पोल्स की पोल
माफ कीजिएगा मेरी अंगरेजी कुछ कमजोर है, इसलिए अगर मैं पोल की जगह जनमत शब्द का इस्तेमाल करूं तो नाराज़ मत होइएगा। पोल शब्द में वैसे भी वो मजा नहीं है जो जनमत में है, जनमत शब्द बोलते ही पता चल जाता है कि हम जनता के मत की, उसकी इच्छा की बात कर रहे हैं। पोल से थोड़ा चिंता होती है, हम पोल यानी खम्बे की बात कर रहे हैं, या पोल यानी मत की बात कर रहे हैं। आपको शायद ना होती हो, क्योंकि अंगरेजी भी बाकी भाषाओं की तरह काफी कुछ उच्चारण पर टिकी होती है, कुछ लोग एडुकेशन बोलते हैं तो कुछ लोग एजुकेशन बोलते हैं। खैर यहां मैं भाषा के बारे में बहस करने नहीं आया, मैं सिर्फ ये कहना चाहता था कि बात पोल की है, लेकिन पोल की जगह अगर मैं जनमत शब्द का इस्तेमाल करूं तो आप बुरा ना मानिएगा।
अब मैं ये कहना चाहता हूं कि जाने क्यूं जनमत सर्वेक्षण पर इतना हल्ला मचा हुआ है, सुना किसी ने स्टिंग कर दिया, यानी पोल खोल दी, इन जनमत सर्वेक्षण वालों की, इससे पहले भी हल्ला हुआ था, जब आ आ पा का जनमत सर्वेक्षण पूरी दिल्ली में छपवा दिया गया था कि दिल्ली की 46 प्रतिशत जनता, अरविंद केजरीवाल को मुख्यमंत्री बनते हुए देखना चाहती है, खैर उतने वोट तो नहीं मिले उन्हे लेकिन वो फिर भी मुख्यमंत्री तो बनी ही गए, चाहे 49 दिनों के लिए क्यों ना बने हों। मेरी मुसीबत ये है कि मेरा आज तक हुए किसी भी तरह के जनमत सर्वेक्षण में कोई योगदान नहीं है। मैं यूं सोचता था कि हो सकता है कि कुछ लोगों को खास करके बुलाया जाता रहा हो, फिर उन्हे कहीं किसी बड़े होटल में ठहराया जाता रहा हो, और फिर खिला-पिला कर, उनका मनोरंजन करके, उनका मत लिया जाता रहा हो। ऐसा मैं इसलिए सोचता था कि मै जानता हूं कि टीवी के शोज़ में, चाहे वो कॉमेडी नाइट विद कपिल हो, या सत्यमेव जयते, या न्यूज़ चैनलों के चर्चा वाले शो, भीड़ को बाकायदा बुलाया जाता है, अरेंज किया जाता है और फिर यूं दिखाया जाता है जैसे वो सब बहुत समझदारी से अपने सवाल पूछ रहे हैं, हंस रहे हैं, मनोरंजन कर रहे हैं, या नाच रहे हैं। यूं ये सब होती है एक्टिंग लेकिन दर्शक को लगता है सच में हो रहा है। तो इस सबसे मैं वाकिफ हूं और मेरे से आज तक किसी जनमत सर्वेक्षण के लिए मत लेने कोई नहीं आया तो मुझे लगा पक्का ऐसा ही होता होगा, वरना इस देश में रोज़ इनते सर्वेक्षण होते हैं, कोई ना कोई, कभी ना कभी, कहीं ना कहीं तो, इत्तेफाकन या गैर इत्तेफाकन मुझसे टकराया होता, मेरी राय उसने ली होती।
पर ऐसा कभी ना हुआ। इसका मुझे कभी मलाल हुआ हो, ऐसा भी नहीं है। मुझे कभी इन रायशुमारियों, जनमत सर्वेक्षणों पर भरोसा नहीं रहा, चाहे वो आ आ पा ने करवाया हो, भा ज पा ने करवाया हो, या कांग्रेस ने करवाया हो। वजह साफ है, अगर कोई व्यक्ति या पार्टी, किसी पार्टी या व्यक्ति को पैसा देकर कहती है कि भैया मेरे, एक जनमत सर्वेक्षण करवा दो, तो वो व्यक्ति या पार्टी पागल है क्या, कि पैसा देने वाले के खिलाफ नतीजा निकाल कर दिखाएगा। तो मान लीजिए कि कांग्रेस, भाजपा या आआपा, जनमत सर्वेक्षण करवाते हैं तो यकीन मानिए तीनों का नतीजा एक जैसा ही निकलेगा। एक जैसा से मेरा मतलब हर पार्टी का जनमत सर्वेक्षण ये कहेगा कि वो ही जीत रही है, और इसमें किसी का कोई दोष भी नहीं है। पैसा मैं दूंगा तो नतीजा भी तो मेरे मनमुताबिक ही निकालेगा मेरे लिए काम करने वाला। आप क्या चाहते हैं कि पैसा तो दे, राहुल, मोदी या अरविंद केजरीवाल और नतीजा निकले जनता के मुताबिक, अरे मेरे भोले बलम, तुम भूख से मरो तो वो कह देते हैं कि तुमने जानबूझ कर खाना नहीं खाया, तुम दंगों में मर जाओ तो वो तुम्हारी लाशों पर राजनीति करते हैं, तुम्हारा बलात्कार करके इकठ्ठा जमीन में गाड़ देते हैं, और इतना सब सहने के बावजूद तुम हो कि लगातार यही सोचते रहते हो कि वो जनमत सर्वेक्षण करवाकर तुम्हारे हिसाब से नतीजे निकालेंगे। अगर नतीजे तुम्हारे ही हिसाब से निकलने हैं तो पैसा वो क्यों दें? तुम दो।
मेरे भाई इस पूंजीवादी लोकतंत्र में ईमानदारी का नगाड़ा पीटा जाता है ताकि बस आवाज़ पैदा हो, नाच तो किसी और ही धुन पर किया जाता है, ये वही धुन है जो मनमोहन, मोदी और केजरीवाल सबमें एक जैसी पाई जाती है। अगर आपको झूठे जनमत सर्वेक्षण पर ऐतराज है तो पूछो अरविंद केजरीवाल से कि, भाई, सर्वेक्षण जो तुमने करवाया उसमें 45 प्रतिशत जनता तुम्हे मुख्यमंत्री बनाना चाहती थी तो फिर तुम्हे वोट इतने कम क्यों मिले, इसका मतलब सर्वेक्षण झूठा था, अब अगर कांग्रेस या भाजपा ऐसा ही सर्वेक्षण करवा दे जिसमें जनता को मोदी या राहुल पसंद हों तो वो सच्चा क्यों होगा। जनता जिसे मर्जी चाहे, सर्वेक्षण करने वाले तो उसी को जनता की पसंद बताएंगे जिसने पैसा दिया है। कर लो जो करना है। ना सर्वेक्षण करवाने वालों की कोई नैतिक जिम्मेदारी है, ना सर्वेक्षण करने वालों की, जनता के प्रति इनकी नैतिक जिम्मेदारी तब शुरु होती है जब ये चुन लिए जाते हैं, इसलिए विश्वास कुमार कह रहे हैं कि भाई मैने जो पहले कहा उसे भूल जाइए, क्योंकि पहले मैं किसी राजनीतिक पार्टी का नेता नहीं था, अब हूं इसलिए अब संभल कर बोलूंगा। तो नैतिकता का बोझा वो उठाए सिर पर जो चुना जाए, जो ना चुना जाए उस पर नैतिकता आदि बेकार चीजों की जिम्मेदारी ना डाली जाए, कृपा करके। और उपर से सर्वेक्षण करने वाली निजी कम्पनियां, भाई लोगों ये सर्वेक्षण करती किसके लिए हैं, किसके हित में सर्वेक्षण करती हैं ये। ये कम्पनियां उसके प्रति नैतिक रूप से जवाबदेह और जिम्मेदार होती हैं जो इन्हे पैसा देता है। मान लीजिए कि साबुन बनाने वाली किसी कम्पनी ने इन्हे पैसा दिया, कि एक सर्वेक्षण कर दो तो, छोटा सा, कि जनता हमारा साबुन ज्यादा पसंद करती है, तो ये ऐसा सर्वेक्षण कर देंगे कि जनता अमुक-अमुक साबुन ज्यादा पसंद करती है, बिल्कुल इसी तरह अगर कोई इनसे कहेगा कि जरा एक सर्वेक्षण कर दो कि जनता को ”मैं” या ”हम” ज्यादा पसंद हैं तो ऐसा सर्वेक्षण कर देंगे। जनता ना इन्हे पैसा देती है, ना सर्वेक्षण करवाती है।
इसके अलावा जनमत सर्वेक्षण या मत सर्वेक्षण करवाती हैं, एन जी ओ, हिन्दी में गैर सरकारी संस्थाएं, ये वो संस्थाएं होती हैं, जो अपने दानदाताओं से चंदा हासिल करने के लिए किसी भी तरह की रिपोर्ट बना सकती हैं, बनाती हैं, किसी भी तरह का काम कर सकती हैं, करती हैं। तो चंदा हासिल करने के लिए ये इस तरह के सर्वेक्षण करवाती हैं कि नतीजा ऐसा निकले जिससे इन्हे ज्यादा से ज्यादा चंदा हासिल हो सके। बच्चों के लिए काम करने वाली हजारों राष्ट्रीय अंर्तराष्ट्रीय संस्थाओं के कई सालों तक भारत में काम करने का नतीजा क्या निकला, खुद इनके सर्वेक्षण बताते हैं कि बाल मजदूरी, कुपोषण, शोषण खतरनाक दर से बढ़ रहा है, तो इसका सीधा सा मतलब क्या हुआ किया तो ये सर्वेक्षण गलत है या ये संस्थाएं काम ही नहीं कर रही।
मुझे याद है बचपन में चुनाव के नतीजे मैं बड़ी उत्सुकता से देखा करता था, और आश्चर्य करता था कि राजनीति के बड़े-बड़े पंडितों को आखिर कैसे पता चल जाता है कि कौन कहां कितने मतों से जीत रहा है, और आखिर जब चुनाव का नतीजा आता था तो उन्हीं के मुहं से ये विश्लेषण सुनता था कि जो उन्होने भविष्यवाणी की थी वो आखिर गलत कैसे साबित हो गई। इन पर लेकिन किसी ने आरोप ना लगाया कि साहब आप गलत कर रहे हैं, झूठ बोल रहे हैं, और जनता की नब्ज आपके हाथ में नहीं है।
इस देश में जो सबसे बड़ा जनमत सर्वेक्षण होता है, वो होता है चुनाव। अब मुझे ये बताइए कि आपमें से कितने लोग ये मानते हैं कि इस देश में चुनावों में धांधली नहीं होती, अगर धांधली नहीं होती, तो इस देश के 70 प्रतिशत से ज्यादा नेता इस लायक नहीं हैं कि वो पंचायत चुनाव जीत सकें, और वो राज्य सभा या लोक सभा की शोभा बढ़ा रहे हैं। तो जब चुनाव तक रिग्ड होता है, तो भाई लोगों जनमत सर्वेक्षण किस खेत की मूली है।
मुझे मलाल सिर्फ इस बात का है कि ये लोग सही लोगों की सही वकत नहीं पहचानते......जनमत सर्वेक्षण एजेंसियों को ऐसे नतीजे निकालने के इतने पैसे देने की आखिर जरूरत ही क्या है। किसी गरीब पढ़े-लिखे को पकड़ लो उसे कुछ पैसा दे दो, आप जो भी कहोगे वो वही नतीजा आपको बिना किसी जनमत सर्वेक्षण के पाखंड के दे देगा। और इसका एक बड़ा फायदा ये होगा कि और किसी को वोट मिले ना मिले, वो आपको वोट जरूर दे देगा।


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