बात उन दिनों की है जब मैं दुनियावी मामलों को समझने लगा था। सुबह जल्दी उठने की आदत वहीं से लगी है। मैं बहुत सुबह, यानी सूरज निकलने से भी पहले उठता था। बहुत सारे काम करने के बाद, जिनका जिक्र मैं यहां नहीं करना चाहता, नहाता - धोता था और फिर ध्यान के लिए बैठता था। उन दिनों बहुत सारे धर्म-ग्रन्थों को पढ़ डाला था। मत्स्य पुराण, षिव पुराण, ब्रम्ह पुराण, रामायण, गीता और भी ना जाने क्या - क्या। उन्ही दिनों कुंडलिनी जागरण का चस्का लगा। त्राटक करता था और ध्यान में ऐसी गहरी आस्था थी मेरी कि लगता था जैसे बस देहरी पर पहुंच गया हूं, बस एक कदम बाकी है। खै़र कहानी ये नहीं है। ये तो कहानी की पृष्ठभूमि है, क्योंकि इसे जाने बिना आपको समझ नहीं आएगा कि मैं इतना घनघोर आस्तिक अचानक नास्तिक क्यूं बन गया।
तो हुआ कुछ यूं कि यही दिन थे जब मैं रात को देर से घर आया करता था। मेरे घर के रास्ते में, यानी घर तक पहुंचने वाली गली सुनसान थी, मेन रोड के पास ही थी, लेकिन कुछ इस तरह थी कि मेन रोड़ छोड़ने के बाद ही सुनसान, घुप्प अंधेरी सड़क पर पांव पड़ते थे। अब इस गली के मैने कई किस्से कई लोगों से सुन रखे थे। कुछ को म्यूनिसिपैलिटी के नलके पर भूत बैठा दिखा था, किसी को गली में आते या जाते हुए भूत दिखा था, और कुछ को तो उनकी बैठक में भूत का अहसास हुआ था। जी नहीं, जिन लोगों को भूत दिखे थे, उन्हें मैं नहीं जानता, कभी मिला भी नहीं। बस उनके किस्से लोगों की जुबानी सुने थे। जिन्हे भूत का अहसास हुआ था उन्हें मैं जानता था। अब मामला ये था कि जिन्हे मैं जानता नहीं था, उन्होने भूत देखा था, और जिन्हे मैं जानता था, उन्होनेे भूत नहीं देखा था।
अब यहां आपसे एक सवाल है, जिसका जवाब मुझे नहीं चाहिए। आप खुद ही खुद से सवाल कीजिए और उसका जवाब खुद को दे लीजिए। अगर खुदा नहीं होता, ”यानी ईष्वर नहीं होता” - तो क्या भूत का असतित्व संभव होता? भई जिस तरह की पारलौकिक, या अलौकिक शक्ति भूत की बताते हैं, वो बिना ईष्वरीय शक्ति के तो संभव नहीं लगती। या इसे इस तरह मान लें कि भूत में यकीन आप तभी कर सकते हैं जब आपका ईष्वर में यकीन हो। यदि ईष्वर में यकीन नहीं होगा तो भूत में भी यकीन नहीं होगा। ये तर्क की बात है और इसमें आस्था की कोई जगह या जरूरत नहीं है। माफ कीजिएगा, ये मेरा खुद से सवाल का जवाब है। अब क्योंकि कहानी मेरी है तो मैने अपना जवाब आपको दे दिया है। आपका अगर कोई जवाब है तो उसे अपने पास रखिए।
ये सवाल - जवाब तो खैर जाने दीजिए। बात भूत की हो रही थी - और मामला उन दिनों का था जब मैं घनघोर आस्तिक था, खूब वेद-पुराण तक पढ़ता था, श्लोक - मंत्र रटे हुए थे, संस्कृत में पारंगत था, हनुमान चालिसा कंठस्थ थी, दुर्गा और शक्ति के श्लोक याद थे और उन्हीं के सहारे खुद को अलौकिक मानव बनाने के चक्कर में था। मेरा यकीन मानिए मैने हठयोग तक किया। यानी सर्दियों में बिना कुछ पहने रात को पानी में खड़े रह कर - षिव स्त्रोत का पाठ और गर्मियों में तपते सूरज के नीचे चारों तरफ आग जला कर घ्यान का अभ्यास। मैं पूर्ण ब्रहम्चारी था, हस्तमैथुन नहीं करता था, वीर्य को तेज का कारण मानता था, और इसे धर्म के प्रति अपने त्याग और तपस्या का एक महान अध्याय मानता था। अब ऐसे महान तपस्वी का भला भूत क्या बिगाड़ेगा।
तो दोस्तों, सर्दियों का समय था और मैं अपने दोस्तों पर, अपने तप और ज्ञान का रौब झाड़ कर, ”वो मुझे महापंडित कहते थे, कुछ गुरुजी या ऋषि भी कहते थे” वापस घर जा रहा था। रास्ता वही, जो मैने पहले बताया, सुनसान, घटाटोप अंधेरा। करीबन एक किलोमीटर का रास्ता। एक तरफ दीवार, दूसरी तरफ झाड़ और पेड़, थोड़ आगे जाने पर गली के दो हिस्से हो जाते हैं, एक दांयी तरफ दूसरा सीधा। वहीं पर लगा है म्यूनिसिपैलिटी का नल। वो नल जिससे सारे मुहल्ले वाले पानी भरते हैं। मैं ने देखा कि कोई उस नल की थेगली पर बैठा है - या बैठी है। मेरा मन थोड़ा लरजा। ध्यान से देखा तो लगा कि वो बैठी है, उसका बदन हिल रहा है। मेरा कदम लड़खड़ाया और चाल धीमी हो गई, या रुक गई। मैं आगे नहीं जाना चाहता था, लेकिन घर जाने का यही एक रास्ता था। मैंने आंखे सिकोड़ कर ध्यान से देखा, देखना चाहा। सफेद साड़ी थी, बदन हिल रहा था। मैने और ध्यान से देखा। बदन हिल रहा था, जैसे वो रो रही हो। लेकिन कोई आवाज़ नहीं थी। नैनी को भी ऐसी ही बुढ़िया रोती मिली थी। मेरा दिल एक बार फिर लरज़ा और फिर भीगे हुए कुत्ते की तरह कूं-कूं करने लगा। मुझे सारे श्लोक भूल गए, दुर्गा शप्तसती भूल गई, हनुमान चालिसा....हां, भूत पिसाच निकट नहीं आवै - महावीर जब नाम सुनावै.....बस यही याद रहा। इसके आगे नहीं, इसके पीछे नहीं। बस भूत - पिसाच निकट नहीं आवै - महावीर जब नाम सुनावै...। बस यही, बार -बार यही। और ये भी स्वर में नहीं, मन में। मन में यही बार - बार दुहराते हुए मैं आगे बढ़ा। बढ़ता रहा, शायद इस उम्मीद में कि जब तक मैं उसके पास पहुंचूंगा वो गायब हो जाएगी, कोई और भी आ जाएगा। भूत के सामने भगवान भले भाग जाए, इंसान का बड़ा सहारा होता है। क्योंकि अब तक भूतों की जो भी कहानी सुनी थी, उसमें भूत हमेषा अकेले इंसान को ही पकड़ते हैं, भूतों को एक से ज्यादा इंसान होने से डर लगता है।
कोई नहीं आया, ना कोई गया। भूत - पिसाच निकट नहीं आवै - महावीर जब नाम सुनावै के अलावा कुछ सूझ नहीं रहा था। सर्दी की उस रात मेरी बगल में पसीना आ गया, जो मुझे महसूस हो रहा था। मैं धीरे-धीरे वहां पहुंच रहा था जहां वो बुढ़िया भूतनी बैठी थी, नल की थड़ी पर, रो रही थी। मेरे बदन का रोयां-रोयां पुकार रहा था कि आगे नहीं जाना, पीछे जाओ, लेकिन कोई अद्भुत शक्ति मुझे उसकी तरफ खींच रही थी, ”मतलब घर की तरफ” पीछे जाने का कोई तर्क नहीं था। घर तो जाना ही था, डर ने पैर जड़ कर दिए थे, या यही डर था जो मुझे आगे खींच रहा था। हे भगवान, अब क्या होगा। क्या होगा - हे भगवान। मेरी सांसे भी फंस कर आ रही थी, बहुत धीमे - बहुत धीमे। मैं दांयी तरफ हो गया, बिल्कुल झाडों के करीब, ताकि उससे दूर - दूर रहते हुए अपने घर की तरफ मुड़ जाउं। मैं उसके बिल्कुल करीब पहुंच चुका था। मेरे करीब पहुंचते ही वो उठी, मेरे दिल ने जवाब दे दिया। पैर पानी हो गए, और मैं बैठ गया।
थोड़ी देर बार होष आया तो वो गायब हो चुकी थी। मैं ज़मीन पर पड़ा था। मैने खुद को संभाला। खड़ा हुआ और कांपते पैरों से घर की तरफ बढ़ चला। मेरा दिल धाड़ - धाड़ करके बज रहा था। मैने एक भूतनी देखी थी, भूतनी - जो गायब हो गई थी। भूत या भूतनियां अक्सर गायब हो जाते हैं। मिल कर गायब हो जाना ही उनका मुख्य काम है। या हो सकता है कि वो - महावीर का नाम सुन के गायब हो गई हो।
दूसरे दिन मुझसे ध्यान नहीं लग सका। जैसे ही आंख बंद करता था, मुझे वो नल की थेगली पर बैठी दिखाई देती थी, उसका बदन हिल रहा था। लेकिन फिर मेरा अनुभव मेरे दिमाग के हिसाब से आगे बढ़ने लगा, मेरी बंद आंखों से वो दिखने लगा जो मेरी खुली आंखों ने नहीं देखा था। वो उठी थी, उसकी लाल अंगारों जैसी आंखें थीं, जिनसे खुन के आंसूू टपक रहे थे। वो सच में रो रही थी। फिर मुझे देख कर वो मुस्कुराई और गायब हो गई। भूत या भूतनियां अक्सर गायब हो जाते हैं। मिल कर गायब हो जाना ही उनका मुख्य काम है।


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