भक्तों की तकरार!
जमाना बड़ा खराब है दोस्तों.....सच बड़ा ही खराब है......भक्त लोग हैं जय जयकार में लिप्त हैं, भक्त हैं धिक्कार में लिप्त हैं, कुल मिलाकर भक्त तकरार में लिप्त हैं। एक तरफ के अंधभक्त नवरात्र पर देवी की पूजा कर रहे हैं, तो दूसरी तरफ के अंधभक्त देवता की पूजा करने की बात कर रहे हैं, इन्होने अपनी कूढमगजता से देवी बना दी, तुम देवता बना लो....ये कोई मत सोचना कि आखिर इस सबसे होगा क्या....। इसे यूं समझिए कि जैसे लड़कियों की भ्रूण हत्या के विरोध में आप लड़कों की भ्रूण हत्या शुरु कर दें। मेरे जैसे लोगों को दोनो ही तरह के देवी-देवताओं से चिढ़ रही है, फिर वो चाहे इसलिए मनाए जा रहे हों कि वो आपकी जीवन-पद्धति से जुड़े हैं या फिर उनके साथ कोई देवी-देवता का संबंध जोड़ दिया जाता रहा हो। ईश्वर को मैं बर्दाश्त नहीं कर सकता.....ना करूंगा, चाहे वो किसी भी जाति, समुदाय, या समाज के हों। अक्सर लोग यही करते हैं, शोषक ईश्वर से भागने के लिए किसी ऐसे ईश्वर की तलाश करो जो शोषक नहीं है, अरे भले लोगों, ईश्वर का बेसिक फंडा ही शोषण का है, चाहे मानो या ना मानो।
सारे धर्म, और सारे धार्मिक उत्सव, किसी ना किसी रूप में किसी ना किसी दैवी शक्ति से जुड़े हुए हैं....चाहे आदि होें या अनादि हों....सभ्यता के विकास के साथ-साथ धर्म और समाज के नियम, कायदे, जटिल होते जाते हैं और उसी के साथ इंसान का बनाया ईश्वर भी जटिल होता जाता है, उसे मानने, मनाने के तरीके भी जटिल होते जाते हैं, इसीलिए जो समाज आधुनिकता से जितना दूर है उसके धर्म में उतनी सादगी दिखाई देगी, उसके देवी-देवता उतने इंसानों के करीब दिखाई देंगे, बाकी इसमें अगर किसी को समाज, समुदाय के प्रकृति प्रेम और सादगी ढूंढ कर आंखे गीली करनी हो तो, भैया तुम्हारी आंखें हैं, तुम्हारे आंसू हैं, खूब गीले करो।
अब होली और दिवाली का त्यौहार लो, दोनो ही त्यौहार हैं असल में किसानों के त्यौहार, जब नई फसल के घर में आने का समय हो, सब साफ करना है, पकवान बनने हैं, नये कपड़े पहनने हैं, और खूब खुश होना है, यहां तक तो हुआ प्रकृति से अपनी आजीविका का मामला, अब इसमें जुड़ा सामंती तत्वों का, ब्राहम्णों का भोग, तो ये बातें हो गई गौण और प्रमुख हो गया, दुर्गा की पूजा, राम की पूजा, अलां की पूजा और फलां की पूजा, अब मान लो किसी आदिवासी समाज में, जिसे लोग मूल निवासी भी कहते हैं, किसी तरह का उत्सव मनाया जाता है, वो उत्सव किसी ना किसी तौर पर प्रकृति और समाज के बीच बने संबंध पर ही मनाया जाता होगा, जैसे नई खेती, या शिकार के लिए जाने का मौसम, या ऐसा ही कोई और मौका जिसमें मानव समुदाय, प्रकृति से अपने जीवनयापन के लिए कोई कार्य शुरु कर रहा हो, अब यकीन मानो, पहले ये ऐसा नहीं था, जैसा अब दिखाई देता है, और समय दो, आगे ये ऐसा नहीं रहेगा, जैसा अब है। समाज में चलने वाले द्वंद्व समाज का स्वरूप बदलते हैं। समाज उत्तरोत्तर जटिल होता जाता है और उसी के साथ उससे जुडे़ रीति-रिवाज़, मूल्य, व्यवहार और सिद्धांत भी बदलते रहते हैं। यकीन मानिए, जो धर्म जितना पुराना होगा, उतना ही जटिल होगा। धर्म शोषण पर ही टिका है, धर्म शोषण पर ही टिका है, धर्म शोषण पर ही टिका है, तीन बार कह लिया....अब तो मान जाओ। चाहे कोई भी हो, चाहे प्रकृति की गोद में, पहाड़ों की तलहटी में, जंगलों के बीच में, समुद्र की लहरों में हो, या राजमहलों में हो, अट्टालिकाओं में हो, या किसी मंगल ग्रह पर हो, धर्म जहां भी होगा उसकी नींव शोषण पर आधारित होगी, ईश्वर जैसा भी होगा, शोषण और अन्याय का वाहक होगा। अब समझने वाली बात ये है कि शोषण पर प्रहार करें तो वर्ग मानना होगा, मने, और चाहे आप जो माने या ना माने, ये तो मानना होगा कि शोषकों का कोई धर्म नहीं होता, और शोषितों का कोई धर्म नहीं होता, और हर तरह के शोषक से, शोषक व्यवस्था से निर्ममता के साथ लड़ाई करनी पड़ती है। लेकिन ये होता है मुश्किल काम। आसान काम है, इस रोटी वाली समस्या को भूल जाइए और धर्म आदि पर बात शुरु कर दीजिए और कहिए कि आदिवासियों का शोषण इसलिए हुआ क्योंकि वो आदिवासी हैं, दलितों का शोषण यूं हुआ कि वो दलित हैं, आदि, आदि......इससे दो चीजें होती हैं, एक तो जर्मनी, फ्रांस इग्लैंड जाने का मौका मिल सकता है, या कम से कम हवाई जहाज में बैठने और फाइव स्टार में ठहरने का जुगाड़ तो हो ही सकता है, दूसरे जिन्दगी भर की कमाई आदि का जुगाड़ भी हो सकता है। बाकी धर्म तो सारी दुनिया के एक ही जैसे बनते हैं, विकास करते हैं और उनका पतन भी एक ही ढर्रे पर होता है।
बौद्ध धर्म को ले लीजिए, कब बुद्ध ने कहा कि भाई हीनयान होंगे और महायान होंगे, और दोनो ही सम्प्रदायों से पूछ लीजिए, दूसरें में दोष ही गिनाएंगे, जैनियों से पूछिए कि श्वेतांबर और दिगंबर कहां से आए हैं, इस्लाम की इतनी सारी शाखाएं जो बनी हैं, ईसाइयों ने जो क्लिष्ट उच्चारणों वाले सम्प्रदाय बना रखे हैं.....खुद आदिवासियों में दिखाई देता है, मुण्डा कहें, संथाल हमारे छोटे भाई, संथाल कहें मुंडा हमसे निकलें, सहरिया कहें, हम सबसे पहले हुए, और बैगा कहें हम सबसे पहले आए.....अब किसें कहें भई मूल निवासी.....कोई ना कोई तो किसी ना किसी के पेट से निकला ही होगा.....अब इस सबमें हिंदू रह गए....तो भैया इसलिए छोड़ दिए कि काजल की कोठरी में काला ही काला होगा....बाकी कहने को कुछ बचा नहीं।
तो भाई एक बार फिर, दुर्गा जैसी देवियों का त्यौहार मत मनाइए, लेकिन महिषासुर जैसे देवता भी मत खड़े कीजिए, कल को यही दंगों का कारण बन जाएंगे और आप खड़े होकर तमाशा देखेंगे। यूं मैं कितनी भी अपील कर लूं....जिन लोगों की रोटी ही इस काम से चल रही हो, वो इस बात को नहीं मानेंगे.....उप्टोन सिन्क्लेयर ने कहा कि भाई जिस इंसान की आजीविका उसके "ना समझने" पर चल रही हो, उसे समझाना दुनिया का सबसे मुश्किल काम है। तो जिन्हे नहीं समझना वो नहीं समझेंगे, जिन्हे समझना होगा वो समझ जाएंगे। बाकी हम ना दशहरा मनाते हैं, ना होली, और ना ही दिवाली, और उसके पीछे कारण भी यही देते हैं कि भैया, पौराणिक कथाओं में हमें यकीन है नहीं, और ये त्यौहार हैं किसानों के, और हम किसान हैं नहीं....तो ये त्यौहार हमारे नहीं हैं।


adorable
जवाब देंहटाएं