समय सारे दुख भुला देता है। ये डायलॉग वो बचपन से लेकर अब तक ना जाने कितने लोगों के मुहं से कितनी ही बार सुन चुका था। ये समय सुसरा सबका ठेकेदार क्यों बना बैठा है? उसने जोर से सिगरेट का कश खींचते हुए सोचा। आखिर सभी लोग तो अपना दुख भुलाना नहीं चाहते होंगे, कुछ लोग याद भी करना चाहते होंगे। उसने सोचा। सिगरेट खत्म हो चुकी थी और वो टोटे को पीछे नाली में फेंक कर मुंडेर पर से उठ कर खड़ा हो गया।
परशुराम ने चाय बना ली होगी, वो दादा के सामने सिगरेट नहीं पीता, हालांकि दादा को पता है कि वो सिगरेट पीता है। जब घर में होता है सिगरेट पीने के लिए यहीं आता है, नाले के पास सिगरेट वाले की दुकान पर, यहां चाय भी मिल जाती है। हालांकि उसे इस दुकान की चाय पसंद नहीं है, लेकिन चाय वो कैसी भी पी लेता है। पर आज परशुराम जल्दी आ गया था और अब तक उसने चाय बना ली होगी। परशुराम उसके दादा का ख्याल रखता था, जो अब करीब अस्सी बरस के हो चुके थे और उन्हे हर काम के लिए किसी की मदद दरकार थी।
अरविंद के रिश्तेदारों में बस यही एक बचे थे जिनकी अरविंद को परवाह थी। वो सुबह उठकर उनके लिए पानी गरम करता था, फिर उन्हे नहलाता था, और फिर उन्हे तैयार करके बैठा देता था। इसी वजह से उसका रूटीन अच्छा हो गया था, पांच बजे उठना और फिर दादा को तैयार करके घूमने चले जाना, फिर आकर चाय बनाना, अखबार पढ़ना और ऑफिस की तैयारी करना। उसका ऑफिस घर से बहुत दूर नहीं था, और ना ही ऑफिस में समय की कोई पाबंदी थी, इसलिए उसे कोई खास परवाह नहीं थी कि वो कितने बजे घर से निकलता है, लेकिन दादा की वजह से उसे शाम के समय घर पर ही होना होता था, क्योंकि परशुराम पांच बजे के बाद घर पर नहीं रुकता था। वो ठीक नौ बजे आता था और पांच बजे चला जाता था, चाहे अरविंद तब तक घर पहंुचे या नहीं।
एक बार ऑफिस की ही एक लड़की से उसका मुआश्का चल बैठा, उसे बहुत मज़ा आया। लेकिन जाहिर है, कोई नया इश्क करेगा तो समय मांगेगा, और वो पांच बजे के बाद ऑफिस तक में रुकने से कतराता था, तो लड़की के साथ बाहर घूमने कैसे जाता। लिहाजा उसका ये इश्क बहुत कम उम्र में ही फौत हो गया। उसे इसकी भी परवाह नहीं थी। उसकी लड़कियों में कुछ खास दिलचस्पी ही नहीं थी, दादा को दिखाई भी कम देता था और सुनाई भी कम देता था, इसलिए घर की प्राइवेसी में वो खुद को संतुष्ट रखता था।
खाना खुद बनाता था और जैसा भी हो दादा चुपचाप खा लेते थे। काम ठीक था, सैलरी ठीक थी, और आगे का उसने कुछ सोचा नहीं था। जिंदगी चल रही थी जैसे सबकी चल रही थी, किसी की थोड़ा ज्यादा रुआब में तो किसी की थोड़ा कमतरी में। उसे अपनी जिंदगी से कुछ खास शिकायत नहीं थी, पिता ये घर छोड़ गए थे, बैंक बेलेंस भी छोड़ गए थे, और दादा के पास अपना भी कुछ रुपया था। बस यही था कि वो अकेला था, जो कभी-कभी उसे बुरा लगता था। ऐसे में वो किताबें पढ़ता था, लेकिन आखिर कोई किताबें भी कब तक पढ़ सकता था।
परशुराम ने चाय बना रखी थी, जब वो घर में दाखिल हुआ तो परशुराम दादा को नाश्ता करवा रहा था। वो किचन में गया और अपने लिए एक गिलास चाय डाल लाया। आज उसे ऑफिस जल्दी जाना था, उसका एक प्रेजेंटेशन था, और ऐसे मौकों पर वो जल्दी जाना पसंद करता है। बाहर से कोई टीम आ रही थी जिसने उसके प्रापोज़ल पर ही काम उसकी कंपनी को देने की सहमती दी थी। कंपनी में उसके बॉस ने उसे इशारतन बताया था कि अगर कंपनी को ये प्रोजेक्ट मिल जाता है तो पहली बार वही इस प्रोजेक्ट को हेड करेगा और उसकी सैलरी भी बढ़ा दी जाएगी। हालांकि उसे सैलरी बढ़ने की उतनी खुशी नहीं थी, जितना इस बात का उत्साह था कि एक बार प्रोजेक्ट हेड हो जाने से उसके लिए और कई रास्ते खुल जाएंगे।
वो तैयार हुआ और ऑफिस के लिए निकल पड़ा। ऑफिस में सिर्फ एलेक्स आया हुआ था, जिसने उसका बैग लिया और उसके कमरे में चला गया। उसकी आदत है कि वो ऑफिस में घुसते ही पहले एक कप चाय पीता है और उसके साथ सुट्टा लगाता है, फिर कोई काम करता है। अभी सबके आने में समय था, तब तक मैं कॉन्फ्रेंस रूम तैयार कर लूंगा, उसने सोचा। साढ़े बारह बजे टीम आ गई और उसका प्रेजेंटेशन चालू हुआ, दो बजे के करीब लंच की कॉल हुई और पौने तीन बजे वो फिर कॉन्फ्रेंस रूम में थे। प्रेजेंटेशन तो कुछ खास लंबी नहीं थी, लेकिन सवाल जवाब और बाकी चीजों में साढ़े चार बज गए। अब उसे घर जाना था, उसके बॉस को भी ये बात पता थी कि उसे घर जाना है, लेकिन टीम को भी छोड़ा नहीं जा सकता था। खैर पौने चार तक सब लोग चले गए, बॉस ने उसे बधाई दी और विश्वास दिलाया कि काम उन्हे ही मिलेगा और इस प्रोजेक्ट को वही हेड करेगा।
वो सवा पांच बजे के करीब घर पहंुचा, तब तक परशुराम घर पर ही था। उसने घर पहंुच कर परशुराम को विदा किया, और थोड़ी देर दादा से बात करने के बाद बाहर वाले कमरे में आकर सोफे पर लेट गया। पता नहीं कब उसकी आंख लग गई, और मोबाइल की घंटी से उसकी आंख खुली। उसने पहले घड़ी की तरफ देखा, साढ़े सात, इस समय मुझे कौन फोन करेगा, उसका पहला ख्याल था। खैर फोन देखा तो किसी अंजान नंबर से फोन था। निवेदिता का फोन था, निवेदिता?? उसे समझ नहीं आया। फिर याद आया, टीम में एक लड़की थी, जिसने कुछ खास नहीं पूछा था। निवेदिता ने उसे बताया कि काम उन्हीं को दिया जा रहा है, और उसके ऑफिस से उसे इस प्रोजेक्ट का कोऑर्डिनेटर बनाया गया है। ”बहुत अच्छे....” उसने कहा। तय हुआ कि कल निवेदिता उसके ऑफिस आ जाएगी और फिर जो फॉर्मेलिटीस बाकी बची हैं, पूरी कर ली जाएंगी।
उसने फोन काट कर खाने की तैयारी की, दादा को खाना खिलाया और फिर खुद भी खाया, और फिर ”लव इन द टाइम ऑफ कौलेरा” लेकर सोने चला गया। यही तो उसकी जिंदगी थी।
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दूसरे दिन उसके ऑफिस में उससे पहले निवेदिता पहुंची हुई थी। वो उसे अपने कमरे में लेकर गया, और फिर उसे वहीं बैठा छोड़ कर बाहर आ गया, ऐलेक्स ने उसकी चाय रखी हुई थी, वो वहीं बाहर बैठ कर चाय और सिगरेट पीने लगा। थोड़ी देर में निवेदिता भी चाय का कप हाथ में थामें बाहर आ गई। ”मुझे भी एक सिगरेट मिलेगा” उसने सहज भाव से पूछा। अरविंद ने सिगरेट का पैकेट निवेदिता की तरफ बढ़ा दिया। निवेदिता ने बिल्कुल पेशेवर स्मोकर्स की तरह सिगरेट सुलगाया और कश खींचा। थोड़ी देर बाद वो दोनो उठ कर अरविंद के कमरे में आ गए और दोनो ने अपना काम शुरु कर दिया। प्रोजेक्ट कुछ खास मुश्किल नहीं था, और निवेदिता भी अपने काम में माहिर थी, इसलिए दोनो को ही साथ काम करने में मजा आने लगा था। शाम तक उसने काफी काम निपटा दिया था, अब बस प्रोजेक्ट को एग्जीक्यूशन पर जाना था। उस शाम वो निवेदिता के साथ ही ऑफिस से निकला और उसे ऑटो पकड़ा कर उसने घर का रुख किया। उसे पता नहीं क्यों कुछ अलग-अलग सा लग रहा था, कुछ तो फर्क था। आज वो आस-पास से बेपरवाह नहीं था, घर के पास वाले मैदान में खेलते बच्चे उसे दिखाई दिए, बसें, कारें, साइकिल पर जाते लोग, उसे सब िदखाई दे रहे थे, और अपने घर के आस-पास के पेड़ भी उसे दिखाई दिए। कमाल है, आज ऐसा क्या हो गया, उसने सोचा। और फिर जाने क्या सोचकर मुस्कुरा दिया। फिर उसे अपनी उस मुस्कुराहट पर गुस्सा आया, लेकिन वो अपने मूड में गुस्सा पैवस्त नहीं कर पाया।
घर पहुंच कर उसने दादा से बात की, पर आज की बातों में भी फर्क था, जिसे शायद दाद ने भी महसूस किया, क्योंकि वो भी मुस्कुरा रहे थे। फिर वो किचन में गया और अपने और दादा के लिए बढ़िया चाय तैयार की। आज चाय भी बहुत अच्छी बनी थी। फिर उसने खाना बनाने के बारे में सोचा। वो बहुत सादा खाना बनाता है, क्योंकि किचन का काम तो उसे ही करना पड़ेगा। लेकिन आज उसने दाल भी बनाई और सब्जी भी, थोड़ा सलाद भी काटा, और फिर दादा को खाना देकर, मजे से खाना खाया। हालांकि पढ़ना उसे पसंद था, लेकिन आज कुछ पढ़ने का मन नहीं कर रहा था, वो दादा को कहकर बाहर निकल गया। आज उसका मार्केट में घूमने का मन था, शॉपिंग वो संडे को ही कर चुका था, लेकिन आज उसका घूमने का मन था। थोड़ी देर वो यूं ही गलियों में घूमता रहा, और फिर थक कर वापस आ गया। दादा सो चुके थे, वो भी अपने बिस्तर पर गया और लेट गया।
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उसने और निवेदिता ने पांच महीने में प्रोजेक्ट खत्म कर दिया। इस बीच वो दोनो बहुत अच्छे दोस्त बन चुके थे। निवेदिता जानती थी कि वो शाम को घर जाता है, जो उसकी मजबूरी है। इसलिए वो कभी बाहर साथ घूमने तो नहीं गए, लेकिन अक्सर लंच दोनो ऑफिस से बाहर ही करते थे। निवेदिता खास अच्छी लड़की थी, बहुत इंटेलिजेंट, अपने काम में माहिर और बिंदास।
वो निवेदिता के साथ अच्छा महसूस करता था, वो निवेदिता के बाद अच्छा महसूस करता था। वो निवेदिता के साथ रहना चाहता था। निवेदिता भी इशारतन ये जता चुकी थी कि वो उसे पसंद करती है। ”घर चलोगी मेरे....?” उसने पूछा। ”ऑफिस के बाद.....ज़रूर.....क्या खिलाओगे.....?” निवेदिता ने पूछा। ”बोलो क्या खाओगी?” उसने फौरन सवाल दागा। फिर खुद ही बोला, ”पास की दुकान में समोसे बहुत बढ़िया बनते हैं.....खाओगी?” ”हां....क्यूं नहीं....फिर तुम चाय भी तो पिलाओगे, जिसकी तुम इतनी बड़क मारते हो....” ”हां हां, क्यों नहीं.....”
शाम को वो दोनो उसके घर की तरफ चले, उसने घर जाकर पहले परशुराम को रिलीव किया, और दादा को निवेदिता से मिलवाया। वो थोड़ा सा आशंकित था कि जाने निवेदिता क्या सोचेगी। लेकिन निवेदिता तो दादा से ऐसे बात करने लगी जैसे ना जाने कबसे उन्हे जानती हो। ”तुम दादा के साथ बात करो, मैं समोसे लेकर आता हूं.....” वो मार्केट गया और पांच समोसे ले आया। घर आकर देखा तो निवेदिता उसकी किताबों का रैक देख रही थी। ”बहुत पढ़ते हो यार.....” ”हां.....वो ऐसे ही.....चाय बना रहा हूं” वो किचेन में घुस गया। थोड़ी देर बाद निवेदिता भी किचेन में आ गई। वो थोड़ा नर्वस था, आज तक उसकी किचेन में कोई लड़की नहीं आई थी। निवेदिता थोड़ा उचक कर कबर्ड पर बैठ गई, और अपने आप, लिफाफे में से निकाल कर समोसा खाने लगी। उसने समोसों को तस्तरी में डाल दिया और फिर चाय ढालने लगा। चाय लेकर वो बाहर आ गया, दोनो ने बातें करते हुए चाय खत्म की, और फिर थोड़ी देर और बात की। ”सिगरेट पिएं.....” अचानक निवेदिता ने पूछा। उसने एक बार दादा के कमरे की तरफ देखा। फिर थोड़ा संकोच में कहा, ”पीछे की तरफ चलकर पीते हैं......दादा हैं ना.....” वो दोनो बाहर आ गए। दोनो ने एक ही सिगरेट पिया और थोड़ी देर वहीं बैठकर बातें करने लगे। ”चलो.....अब मुझे जाना होगा, वरना देर हो जाएगी तो......” निवेदिता उठते हुए बोली। वो भी उठ गया। निवेदिता ने अपना बैग उठाया और दरवाजे की तरफ बढ़ी, वो निवेदिता के बिल्कुल पीछे था। दरवाजे के पास जाकर निवेदिता घूमी और उसे गले लगा लिया। वो अचकचा गया.......लेकिन उसे अच्छा लगा, और उसके हाथ निवेदिता की पीठ पर जाकर टिक गए। बहुत सुखद अहसास था। निवेदिता ने दरवाजा खोला और चली गई।
उसे पूरी रात नींद नहीं आई। क्या हुआ, क्या हो सकता था, क्या हो सकता है? जैसे सवाल पूरी रात उसके दिमाग में घूमते रहे, और वो आंख फाड़े छत को देखता रहा। सुबह के तीन बजे उसे नींद आई और उठने में साढ़े सात बज गए। जब उठा तो जल्दी से दादा के कमरे की तरफ गया। दादा जाग चुके थे, और शायद उसे आवाज़ लगा कर थक चुके थे। खैर उसने दादा को किसी तरह शांत किया और फिर उन्हे नहलाया। फिर जल्दी से चाय बनाई, पूरा रुटीन खराब हो चुका था। जब तक वो सारे काम निबटाता तब तक परशुराम आ गया था, वो जल्दी से तैयार होकर ऑफिस चला गया।
ऑफिस में निवेदिता के व्यवहार में कोई फर्क नहीं था। वो तो बिल्कुल ऐसे बात कर रही थी जैसे कल कुछ हुआ ही ना हो। और इधर वो था, जिसके रोम-रोम से ये आवाज़ आ रही थी कि उसकी जिंदगी बदल चुकी है। वो काम खत्म कर चुके थे, आज निवेदिता का उसके ऑफिस में आखिरी दिन था। अब अगर उसे निवेदिता को मिलना हो तो उसके ऑफिस जाना पड़ेगा। यानी अपने ऑफिस के बाद, जो संभव नहीं था, क्योंकि उसे अपने दादा की देखभाल करना थी, जिसके लिए उसे हर हाल में पांच बजे घर पहुंचना था। दिन खत्म हुआ, सब लोग ऑफिस से जाने लगे, निवेदिता ने सबाके बाय कहा, फिर ऑफिस में सबके सामने उसके गले लगी, और उसे स्पेशली थैंक्स कहा और चली गई।
अब कुछ नहीं हो सकता। जिंदगी वैसी ही चलेगी, जैसी अब तक चल रही थी। वो घर जाते हुए सोच रहा था। आज उसका ध्यान पास के मैदान में खेल रहे बच्चों की तरफ नहीं गया, ना उसे पेड़ दिखाई दिए, ना बसें, ना मार्केट। घर में उसने बुझे मन से परशुराम को रिलीव किया, और दादा के साथ जाकर बैठ गया। वो कोई बात नहीं कर पाया। मन बुझा हुआ था। जब दादा के कमरे से बाहर निकला, तो सोफे पर बैठ कर उसने बिना सोचे सिगरेट निकाला और सुलगा लिया। दो कश लेने के बाद उसे ध्यान आया कि वो घर पे था, जहां दादा भी थे। उसने सिर हिलाया और सिगरेट को सुबह के चाय के गिलास में डाल दिया। सिगरेट बुझ गई। अस्सी साल के हो गए.....ये दादा को मौत क्येां नहीं आती। उसने सोचा और खाना बनाने के लिए उठ गया।
Nice
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