रविवार, 31 मार्च 2013

अब आई है बारी अपनी








अब आई है बारी अपनी 


सदियां गुजरीं अँधेरे में 
सिर नीचे करके लोग जिए 
अब सूरज लाल उगा देखो 
अब आई है बारी अपनी 

कभी ईश्वर था, कभी राजा था 
कभी धर्म रहा, कभी पैसा रहा 
इंसान उठा है अब देखो 
अब आई है बारी अपनी 

कभी नीले रंग का खून रहा 
फिर खून सफ़ेद भी हुआ किया 
अब रंग खून का लाल यहाँ 
अब आई है बारी अपनी 

कभी तलवारों ने राज किया 
कभी तख़्त पे बैठा धर्मगुरु 
फिर धनवानों का दौर आया 
अब आई है बारी अपनी 

कभी चाँद रहा था झंडे पर 
कभी सूरज, शेर और सांप रहा 
अब हंसिया हथौड़ा आया है 
अब आई है बारी अपनी 

वो सुबह आ गयी है देखो 
जिसके गाने तुम गाते थे 
जिसकी धुन में तुम मरते थे 
जिसके लिए तुम जीते जाते थे 
वो लाल सुबह, जब दुनिया की 
हर चीज़ पे अपना हक होगा 
वो इंक़लाब का दिन जब 
दुनिया का हर ज़र्रा अपना होगा 
जब अपनी मेहनत के साथी 
हम सब खुद ही मालिक होंगे 
तो उठ जाओ, आगे आओ 
अब आई है बारी अपनी


गुरुवार, 28 मार्च 2013

अमावस




तीसरा पन्ना 

ट्रेन अपनी गति से चलने लगी, और ट्रेन में मौजूद सभी लोग ऐसे हिचकोले लेने लगे जैसे किसी कपडे के झूले में बैठे हों। पहले तो करुआ  अपने शारीर को अटाने के लिए इधर उधर नज़र दौड़ाई, फिर ये देख कर की कहीं भी, किसी कोने में भी टिल धरने तक की जगह नहीं है, वो पेशाब घर वाले गलियारे में चला गया जहाँ पहले ही दो औरतें अपने बड़े बड़े गठ्ठर लेकर बैठी थीं। सूखी निचुड़ी मुची औरतें जो अक्सर इसी तरह के डिब्बों की शोभा होती हैं, जो बेनियाज़ होती हैं, बहुत ही फुर्सत वाले अंदाज़ में अपनी भरी पोटली के ऊपर या आजू बाजू बैठ कर बातें करती हैं, जिनका एक भी शब्द आपकी समझ में नहीं आ सकता। वहीँ दो तीन आदमी कोनो पर खड़े थे। आमतौर पर इस तरह के जनरल के डिब्बों का रास्ता रिजर्व्ड डिब्बों के लिए बंद होता है। यानी अगर आप जनरल डिब्बे में बैठे हों तो आपको उसी में रहना पड़ता है, उनसे होकर कहीं और नहीं जाया जा सकता। करुआ उन्ही लोगों के पास जाकर खड़ा हो गया। और इधर उधर ताक झाँक करने लगा। 

गाडी ने जब रफ़्तार सी पकड़ ली तो उसे ऊंघ सी आने लगी। लेकिन जेब में मौजूद पैसों की चिंता के चलते वो सो भी नहीं सकता था। क्या पता जैसे ही उसकी आँख लगे कोई उसकी जेब ही मार ले, उसके पैसे उड़ा ले। जब गाड़ी चले हुए २ घंटे से ज्यादा हो गया और उससे बर्दाश्त नहीं हुआ तो वो बाकी डिब्बे में अपने लिए जगह तलाश करने निकला, अब तक सभी जनरल सवारियां अपनी अपनी जगह सेट हो चुकी थीं इसलिए एक ख़ास किस्म की घुर मुर की आवाज़ आ रही थी, जैसे भिड के छत्ते के पास से आती है। वो हर कोच में जाकर इधर उधर निगाह मरने लगा, जैसे ही वो किसी कोच में जाता लोग उसे घूरने लगते, एक एक सीट पर ८-८ लोग बैठे हुए थे। ज़मीन पर ४-४ लोग बैठे थे। जनरल का डिब्बा इस तरह भी रिज़र्व के डिब्बों से अलग होता है कि उसमे गद्दों वाली सीट नहीं होती बल्कि लोहे के जंगलेनुमा फ्रेम पर लकड़ी के फत्ते कसे होते हैं। उन पर आप बैठ सकते हैं, सो सकते हैं, और चाहे तो खड़े भी हो सकते हैं, चाहें तो। ऐसे ही एक कम्पार्टमेंट में उसने देखा की कुछ लोग भीड़ लगा कर खड़े हैं, और एक आदमे नीचे वाली सीट पर खड़ा हुआ एक पेन को पंखे की जाली में घुस कर उसे चलने की कोशिश कर रहा है। बाकी लोग इस तरह उसे देख रहे थे जैसे वो दुनिया का सबसे दिलचस्प काम हो . वो भी उस भीड़ में शामिल हो गया, थोड़ी देर तक तो वो आदमी अपने पेन के साथ पंखे से जूझता रहा फिर अचानक उसने झुंझला कर एक जोर का झटका दिया, पंखा तो उस झटके से नहीं चला लेकिन उसका पेन आगे से टूट गया। पूरी भीड़ पर जैसे मुर्दनी सी चा गयी। उस आदमी ने पेन को झुंझला का खिड़की से बहार फेंक दिया और उचक कर ऊपर वाली बर्थ पर चला गया। 

अब ये एक दिलचस्प बात थी। जनरल के डिब्बे में, कम से कम दिन के समय तो कोई भी सीट लेटने के लिए नहीं होती, नीचे आठ आदमी बैठते हैं, तो ऊपर कम से कम पांच लोग। और अगर किसी ने बैठने की जुर्रत की तो ऐसा घमासान मचता है की लोग हल्दीघाटी भूल जाएँ। लेकिन ये आदमी ठाठ से ऊपर लेता था और लोग आराम से नीचे वाली सीटों पर बैठे थे। 
"तो में क्या कह रहा था ........हाँ .......अरे हम जब बौडर पर होते हैं तो ये नई देखते की गोली किसे लगेगी, निकली है सुसरी बन्दूक से तो भैया कहीं न कहीं तो लगेगी।" ऊपर लेता आदमी नीचे झाँक कर बोला।  
कुछ लोगों ने सर हिलाया और कुछ लोगों ने हुंकार भरी। करुआ थोड़ी देर तक तो दो कम्पार्टमेंट को अलग करने वाली पट्टी दे साथ लग कर खड़ा रहा फिर मौका ताड़ कर जमीन पर सरक गया। किसी का ध्यान इस तरफ नहीं गया की वो नीचे को सरक गया है और उसने पट्टी से पीठ लगा ली है , टाँगे पसार ली हैं, और वो आराम करने लगा है, वैसे भी ज़्यादातर लोग ऊपर लेते हुए उस आदमी के बातें सुन रहे थे। फिर जैसा की होता है, किसी के पैर से उसका पैर टकराया और वो जो सीट पर बैठा था हुंकार कर बोला, 
"क्यूँ बे, यहाँ कायकू बेठ गया। कहीं और जाके मर, यहाँ जगे नई ऐ।"
उसने कोई जवाब नहीं दिया, सब उसकी तरफ देखने लगे थे, वो भी सबकी तरफ देख रहा था. उसके चेहरे पर बेचारगी दे भाव आ गए, हालांकि उसे गुस्सा आ रहा था. तभी ऊपर लेते आदमी ने कहा, 
"टिकट है तेरे पास।" 
उसने टिकट निकाल कर दिखा दिया। 
"अच्छा, बैठने दो यार बच्चा है ......" उसे धकियाने वाला पीछे पीठ टिका कर बैठ गया जैसे उसे कोई फर्क नहीं पड़ता, वो तो दूसरों के भले के लिए कह रहा था. ऊपर वाले आदमी ने उससे पुछा, 
"कहाँ जायेगा?"
"गाँव ......" उसने कहा
"अच्छा-अच्छा बैठा रह "
तभी गाडी की रफ़्तार कम होने लगी, और एक झटके के साथ गाडी रुक गयी, कोई स्टेशन आया था, क्यूंकि स्टेशन की चिल्ल पों शुरू हो चुकी थी, लोग डिब्बे में चढ़ने की कोशिश कर रहे थे और जो डिब्बे में थे वो पूरी कोशिश कर रहे थे कि कोई और डिब्बे में ना आ पाए, ऐसा लग रहा था जैसे एक घमासान चल रहा हो. ऊपर वाला आदमी गर्दन नीचे की तरफ मोड़ कर बहार देखने की कोशिश कर रहा था. 
"......अरे कोई पूरी वूरी वाला हो तो रोकिओ ....."
लेकिन इतनी धकापेल में कौन सामान वाला अपनी ऐसी तैसी करवाता, 
"ये साले ऐसे नहीं सुधरेंगे ......" और उसने भरी सी डकार मारी और फिर सीधा लेट गया। कुछ एक दो आदमी उस कम्पार्टमेंट के सामने से निकले लेकिन वहां रुके नहीं। भूक तो करुआ को भी लगी थी, वो वहां से उठा और इधर उधर से जगह बनाता हुआ बाहर को निकल गया, थोड़ी ही दूर पूरी वाला खड़ा था जिसकी खोमचेनुमा गाडी पर एक टोकरी में अखबार के ऊपर पूरीओं का ढेर लगा हुआ था. करुआ ने जेब से २० रुपए निकाल कर दिए तो पूरी वाले ने उसे दो पत्तल में सब्जी और कुछ पूरियां पकड़ा दीं। वो जल्दी से अपने डिब्बे की तरफ बढ़ा और खिड़की में से झाँक कर उसने सब्जी के पत्तल खिड़की की मुंडेर पर रख दिए, फिर आगे को जाकर दरवाजे से अन्दर आ गया। अन्दर अपनी जगह आकर उसने देखा की ऊपर वाला आदमी उसे ही देख रहा था. करुआ ने चुपचाप पत्तल और पूरी उसकी तरफ बढ़ा दी, पहले तो वो आदमी हिचका फिर न जाने क्या सोच कर वो उठ बैठा और पत्तल पकड़ लिया। 
"कितने का आया ....."
"पता नहीं ....."
" ......अबे पैसे दिए थे ......"
" २० रुपए दिए थे"
"हाँ तो २० रुपए का दो पत्तल हुआ ना"  
उसने अपनी ऊपर वाली जेब में से कुछ नोट निकाले और उसमे से एक १० का नोट अलग करके करुआ की तरफ बढ़ा दिया, करुआ ने नोट ले लिया। करुआ नीचे बैठ कर पूरी खाने लगा, ट्रेन चल पड़ी थी, इतनी धकापेल के बावजूद स्टेशन पर मौजूद सभी लोग ट्रेन में चढ़ चुके थे, और अपनी जगह बैठ चुके थे। ऊपर वाले आदमी ने पूरी खाकर पत्तल को हाथ बढ़ाकर बहार फेंक दिया और पीछे से बोतल निकाल कर पानी पीने लगा। जाने कैसे करुआ के गले में सब्जी का दान फंस गया, वो जोर जोर से खांसने लगा, आँखों से आंसू निकल आये. ऊपर वाले आदमी ने नीचे वाले आदमी को अपनी पानी की बोतल देते हुए उसकी तरफ इशारा किया, नीचे वाले आदमी ने पानी की बोतल उसकी तरफ बढाई तो उसने जल्दी से बोतल ली और ढक्कन खोल कर गटागट एक दो घूँट मारे, पानी गले को छूते ही गला साफ़ हो गया और उसकी जान में जान आयी। उसने अपनी पूरियां ख़तम कीं, और फिर थोडा सा पानी और पीकर, अपना पत्तल मोड़ कर खिड़की से बहार फेंक दिया और बोतल ऊपर वाले आदमी की तरफ बढाई जो नीचे की तरफ झुक कर कुछ बात कर रहा था। 
"न न ......तू ही रख ले, वर्ना फिर प्यास लगेगी तो क्या करेगा। कहाँ जायेगा .......हाँ गाँव जायेगा बताया तो था तूने .......ऐसा कर तू ऊपर ही आ जा, आ जा ....चल भाई जवान, जगह दे बच्चे को थोड़ी ...." 
उसने कोने पर बैठे आदमी को बोला। एक पैर सीट पे और दूसरा पैर बहार को निकले हुए हुक पर रखकर वो ऊपर चढ़ गया. ऊपर वाले आदमी ने अपने पैर सिकोड़ लिए और उसके बैठने भर की जगह बना दी। करुआ  से बैठ गया तो उस आदमी ने अपने पैर उसकी पीठ के पीछे से बहार को निकाल लिए। और फिर आराम से लेट कर निचे की तरफ झुक कर बात करने लगा। अब क्यूंकि करुआ आराम से बैठ चूका था इसलिए उसका ध्यान भी उन बातों की तरफ गया, वो आदमी रुक रुक कर अपनी फौजी कारगुजारियां सुना रहा था। यानी फौजी था। गर्मी में बैठे बैठे करुआ को नींद आने लगी, और उसका सर छाती पर लटक गया, फिर अचानक झटके से ही उसकी आँख खुल गयी। ट्रेन फिर किसी स्टेशन पर फुकी हुई थी और शाम हो गयी थी। फौजी सो रहा था और नीचे भी सब लोग सो रहे थे। करुआ थोडा सरक कर नीचे कूदा और फर्श पर बैठे लोगों को अपने पैरों से बचत हुआ डिब्बे से बहार निकल गया. स्टेशन पर उसने पानी की दो बोतल खरीदी और भाग कर ट्रेन पर चढ़ गया। जब वो अन्दर आया तो फौजी जाग चूका था।
"कहाँ गया था ......?"
फौजी ने उससे पुछा 
"पानी लेने ....."
"अच्छा .....ठीक किया, ला एक बोतल मुझे दे दे ......"
उसने एक बोतल फौजी की तरफ बढ़ा दी और एक को बगल में दबा कर फिर ऊपर चढ़ गया। फौजी ने अपने सर के नीचे रखे बैग को खोल और उसमे से दारु की बोतल निकाल ली। बोतल आधी भरी हुई थी . फौजी ने उस आधी बोतल में पानी भर लिया और फिर एक घूँट भरा। 
"अबकी बार ट्रेन रुके तो कुछ खाने को ले अईयो ......ये ले ....."
फौजी उसे सौ का नोट दे रहा था. उसने बिना कुछ कहे वो नोट ले लिया। ट्रेन ने फिर से रफ़्तार पकड़ ली थी, और वो बैठा बैठा हिल रहा था. फौजी बोतल में से घूँट मार रहा था और अधलेटा सा कोई मैगजीन पढ़ रहा था. अब उसकी आँखों में नींद नहीं थी, खिड़की खुली थी और ट्रेन में ठंडी हवा आ रही थी, वो बैठे बैठे अपनी माँ के बारे में सोचने लगा। क्या कहेगी वो जब में जाकर उसे अपने सारे पैसे दे दूंगा। मै कहूँगा कि अब तुझे काम पर जाने की ज़रुरत नहीं है, बनिए का हिसाब करने के बाद जो पैसा बचेगा उससे बैल खरीद लूँगा और अपने जमीन पर ही खेती करूँगा, सुबह उठ कर खेत चला जाया करूँगा और माँ वहीँ खान लेकर आएगी, नहीं, इस्कूल जाना शुरू करूँगा, खेती तो दोपहर में भी हो जाएगी, पढ़ जाऊंगा तो फिर कोई ठाठ की नौकरी करूँगा, लेकिन माँ को काम नहीं करने दूंगा। जब तक नौकरी नहीं लगती खेत पर काम करूँगा, और किसी के यहाँ काम करके घर चलाऊंगा। और भी ना जाने क्या क्या सोच रहा था वो जब अगला स्टेशन आया. फौजी ने गर्दन नीचे करके किसी मुरमुरे वाले को बुलाया और मुरमुरे लिए, फिर फौजी बैठ गया, वो फिर से सरक कर नीचे उतर गया तो फौजी बोला,
"खान पैक करवा के लइयो .......रात में खाएँगे ......."
वो सर हिलाता हुआ चला गया। भूख उसे भी नहीं लगी थी, स्टेशन पर आखिर मिलता ही क्या है, उसने फिर से वही पूरी सब्जी पैक करवा ली। जब वो डिब्बे में वापस आया तो उसने देखा की फौजी ने पकोड़ों और भजिया की प्लेट सामे राखी हुई है, और वो ऊपर वाली बर्थ पर ही अधलेटा सा बैठा है। 
"आ जा .....आ जा ......." 
फौजी ने उसके हाथ से खान ले लिया, वो फिर ऊपर जाकर बैठ गया और उसने अपनी जेब से बाकी बचे हुए पैसे निकाल कर फौजी की तरफ बढ़ाये।
" न न .......रख ले, तू रख ले, अभी फिर कुछ लाना हुआ तो ......."
उसने पैसे चुपचाप जेब में रख लिए .
"ले पकोड़े खा ले ....."
उसने एक पकोड़ा उठा लिया और खाने लगा . फौजी खाता रहा और नीचे झुक कर बात करता रहा, जब एक बोतल ख़त्म हो गयी तो फौजी ने दूसरी निकाल ली, नीचे वाले भी बात कर रहे थे और फौजी उनकी बातों में शामिल था। अचानक फौजी ने कहा,
"सब अनपढ़ हैं ......जो ना हो तो बताओ ज़रा,  की कोयल किसे कहते हैं" 
नीचे अचानक चुप्पी छा गयी, भारत की कोयल, यानी भारत कोकिला .....
" लता मंगेशकर " 
किसी ने कहा,
"एह ....."
फौजी गुर्राया 
"आशा भोंसले"
किसी दूसरे ने कहा 
" सरोजिनी नायडू ......"
करुआ बोला, उसे पता था, इस्कूल में वो यही सब तो रटते थे, राष्ट्रपिता कौन था, सीमान्त गाँधी कौन था, बारदौली का बैल कौन था, भारत कोकिला कौन थी।
"शाबास ........ देखा इसे कहते हैं पढना, अपने देस ......हिक ......के बारे में पता होना "
फौजी ने कहा और आगे बढ़ कर उसके सर को सहला दिया 
"जीता रह ......जीता रह।"
उसे एक ख़ुशी सी महसूस हुई, किसी को जवाब नहीं पता था, उसे पता था. फौजी फिर से बातों में मशगूल हो गया, और वो फिर अपने सपनो में खो गया। इसी तरह बहुत समय गुज़र गया। फौजी ने खान निकाल और उन दोनों ने खान खाया। खाने के बाद फौजी ने कहा, 
"तू ऐसा कर मेरी पीठ की तरफ पैर कर ले और लेट जा, वर्ना रात में झटका लगेगा और नीचे गिर पड़ेगा ......" और हंस पड़ा .
खान खाने के बाद लेट कर जो कमर सीढ़ी हुई तो आँख बंद होते ही उसे नींद आ गयी। उसे लगा जैसे उसकी जांघ पर कोई कीड़ा रेंग रहा है। उसने पैर झटक दिया। कोई बड़ा कीड़ा था जो पैर झटकने से नहीं गया तो उसने हाथ से मसल दिया। थोड़ी देर बाद उसे लगा कि जैसे उसकी पैंट नीचे की तरफ उतर गयी है और कोई उसका कुल्हा सहला रहा है। फिर उसे लगा जैसे कोई लिजलिजी सी चीज़ उसके कूल्हों से रगड़ रही है। वो चौंक कर उठ बैठा। उसकी पैंट  हुई थी और फौजी की पैंट भी खुली हुई थी। फौजी उसे देख कर हंस पड़ा और उसका हाथ पकड़ कर अपने ........पर रख दिया। करुआ न फौजी का हाथ झटक दिया और तेजी से अपनी पैंट ऊपर चढ़ा कर बंद की, फिर झटके से ही नीचे कूड़ा और डिब्बे के दरवाजे की तरफ चल दिया। उसे फौजी पर गुस्सा नहीं आ रहा था, बस बहुत अजीब सा लग रहा था. वो थोड़ी देर तक दरवाज़े पर खड़ा रहा और फिर बाथरूम की तरफ चला गया, वहां अँधेरा था, वो थोड़ी देर तक टेक लगा कर खड़ा रहा लेकिन फिर उसे नींद आ गयी। 

थोड़ी देर बाद उसे लगा जैसे किसी ने उसे दबोच रखा है, उसकी आँख खुलने से पहले उसके नथुनों से शराब की गंध टकराई, वो दो जोड़ी मजबूत हाथों की गिरफ्त में छटपटाने लगा, जब तक उसे लगता की वो चिल्लाये तब तक फौजी ने उसके मुह पर हाथ रख दिया था, अब उसके मुह से गूं गूं की आवाज़ निकल रही थी। वो और ज़ोर ज़ोर से अपने शरीर को हिलाने लगा, अचानक ही फौजी की गिरफ्त छूट गयी और उसे फौजी की चीख सुनाई दी,  पीछे मुद कर देखा तो लगा की फौजी बहुत अजीब हालत में है, वो आधा ही दिखाई दे रहा था. आवाज़ सुन कर जो लोग उस तरफ आये उनमे से किसी ने अपने मोबाइल से टोर्च जलाई तो दिखाई दिया की फौजी का एक पैर बाथरूम की गैलरी के बाद पड़ने वाले रस्ते के जंग खाए नीचे वाले हिस्से में फंसा हुआ था, उसकी हालत बहुत खराब थी और वो सूअर की तरह डकरा रहा था. उसे इस हालत में देख कर लोग उसकी मदद के लिए आगे आये तो वो दरवाजे की तरफ को सरका। उसका पूरा बदन पसीने से भीगा हुआ था. दरवाज़े पर आकर वो अपने हवास काबू में करने लगा। लोगों ने फौजी को बहुत मुस्किल से बहार निकाल था, और वो दर्द से चिल्लाते हुए उन्हें गाली दे रहा था, दूर स्टेशन की रोशनियाँ दिखाई दे रही थी। जैसे ही गाडी धीमे हुई, करुआ बाहर की तरफ कूद पड़ा और तेज़ी से सॆधिओन की तरफ भाग, उसे लग रहा था की लोग उसे पकड़ने के लिए आ रहे हैं, लोग उसके पीछे भाग रहे हैं, पुल के ऊपर चढ़ कर उसे लगा की अगर वो बाहर की तरफ भाग तो लोग उसे पकड़ ही लेंगे, इसलिए वो दायीं तरफ पड़ने वाली सीढ़ी से फिर वापस स्टेशन पर उतर गया, कोई गाडी जा रही थी, बिना सोचे समझे वो उसमे चढ़ गया। 
"ओये कहाँ चढ़ा आ रहा है ......ये रिजर्व्ड डिब्बा है "
" वो .....वो ....गाडी छूट जाती इसलिए जल्दी से चढ़ गया ......"
" टिकट है "
" ह ह हाँ हाँ ......."
उसने जेब से निकाल कर पुराना वाला टिकट दिखा दिया। 
"अबे ये गाडी तो बम्बई जा रही है ..... ये तो उलटी तरफ का टिकट है" 
" ........"
" अब क्या करेगा .......सुन अगला स्टेशन आये तो इस डिब्बे से उतर जइयो ......समझा क्या .......अगर अगले स्टेशन के बाद यहाँ दिख गयाना , तो पुलिस में दे दूंगा ." 
कहकर टी टी वहां से आगे चला गया, और करुआ सर को हाटों में थाम कर वहीँ फर्श पर बैठ गया .


जारी .....
 


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Kapil

सोमवार, 25 मार्च 2013

एक चौथाई चाँद




दूसरा पन्ना 


करुआ की जेब में कुल मिलाकर कुछ ८५०० रूपये थे, जैसे ही उसने सड़क पार के उसे बस मिल गयी और वो बिना पीछे देखे बस में चढ़ गया. पीछे देख कर करना भी क्या था. उसे असोक से कोई मतलब नहीं था. अगर असोक इमानदारी से उसका हिसाब कर देता तो उसे असोक के साथ वो न करना पड़ता जो उसने किया. उसे अपने किये का कोई पछतावा नहीं था. उसने असोक की दूकान पर काम इसलिए किया था क्यूंकि उसे गाँव जाकर बनिए का हिसाब चुकता करना था. वर्ना वो कौन ढाबे में काम करना चाहता था. 

गाँव में उसका बाप थोड़ी बहुत ज़मीन का मालिक था. उसके अलावा गाँव से ९ मील दूर जो कोर्ट था, वहां भी वो कोई औना पौना करता था जिसके चलते उसे ठीक ठाक पैसे मिल जाते थे. घर का खर्च ठीक ठाक चल जाता था और वो  इस्कूल भी जाता था. हालांकि उसे इस्कूल कुछ ख़ास पसंद नहीं था, लेकिन ऐसा कुछ बुरा भी नहीं था. मास्टर उसे भी उतना ही मारता था, जितना सबको मारता था। पूरे गाँव को पता था की जबसे मास्टर की बीबी भोला पहलवान के साथ भागी थी मास्टर ने मारना पीटना ज्यादा कर दिया था, ऐसा लगता था जैसे वो बच्चों को मारकर अपनी बीबी से बदला ले रहा हो. बच्चे इस्कूल से बाहर आकर मास्टर को गाली दिया करते थे की साले से अपने बीबी तो सम्हाली नहीं गयी और हमपे हाथ छोड़ता है. पर उसने मास्टर को कभी गाली नहीं दी, असल में उसे गाली देना बहुत बुरा लगता था. गाली सुनकर वो भड़क जाता था, गाली तो वो अपने बाप तक की नहीं सुनता था. हाँ मार ले कोई कितना भी, उसे फर्क नहीं पड़ता था. तो मास्टर उसे मरता था और वो पिटाई खाता था, बल्कि कभी कभी तो उसे मास्टर पर दया सी आती थी, की देखो बेचारे का क्या हाल हो गया है, इसलिए वो मास्टर को कभी गाली नहीं देता था. 

उसका बाप भी उसे मारता था, तो कोई बात नहीं, लेकिन जैसे ही गाली देता था, उसका पारा चढ़ जाता था, और वो सीधा सीधा कह देता था, "देख बापू, मार मार के चाहे हाड़ तोड़ दे, गाली नहीं सुनूंगा सम्झा……" पहले तो बाप कुछ नहीं समझा लेकिन जब एक दिन उसने अपने बाप को जमीन पर गिर दिया और उसके पूर्वजों की याद दिल दी तो वो पक्का ही समझ गया, फिर उसने उसे ना कभी गाली दी और ना कभी मारा. कभी गुस्सा आया भी तो खुद ही बहार चला गया. फिर एक दिन उसका बाप कोर्ट गया था, तो शाम को खबर आई कि किसी ने उसके बाप को चाक़ू मार के मार दिया है. पता चला की उसका बाप जो औना पौना करता था उसमे, वकीलों की दलाली, कागजात निकलवाना, गायब करवाना जैसे काम होते थे, तो किसी भाई का मुक़दमा उसके बाप की वजह से बिगड़ गया था तो उसने इस तरह अपना हिसाब सीधा कर लिया था. गाँव का ही आदमी था, पुलिस के लिए वहां खाने खिलाने का कोई इंतजाम नहीं था, तो उसे पहली ही दबिश में पकड़ लिया गया, और अब उस पर मुक़दमा चलने लगा.  

इधर करुआ के घर की हालत बिगड़ने लगी, छोटी सी जमीन से वैसे ही कुछ नहीं होता था, उसपर से वो तो खेती किसानी कुछ सीखा ही नहीं था. माँ ने कुछ दिन अपना गहना जेवर गिरवी रख कर घर चलाया फिर उसके बाहर जाकर काम करने की नौबत आ गयी। अगर उसकी माँ उसे कहती तो वो खुद भी घर से बाहर जाकर काम कर सकता था। लेकिन माँ ने उसे कुछ कहा ही नहीं, बस एक दिन वो सुबह सो कर उठा तो उसे पता चला की माँ तैयार होकर बहार जा रही है, उसने माँ से पुछा कहाँ जा रही है, तो माँ ने बताया कि कहीं घर बार का काम देखा है, चार पैसे आयेंगे तो घर तो चलेगा, तब भी अगर माँ ने उसे इशारा किया होता तो वो माँ को रोक कर खुद चला जाता, लेकिन माँ ने कुछ ऐसा कहा ही नहीं। बस उस दिन से माँ रोज़ सुबह जाती थी और दोपहर तक वापस लौटती थी। वो रात का बासी खाकर इस्कूल चला जाता था. शाम को माँ कभी कभी जाती थी कभी घर में ही रहती थी। 

धीरे धीरे उसके कानो में माँ के बारे में कुछ अजीब अजीब बातें पड़ने लगी, जैसे उसकी माँ बनिए से लगी हुई है, उसकी माँ कहाँ कहाँ मुह मार रही है, और भी ना जाने क्या क्या, इन बातों से भी उसे कोई फर्क नहीं पड़ता था. उसका मानना था की वो क्या करता है, उसकी माँ क्या करती है, वो ये जाने या उसकी माँ जाने, और किसी को इस बारे में कुछ भी कहने का कोई हक नहीं है, और कहता है तो पड़ा कहता रहे। उसकी सेहत पे क्या फर्क पड़ना है। वो खात था, पीता था, मस्त रहता था. बस एक ही चीज़ का फर्क आया था, की बाप था तो घर में हर दुसरे दिन मीट बनता था, कभी सूअर का तो कभी भैस का, कभी कभी तो बकरे तक का मीट  ले आता था उसका बाप. माँ उसकी सूअर का अचार बनाती थी, और क्या बनाती थी। अब बाप के मरने के बाद मीट बिलकुल ही बंद हो गया था. हाँ उसकी माँ सूअर का अचार अब भी बनाती थी, लेकिन खुद माँ ने मीट खान छोड़ दिया था.  उसने माँ से पुछा भी था, की आखिर उसने मीट बनाना क्यूँ छोड़ दिया, तो माँ ने कहा कि, "पूरा नहीं पड़ता", यानी मीत महंगा था. "लेकिन तुम तो अब सूअर का अचार भी नहीं खाती, ऐसा क्यूँ ?" "बस ऐसे ही। ....." माँ ने नज़रे चुराते ही जवाब दिया था. 

उसने माँ का नज़रें चुराना देखा था, लेकिन कुछ गौर नहीं किया था. करता भी क्यूँ, उसे दुनिया में एक ही इंसान से तो थोड़ी बहुत रगबत थी, माँ से, तो उससे क्या पूछे और क्यूँ। उस दिन जब वो इस्कूल गया तो मास्टर ने उसकी असली वाली क्लास लगा दी। क्लास में घुसते ही मास्टर ने कहा .....

"हाँ भई .....सब अपनी अपनी फीस निकाल के सामने रख लो…। "
सबने रख ली, उसने नहीं रखी। मास्टर सबकी फीस जमा करता हुआ उसके पास आया, 
"क्यूँ भई ......तेरी फीस कहाँ है. "
"लाया नहीं ...."
"ये ही तो पूछ रहा हूँ कि क्यूँ नहीं लाया फीस ....." मास्टर ने उसके बाल मुठ्ठी में पकड़ कर सर हिलाते हुए कहा।
" बस जी नहीं लाया ........" बाल खिचने से उसकी खोपड़ी में चीस लग रही थी, इसकी वजह से उसकी आँखों में आंसू आ गए, मास्टर को लगा उसे दर्द हो रहा है. तो मास्टर ने उसका कान पकड़ लिया .....
" अरे तो क्यूँ नहीं लाया भई ......."
" माँ के पास पैसे नहीं थे "
" भई तेरी माँ के पास तो आजकल पैसों की गठरी बंधी है……" मास्टर ने उसके गाल पर चूंटी काटते हुए कहा।
" नहीं है जी, होते तो वो दे ही देती ......"
" अरे भई .......तेरी माँ के पास न होंगे तो फिर किसके पास होंगे पैसे ......हैं ........वो तो आजकल गल्ले पर बैठी है गाँव के ......हैं भई ......"
मास्टर की ये बात सुनकर सारी क्लास के बच्चे हंस पड़े, उसकी समझ नहीं आया क्यूँ। मास्टर ने कोई मजाक किया था क्या? उसकी माँ के पास वाकई पैसा नहीं था। उसने जब माँ से फीस मांगी थी तो माँ ने कहा था की अभी पैसा नहीं है लेकिन जल्द ही दे दूंगी। बस वो चुप रह गया था।
"अब ऐसा है भई .......जब फीस लाये ना ......हैं ...तभी अइयो इस्कूल .......चल ........"

वो अपना बस्ता लेकर खड़ा हो गया, क्लास दे दरवाजे तक मास्टर उसके साथ आया और उसे बाहर निकाल कर वापस क्लास में चला गया। बस उसके बाद वो इस्कूल नहीं गया। ना ममा ने पुछा ना उसने कुछ बताया। रोज़ सुबह माँ काम पर चली जाती थी। और वो कभी खेतों में निकल जाता था, कभी सूखे जंगल में चला जाता था, कभी टीले वाले मंदिर के पीछे जा बैठता था तो कभी डूंगर तक चला जाता था. एक दिन जब वो अपने टाइम पर मंदिर के पीछे से घर की तरफ आ रहा था तो उसे अपने टोले को जाती सड़क पर भीड़ दिखाई दी, हालांकि वो ऐसी भीड़ में नहीं जाता था, तो भी न जाने क्यूँ  वहां चला गया। देखा तो एक तरफ बनिया खड़ा है और दूसरी तरफ उसकी माँ।  दोनों जैसे एक दुसरे पर चिल्ला रहे थे। बनिया हाथ में बही पकडे था और चिल्ला रहा था .
" मैंने थोड़ी भलमनसाहत दिखाई तो तू सर पर ही चढ़ कर बैठ गयी ......."
" अरे लाला कुछ तो हया दिखा…। "
" हाँ हाँ मै ही दिखाऊँ हया और तू मुझे आँख दिखाएगी ........देखो तो सही छिनाल को ......."
" मै छिनाल हूँ तो अपनी मजबूरी से हूँ लाला ........तू किसलिए छिनाल है ये बता ......."
" रांड ऐसे बात करेगी अब मुझसे .......यहीं चौक पे नंगी करके मुजरा करवा दूंगा ......."
अब उससे नहीं सहा गया, वो बोल पड़ा 
" ओये लाला, गाली मत दे ......"
" अबे साले, हराम के जने , दूंगा गाली , ये तेवर दिखने हैं तो पहले ये २५०० रुपए दे फिर बात करियो।"
" किस बात के  २५०० रुपए, मेरी माँ जो तेरे पास काम करती थी, उसकी पगार का क्या ......"
" काम करती थी , रंडी घाघरा उठती थी मेरी परछत्ती में ......और ना जाने किस किस की परछत्ती में ....."
" लाला गाली मत दे ......."
" अबे जा रंडी के पूत .......साले ........."
बाकी के लफ्ज़ लाल के गले में ही अटक कर रह गए थे, उसने पास से बड़ा वाला भाटा उठाकर सीधा लाल के सर पर दे मारा। एक क्षण के लिए तो पूरी भीड़ पर ख़ामोशी छा गयी, वो बड़े शांत भाव से अपनी माँ के पास गया और उसका हाथ पकड़ कर उसे घर ले चला। घर पहुँच कर माँ को होश आया तो उसने हाय तौबा मचाना शुरू कर दिया ......
" तू भाग जा बेटा .......भाग जा .......वर्ना पुलिस आएगी और तुझे पकड़ कर ले जाएगी "
उसकी समझ में तो नहीं आया की आहिर पुलिस उसे क्यूँ पकड़ेगी, गाली तो वो बनिया दे रहा था. तब माँ ने ही उसे जाने क्या क्या कह के वहां से भगा दिया था. और वो भाग कर दिल्ली आ गया था. लेकिन अब तो उसके पास पैसे थे, वो घर जायेगा लाल के पैसे उसके मुह पर मारेगा और माँ के हाथ का बना सूअर का अचार खायेगा। येही सब सोचते हुए उसने टिकेट खरीदा और जल्दी से पूरी भरी ट्रेन में चढ़ गया। बस अगले से अगले दिन वो अपने गाँव में अपने घर पे होगा ......उसे बैठने की चिंता नहीं थी, वो दो सीटों के बीच में नीचे बैठ गया। ट्रेन चल पड़ी।


जारी है .......

शनिवार, 23 मार्च 2013

आधा चाँद


पहला पन्ना 


महीने के दुसरे हफ्ते का तीसरा दिन था जब करुआ ने अपना बकाया माँगा था. उम्मीद थी की कुल मिलकर ५००० रूपये तक मिल जायेंगे तो घर जायेगा. घर के सूअर के अचार का स्वाद अभी से उसकी जुबान पर आ रहा था. यूँ तो सूअर का अचार बनता ही अच्चा था, पर माँ के हाथ में तो जैसे जादू था. उसने सब हिस्साब कर लिया था. जाते ही सबसे पहले तो बनिए का हिसाब करेग. कुछ २५०० का था, जिसके लिए बनिए ने उसकी माँ को गलियाँ दी थीं, अब बहुत ज्यादा हुआ तो ३००० हो गया होगा और क्या? साले के मुह पे मारूंगा और फिर गाली दूंगा, उसने सोचा, दिल्ली आये उसे ४ महीने होने को आये, आठवीं क्लास तक तो वो पढ़ा हुआ था, वो तो बाप मर गया वर्ना अभी और पढता, पर गलती तो उसकी भी थी, मास्टर ने कहा फीस नहीं तो इस्कूल नहीं, और वो नहीं गया, जाता तो कौन मास्टर उसे इस्कूल से निकाल ही देता। जो भी हो, उस पढाई का, चाहे आधी अधूरी हो, उसे फायदा तो हुआ ही था. यहाँ ढाबे में उसे बर्तन नहीं धोना पड़ता था, ठीक ठाक हिंदी में बात कर लेता था. गाहक खुस तो मालिक खुस, बाकी लोंडो की चिठ्ठियाँ पढ़ देता था, इसलिए वो भी साले खुस, एक बार तो उसके मन में ये भी आया था की छोड़ गाँव, सुसरे में रखा क्या है, पर उसे माँ बहुत प्यारी थी, बहुत याद आती थी उसकी। इसलिए उसने सोचा, की हिसाब करके घर चला जाये। उसने शाम को तोतले असोक से कह दिया था, की उसका हिसाब कर दे, वो घर जायेगा, असोक ने कह दिया ठीक है कल ले लियो। बस हो गया। अब तो बस दूकान बंद होगी, वो अपना सामान बंधेगा और छुट्टी। कल गाड़ी में बैठेगा, टिकेट खरीद के और परसों शाम तक घर।  

दूकान के ऊपर छत खाली थी, और वहीं वो सोता था, पीछे की तरफ एक पीपल का पेड़ था, उसकी ठंडी ठंडी हवा भी लगती रहती थी, गर्मियों में और क्या चाहिए, सुबह जल्दी उठाना गाँव की आदत थी इसलिए उसे कोई परेशानी नहीं होती थी। सुबह उठ कर पानी भर के, जुट के कटते के साथ छोले उबालना उसी का काम था, जुट के साथ छोले उबलने से उसमे रंग आ जाता है, बोरा गन्दा हो तो और भी अच्छा, जितना मैला बोरा उतना गाढ़ा रंग। इसलिए वो छोले नहीं खाता था। ना, कभी नहीं, वो दाल खाता था, जब ताज़ी हो, क्यूंकि गर्मियों में तीन दिन पुराणी बदबू मारती दाल को बी असोक एक मुठ्ठी हल्दी मर के गाहकों को परोस देता था। अगर कुछ भी ताज़ा न हो, या ठीक न हो तो वो अचार के साथ रोटी खा लेता था। जब वो आया था, तो ये सब नहीं जानता था, वक़्त ने सिख दिया, असोक ने उसे २००० महीने पे रखा था, खाना रहना साथ।

जब आया था, तो उसे पता ही नहीं था की कहाँ जाये क्या करे, यूँ ही भटकता हुआ, यहाँ आ पहुंचा था, उसे ऐसे ही खड़ा हुआ देख कर असोक ने ही पुछा,
 "त्यूं बे भोसड़ी ते, यहाँ त्या तर रहा है" 
गाली उससे सहन नहीं होती, उसने भी पलट कर जवाब दिया, 
 "तेरे बाप की सड़क है क्या बे" 
असोक चुप हो गया था, बड़ी देर तक उसे घूरता रहा फिर बोला 
" अबे भोसड़ी ते, घर ते भाग्तर आया है ना, ताम तरना है तो बोल "
 "हाँ करूँगा ना" 
काम तो उसे चाहिए ही था। 
"तो ल'जा ताम पे, और त्या "
 "पगार क्या देगा" 
असोक हंस दिया, "अबे अपनी सूरत देख भोसड़ी ते, थाना मिल जाये, बहुत समझ" 
"लाला, खाने के लिए तो भीक मांग के चला लूँगा समझा, काम करना है, तो पगार बोल।" 
"अच्छा आ तो जा, बता त्या लेगा।" 
"पहले काम बोल" 
"अबे ताम तो सारे ही तरने पड़ेंगे"
"तो करूँगा ना, तू बोल"
"१५०० रूपये" 
"१५०० रूपये, क्यूँ मजाक कर रहा है लाला, देख २००० लूँगा और सारा काम करूँगा, देना हो तो बोल"
"तू पढ़ लिख लेता है"
" आठवीं पास हूँ "
"अच्छा तो फिर ठीत है, २००० रूपये में पत्ता, रहेगा तहाँ ?"
"यहीं सामने फुटपाथ पर सो जाऊंगा"
"ना ना, तू छत पर सो जयियो"
"ठीक है"
और  तब से वो असोक के यहाँ काम कर रहा था, हर इतवार मंडी से सब्जी लाना, सदर से आटा और मसाले लाना, सुबह उठ कर पानी भरना, रात को ढाबे की सफाई करना उसकी जिम्मेवारी थी, जिसे वो बिना किसी परेशानी के कर लेता था। बस चार महीने हो गए, अब कल वो चला जायेगा, अपने घर। यही सोचते सोचते वो सो गया।

सुबह उठ कर वो नहाया, नए कपडे पहने, और तय्यार होकर असोक का इंतज़ार करने लगा, असोक ७ बजे तक दूकान पर पहुँच जाता था। असोक के आने के समय तक वो सार काम तयार रखता था। आज उसे असोक दूर से ही आता दिखाई दे गया। वो गल्ले वाली टेबल पर बैठा था, उछल के खड़ा हो गया। असोक दूकान के अन्दर आया, इधर उधर देखा, और फिर उसके एक झापड़ खींच के मारा। 
"अबे साले नए तप्ड़े पहन कर दूल्हा बना बैठा है, भोसड़ी ते, ताम त्या तेरा बाप तरेगा"
उसका सर घूम गया, असोक ने इससे पहले उसे कभी मार नहीं था, गालियाँ देना उसका पसंदीदा काम था, भोसड़ी वाले उसका तकिया कलाम था, लेकिन मार. 
"मैंने कल कहा तो था की मुझे आज जाना है"
"अबे तो जाना है तो त्या मेरा नास तरते जायेगा"
"क्या नास कर दिया मैंने-------"
"जुबान लड़ाता है, भोसड़ी ते…. ये ताम तौन तरेगा"
"मै नहीं करूँगा, मेरा हिसाब कर दे, में जाऊ" उसे समझ नहीं आ रहा था कि आखिर हुआ क्या है, पहले तो कभी ऐसा नही हुआ था। बल्कि शुरू शुरू में तो जब उसे पता नहीं था कि सुबह उठ कर ये सार काम उसकी जिम्मेदारी है, तो असोक आकर सार काम करवाता था। तो आज ही कौन सी आफत आ गयी।
"हिसाब तरुंगा तब, जब ताम थतम हो जायेगा।"
"लाला मुझे मेरा हिसाब अभी चाहिए------अभी का अभी"
"साले दो हज़ार रुपल्ली ते लिए मरे मन्ना-------साम तो दूंगा, समझा, अब ताम तर"
" दो हजार-------लाला पूरे पांच हजार बनते हैं गिन के देख ले…. "
" हाँ हाँ तेरा बाप साले उधार देकर गया है ना मुझतो, भाग जा भोसड़ी ते------वर्ना ये भी नहीं मिलेंगे" 
"लेकिन तेरी मेरी बात तो दो हजार रूपये की हुई थी।"
"वही दे रहा हूँ भोसड़ी के-----" 
उसे समझ में आ गया, उसे सब समझ में आ गया। लेकिन लाला को ये समझ नहीं आया था की वो गाँव से भाग क्यूँ था। उसने पैसे उठाये और सहेज कर जेब में रख लिए, फिर वो अन्दर के तरफ गया और  छोले चलाने वाला कड़छुल उठा कर लाया और उसे लाल के सर पर दे मारा, असोक वहीँ ढेर हो गया, उसने बड़े शांत भाव से उसकी जेब से सारे नोट निकाले और उन्हें भी अपनी जेब में रख लिया। फिर उसी शांत भाव से सड़क पार करके दूसरी तरफ चला गया, वहां से उसे इस्टेशन की बस मिलनी थी। गाँव जाकर वो बनिए का पैसा उसके मुह पर मारेगा और अपनी माँ के हाथ का बना सूअर का अचार खायेगा। 





जारी है 

शुक्रवार, 22 मार्च 2013

अपराध और सजा







संजय दत्त को सजा क्या मिली चरों तरफ जैसे उन्हे माफ़ी दिलवाने वालों की भीड़ लग गयि. काश ऐसा होता हर उस बेगुनाह के साथ जिसे न जाने क्यूँ सालों जेल में सड़ना पड़ता है, या उनके साथ जिन्हें न जाने किस राष्ट्र के सामूहिक अन्तकरण की संतुष्टि के लिए फांसी चढ़ा दिया जाता है. जब बिनायक सेन जेल में थे, तब मार्कंडेय काटजू शायद सो रहे थे की उन्हे वो सारी कानूनी धाराएँ याद नहीं आ रही थीं जिनके सहारे बिनायक सेन को जेल से बहार निकाला जा सके, न ही किसी नेता को, न अभिनेता, अभिनेत्री को, दुःख हो रहा था, न मीडिया उनकी सजा के प्रति इतना संवेदनशील था की बार बार ये अपील करे की उन्हे छोड़ दिया जाये, की उनका गुनाह, (अगर इसे गुनाह कहा जा सकता है तो) सिर्फ इतना है की उनके घर में पुलिस को तथाकथित चिठ्ठी मिली थी, जो किसी नक्सल ने किसी और नक्सल को लिखी थी। सोनी सोरी जो आज भी जेल में है, जिसका गुनाह किसी को शायद पता ही नहीं है, और अभी खबर आई है कि यू पी में मजदूरों को बैल तक देने से इनकार कर दिया गया है, जबकि उनके खिलाफ किसी के पास कोई सबूत नहीं है, सिवाए इसके की वोह मजदूरों के नेता हैं।

अजीब सामूहिक अन्तकरण है जो अपनी कार से फुटपाथ पर सोते मजदूरों को कुचल देने वाले नंदा के लिए, घर में ए के ५७ रखने वाले संजय दत्त के लिए, या रेप, हत्या, या लूटमार करने वालों के लिए सहानुभूति दिखाता है, लेकिन मजदूरों के, आदिवासियों के, आम जनता के लिए, काम करने वाले उनके लिए लड़ने वाले लोगों के खिलाफ चुप रहता है. टी वी स्क्रीन पर दिखने वाला हर लिपा पुता चेहरा संजय दत्त को सजा मिलने पर दुखी लग रहा है, ऐसा लगता है जैसे इतने मासूम इंसान को सजा देने वाला कोर्ट गलती पर है, उसे अपनी भूल सुधारनी चाहिए, उसे न सिर्फ संजय दत्त को माफ़ कर देना चाहिए बल्कि उससे माफ़ी मंगनी चाहिए, और भारतीय समाज के लिए संजय दत्त का कुल योगदान आखिर क्या है, मुना भाई एम् बी बी एस, सन ऑफ़ सरदार जैसी फिल्मे, या उनके पिता का कांग्रेसी नेता होना, जिन बिचारों को अपने सपूत के कर्मो के चलते वबाल ठाकरे जैसे लोगों के हाथ तक जोड़ने पड़े। 

कम से कम बीस बार सुना कि, संजय दत्त आतंकवादी नहीं है, जेल तो गया ही था, बहुत भुगता है बेचारे ने, उसे अब तो छोड़ दिया जाये, क्यूँ नहीं, वैसे भी जेलों में जगह नहीं बची, ५०% जेलें तो बेगुनाहों से भरी पड़ी हैं, पुलिस पर वैसे भी, अन्य वी आई पी कैदियों की मिजाजपुर्सी करने का बोझ है, फिर उनकी जान को एक और आदमी क्यूँ बढ़ाया जाये। और मासूम कौन नहीं है, संजय दत्त, या बिना किसी अपराध के जेल में ११ साल बिताने वाला आमिर, पूरी दुनिया के नोबेल विजेताओं की सहानुभूति पाने वाला बिनायक सेन, बिना एक भी सबूत के फांसी पाने वाला अफज़ल गुरु, पिछले एक दशक से भी ज्यादा भूक हड़ताल पर डटी हुई इरोम शर्मीला, बिना किसी कारण जेल में बंद सोनी सोरी, श्याम किशोर, या ऐसे ही हजारों लोग, जिनके घर बन्दूक नहीं मिली, जिन्होंने कभी चरस या हशीश नहीं ली, जो बंगलों में नहीं रहते, कारों में नहीं घुमते, लेकिन उन्हें जेल में दाल देने के लिए सिर्फ किसी पुलिस वाले का बयान ही काफी है। 

ए के ५७ कोई ऐसी वैसी बन्दूक नहीं होती जिसे आप सब्जी मंदी से भाव ताव करके खरीद लें, हम जैसे लोगों को तो खैर ये भी नहीं पता होता की ए के ४७ के अलावा भी कोई बन्दूक होती है. लेकिन आज ये तो साबित हो गया की, इस बन्दूक के मुकाबले मार्क्सवादी किताबें ज्यादा खतरनाक हथियार होता है, जिसके घर में मिलने पर आपको २० साल तक जेल, बिना किसी सुनवाई के या, फांसी तक हो सकती है. तो आज टी वी से हमने क्या सीखा :

१ घर में ए के ५७ भले हो, कोई किताब ना हो, वर्ना आप आतंकवादी हो।
२ हर मजदूर आतंकवादी होता है, चाहे उसके खिलाफ कोई सबूत हो या नही।
३ अगर आप अभिनेता हैं, (चाहे कितनी भी ख़राब एक्टिंग करें) तो मर्केंडेय काटजू सी एम् से आपकी सिफारिश करेंगे।
४ राष्ट्र का सामूहिक अन्तकरण ऐसा ऊँट है, जो मालिक के इशारे पर किसी भी करवट बैठ सकता है, संभल कर रहे।
५ अगर आप भारतीय नागरिक हैं, तो आप अपराधी हैं, अपराध बाद में तय कर लिया जायेगा, अभी तो इंतज़ार कीजिये की पुलिस कब आपको पकडती है. 
आखिरी पंक्ति उस समय के लिए जब ये होगा की संजय दत्त को छोड़ दिया जायेगा या उसकी सजा कम कर दी जाएगी।

६ अपराध और सजा सबूतों से नहीं, इस बात से तय होती है की आप हीरो, पूंजीपति, नेता, उनके रिश्तेदार, या सत्ताधारी पार्टी के सहयोगी आदि हैं या नहीं।


--
Kapil

इस बार बजट में ये आया है






भूखे पेटों पर टैक्स लगा है 
जनता को फिर से भरमाया है 
इस बार बजट में ये आया है


अमरीका की कंपनियों को 
हद सस्ता मजदूर मिलेगा 
शाम ढले हर कामगार को 
३२ रुपया दाम मिलेगा 
मजदूरों के हित की खातिर 
घास का दाम घटाया है 
इस बार बजट में ये आया है

मंतरियों को उड़न खटोला 
बिचौलियों को मिली दलाली 
जन का बोझा कम करने को 
पी डी एस की झोली खाली 
पैदल की सडकें छोटी हैं 
रेल का दाम बढाया है 
इस बार बजट में ये आया है

चिंतित हो मोबाइल खरीदो 
टॉक टाइम सस्ता है भैया 
खेत गाँव सरकार को दे दो 
छोड़ किसानी खेंचो रिक्शा 
पढना लिखना है बेमानी 
सरकार ने सबको समझाया है 
इस बार बजट में ये आया है


अगले साल है आम चुनाव 
देखें नाव लगे किस ठांव 
अभी बहुत कुछ करना है 
सरकार ज़रा जल्दी में है 
खुदरा में एफ डी आई आया 
"विकास" का परचम फहराया है 
इस बार बजट में ये आया है

जीने की एय्याशी छोड़ो 
क़तर ब्योंत की आदत डालो 
धीरे - धीरे मरना सीखो 
हमसे ना आशाएं पालो 
धनवानों के हिस्से पैसा 
संकट गरीब पर छाया है 
इस बार बजट में ये आया है

गुरुवार, 21 मार्च 2013


यही सवेरा ढूंढ रहा था...


बचपन से अपने यौवन तक 
साल साल, लम्हा दर लम्हा 
सूनी आँखों से तकता मै  
यही सवेरा ढूंढ रहा था।

होंठों पर श्रृंगार समेटे 
सतरंगी उजियार बिखेरे 
नयी उम्मीदें नए ख्वाब सा 
यही सवेरा ढूंढ रहा था।

महामानव-डोलांड और पुतिन का तेल

 तो भाई दुनिया में बहुत कुछ हो रहा है, लेकिन इन जलकुकड़े, प्रगतिशीलों को महामानव के सिवा और कुछ नहीं दिखाई देता। मुझे तो लगता है कि इसी प्रे...