दूसरा पन्ना
करुआ की जेब में कुल मिलाकर कुछ ८५०० रूपये थे, जैसे ही उसने सड़क पार के उसे बस मिल गयी और वो बिना पीछे देखे बस में चढ़ गया. पीछे देख कर करना भी क्या था. उसे असोक से कोई मतलब नहीं था. अगर असोक इमानदारी से उसका हिसाब कर देता तो उसे असोक के साथ वो न करना पड़ता जो उसने किया. उसे अपने किये का कोई पछतावा नहीं था. उसने असोक की दूकान पर काम इसलिए किया था क्यूंकि उसे गाँव जाकर बनिए का हिसाब चुकता करना था. वर्ना वो कौन ढाबे में काम करना चाहता था.
गाँव में उसका बाप थोड़ी बहुत ज़मीन का मालिक था. उसके अलावा गाँव से ९ मील दूर जो कोर्ट था, वहां भी वो कोई औना पौना करता था जिसके चलते उसे ठीक ठाक पैसे मिल जाते थे. घर का खर्च ठीक ठाक चल जाता था और वो इस्कूल भी जाता था. हालांकि उसे इस्कूल कुछ ख़ास पसंद नहीं था, लेकिन ऐसा कुछ बुरा भी नहीं था. मास्टर उसे भी उतना ही मारता था, जितना सबको मारता था। पूरे गाँव को पता था की जबसे मास्टर की बीबी भोला पहलवान के साथ भागी थी मास्टर ने मारना पीटना ज्यादा कर दिया था, ऐसा लगता था जैसे वो बच्चों को मारकर अपनी बीबी से बदला ले रहा हो. बच्चे इस्कूल से बाहर आकर मास्टर को गाली दिया करते थे की साले से अपने बीबी तो सम्हाली नहीं गयी और हमपे हाथ छोड़ता है. पर उसने मास्टर को कभी गाली नहीं दी, असल में उसे गाली देना बहुत बुरा लगता था. गाली सुनकर वो भड़क जाता था, गाली तो वो अपने बाप तक की नहीं सुनता था. हाँ मार ले कोई कितना भी, उसे फर्क नहीं पड़ता था. तो मास्टर उसे मरता था और वो पिटाई खाता था, बल्कि कभी कभी तो उसे मास्टर पर दया सी आती थी, की देखो बेचारे का क्या हाल हो गया है, इसलिए वो मास्टर को कभी गाली नहीं देता था.
उसका बाप भी उसे मारता था, तो कोई बात नहीं, लेकिन जैसे ही गाली देता था, उसका पारा चढ़ जाता था, और वो सीधा सीधा कह देता था, "देख बापू, मार मार के चाहे हाड़ तोड़ दे, गाली नहीं सुनूंगा सम्झा……" पहले तो बाप कुछ नहीं समझा लेकिन जब एक दिन उसने अपने बाप को जमीन पर गिर दिया और उसके पूर्वजों की याद दिल दी तो वो पक्का ही समझ गया, फिर उसने उसे ना कभी गाली दी और ना कभी मारा. कभी गुस्सा आया भी तो खुद ही बहार चला गया. फिर एक दिन उसका बाप कोर्ट गया था, तो शाम को खबर आई कि किसी ने उसके बाप को चाक़ू मार के मार दिया है. पता चला की उसका बाप जो औना पौना करता था उसमे, वकीलों की दलाली, कागजात निकलवाना, गायब करवाना जैसे काम होते थे, तो किसी भाई का मुक़दमा उसके बाप की वजह से बिगड़ गया था तो उसने इस तरह अपना हिसाब सीधा कर लिया था. गाँव का ही आदमी था, पुलिस के लिए वहां खाने खिलाने का कोई इंतजाम नहीं था, तो उसे पहली ही दबिश में पकड़ लिया गया, और अब उस पर मुक़दमा चलने लगा.
इधर करुआ के घर की हालत बिगड़ने लगी, छोटी सी जमीन से वैसे ही कुछ नहीं होता था, उसपर से वो तो खेती किसानी कुछ सीखा ही नहीं था. माँ ने कुछ दिन अपना गहना जेवर गिरवी रख कर घर चलाया फिर उसके बाहर जाकर काम करने की नौबत आ गयी। अगर उसकी माँ उसे कहती तो वो खुद भी घर से बाहर जाकर काम कर सकता था। लेकिन माँ ने उसे कुछ कहा ही नहीं, बस एक दिन वो सुबह सो कर उठा तो उसे पता चला की माँ तैयार होकर बहार जा रही है, उसने माँ से पुछा कहाँ जा रही है, तो माँ ने बताया कि कहीं घर बार का काम देखा है, चार पैसे आयेंगे तो घर तो चलेगा, तब भी अगर माँ ने उसे इशारा किया होता तो वो माँ को रोक कर खुद चला जाता, लेकिन माँ ने कुछ ऐसा कहा ही नहीं। बस उस दिन से माँ रोज़ सुबह जाती थी और दोपहर तक वापस लौटती थी। वो रात का बासी खाकर इस्कूल चला जाता था. शाम को माँ कभी कभी जाती थी कभी घर में ही रहती थी।
धीरे धीरे उसके कानो में माँ के बारे में कुछ अजीब अजीब बातें पड़ने लगी, जैसे उसकी माँ बनिए से लगी हुई है, उसकी माँ कहाँ कहाँ मुह मार रही है, और भी ना जाने क्या क्या, इन बातों से भी उसे कोई फर्क नहीं पड़ता था. उसका मानना था की वो क्या करता है, उसकी माँ क्या करती है, वो ये जाने या उसकी माँ जाने, और किसी को इस बारे में कुछ भी कहने का कोई हक नहीं है, और कहता है तो पड़ा कहता रहे। उसकी सेहत पे क्या फर्क पड़ना है। वो खात था, पीता था, मस्त रहता था. बस एक ही चीज़ का फर्क आया था, की बाप था तो घर में हर दुसरे दिन मीट बनता था, कभी सूअर का तो कभी भैस का, कभी कभी तो बकरे तक का मीट ले आता था उसका बाप. माँ उसकी सूअर का अचार बनाती थी, और क्या बनाती थी। अब बाप के मरने के बाद मीट बिलकुल ही बंद हो गया था. हाँ उसकी माँ सूअर का अचार अब भी बनाती थी, लेकिन खुद माँ ने मीट खान छोड़ दिया था. उसने माँ से पुछा भी था, की आखिर उसने मीट बनाना क्यूँ छोड़ दिया, तो माँ ने कहा कि, "पूरा नहीं पड़ता", यानी मीत महंगा था. "लेकिन तुम तो अब सूअर का अचार भी नहीं खाती, ऐसा क्यूँ ?" "बस ऐसे ही। ....." माँ ने नज़रे चुराते ही जवाब दिया था.
उसने माँ का नज़रें चुराना देखा था, लेकिन कुछ गौर नहीं किया था. करता भी क्यूँ, उसे दुनिया में एक ही इंसान से तो थोड़ी बहुत रगबत थी, माँ से, तो उससे क्या पूछे और क्यूँ। उस दिन जब वो इस्कूल गया तो मास्टर ने उसकी असली वाली क्लास लगा दी। क्लास में घुसते ही मास्टर ने कहा .....
"हाँ भई .....सब अपनी अपनी फीस निकाल के सामने रख लो…। "
सबने रख ली, उसने नहीं रखी। मास्टर सबकी फीस जमा करता हुआ उसके पास आया,
"क्यूँ भई ......तेरी फीस कहाँ है. "
"लाया नहीं ...."
"ये ही तो पूछ रहा हूँ कि क्यूँ नहीं लाया फीस ....." मास्टर ने उसके बाल मुठ्ठी में पकड़ कर सर हिलाते हुए कहा।
" बस जी नहीं लाया ........" बाल खिचने से उसकी खोपड़ी में चीस लग रही थी, इसकी वजह से उसकी आँखों में आंसू आ गए, मास्टर को लगा उसे दर्द हो रहा है. तो मास्टर ने उसका कान पकड़ लिया .....
" अरे तो क्यूँ नहीं लाया भई ......."
" माँ के पास पैसे नहीं थे "
" भई तेरी माँ के पास तो आजकल पैसों की गठरी बंधी है……" मास्टर ने उसके गाल पर चूंटी काटते हुए कहा।
" नहीं है जी, होते तो वो दे ही देती ......"
" अरे भई .......तेरी माँ के पास न होंगे तो फिर किसके पास होंगे पैसे ......हैं ........वो तो आजकल गल्ले पर बैठी है गाँव के ......हैं भई ......"
मास्टर की ये बात सुनकर सारी क्लास के बच्चे हंस पड़े, उसकी समझ नहीं आया क्यूँ। मास्टर ने कोई मजाक किया था क्या? उसकी माँ के पास वाकई पैसा नहीं था। उसने जब माँ से फीस मांगी थी तो माँ ने कहा था की अभी पैसा नहीं है लेकिन जल्द ही दे दूंगी। बस वो चुप रह गया था।
"अब ऐसा है भई .......जब फीस लाये ना ......हैं ...तभी अइयो इस्कूल .......चल ........"
वो अपना बस्ता लेकर खड़ा हो गया, क्लास दे दरवाजे तक मास्टर उसके साथ आया और उसे बाहर निकाल कर वापस क्लास में चला गया। बस उसके बाद वो इस्कूल नहीं गया। ना ममा ने पुछा ना उसने कुछ बताया। रोज़ सुबह माँ काम पर चली जाती थी। और वो कभी खेतों में निकल जाता था, कभी सूखे जंगल में चला जाता था, कभी टीले वाले मंदिर के पीछे जा बैठता था तो कभी डूंगर तक चला जाता था. एक दिन जब वो अपने टाइम पर मंदिर के पीछे से घर की तरफ आ रहा था तो उसे अपने टोले को जाती सड़क पर भीड़ दिखाई दी, हालांकि वो ऐसी भीड़ में नहीं जाता था, तो भी न जाने क्यूँ वहां चला गया। देखा तो एक तरफ बनिया खड़ा है और दूसरी तरफ उसकी माँ। दोनों जैसे एक दुसरे पर चिल्ला रहे थे। बनिया हाथ में बही पकडे था और चिल्ला रहा था .
" मैंने थोड़ी भलमनसाहत दिखाई तो तू सर पर ही चढ़ कर बैठ गयी ......."
" अरे लाला कुछ तो हया दिखा…। "
" हाँ हाँ मै ही दिखाऊँ हया और तू मुझे आँख दिखाएगी ........देखो तो सही छिनाल को ......."
" मै छिनाल हूँ तो अपनी मजबूरी से हूँ लाला ........तू किसलिए छिनाल है ये बता ......."
" रांड ऐसे बात करेगी अब मुझसे .......यहीं चौक पे नंगी करके मुजरा करवा दूंगा ......."
अब उससे नहीं सहा गया, वो बोल पड़ा
" ओये लाला, गाली मत दे ......"
" अबे साले, हराम के जने , दूंगा गाली , ये तेवर दिखने हैं तो पहले ये २५०० रुपए दे फिर बात करियो।"
" किस बात के २५०० रुपए, मेरी माँ जो तेरे पास काम करती थी, उसकी पगार का क्या ......"
" काम करती थी , रंडी घाघरा उठती थी मेरी परछत्ती में ......और ना जाने किस किस की परछत्ती में ....."
" लाला गाली मत दे ......."
" अबे जा रंडी के पूत .......साले ........."
बाकी के लफ्ज़ लाल के गले में ही अटक कर रह गए थे, उसने पास से बड़ा वाला भाटा उठाकर सीधा लाल के सर पर दे मारा। एक क्षण के लिए तो पूरी भीड़ पर ख़ामोशी छा गयी, वो बड़े शांत भाव से अपनी माँ के पास गया और उसका हाथ पकड़ कर उसे घर ले चला। घर पहुँच कर माँ को होश आया तो उसने हाय तौबा मचाना शुरू कर दिया ......
" तू भाग जा बेटा .......भाग जा .......वर्ना पुलिस आएगी और तुझे पकड़ कर ले जाएगी "
उसकी समझ में तो नहीं आया की आहिर पुलिस उसे क्यूँ पकड़ेगी, गाली तो वो बनिया दे रहा था. तब माँ ने ही उसे जाने क्या क्या कह के वहां से भगा दिया था. और वो भाग कर दिल्ली आ गया था. लेकिन अब तो उसके पास पैसे थे, वो घर जायेगा लाल के पैसे उसके मुह पर मारेगा और माँ के हाथ का बना सूअर का अचार खायेगा। येही सब सोचते हुए उसने टिकेट खरीदा और जल्दी से पूरी भरी ट्रेन में चढ़ गया। बस अगले से अगले दिन वो अपने गाँव में अपने घर पे होगा ......उसे बैठने की चिंता नहीं थी, वो दो सीटों के बीच में नीचे बैठ गया। ट्रेन चल पड़ी।
जारी है .......

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