। 
खैर.....अभी तो ये देखिए कि जिस तेजी से किसान आत्महत्या कर रहे हैं, मजदूर मारे जा रहे हैं, और आम आदमी तबाह हो रहा है, उसमें एक समय ऐसा भी आ सकता है कि आत्माओं के लिए शरीर ही ना बचें......तब आत्माएं चिल्ला-चिल्ला कर आवाज़ लगाएंगी, तब ये नेता और उनकी आत्माओं का क्या होगा। सोच कर ही सिहरन होती है। 

मंगलवार, 10 मई 2016

पच्चास रुपया


”छोड़ मादर.....” उसकी मुठ्ठी में लड़की की धोती का एक सिरा था और दूसरे हाथ में उसने लड़की के बांये हाथ को कस कर पकड़ा हुआ था। लड़की ने कस कर अपने घाघरे का कमरबंद पकड़ा हुआ था। लड़की ने एक बार गुस्से से उसकी तरफ देखा और उसे थोड़ा जोर से झटका दिया। वो बुरी तरह लड़खड़ाया और अगर उसने लड़की को ही कस के ना पकड़ा होता, तो जरूर सड़क पर जा गिरा होता। 
सड़क के बीच वाले डिवाइडर पर जहां ये लड़ाई चल रही थी, इन दोनो के लिए काफी जगह थी और वो दोनो ही अपनी जगह से हटने को तैयार नहीं थे। गुन्ना, या गुन्या, जब वो पूने में रहता था, रंगती से जो राजस्थान की थी, उन पचास रुपयों में अपना हिस्सा मांग रहा था, जो एक कार वाले साहब ने उसे ये कहते हुए दिए थे कि ”बांट लेना” और अब ये रंगती हरामजादी सारा पच्चास रुपया खुद हड़प जा रही है।
वो उसके घाघरे का कमरबंद नहीं छोड़ रहा था कि उसने रंगती को पचास रुपया वहीं उढ़सते देखा था। दांये हाथ से उसने उसकी धोती छोडी और रंगती के पेट में घूंसा मारने की कोशिश की, पता नहीं उसके घूंसे में जान नहीं थी या फिर रंगती कुछ ज्यादा मजबूत थी कि घूंसा लगा ही नहीं। वो और बिफर गया, ”सारी, मादर..... बहन.......उसके मुंह से गालियों के साथ झाग निकलने लगा था। ये साले नसे ने बरबाद कर दिया, वरना उससे गली के सारे लौंडे डरते थे, ऐसा घूंसा मारता था वो.....। पूना में रेलवे लाइन के पास वाले नाले के किनारे बसी बस्ती में रहता था। बाप पता नहीं क्या करता था, बस जब घर आता था तो भौत मारता था, बस मारता था। उसे पता नहीं किसने स्कूल में डाला, पता नहीं उसने वहां क्या पढ़ा, लेकिन वहीं स्कूल से ही उसे नसे की लत लग गई। पहले बीड़ियां, फिर दारू, फिर ये नासपीटा नसा। पहली बार लिया था, तो जन्नत नज़र आ गई थी, जन्नत। पता नहीं सुसरी कैसी होती है, उसे बस ये पता था कि उस दिन ना उसे अपने बाप की गालियों का कुछ पता चला, ना पेट की भूख का और ना ही ये पता चला कि कब बाप ने उसकी चमड़ी उधेड़ डाली थी। फिर तो वो रोज़ नसा करके घर जाने लगा था, वैसे भी घर में किसी को कोई परवा नहीं थी कि वो कहां रहता है, क्या करता है। मां ऐसी थी, जैसी हो ही ना। उसका बाप उसकी मां को भी भौत बुरी तरिया मारता था। 
नसे की सबसे खराब बात है कि साल्ला पैसे से मिलता था, और उसके पास पैसे कहां से आते? तो वो चोरियां करने लगा, अपने घर में तो कुछ था नहीं, जिसे उठाकर बेच आता, तो वो पड़ोस की झुग्गियों में चोरियां करने लगा। कभी किसी का पतीला बेच दिया, कभी किसी की घड़ी मार ली, कभी किसी की साइकिल पार कर दी। धीरे-धीरे लोगों को पता चल गया कि वो नसा करता है और चोरियां भी करता है। पहले तो उसके बाप ने ही उसे मारा, मारा क्या, उस दिन तो बस मरने जैसा करके छोड़ दिया। पर भला हो नसे का जिसने उसे बचा लिया। उसे पता ही नहीं चला, दरद ही नहीं हुआ। और सुबह उठकर लंगड़ाते हुए वो फिर नसे के जुगाड़ में लग गया। 
तब सारे उसे गुन्या कहते थे, गुन्या। जिस दिन उसके बाप ने उसे मारा तबसे उसने घर ही जाना छोड़ दिया। कभी किसी खंडहर में रात गुज़ार दी, कभी पुल के नीचे, और कभी......ऐसे ही कहीं भी। लोग अक्सर सोचते हैं कि नसेड़ी लोक रेलवे स्टेसन पर होता है, लेकिन रेलवे स्टेसन पर तो कोई उनको घुसने भी नहीं देता। पुलिस मारती है, कुली लोक मारता है, स्टेशन वाला मारता है, और स्टेशन और आसपास की दुकान वाला भी मारता है। कुत्ता समझ के रखा है सबने, सब मारते हैं, भगा देते हैं। पर इसमें उनका भी क्या दोस। वो साला जाता ही है, ऐसी जगह पर इसलिए ताकि कहीं से कुछ पैसे को जुगाड़ हो जाए तो नसा हो सके। खाने की परवा नहीं थी उसे, खाना तो कहीं भी, कभी दरगाह में, कभी मंदिर में, तो कभी गुरद्वारे में मिल ही जाता था। बात थी नसे की, जो इन जगहों पर नहीं मिलता। 
उसे पता चला कि पूना में ही कोई जगह है जहां मुफत में नसा मिलता है। वो वहां गया तो पता चला कि साला लोक नसा नहीं देते, खाली सुंई देते हैं मुफत की, अबे भड़वों, इसमें नसा क्या तुम्हारा बाप भरेगा बे.......थोड़ा तख्सीस किया तो पता चला कि अंदर दवाई मिलता है जिससे नसा होता है, वो अंदर भी गया, वहां भौत सारे उसके जैसे नसेड़ी लोक बैठे थे, वो भी जाकर बैठ गया, थोड़ी देर बाद खाना मिला, फिर नसे का आवाज़ लगा। उसको नहीं मिला। उसको बेाला कि पहले नाम लिखवा, फिर फोटो खिंचवा और उसको एक कारड मिलेगा, फिर तीसरे दिन से नसा मिलेगा। ”तीसरे दिन से......तब तक मैं क्या करूंगा बे.....भोसड़ी के...... ” दवाई देने वाला हंस दिया। ”आज नाम लिखवा ले.....” ”चल ब ेचल......बड़ा आया साला......अबे इसे बत्ती बना कर अपनी गां.......में दाल ले” वो गुस्से से बोला और वहां से चला गया। साला आधा दिन खोटी कर दिया। अब्बी मैं क्या करूंगा। वो सोच रहा था कि उसे सामने खड़ी एक कार दिखाई दी, दरवाजा खुला हुआ था और उसमें एक बच्चा सो रहा था। बच्चे के गले में सोने की चेन उसे इतनी दूर से भी साफ दिखाई दे रही थी। उसने बिना कुछ सोचे-समझे कार के पास जाकर वो सोने की चेन झपट ली, और वहां से भाग लिया। सोने की चेन के उसे ढेर पैसे मिले थे जिससे उसने चार-पांच दिन का नसा एक बार में खरीद लिया था। बस अब कम से कम चार-पांच दिन तो चिंता का कोई बात नहीं था।
स्याम को उसे किसी उसी के भीडू ने बताया कि उसने जिस बच्चे की सोने की चेन खींची थी वो किसी पुलिस वाले का बच्चा था, और वो बच्चे के गले में भौत चोट लगा है, और पुलिस पागल कुत्ते की तरिया उसे ढूंढ रही है। उसी भीड़ू ने उसे कहा कि जान बचानी है तो बेट्टा भाग जा पून से कहीं और जाकर गांड मरा। और वो भाग लिया। स्टेसन पहुंच के उसने जो रेल चली देखी उसी मे कूद कर चढ़ गया और दिल्ली पहंुच गया। 
सहर में कुछ खास बुराई नहीं थी, बस यही था कि ये पूना नहीं था। लेकिन उसे क्या फरक पड़ना था। चार-पांच दिन का नसा जेब में था, कुछ पैसा भी पास में था। बस इधर-उधर देखता हुआ सड़क-सड़क चलता गया तो उसे दिल्ली के अपने संगी साथी मिल गए। बस तबसे वो दिल्ली में है, क्या हुआ जो उसका नाम गुन्या से गुन्ना हो गया है। यहां एक तो नसा मिल जाता है, दूसरे छुपने के ठिकाने ज्यादा हैं, तीसरे यहां वो जब मौका लगता है तब चोरी कर लेता है, और कभी-कभी भीख भी मांग लेता है, यहां उसके अक्सर इतनी भीख मिल जाती है कि नसे का जुगाड़ हो जाता है। बस......वो पिछले दो हफ्ते से इस चौक पर भीख मांग रहा था, और आज जब उसे कार वाले ने लाइट पे कार रोकी तो वो एक तरफ से उसकी खिड़की पर पहुंचा ओर रंगती दूसरी तरफ से पहुंची। सेठ ने रंगती वाली साइड का सीसा नीचे करके पचास का नोट दिया और कहा था कि बांट लेना। अब ये साली उसका हिस्सा दे ही नहीं रही है। 
उसने दोनो हाथों से रंगती को भंभोड़ना चाहा, वो चाहता था कि किसी तरह रंगती का हाथ कमरबंद से छूट जाए तो वो पचार रुपया छीन ले, फिर देंखे साली क्या करती है। पर रंगती की पकड़ मजबूत थी, साली पता नहीं क्या खाती थी, पतली सी थी, बड़ी-बड़ी आंखे, मैले कुचैले बाल......वो गुन्या से पहले से इसी चौक पर भीख मांगती आ रही थी। 
रंगती असल में पिछले तीन महीने से इसी चौक पर भीख मांग रही थी। वो सिर्फ भीख ही नहीं मांगती थी, वक्त-जरूरत के हिसाब से जो हो जाता था कर लेती थी। चौक के सामने वाली गली में दारू का ठेका था, जहां से दारू लेकर कई लोग सड़क किनारे वाली मार्केट की छतों पर चढ़ कर दारू पीते थे। जिनमे से कई मार्केट के नीचे बने गैराज में मैकेनिक होते थे। स्याम को दारू के नसे में धुत उनमे से कई रंगती को ज़रा शटर खोल कर अंदर घुसा लेते थे, और उसे कुछ 50-100 रुपया दे देते थे। रंगती को इससे कोई एतराज नहीं था कि वो लोग कैसे थे, उसके साथ क्या करते थे, रात को जो उसके साथ चूमा-चाटी करते थे, सुबह उसे अपनी दुकान से पानी तक नहीं लेने देते थे, भगा देते थे, लेकिन रंगती को कोई ऐतराज नहीं था। उसे किसी भी काम से कोई ऐतराज नहीं था, लेकिन काम देता कून है यां पे। जिसने लाया उसको यां पे, पैले तो वोई हरामी था, फिर उसीने किसी घर में काम दिलाया, वो भी हरामियों का घर था। घर में तीन भाई और उनका बाप था। सारा दिन काम करो, और रात में चारों एक-एक करके उसे नोच-खसोट के जाते थे। पता नहीं उनकी बीवियों को पता था कि नईं, इतना तो इतना, तीन-चार महीने बाद जब उसने पैसा मांगा, तो सालों ने उसे धक्के देकर घर से निकाल दिया। 
वो जाती कहां, और क्या करती। एक गठरी वो अपने साथ लाई थी, जो अब भी उसके पास थी। एक दो दिन इधर-उधर भटकी, भूख लगी तो ढाबे पर पौंची, ढाबे वाले ने उसे गौर से देखा और फिर उसे इशारे से पीछे की तरफ आने को कहा। वहां ढाबे वाले ने पहले उसके साथ नोचा-काटी की, अपना मन भरा और फिर उसे वहीं खाने को दे दिया। वहीं सड़के दूसरी तरफ उसी की तरफ के कुछ लोग तम्बू लगा कर रहते हैं, लुहार हैं, दिन के लुहार और रात के चोर। जो हाथ आ जाए, बस पुलिस से बचना होता है। उन लुहारों की औरतें वही करती थीं जो रंगती के साथ होता था लेकिन वो पैसे लेती थीं। पेले पैसे, वरना हाथ भी लगाने देने को, ये सब रंगती ने उनसे सीखा। लेकिन वो रंगती को अपने साथ रखने को तैयार नहीं थे। रंगती उनकी जात की नहीं थी। तो रंगती ने दूसरे चौक वाले मंदिर के पास अपना जुगाड़ कर लिया, एक झोपड़ी जिसमें एक भिखारिन पहले से रहती थी, वो सुबह दरगाह पर भीख मांगने जाती थी और रात को वापिस आ जाती थी। रंगती उसी के पास रहने लगी, कम से कम यहां खाना तो मिल जाता है। 
गांव में रंगती बचपन से ही खेत-घर-ठाकुरों के घर का सारा काम करती थी। और खाने को कभी सूखी रोटी और कांधा और कभी साथ में छाछा मिलती थी। उसके घर में, टोले में सबका यही हाल था। सारे बच्चे खेतों में काम करते थे, घरों में काम करते थे, खाल समय हो तो गलियों में चक्कर लगाते थे, और कभी सादी ब्याह हो तो, पंगत खतम होने का इंतजार करते थे, तब उन्हे भी खाना मिलता था। उन्ही ठाकुरों के घर के एक नौकर ने, जो गाड़ी चलाता था, उसे दिल्ली के सुपने दिखाए थे, दिल्ली में काम करेगी तो खाना अच्छा मिलेगा, पहनने को नए कपड़े मिलेंगे। खाने की तो खैर उसे कोई खास परवाह नहीं थी, जो भी उसे मिलता था, वो बिना सोचे-समझे खा लेती थी, लेकिन उसे कपड़े अच्छे लगते थे। वो बस एक बार, बिना फटे सुथरे कपड़े पहनना चाहती थी। ऐसे कि जिन्हे धोना पड़े, उसने देखा था कि हवेली वाले अपने कपड़े घुलवाते थे, वो कपड़े बाहर रस्सियों पर लटके होते थे, तो उसे अच्छे लगते थे। वो चाहती थी कि कभी वो भी ऐसे ही अपने कपड़े धोकर सुखाए। 
खैर दिल्ली में आके, दो-तीन हफ्ते तो चंदू ने उसे अपने पास रखा, और रोज़ अपने मन की करता रहा, उसी ने उसे ये घाघरा और धोती दी थी, चोली उसकी अपनी थी। आखिर उसे मिन्दरा सेठ की कोठी पर काम के लिए लगा दिया था, और खुद कहीं चला गया था। मिन्दरा सेठ के यहां वो तीन-चार महीने रही, और फिर यहां मंदिर के पास.......
ऐसा कभी-कभी होता था कि उसे एक साथ पचास रुपये मिल जाएं, मिलने को कभी-कभी वो तीन-चार सौ तक कमा लेती थी, लेकिन कभी-कभी भूंजी भांगन कड़वा तेल वाली बात भी हो जाती थी। अब आज ये पचास मिला, और अभी तो स्याम के तीन-चार घंटे का टाइम और था। कुछ और मिल जाएगा, तो वो अपनी झुग्गी में जाकर कपड़े धोएगी और खाना बनाएगी। और ये हरामी गुन्ना उसे छोड़ ही नहीं रहा। उसने गुन्ने की कलाई पकड़ कर उसे बहुत बेरहमी से मरोड़ दिया। 
गुन्ना दर्द से कराह कर उसके पास से हट गया। लेकिन फिर से झपट कर उसे दबोच लिया। अब वो दोनो एक दूसरे से गुंथे हुए थे। लाइट लाल होने पर रुकने वाली कारें और मोटरसाइकिलें, उन पर बैठे लोग, रुकते थे, उन्हे देखते थे, हंसते थे और चले जाते थे।
सड़क की दूसरी साइड पर सतीश हवलदार दूध की डेरी पर बैठा हुआ था। वो उन पुलिसवालों में से था जिसने ये सोच कर पुलिस की नौकरी पकड़ी थी कि किसी तरह काहिली और रिश्वत से काम चल ही जाएगा। पुलिस की नौकरी में उसे 8 साल हो गए थे, इस बीच ना तो उसे कोई बहादुरी दिखाने का मौका मिला था और ना ही उसे किसी बहादुरी के मौके की तलाश थी, इसलिए रिश्वत का उसका हिस्सा भी बहुत कम होता था। वो अक्सर दिन के समय इस डेरी पर आकर बैठ जाता था, बैठे-बैठे उंघ लेता था, और उंघते-उंघते सो जाता था, डेरी वाला उसे चाय-वाय पिला देता था, और कभी-कभी बोतल भी नसीब हो जाती थी। वो सड़क के किनारे रेहड़ी खोमचे वालों पर रौब झाड़कर उनसे सौ-पचास छीन लेता था और शाम को वहां से चला जाता था। उसने अभी-अभी अपनी उंघ खत्म की थी, और अब वो ये सोच रहा था कि गुप्ता ढाबे पर खाना खा ले, जहां उसे पैसा नहीं देना होता। तभी उसकी नज़र डिवाइडर पर लड़ते हुए रंगती और गुन्ना पर पड़ी। उसने थोड़े देर उन्हे लड़ते हुए देखा और फिर खड़ा हो गया। 
एक हाथ में डंडा लेकर और दूसरे हाथ से ट्रैफिक रोकता हुआ वो डिवाइडर पर पहुंचा और पहुंचते ही उसने कस कर एक झांपड़ गुन्ना के लगाया, गुन्ना झापड़ के जोर से छिटक कर डिवाइडर पर ही गिर गया, और कांपते हुए सतीश को देखने लगा। 
”तेरी बहन की मारूं........... साले.......भाग यहां से......” फिर उसने दूसरे हाथ से डंडा उठा लिया। गिरे-गिरे ही उसने रंेकते हुए कहा, ”मेरे पैसे नीं दे री” ”पैसे मेरे हैं सा’ब.....”रंगती बोली। ”कहां हैं....?” सतीश ने कहा। रंगती ने धीरे से कमरबंद में उड़से हुए पचास के मुड़े-तुड़े नोट को निकाला। सतीश ने झपट्टा मार कर वो नोट उसके हाथ से ले लिया। फिर दूसरे हाथ का डंडा उसने गुन्ने के घुटने पर दे मारा। ”भाग साले......बहन की तेरी.....भाग यहां से” सतीश चिल्ला कर बोला। फिर उसने रंगती की तरफ भरपूर नज़र से देखा, भिखारन देखने में तो अच्छी थी, लेकिन वो हवलदार था। उसने पेंट की जेब में हाथ डाल कर खुद को छूकर तसल्ली की। फिर रंगती की छाती पर हाथ मारा। ”तू भी भाग यहां से ........साली रंडी......भाग.....दुबारा दिखाई दी तो ये डंडा घुसेड़ दूंगा.....समझी क्या।” रंगती डिवाइडर से उतर कर किनारे की तरफ भागी, बीच में एक दो स्कूटर वालों से टकराते हुए बची, और किनारे पर जाकर खड़ी हो गई। उसकी छाती में दर्द हो रहा था, पचास रुपया हाथ से जा चुका था। वो खड़ी-खड़ी देखती रही और सतीश वापस जाकर डेरी पर बैठ गया, छोटू चाय ले आया था, उसने गिलास में छोटी उंगली डाल कर थोड़ी सी चाय जमीन पर छिड़की और और बड़े बेफिक्रे अंदाज से एक हाथ सिर के उपर लगा कर चाय सुड़कने लगा। 

मंगलवार, 3 मई 2016

संस्कृत, संस्कृति और राजनीती

फोटो गूगल से साभार

मैं कॉलेज में था, जब पहली बार मेरा साबका अंग्रेजी की मशहूरियत और जलवे से हुआ था। बात कुछ यूं थी कि मुझे अंग्रेजी नहीं आती थी, नहीं आती थी माने, जितना स्कूल का एग्जाम पास करने के लिए ज़रूरी थी उतनी ही आती थी, उससे ज्यादा नहीं आती थी। तब तक ये तो सोचा नहीं था कि आगे चलकर जिं़दगी में क्या करना है, हां इसकी कुछ धुंधली सी तस्वीर थी कि क्या नहीं करना है। जैसे मैने बहुत पहले ही, यानी जब मैं करीब 11 या 12 साल का था, तभी सोच लिया था कि कभी 9-5 वाली नौकरी नहीं करनी, और आज तक इस बात पर कायम हूं। पढ़ना अच्छा लगता था और ये सोचा था कि पढ़ना कभी नहीं छोडुंगा, ये भी कायम ही है। खैर, बात मेरे कॉलेज के दिनों और अंग्रेजी की हो रही थी, जो मुझे नहीं आती थी, लेकिन हिन्दी, मुझे बहुत बढ़िया आती थी। अपने स्कूल के दिनों में मुझे हिन्दी की टीचर अच्छी ही इसलिए लगती थी मुझे हिन्दी पसंद थी। वो अक्सर क्लास लेने में, कॉपियां चेक करने में, और भी कई कामों में मेरी मदद लिया करती थीं। काफी अच्छी टीचर थीं। तो हिंदी तो हुई अच्छा विषय, दूसरी टीचर थीं अंग्रेजी वाली, वो बिल्कुल अंग्रेजी वाली टीचर थीं, नाम था जोशी मैम, नहीफ सी थीं, लेकिन सारे स्कूल में उनका खौफ था। वो क्लास में आती थीं तो सारी क्लास को जैसे सांप सूंघ जाता था, हो सकता है ये उनके विषय का जहूरा रहा हो। जो भी था, अंग्रेजी मुझे कभी आई नहीं, क्योंकि दिलचस्पी ही नहीं थी, और उस पर मैं उनके कोप का भाजन बनता रहता था, क्योंकि स्टाफ रूम में जितने भी टीचर थे, उनमें से सिर्फ दो टीचर थे जिनके विषय में मैं कमजोर था, और बाकी जितने भी थे, जैसे इतिहास, भूगोल, हिन्दी आदि उनके विषय में मैं अव्वल था। इन टीचरों को जिनके विषय में मैं गोल था, यूं लगता था, शायद, कि मैं जानबूझकर उन विषयों में मेहनत नहीं कर रहा हूं, और मेरा कुछ यूं था कि जिसमें दिलचस्पी थी उस विषय की स्कूल की किताबें तो मैं दो क्लास आगे तक की पढ़ चुका था, इतिहास तो मैने 10वीं क्लास में बी ए की किताबें चाट डाली थीं, और गणित और अंग्रेजी मुझे कभी अपनी तरफ आकर्षित ना कर सकीं। 10वीं में किसी तरह तौबा-तौबा करके इन दोनो विषयों में पास हुए जिनमें, अंग्रेजी में तो फिर भी 60 के करीब नंबर आए थे, लेकिन गणित में तो मुझे यही पता नहीं था कि मैं लिख कर क्या आया हूं, वो तो भला हो उस अनजाने परीक्षक का, जिसने मुझे 42 नंबर दे दिए और यूं मैं गणित में भी पास हो गया। 
खैर, कॉलेज में आने के बाद मुझे यूं लगा कि जैसे अंग्रेजी ना जान कर मुझसे कोई गुनाह सरज़द हुआ है। अंग्रेजी मैंने तब भी नहीं सीखी, हां ये ज़रूर हुआ कि मैने एक बहाना बना लिया, वो ये कि अंग्रेजी क्योंकि हमारे देश पर जुल्म ढाने वालों की जुबान है इसलिए मैं इसे नहीं सीखूंगा और इसी ज़िद में और ज्यादा ज़ोर से हिंदी पढ़ने लगा, यहां ये बता दूं कि इस बीच किसी भी वक्त में उर्दू के लिए ऐसा कोई ख्याल मेरे दिमाग में नहीं आया था, और हालांकि मैं उर्दू नहीं जानता था, लेकिन ग़ालिब, मीर, जौक, हाली, कैफी, साहिर, मजाज़ और भी तमाम शायर मेरे पसंदीदा शायर थे। कॉलेज का ऐसा था कि कई लोग थे, जो जाने किस तरह अंग्रेजीदां बनकर ही कॉलेज आए थे, हो सकता है कि उनके स्कूल कॉन्वेंट टाइप हों, जिनमें अंग्रेजी सुना है घोंट कर पिलाई जाती है। शुबहा ये था कि मेरा कॉलेज था थोड़ा, हिंदी जानने वालों का कॉलेज, पी जी डी ए वी, और ये लोग थे, अंग्रेजीदां, और सिर्फ भाषा में ही नहीं, बल्कि अंदाज में भी, तो जाने क्यों ये इस खालिस हिंदी वाले कॉलेज में दाखिला लिए थे, हो सकता है नंबर कम आए हों। तो साहब इन लोगों से बड़ी कोफ्त होती थी, ना बातों में ज़ायका था, ना इनकी दोस्ती में......लीजिए अंग्रेजी से और थोड़ी दुश्मनी हो गई। सबसे बुरी बात लगती थी इन लोगों का, दूसरें लोगों के प्रति रवैया, अरे ऐसे साहब जैसे व्यवहार करते थे कि तौबा भली। वो तो ये समझिए कि कुछ अच्छी अंग्रेजी जानने वालों से बातचीत हुई, जो दोस्ती में बदली तब जाकर हमारा कुछ थोड़ा बहुत जे़हन इनकी तरफ भी माइल हुआ। 
कॉलेज में अपने पहले ही साल के दौरान कुछ बहुत ही बेहतरीन किस्म के लोगों से मेरी मुलाकात हुई और दोस्ती हुई, ये वो लोग थे, जिन्होने मुझे उस रास्ते पर लगाया जिस पर आज मैं चल रहा हूं और बहुत खुश हूं। इन लोगों की दोस्ती ने मुझे और पढ़ने, और जानने-समझने, और बेहतर जिंदगी जीने की राह दिखाई, इसके लिए उनका शुक्रिया। इन लोगों में से कुछ वो थे, जो खासे पढ़े-लिखे थे और अंग्रेजी के अच्छे लेखकों को जानते थे, उन्ही लोगांे ने अंग्रेजी ज़बान से सही तआरुफ करवाया और समझाया कि ज़बान बुरी नहीं है दोस्त, सिर्फ इस ज़बान को मालिकों की ज़बान समझने और उसे उसी मालिकाना ठस के साथ इस्तेमाल करने वालों के रवैये में बुराई है। 
उसके बाद तो लगातार ऐसे लोग मिले जो अंग्रेजी को भी सिर्फ ज़बान की तरह इस्तेमाल करते हैं, हालांकि आज भी ऐसे कई लोग मिल जाते हैं, जो बहुत नखरे के साथ कहते हैं, ”सर सॉरी, आई कांट स्पीक इन हिंदी.....” ”नो प्रॉब्लम बेटा, स्पीक इन व्हाटएवर लैंग्वेज यू फील कर्म्फटेबल.....” मेरा जवाब होता है। फिर धीरे-धीरे पता चलता है कि वही बच्चा जो मुझे समझा रहा था कि उसे हिंदी नहीं आती, वो हिंदी में बात कर रहा है। ये जो नखरा उसने दिखाया वो सिर्फ इसलिए ताकि उसे दूसरों से अलग समझ लिया जाए। और ऐसा सिर्फ बच्चे ही नहीं करते, बड़े भी करते हैं, अरे भाई रिक्शा में चढ़े हो, उस गरीब को अंग्रेजी नहीं आती, उस पर अपनी मालिकाना ज़बान का रौब झाड़ने का क्या मतलब, सीधे-सीधे हिंदी में बताइए कहां जाना है। 
ये सब इसलिए कि इस बीच संस्कृत को लेकर बहुत बहस चल रही है। लोग संस्कृत और संस्कृति में फर्क किए बगैर संस्कृत को कोसते जा रहे हैं। मानते हैं कि भई संस्कृत जो है वो ब्राहम्णों की भाषा रही है, और संस्कृत को ब्राहम्णों ने मालिकाना भाषा बना कर रखा, उसे किसी दूसरे को हाथ भी ना लगाने दिया, शंबूक के कानों में सीसा इसीलिए डलवाया गया था ना......तो भैया उस भाषा को हाल देख लो, ये है कि जो जानता है वो भी महज़ इसलिए जानता है कि या तो उसे नंबर लेने हैं, या फिर उससे इसकी रोज़ी चल रही है। कई तो संस्कृत की बदौलत रोज़ी कमाने वाले तक संस्कृत नहीं जानते। हंसी आती है बेचारों पर, श्लोक बोल रहे हैं, और मतलब पता नहीं। आगे ओम और पीछे अम लगा कर इन्हे जो भी रटवा दीजिएगा ये वही बोल देंगे। 
तो मामला आई आई टी में संस्कृत लाने का है। क्यों नहीं हो जी संस्कृत आई आई टी में, शोध संस्थान है दोस्त, शोध संस्थान में भाषा पर शोध होने ही चाहिएं। और संस्कृत में ही क्यों, तामिल, तेलुगू, संथाली और नगा पर भी शोध होने चाहिएं। ये भी भाषाएं हैं। कहने का कुल मतलब ये है कि संस्कृत का सिर्फ इसलिए विरोध ना हो कि ये भाषा है जो अंग्रेजी नहीं है। जानते हैं, एक जमाने में इंग्लैंड में फ्रेंच के खिलाफ छात्रों ने बगावत की थी और उसे अपने देश से उखाड़ फेंका था, मामला वही था कि अंग्रेजी वहां थी, दोयम दर्जे की भाषा और फ्रेंच थी अमीरों की और मालिकों की भाषा। यहां भी यही हाल है, अंग्रेजी बनी हुई है मालिकों की भाषा और बाकी देसी भाषाओं का ये हाल है कि धीरे-धीरे गायब हो जा रही हैं। यहां अपनी भाषा का लेखक, कवि, साहित्यकार सिर्फ लेखन कर्म के भरोसे चले तो भूखों मर जाए, और अंग्रेजी में लिखने वाला, लाखों कमाता है। मेरी मंशा ये कहने की नहीं है कि अंग्रेजी को हटा दीजिए, पढ़ाइए भाई, पर उसे भाषा की तरह बरतिए, धौंस की तरह नहीं। 
अब आई आई टी में संस्कृत एक स्वागत योग्य कदम होना चाहिए। लेकिन मामला फिर वहीं अटक जाता है कि जो शिक्षा मंत्री संस्कृत का स नहीं जानती, वो भला क्यों ऐसा कर रही हैं। ऐसा हो सकता है कि उन्होने किसी विशेषज्ञ ने बताया हो कि जी संस्कृत होना अच्छा है, अफसोस ये है कि वो खुद से बड़ा विशेषज्ञ किसी और को मानती ही नहीं हैं, और ये मैं इसलिए कह रहा हूं कि अगर कोई भाषाविद् होगा, तो उससे कम से कम इतनी उम्मीद तो हमें है कि वो इस तरह का कोई सुझाव देने से पहले, ये सुझााव देगा कि भई पहले इसके लिए माहौल तैयार किया जाए। यानी तकनीकी की, विज्ञान की, किताबों को, ज्ञान को, पहले संस्कृत में तैयार किया जाए, अन्य भारतीय भाषाओं में तैयार किया जाए। और फिर ये कोशिश की जाए कि संस्कृत या अन्य भाषाओं को भारतीय उच्च शिक्षण संस्थानों में बतौर माध्यम की भाषा इस्तेमाल किया जाए। 
लेकिन ये गजब तुगलकी फरमान है कि, भगौना, कटोरी लो और आई आई टी में संस्कृत चालू कर दो, बाकी बाद में देखा जाएगा। दरअसल संस्कृत की दुर्दशा के लिए यही लोग जिम्मेदार हैं, जिन्होने संस्कृत से इस देश की संस्कृति को जोड़ रखा है और इस देश के अजाने महान इतिहास में संस्कृत को महान भाषा, देवों की भाषा बताने, साबित करने का ठेका ले रखा है। ये संस्कृत इसलिए नहीं लाना चाहते कि इन्हे भाषा से कोई लगाव है, इसलिए लाना चाहते हैं कि गाय, एक जानवर के तौर पर दंगे के लिए हासिल है, उसी तरह संस्कृत भी एक भाषा की तरह दंगे के लिए हासिल हो जाए। ना इन्हे गाय से मतलब है ना संस्कृत से। मकसद है खुद को हिंदु धर्म का सबसे बड़ा ठेकेदार साबित करना, दंगे की ज़मीन तैयार करना, और गली मुहल्लों में अपने गंुडों को लड़ाई-झगड़े और मारपीट का एक और मौका मुहैया करवाना। और असल विरोध इसी का होना चाहिए। 
मुसीबत ये है कि यार लोग, संस्कृत के पीछे डंडा लेकर पड़ गए और इनकी इस मंशा को पीछे कर दिया। सही तब होता जब हम ये कहते जी, बिल्कुल ठीक, तो तैयार कीजिए संस्कृत में पाठ्य पुस्तकें, और अन्य भाषाओं के लिए भी रास्ता साफ कीजिए। अब तो हो ही जाए, देश की तमाम भाषाएं जिनमें आदिवासी भाषाएं भी शामिल हों, उन्हे महत्ता दिलाई जाए। देश के तमाम स्कूलों में, कॉलेजों में, न्यायालयों में, विधानसभाओं में, संसद में और अन्य सरकारी संस्थानों में सभी नागरिकों के लिए उन तमाम भाषाओं में काम करने और करवाने की सुविधा हो जो इस देश में उपलब्ध हैं। 
संस्कृत बहुत खूबसूरत ज़बान है, गेय है, बिल्कुल संथाली की तरह, उसमें आप जो भी कहें वो कविता होता है। संस्कृत का व्याकरण शायद दुनिया का सबसे सरल व्याकरण होता है, क्योंकि आप क्रिया, कर्ता और कर्म को वाक्य में कहीं भी रखें, कोई फर्क नहीं पड़ता। कभी पढ़ कर देखिए, साहित्य भी समृद्ध है, सचमुच खूबसूरत है। एक बार पढ़कर देखें, मज़ा ना आ जाए तो कहिएगा। वो तो इस देश की जातिवादी, सामंतवादी, ब्राहम्णवादी संस्कृति के चंगुल में ना होती, सच में महान भाषा होती संस्कृत। और आज भी ऐसा ही है, इस भाषा को इन लोगों के खूनी पंजे से बचा लीजिए, वरना गाय की तरह इसका हश्र भी यही होगा कि, लोग इसके पीछे मारे जाएंगे, दंगे होंगे, और ना जाने क्या-क्या होगा। आप संस्कृत को वेद, पुराण और मनुस्मृति से जोड़कर मत देखिए, अब उसमें ये सब लिखा गया तो ये भाषा की गलती तो है नहीं, ये गलती तो उन खरदिमागों की रही होगी, उस विचार को तोड़ डालिए, लेकिन भाषा के साथ दुराव मत कीजिए। मेरा तो ये मानना है......और आपका? 

महामानव-डोलांड और पुतिन का तेल

 तो भाई दुनिया में बहुत कुछ हो रहा है, लेकिन इन जलकुकड़े, प्रगतिशीलों को महामानव के सिवा और कुछ नहीं दिखाई देता। मुझे तो लगता है कि इसी प्रे...