गुरुवार, 21 मार्च 2013


यही सवेरा ढूंढ रहा था...


बचपन से अपने यौवन तक 
साल साल, लम्हा दर लम्हा 
सूनी आँखों से तकता मै  
यही सवेरा ढूंढ रहा था।

होंठों पर श्रृंगार समेटे 
सतरंगी उजियार बिखेरे 
नयी उम्मीदें नए ख्वाब सा 
यही सवेरा ढूंढ रहा था।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

महामानव-डोलांड और पुतिन का तेल

 तो भाई दुनिया में बहुत कुछ हो रहा है, लेकिन इन जलकुकड़े, प्रगतिशीलों को महामानव के सिवा और कुछ नहीं दिखाई देता। मुझे तो लगता है कि इसी प्रे...