शनिवार, 6 जुलाई 2013

इशरत कहां?



चित्र गूगल साभार 

मुझे पता है कि उसका असली नाम इशरतजहां था, और ये भी पता है कि वो गायब नहीं है बल्कि उसकी हत्या हो चुकी है. मानिए या ना मानिए, ये सभी को पता है कि उसकी हत्या किसने की, किसके आदेश पर की, क्यों की। इसलिए ये सब सवाल बेमानी हो जाते हैं, हमें तो तब भी पता था कि उसकी हत्या हुई है जब सारे अखबार और टी वी चैनल चीख-चीख कर हमें बता रहे थे कि उसकी हत्या नहीं हुई है, कि वो एक आतंकवादी थी, कि वो ”पुलिस” के साथ मुठभेड़ में मारी गई है। जिस देश में हर रोज़ एनकाउंटर होता हो, ”खबर चाहे ना हो” उस देश में किसी भी एनकाउंटर को सच मानना कहां की समझदारी है। पुलिस वाला किसी को थप्पड़ मार दे, तो आपको एतराज नहीं होता, आश्चर्य नहीं होता, आप सवाल नहीं करते कि आखिर ये अधिकार उसे किसने दिया कि वो किसी को थप्पड़ मार सकता है, धमकी दे सकता है, गाली दे सकता है। क्योंकि जब आप पुलिस के थप्पड़ पर आवाज़ नहीं उठाते तब आप असल में उसे बता रहे होते हैं कि आपको उसके किसी को गोली मार देने पर एतराज नहीं है। क्योंकि गोली हो या थप्पड़, मामला अधिकार का होता है, अगर किसी पुलिस वाले को, किसी नागरिक को थप्पड़ मारने का अधिकार ना हो, तो क्या वो गोली मारने की हिम्मत करेगा? 

कुछ लोगों का मानना है कि ये तो ”गंदी” राजनीति है, जैसे अगर ”अच्छी” राजनीति होती तो इशरतजहां, सादिक, या ऐसे कई लाखों नामालूम लोगों की जिंदगी बचाई जा सकती थी। उन दोस्तों के लिए दिल तोड़ने वाली खबर ये है कि राजनीति गंदी या अच्छी नहीं होती, सत्ता को चलाने का एक तरीका है, जिसमें शामिल लोग उसे किस तरह, किस के लिए इस्तेमाल करते हैं, यही मुख्य बात होती है। किस मूर्ख ने कहा कि हम लोकतंत्र में हैं, महल जैसी इमारतों में रहने वाले शासक, रास्तों के नाम ”राजपथ”, ईश्वर प्रदत्त अधिकारों से लैस महारथी, जिनसे आप सवाल तक नहीं पूछ सकते, अपना सामान्य काम करने पर पुजने वाली सेना, जो सोचती नहीं है, करती है, और गरीब-गुरबा आम आदमी, जो इंसान की तरफ जीने के लिए भी, गधे की तरह मेहनत करता है। और हम कहें कि ये लोकतंत्र है।

सत्ता के लिए किसी को बदनाम करना, उसे आतंकवादी, राज्य के लिए खतरा बताना, ऐसे ही मार देना, हमेशा से होता आया है, आज भी हो रहा है। आपको गलतफहमी ये हुई है कि आपको लगा कि इस तरह की घटनाएं किसी समय कम हुईं, या नहीं हुईं, असल में आपकी सबसे बड़ी भूल ये है कि, आपने सोचा कि सत्ता आपके हाथों में आ गई है, माफ कीजिएगा ऐसा कभी कुछ नहीं हुआ, और अगर आपने ऐसा सोचा तो ये आपकी भूल है।
इशरत हो, बिलकीस बानो हो, मनोरमा देवी हो, या सोनी सोरी, यहां रोज़ एनकाउंटर होता है, एनकाउंटर स्पेशलिस्ट बनते हैं, और हम, बेचारों की तरह, मुहं बाए देखते रहते हैं, तब तक, जब तक खुद हमारे ही एनकाउंटर होने की बारी नहीं आ जाती। मुझे याद है कि दिल्ली के एक मॉल में एक एनकांउटर हुआ, एक डॉक्टर ने उस एनकाउंटर को अंजाम होते हुए देखा, उस डॉक्टर ने मीडिया को बताया कि पुलिस वाले कुछ लड़कों को लेकर आए, उन्हे कार से निकाला और गोली मार दी। क्या हुआ? पुलिस ने, प्रशासन ने, मीडिया ने, उन डॉक्टर साहब की ही जिंदगी के बखिए उधेड़ दिए, जब इशरत की बात आई तो क्या हुआ? जब ये साबित हुआ कि वो आतंकवादी नहीं थी, तो ये साबित करने की कोशिश की जाने लगी कि वो चरित्रहीन थी, तीन ”मर्दों” के साथ घूम रही थी। सवाल ये है कि अगर वो आतंकवादी थी, या वो आतंकवादी थे, तो भी एनकाउंटर क्यों हुआ, सवाल उस गोलीबारी के पीछे के मकसद का है, सवाल उस गोलीबारी के पीछे की राजनीति का है। 
ये भी इसी देश की विडंबना है कि आरोपित को खुद ये साबित करना होता है कि वो अपराधी नहीं है, मरे हुए को भी खुद ही साबित करना पड़ता है कि उसे बाकायदा साजिश में मारा गया था। यूं सत्ता किसी को इस लायक नहीं छोड़ती कि वो अपनी बेगुनाही साबित कर सके, लेकिन मान लीजिए कि किसी ने ऐसा कर दिखाया तो, तो फिर शुरु होती है एक और साजिश, एक और साजिश और फिर एक और साजिश। 

इशरत जहां मामले में आई बी के राजिन्दर कुमार लगभग फंस चुके हैं, सी बी आई ने रिपोर्ट दाखिल कर दी है, या करने वाली होगी, और इसके बाद खुलेगा भानुमति का पिटारा, अब मुझे जो शक है वो ये कि इस मामले को दबाने के लिए कहीं इन साहब पर कोई हमला होगा। इस साजिश में शामिल लोग उस हैसियत वाले हैं कि उन्हे परेशान करने वाले लोग जिंदा नहीं रहते। इशरत मारी गई, सादिक मारा गया, कौसर बी और उनके पति की हत्या कर दी गई, अब इनका नंबर है। और मान लीजिए कि इनका ऐसा हश्र नहीं भी होता, तो ये बात यकीनी है कि इनका कैरियर खत्म है। अगर इनके फंसने पर, इन रसूख वाले लोगों में से किसी पर भी आंच भी आई तो ये गए। 
मुझे एक वाकया याद आता है, मेरी एक दोस्त कश्मीर गई थी, अपने कुछ दोस्तों के साथ शाम के समय घूमने निकली और एक ढ़ाबे में बैठकर चाय पीने लगी, हंस-हंस कर बातें करने लगी, चार पुलिसवालों ने आकर उसके दोस्तों को पकड़ लिया, उसे जर्बदस्ती थाने ले गए, और इतनी फजीहत की, कि उसे ना जाने किस-किस से फोन करवाने पड़े कि वो छूटी। अगर वो गोरी चमड़ी वाली कोई महिला होती, तो शायद पुलिस कुछ ना कहती, लेकिन एक हिंदुस्तानी दिखने वाली लड़की यूं हंस-हंस के बातें कर रही थी, ये पुलिसवालों को नागवार गुज़रा, और उसका खुद का कहना है कि बहुत संभव था कि उन्हे मार कर, आतंकवादी कह दिया जाता, वो तो शुक्र है कि ऐसी नौबत आने से पहले ही फोन करवा दिया गया। एक एनकाउंटर होने से बच गया। 

एक बड़ी बात जो आमतौर पर सामने आ रही है, वो है ”फर्जी” एनकाउंटर की। अब मेरा यकीन है कि आप ज़रा ध्यान से ये बात सोचेंगे,  जो सच में मुठभेड़ होती है पुलिस की, तो यकीन मानिए बहुत घमासान होता है, उसे पुलिसवाले एनकाउंटर नहीं कहते, उसे वो अपने उपर हमला कहते हैं, बाकी जितने भी एनकाउंटर होते हैं, वो ऐसी जगह होते हैं, जहां सिर्फ पुलिस वाले और मरने वाले होते हैं, ऐसे समय होते हैं जब आस-पास और कोई नहीं होता, यकीन मानिए ऐसे एनकाउंटर कभी पिकेट पर नहीं होते, कभी किसी जांच के दौरान नहीं होते, कभी राह चलती सड़क पर नहीं होते, हमेशा पुलिस की सुविधा के हिसाब से ही होते हैं। 
जाने अभी और कितनी इशरत होंगी, जाने अभी और कितने सादिक होंगे, ना जाने इन रसूख वाले लोगों का अगला शिकार कौन होगा, कहां होगा, ये जो इशरत ही हत्या हुई है, इसके कातिलों का तो राज़ फ़ाश हुआ है, हो रहा है, होगा। लेकिन जाने अगली इशरत कौन होगी, कहां होगी?



1 टिप्पणी:


  1. देश में राजनीति कुछ ही लोगों के द्वारा सारे लोगों पर होती है। पहले शोषण के लिए राजनीति होती है फिर मारने के लिए। उसके बाद राजनीतिक दल मजमा लगाकर नोचने की राजनीति करते हैं। फिर उस हो रही राजनीति पर राजनीति करने का आरोप लगता है। क्या लोकतंत्र बहुत सारे वस्त्र पहने हुई वह स्त्री है जो अपने बदन से एक एक कपड़े हटाती हुई हमें सेड्यूस करती है?
    सच कहूं तो यह मुझे भी नहीं लगता कि हम लोकतंत्र में हैं। और मुझे विश्वास है कि ऐसा कई लोगों को लगता होगा।
    रोजी रोटी की फिक्र में ही घुला जाता है आम आदमी। जानता हूं कि इसी का फायदा उठाकर की जाती है राजनीति।
    लोकतंत्र के ये जो परिणाम हैं वो जनता के लिए ओढ़ी हुई जवाबदेही है।

    फिक्रे दुनिया में सर खपाता हूं
    मैं कहां और ये बवाल कहां - ग़ालिब

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