गुरुवार, 27 फ़रवरी 2014

पोल्स की पोल

पोल्स की पोल




माफ कीजिएगा मेरी अंगरेजी कुछ कमजोर है, इसलिए अगर मैं पोल की जगह जनमत शब्द का इस्तेमाल करूं तो नाराज़ मत होइएगा। पोल शब्द में वैसे भी वो मजा नहीं है जो जनमत में है, जनमत शब्द बोलते ही पता चल जाता है कि हम जनता के मत की, उसकी इच्छा की बात कर रहे हैं। पोल से थोड़ा चिंता होती है, हम पोल यानी खम्बे की बात कर रहे हैं, या पोल यानी मत की बात कर रहे हैं। आपको शायद ना होती हो, क्योंकि अंगरेजी भी बाकी भाषाओं की तरह काफी कुछ उच्चारण पर टिकी होती है, कुछ लोग एडुकेशन बोलते हैं तो कुछ लोग एजुकेशन बोलते हैं। खैर यहां मैं भाषा के बारे में बहस करने नहीं आया, मैं सिर्फ ये कहना चाहता था कि बात पोल की है, लेकिन पोल की जगह अगर मैं जनमत शब्द का इस्तेमाल करूं तो आप बुरा ना मानिएगा।
अब मैं ये कहना चाहता हूं कि जाने क्यूं जनमत सर्वेक्षण पर इतना हल्ला मचा हुआ है, सुना किसी ने स्टिंग कर दिया, यानी पोल खोल दी, इन जनमत सर्वेक्षण वालों की, इससे पहले भी हल्ला हुआ था, जब आ आ पा का जनमत सर्वेक्षण पूरी दिल्ली में छपवा दिया गया था कि दिल्ली की 46 प्रतिशत जनता, अरविंद केजरीवाल को मुख्यमंत्री बनते हुए देखना चाहती है, खैर उतने वोट तो नहीं मिले उन्हे लेकिन वो फिर भी मुख्यमंत्री तो बनी ही गए, चाहे 49 दिनों के लिए क्यों ना बने हों। मेरी मुसीबत ये है कि मेरा आज तक हुए किसी भी तरह के जनमत सर्वेक्षण में कोई योगदान नहीं है। मैं यूं सोचता था कि हो सकता है कि कुछ लोगों को खास करके बुलाया जाता रहा हो, फिर उन्हे कहीं किसी बड़े होटल में ठहराया जाता रहा हो, और फिर खिला-पिला कर, उनका मनोरंजन करके, उनका मत लिया जाता रहा हो। ऐसा मैं इसलिए सोचता था कि मै जानता हूं कि टीवी के शोज़ में, चाहे वो कॉमेडी नाइट विद कपिल हो, या सत्यमेव जयते, या न्यूज़ चैनलों के चर्चा वाले शो, भीड़ को बाकायदा बुलाया जाता है, अरेंज किया जाता है और फिर यूं दिखाया जाता है जैसे वो सब बहुत समझदारी से अपने सवाल पूछ रहे हैं, हंस रहे हैं, मनोरंजन कर रहे हैं, या नाच रहे हैं। यूं ये सब होती है एक्टिंग लेकिन दर्शक को लगता है सच में हो रहा है। तो इस सबसे मैं वाकिफ हूं और मेरे से आज तक किसी जनमत सर्वेक्षण के लिए मत लेने कोई नहीं आया तो मुझे लगा पक्का ऐसा ही होता होगा, वरना इस देश में रोज़ इनते सर्वेक्षण होते हैं, कोई ना कोई, कभी ना कभी, कहीं ना कहीं तो, इत्तेफाकन या गैर इत्तेफाकन मुझसे टकराया होता, मेरी राय उसने ली होती।
पर ऐसा कभी ना हुआ। इसका मुझे कभी मलाल हुआ हो, ऐसा भी नहीं है। मुझे कभी इन रायशुमारियों, जनमत सर्वेक्षणों पर भरोसा नहीं रहा, चाहे वो आ आ पा ने करवाया हो, भा ज पा ने करवाया हो, या कांग्रेस ने करवाया हो। वजह साफ है, अगर कोई व्यक्ति या पार्टी, किसी पार्टी या व्यक्ति को पैसा देकर कहती है कि भैया मेरे, एक जनमत सर्वेक्षण करवा दो, तो वो व्यक्ति या पार्टी पागल है क्या, कि पैसा देने वाले के खिलाफ नतीजा निकाल कर दिखाएगा। तो मान लीजिए कि कांग्रेस, भाजपा या आआपा, जनमत सर्वेक्षण करवाते हैं तो यकीन मानिए तीनों का नतीजा एक जैसा ही निकलेगा। एक जैसा से मेरा मतलब हर पार्टी का जनमत सर्वेक्षण ये कहेगा कि वो ही जीत रही है, और इसमें किसी का कोई दोष भी नहीं है। पैसा मैं दूंगा तो नतीजा भी तो मेरे मनमुताबिक ही निकालेगा मेरे लिए काम करने वाला। आप क्या चाहते हैं कि पैसा तो दे, राहुल, मोदी या अरविंद केजरीवाल और नतीजा निकले जनता के मुताबिक, अरे मेरे भोले बलम, तुम भूख से मरो तो वो कह देते हैं कि तुमने जानबूझ कर खाना नहीं खाया, तुम दंगों में मर जाओ तो वो तुम्हारी लाशों पर राजनीति करते हैं, तुम्हारा बलात्कार करके इकठ्ठा जमीन में गाड़ देते हैं, और इतना सब सहने के बावजूद तुम हो कि लगातार यही सोचते रहते हो कि वो जनमत सर्वेक्षण करवाकर तुम्हारे हिसाब से नतीजे निकालेंगे। अगर नतीजे तुम्हारे ही हिसाब से निकलने हैं तो पैसा वो क्यों दें? तुम दो। 
मेरे भाई इस पूंजीवादी लोकतंत्र में ईमानदारी का नगाड़ा पीटा जाता है ताकि बस आवाज़ पैदा हो, नाच तो किसी और ही धुन पर किया जाता है, ये वही धुन है जो मनमोहन, मोदी और केजरीवाल सबमें एक जैसी पाई जाती है। अगर आपको झूठे जनमत सर्वेक्षण पर ऐतराज है तो पूछो अरविंद केजरीवाल से कि, भाई, सर्वेक्षण जो तुमने करवाया उसमें 45 प्रतिशत जनता तुम्हे मुख्यमंत्री बनाना चाहती थी तो फिर तुम्हे वोट इतने कम क्यों मिले, इसका मतलब सर्वेक्षण झूठा था, अब अगर कांग्रेस या भाजपा ऐसा ही सर्वेक्षण करवा दे जिसमें जनता को मोदी या राहुल पसंद हों तो वो सच्चा क्यों होगा। जनता जिसे मर्जी चाहे, सर्वेक्षण करने वाले तो उसी को जनता की पसंद बताएंगे जिसने पैसा दिया है। कर लो जो करना है। ना सर्वेक्षण करवाने वालों की कोई नैतिक जिम्मेदारी है, ना सर्वेक्षण करने वालों की, जनता के प्रति इनकी नैतिक जिम्मेदारी तब शुरु होती है जब ये चुन लिए जाते हैं, इसलिए विश्वास कुमार कह रहे हैं कि भाई मैने जो पहले कहा उसे भूल जाइए, क्योंकि पहले मैं किसी राजनीतिक पार्टी का नेता नहीं था, अब हूं इसलिए अब संभल कर बोलूंगा। तो नैतिकता का बोझा वो उठाए सिर पर जो चुना जाए, जो ना चुना जाए उस पर नैतिकता आदि बेकार चीजों की जिम्मेदारी ना डाली जाए, कृपा करके। और उपर से सर्वेक्षण करने वाली निजी कम्पनियां, भाई लोगों ये सर्वेक्षण करती किसके लिए हैं, किसके हित में सर्वेक्षण करती हैं ये। ये कम्पनियां उसके प्रति नैतिक रूप से जवाबदेह और जिम्मेदार होती हैं जो इन्हे पैसा देता है। मान लीजिए कि साबुन बनाने वाली किसी कम्पनी ने इन्हे पैसा दिया, कि एक सर्वेक्षण कर दो तो, छोटा सा, कि जनता हमारा साबुन ज्यादा पसंद करती है, तो ये ऐसा सर्वेक्षण कर देंगे कि जनता अमुक-अमुक साबुन ज्यादा पसंद करती है, बिल्कुल इसी तरह अगर कोई इनसे कहेगा कि जरा एक सर्वेक्षण कर दो कि जनता को ”मैं” या ”हम” ज्यादा पसंद हैं तो ऐसा सर्वेक्षण कर देंगे। जनता ना इन्हे पैसा देती है, ना सर्वेक्षण करवाती है। 
इसके अलावा जनमत सर्वेक्षण या मत सर्वेक्षण करवाती हैं, एन जी ओ, हिन्दी में गैर सरकारी संस्थाएं, ये वो संस्थाएं होती हैं, जो अपने दानदाताओं से चंदा हासिल करने के लिए किसी भी तरह की रिपोर्ट बना सकती हैं, बनाती हैं, किसी भी तरह का काम कर सकती हैं, करती हैं। तो चंदा हासिल करने के लिए ये इस तरह के सर्वेक्षण करवाती हैं कि नतीजा ऐसा निकले जिससे इन्हे ज्यादा से ज्यादा चंदा हासिल हो सके। बच्चों के लिए काम करने वाली हजारों राष्ट्रीय अंर्तराष्ट्रीय संस्थाओं के कई सालों तक भारत में काम करने का नतीजा क्या निकला, खुद इनके सर्वेक्षण बताते हैं कि बाल मजदूरी, कुपोषण, शोषण खतरनाक दर से बढ़ रहा है, तो इसका सीधा सा मतलब क्या हुआ किया तो ये सर्वेक्षण गलत है या ये संस्थाएं काम ही नहीं कर रही। 
मुझे याद है बचपन में चुनाव के नतीजे मैं बड़ी उत्सुकता से देखा करता था, और आश्चर्य करता था कि राजनीति के बड़े-बड़े पंडितों को आखिर कैसे पता चल जाता है कि कौन कहां कितने मतों से जीत रहा है, और आखिर जब चुनाव का नतीजा आता था तो उन्हीं के मुहं से ये विश्लेषण सुनता था कि जो उन्होने भविष्यवाणी की थी वो आखिर गलत कैसे साबित हो गई। इन पर लेकिन किसी ने आरोप ना लगाया कि साहब आप गलत कर रहे हैं, झूठ बोल रहे हैं, और जनता की नब्ज आपके हाथ में नहीं है।
इस देश में जो सबसे बड़ा जनमत सर्वेक्षण होता है, वो होता है चुनाव। अब मुझे ये बताइए कि आपमें से कितने लोग ये मानते हैं कि इस देश में चुनावों में धांधली नहीं होती, अगर धांधली नहीं होती, तो इस देश के 70 प्रतिशत से ज्यादा नेता इस लायक नहीं हैं कि वो पंचायत चुनाव जीत सकें, और वो राज्य सभा या लोक सभा की शोभा बढ़ा रहे हैं। तो जब चुनाव तक रिग्ड होता है, तो भाई लोगों जनमत सर्वेक्षण किस खेत की मूली है।
मुझे मलाल सिर्फ इस बात का है कि ये लोग सही लोगों की सही वकत नहीं पहचानते......जनमत सर्वेक्षण एजेंसियों को ऐसे नतीजे निकालने के इतने पैसे देने की आखिर जरूरत ही क्या है। किसी गरीब पढ़े-लिखे को पकड़ लो उसे कुछ पैसा दे दो, आप जो भी कहोगे वो वही नतीजा आपको बिना किसी जनमत सर्वेक्षण के पाखंड के दे देगा। और इसका एक बड़ा फायदा ये होगा कि और किसी को वोट मिले ना मिले, वो आपको वोट जरूर दे देगा। 

बुधवार, 26 फ़रवरी 2014

चाय, चर्चा और मोदी

चाय, चर्चा और मोदी


जनता बावली है! ऐसा मैं नहीं सोचता, वो लोग सोचते हैं जो चाय के बहाने जनता को बरगलाने की कोशिश कर रहे हैं। चाय के साथ चर्चा की चर्चा तो यूं हो रही है जैसे ये लोग चर्चा में यकीन रखते हों, पर यकीन मानिए, चाय पिलाने के बहाने ये लोग चर्चा को खत्म कर देने के मूड में हैं। बताइए तो, कोई ऐसा गिरोह जो प्रेस कॉन्फ्रेसों में जाकर खुली चर्चा में हुड़दंग मचाता हो, जो किसी भी तरह की कलात्मक अभिव्यक्ति के खिलाफ हो, जो हर उस शख्स के खिलाफ फतवे देने में यकीन रखता हो, जो इनके अपने विश्वास के खिलाफ बोले, वो लोग चाय पर चर्चा करने की बात कर रहे हैं। और इससे भी बड़ी हास्यास्पद बात ये है कि आखिर इनके पास चर्चा करने के लिए है ही क्या, जो ये चाय पर चर्चा कर रहे हैं। 
अब चाय तो समझ में आती है, इसका कारण बताया जाता है कि इनके प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार, किसी जमाने में चाय बेचा करते थे, लेकिन चर्चा का कोई मतलब समझ नहीं आता, क्योंकि किसी भी जमाने में इनके प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार या किसी भी पद के उम्मीदवार ने किसी भी चीज़ पर चर्चा कभी नहीं की.....हालत ये है कि ये जिनके नाम की चाय पर चर्चा हो रही है, वो मतिभ्रम के शिकारी मालूम पड़ते हैं, कभी भूगोल को उलट-पलट देते हैं और की इतिहास की शामत बुलाते हैं। ज़रा सोचिए तो क्या बात होती होंगी चाय पर......
एक: हां भई.....
दूसरा: हां भई.....
एक: और कहो.....
दूसरा: हा हा हा हा हा ......
एक: हा हा हा हा....
दूसरा: और कहो.....
एक: चाय पियो....
दूसरा: हा हा हा हा......
भई इसके अलावा हमें तो कुछ समझ में आता नहीं कि ये लोग चाय पर क्या बातें करते होंगे, क्योंकि ये हमारा व्यक्तिगत अनुभव है कि इनके पास कहने-सुनने के लिए कुछ खास होता ही नहीं है। फिर अब तक हमने जितनी रैलियां देखी-सुनी हैं, जिनके बारे में खबरों में पढ़ा है उनमें भी ऐसा कुछ नहीं है कि जैसे किसी बात पर चर्चा की जा सके, या कोई ऐसा मुद्दा इन्होने उठाया हो जिस पर लगता है कि देश के लोग कुछ बात कर सकें। ले देकर वही घिसी-पिटी बातें हैं जो लोग-बाग तब करते हैं जब वो या तो अफीम के नशे में होते हैं या सत्ता के नशे में होते हैं। 
पर चाय की बात कुछ खास होती है, तो पहले चाय के बारे में ही कुछ ”विचित्र किंतु सत्य” टाइप तथ्य जान लें तो बेहतर होगा। भारत कुछ साल पहले तक दुनिया का सबसे बड़ा चाय उत्पादक देश था, अब नहीं है। खुद भारत के लोगों को चाय इतनी महंगी पड़ती है कि आजकल चाय का एक कप 7 से 10 रु. तक का पड़ता है। भारत में चाय वो बिकती है जो विदेश भेजने से बच जाती है, जो अमीर लोग नहीं पीते वो मध्यवर्ग पीता है, जो मध्यवर्ग हीन समझता है उसे गरीब आदमी पी लेता है। उस चाय को पीने से देश नहीं जागता, जैसा कि चाय के विज्ञापन में दिखाया जाता है। गरीब जो नहीं सोता है वो इस चिंता में, कि कल क्या होगा.....। चाय के प्लांट में मजदूरों को 17वीं-18वीं सदी के गुलामों जैसा व्यवहार मिलता है, वो जीते हैं तो प्लांट के मैनेजर की मर्जी से और मर जाते हैं तो कोई पूछता तक नहीं है, और अगर उनके हक में कोई आवाज़ उठाता है तो उसे सरेआम दिनदहाड़े मार दिया जाता है, असम में गंगाराम कौल जी इसके हालिया उदाहरण हैं। 
लेकिन हमें मोदी का आभार मानना चाहिए....कि उन्होने चाय पर चर्चा को अभियान बनाया, क्योंकि उन्होने अपनी जवानी में बहुत से ऐसे काम किए हैं कि अगर वो उन पर चर्चा करने का अभियान चला देते तो सचुमच आफत आ जाती.....जैसे वो बचपन में घर छोड़ कर भाग गए थे, फिर उन्होने अपनी बीवी को छोड़ दिया, अब सोचिए घर छोड़कर भागते हुए चर्चा या बीवी को छोड़कर भागते हुए चर्चा करने का अभियान चलता तो क्या हालत होती। ये ठीक भी है कि मोदी चाय वाले दिनों तक ही सीमित रहें, क्योंकि अगर दंगों या महिलाओं का पीछा करवाने, या नकली एनकाउंटर वाले दौर की बातों को अभियानों में तब्दील करने पर आ गए तो देश का क्या होगा। जरा कल्पना कीजिए सारे देश की महिलाओं के पीछे जासूस लगे हैं और साहब को हर महिला की पल-पल की खबर दी जा रही है। इसलिए चाय पर चर्चा ठीक है, और इसके लिए हमें मोदी का आभार मानना चाहिए। 
हमें चाय पर चर्चा की तारीफ करनी चाहिए और कोशिश करनी चाहिए कि भाजपा के हर नेता को चाय पर चर्चा में शरीक किया जा सके। ये बात मैं स्वार्थवश कह रहा हूं, बात कुछ यूं है कि मुझे लगता है और ये मेरा व्यक्तिगत मत है कि बन्दरों और बेशर्म गुण्डों को अगर कहीं उलझा दिया जाए तो वो हुड़दंग कम करते हैं। मैं व्यक्तिगत तौर पर उम्मीद करता हूं कि मोदी समर्थक चाय पर चर्चा के दौरान चाय पीते रहेंगे तो देश में कुछ वक्त के लिए अमन शांति रहेगी और बाकी शरीफ लोग बिना चाय भी कुछ ठीक-ठाक किस्म की चर्चा कर पाएंगे, क्योंकि हुड़दंग मचाने वाले तो कहीं और चाय पर चर्चा कर रहे होंगे, हालांकि वो चर्चा करेंगे इसमें संदेह है, पर उससे फर्क भी क्या पड़ता है।
बस मोदी से मेरी एक दरख्वास्त है। साधारण सी, चिन्नी-मिन्नी सी मेरी दरख्वास्त ये है कि मोदी व्यक्तिगत तौर पर पक्का करें कि चाय पर चर्चा के दौरान उनके समर्थक चाय ही पिएं, कपों में कुछ ”और ” ना ढाल लें। अभी हाल में दिल्ली पुस्तक मेले के दौरान एक स्वस्थ चर्चा के दौरान जो हुआ, उससे मुझे संदेह है कि ये लोग चाय की जगह कुछ ”और” पी पिला रहे हैं। बाकी तो आपकी चाय है आपकी चर्चा है, जो मर्जी कीजिए हमें क्या।

महामानव-डोलांड और पुतिन का तेल

 तो भाई दुनिया में बहुत कुछ हो रहा है, लेकिन इन जलकुकड़े, प्रगतिशीलों को महामानव के सिवा और कुछ नहीं दिखाई देता। मुझे तो लगता है कि इसी प्रे...