गुरुवार, 11 जुलाई 2013

कचरा





चित्र गूगल साभार
भाग - 2


पता नहीं किसने पुलिस को फोन किया था, लेकिन पुलिस वहां आ पहुंची थी। पुलिस के दो जवान, ”हालांकि किसी भी एंगल से वो जवान नहीं थे” अपनी पुलिसिया निगाहों से कचरे का अवलोकन करते हुए लोगों की बातें सुन रहे थे। हर आदमी का अपना बयान जुदा था, हर इंसान की बात अपनी जगह सही थी। हर कोई कचरे की इस लड़ाई का दोषी अपने हिसाब से किसी ना किसी को ठहरा रहा था। पुलिसवाले दो थे, आमतौर पर ऐसे मामलों में जो पुलिसवाले मौकाएवारदात, संक्षिप्त में मौके पर पहुंचते हैं, उनमें से एक अपना हाथ उठाकर, मुहं खोलकर, थोड़ा धमकाकर, थोड़ा मनुहार से बातचीत करते हुए मामले की तह तक जाने की कोशिश करता है और दूसरा, उस तह के किनारे पर खड़ा हुआ नोट्स बनाता है। हालांकि वे दोनो ही इसके सिवाय कुछ नहीं करते थे, कि थाने की पुलिस के आने तक मामले को जस का तस रखा जाए। 

लेकिन ये मामला कुछ अलग सा था, कचरा सामने पड़ा था, बदबू मार रहा था, उसकी वजह से गली रुकी हुई थी, हालांकि गली के रुकने की दूसरी वजह उस कचरे पर झगड़ा करते लोग भी थे जिन्होेने कचरे से बची हुई गली को पूरी तरह घेर लिया था, और पुलिसवाले ये समझने की कोशिश कर रहे थे कि आखिर मामला सुलझाया कैसे जा सकता है।

गोविन्द जी की पत्नि का कहना था कि श्रीलाल अपना कचरा उनके घर के सामने से उठाए वरना वो किसी भी तरह की थाना-चौकी करने के लिए तैयार हैं, उनकी बात जायज़ थी। इधर श्रीलाल, पहले तो इसी बात से इन्कार कर रहे थे कि कचरा उनका है, और फिर अगर उनका है भी तो अब वो नये आदमी के कचरे के नीचे से अपना कचरा आखिर निकालें कैसे? इनकी बात भी जायज़ थी। तीसरे यानी नये आदमी, जो कि कराएदार था, उसका कहना था कि आखिर वो इस कचरे में से अपना कचरा अलग कैसे करे? बात तो उसकी भी जायज़ ही थी। और पुलिस वालों को समझ नहीं आ रहा था कि आखिर इन जायज़ बातों में से किसी बात को नाजायज़ माना जाए और फैसला किया जाए। पुलिस वालों की ट्रेनिंग ”मौके” पर पता चली बातों में से नाजायज़ बात को ट्रेस करके समस्या का समाधान करने की होती है, या फिर जिससे रिश्वत मिल जाने के चान्स हों, उसकी बात को जायज़ बनाने की होती है। लेकिन एक तो यहां सारी ही बातें जायज़ थीं, दूसरे तीन मुख्य लड़ाकों में कोई भी रिश्वत देने को तैयार ”बकरा” नहीं दिख रहा था। पुलिस वालों को यहां अपना टाइम खराब होता दिखाई दे रहा था। आखिर पुलिसवाले ये साबित करके जाने को तैयार हुए कि इस मामले में कुछ नहीं रखा, लेकिन मुहल्ले वाले उन्हे जाने देने को तैयार नहीं थे। कुछ अपने कर्तव्यबोध के चलते और ज्यादा इसलिए क्योंकि उन्हें खींचा जा रहा था, पुलिस वालों ने लालाजी की बैठक में फौरी चौकी जमा ली, आस-पास लोगों का जमावड़ा था, एक सोफे पर पुलिसवाले बैठे थे, सामने लालाजी बैठे थे। घर लालजी का था इसलिए उनका बैठना लाजमी था, बाकी पुलिसवाले तो, खैर पुलिसवाले थे इसलिए वो बैठे थे, बाकी लोग खड़े थे, इसलिए भी कि एक तो वो सब तमाशबीन थे और दूसरे इसलिए भी कि, लाला जी की घुच्ची सी बैठक में कुर्सियां लगाने की ज्यादा जगह थी भी नहीं। 

खैर तो सारे लोग बाग जब जम गए तो, इजलास शुरु हुई। मामले को फिर से सुना गया, हर जाविए से उसे देखा गया, लालाजी के विचार और शिकायत को भी ध्यान से सुना गया। जिसकी एवज़ में उन्होने पुलिसवालों को ठंडा शरबत भी पिलाया। थोड़ी देर की चखचैं में जो अंतिम नतीजा निकल रहा था, वो पुलिसवालों की आंखों में दिखाई दे रहा था। नये किराएदार की बात को बाकायदा नाजायज़ ठहराने की तरफ सारी बातचीत का रुख मुड़ता लग रहा था। फिर उसके खिलाफ आरोपों को गिनाया जाने लगा, जिसमें लाला जी का हाथ झटकना और रमनभाई और मेहता जी के साथ हाथापाई की बात भी शामिल थी। मामला आगे बढ़ा तो उसे चुप करके दूसरे की बात को तरजीह दी जाने लगी थी, कुल मिलाकर तय था कि पैसा अकेले लालाजी, या लालाजी और बाकी लोग देंगे, और कूड़ा उठाने का जिम्मेदार नये आदमी यानी किराएदार को माना जाएगा और उसे कूड़ा उठाना या उठवाना पड़ेगा। 

आखिरकार वही हुआ जिसका अंदाजा था, पुलिसवालों ने फैसला सा सुनाते हुए उस नये आदमी को आदेश दिया कि वही कूड़ा उठाएगा या उठवाएगा, वरना वो उनके साथ थाने चले। मुहल्ले के सभी लोग हर्षनाद सा करते हुए लालाजी की बैठक में से निकल आए। पीछे लालाजी ने कुछ मोलभाव सा करते हुए और श्रीलाल जी और गोबिन्दजी से कुछ मशवरा करके पुलिसवालों को 1000 रु. भेंट किए और अपनी विजय का मजा लेने बाहर आ गए। 

लेकिन बाहर तो नज़ारा ही कुछ अलग सा था। कचरे की रेहड़ी वाले रेहड़ी खड़ी करके कचरा उठा रहे थे, और लोग उन्हे खामोश देख रहे थे। लालाजी की बैठक से निकल कर पुलिसवाले गली के बाहर की तरफ चले गए जहां उन्होने अपनी पीली पल्सर खड़ी कर रखी थी, नये किराएदार ने अपनी साइकिल ली, और अपने घर की तरफ निकल गया, धीरे-धीरे भीड़ अपने-अपने घर पहुंच गई, सभी को अपने घर का कचरा निकलवाना था, लाला जी खड़े हुए सड़क पर से कचरा उठाते कचरे वाले को देखते रह गए।

3 टिप्‍पणियां:

  1. सुंदर कहानी। पहले भाग जैसी ही पकड़। अंतिम पैराग्राफ तक बांधे रखा। लेकिन लगा कि अंत मज़ेदार होना चाहिए था। यहां के कहानी में नए आयाम जुड़ सकते थे और लंबी जा सकती।


    दूसरा पैरा सबसे जानदार है जिससे सारगर्भित अर्थ यह निकलता है कि आदमी ही कचरा उत्पादक के रूप में मुख्य रूप से कचरा है जो गली के अतिक्रमण के लिए भी जिम्मेदार है।

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  2. एक सलाह ये कि इस पोस्ट का शीर्षक कचरा - 2 रखा जा सकता है और इसे अभी भी एडिट किया जा सकता है। वरना एक ही नाम से दो पोस्ट अजीब लगता है। पहली पोस्ट के अंत में ज़ारी लिखा जा सकता है। दूसरी के शुरूआत में पिछले पोस्ट से ज़ारी लिखा जा सकता है। दूसरे पोस्ट के लिए दूसरे तस्वीर का चयन भी किया जा सकता है।

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    1. बात कुछ यूं है मेरे दोस्त कि, कचरे दो नहीं होते, वो या तो होते हैं या नहीं होते। कहानी कचरे की है, जो उठाया नहीं गया, और फिर उठाया गया, अगर नहीं उठाया गया तो क्या हुआ, और अगर उठाया गया तो क्या हुआ। सवाल ये है कि कचरा नहीं उठा तो ये कहानी बनी, और खत्म हुई क्योंकि कचरा उठा लिया गया। तुम्हारी इस बात से मैं कतई सहमत हूं कि पिछली पोस्ट में ”जारी” ना लिखने की गलती मुझसे हुई है, वो मैं अभी सुधार देता हूं, लेकिन ”कचरा-2” लिखने के पक्ष में मैं नहीं हूं। हां, फोटो अलबत्ता दूसरी डाली जा सकती है, आलस की वजह से ही नहीं डाली। बाकी कमेंट का, और उत्साहवर्धक कमेंट का शुक्रिया। तुम्हारे ही जैसे दोस्तों की वजह से कहानियां लिख पा रहा हूं।

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