खुदा, भगवान, ईश्वर.....आखिर हमें इनकी इतनी जरूरत है क्यों? अच्छा यूं मान लो कि धर्म और ईश्वर अलग हैं, तो....धर्म आखिर है क्या....एक संगठित संस्था, जो किसी भी तरीके से, तरह से, इंसानी समाज को कुछ असीमित नियमों में बांधने का काम करता है। माता पिता की सेवा करो, चोरी मत करो, झूठ मत बोलो.... ये तो बहुत सामान्य से नियम हैं, जो अमूमन धर्म के बारे में वैचारिक बहस में आते हैं। लेकिन ज़रा सोचो, क्या बिना धर्म के बारे में सोचे, एक संवेदनशील इंसान के लिए इन सामान्य नियमों का, क्या कोई महत्व नहीं रह जाता। अगर तुम्हारा जवाब नहीं है तो मुझे तुमसे और बात नहीं करनी....लेकिन अगर तुम्हारा जवाब हां है तो फिर ज़रा यूं सोचो कि आखिर ये संवेदनशीलता कहां से आती है, धर्म से, धार्मिक संस्था या सामाजिक परिवेश से, सवाल मुश्किल है क्या....इतिहास में पता करते हैं, बच्चों को मारने, यौन शोषण करने, दास बनाने आदि में किस संस्थानिक शक्ति का सहारा लिया गया, धर्म का....स्त्रियों को मारने, यौन शोषण करने, दास बनाने में किस संस्थानिक शक्ति का सहारा लिया गया, धर्म का....और मेरा यकीन मानो, मेरा इरादा किसी एक या खास धर्म का नाम लेने का नहीं है। क्योंकि ये काम सभी संस्थानों ने किया है, धर्म...चाहे वो कोई किसी हालत में, किसी भी परिस्थिति में किसी समस्या का समाधान नहीं हो सकता। वो तुम्हे रास्ता नहीं दिखा सकता। हां सामाजिक परिवेश में सुधार करके, संवेदनशीलता और प्रगतिशील सोच को समाज की मुख्य संचालक शक्ति बनाया जा सकता है। अब ज़रा यूं सोचो कि सामाजिक महत्व के बड़े सवालों के बारे में धर्म क्या सोचता है। मेरा संगठन किसी भी दूसरे संगठन से ज्यादा बेहतर और ज्यादा अच्छा है, या किसी भी अन्य संगठन को काम करने का अवसर नहीं देना चाहिए, क्योंकि वो मेरे संगठन के बारे में गलत बातें फैलाता है। ये किसी भी संगठन या संस्था का मूलमंत्र हो सकता है होता है। इसमें सामान्य नियम यही है, कि अगर कोई दूसरा संगठन बेहतर होता तो मैं उसमें शामिल होता या होती....क्यों....गलत कहा क्या? तो इस सामान्य नियम से ये तो मान ही सकते हैं कि हम जिस संस्थागत धर्म के सदस्य हैं, वही सर्वश्रेष्ठ और बेहतर है। जो संगठन आपको ये सोचने की आज़ादी नहीं दे सकता कि कोई दूसरा संगठन श्रेष्ठ हो सकता है, वो किसी और चीज़ की आज़ादी कैसे दे सकता है। और यहीं धर्म का सबसे बड़ा विरोधाभास नज़र आता है, आपकी तरक्की आपके विचारों की तरक्की के बिना संभव नहीं हो सकती, विचारों की तरक्की विचार बदलने पर होती है, विचारों के बदलने से आपक किसी और संगठन या संस्था के सदस्य होने पर विचार कर सकते हैं, इसलिए विचारों की तरक्की रोकना इस तरह के संगठन और संस्था का मुख्य कार्य होता है।
अब ज़रा धर्म से जुड़े ईश्वर या उसके असतित्व के सवाल पर आते हैं, धर्म का ईश्वर से अलग नहीं किया जा सकता। ये मेरा अपना मानना है। धर्म संस्थानिक तौर पर अपनी मान्यता, अपनी शक्ति या सत्ता, और अधिकार ईश्वर से ही लेता है। ईश्वर के बिना धर्म संभव नहीं है। या फिर मुझे वो धर्म बताओ जिसमें ईश्वर नहीं होता। एक बैद्ध धर्म पैदा हुआ था, लेकिन उसमें भी पहले तो खुद में ही ईश्वर को खोजने का प्रावधान है और फिर बाद में वही धर्म इसके संस्थापक को, यानी बुद्ध को ईश्वर बना देता है। क्योंकि धर्म बिना ईश्वर के संभव नहीं है। अब ईश्वर जो है वो सभी का समान ही है, कैसे....?
ईश्वर के चारित्रिक विशेषताएं क्या हैं....ज़रा सूची बनाओ....
1. वो सर्वशक्तिमान है
2. वो सर्वव्यापी है
3. वो भले और बुरे का निर्णायक है
4. वो निर्माता और विघ्वंसक है
5. मानव जीवन का ध्येय उसे खुश करना होना चाहिए
6. वो सज़ा देता है, पुरस्कार देता है
आदि आदि.....खैर....अभी ये मत सोचो कि वो दिखता है या नहीं दिखता, एक है या अनेक है.....क्योंकि ये सब उसकी शारिरिक विशेषताएं हैं.....
इसको इस तरह सोचो कि उत्पाद यानी ईश्वर एक है, उसके सेल्समैन कई सारे हैं, अब क्योंकि इस उत्पाद का कोई वजूद नहीं है, इसलिए इसके सेल्समैन तुम्हे इसे इस्तेमाल करने के कई तरीके बताता है, कोई कहता है, सिर पर मलो और फिर धूप में सिर कर दो, कोई कहता है सर पर ठंडा पानी डालो.....यानी मस्जिद हो या मंदिर हो....उत्पाद वही है, नमाज हो या हवन हो, उत्पाद वही है।
तब झगड़ा क्यों है, कारण वही है, अगर तुम किसी दूसरे सेल्समैन के पास जाओगे और दूसरी संस्था का मेम्बर बनने की सोचोगे तो इस संस्था का क्या होगा। कमाल का ईश्वर है जो अपनी संस्था का खुद ख्याल तक नहीं रख सकता। उसके स्वयंभू एजेण्टस् को ये जिम्मेदारी उठानी पड़ती है। ज़रा सोचो तो, सभी धार्मिक संस्थाओं का सबसे बड़ा डर क्या है, मेरी संस्था खत्म हो जाएगी, मेरा धर्म खत्म हो जाएगा, इसलिए ना किसी को किसी दूसरे धर्म की संस्था में जाने दो, ना उसका ध्यान करने दो, वरना हमारी संस्था पर खतरा हो जाएगा। धार्मिक आतंकवादी जो स्वयंभू ईश्वरीय एजेण्टस् हैं, उन्हे आखिर किसने ये कहा कि जाओ ईश्वर की इस संस्था की रक्षा करो।
अब सही और गलत के चक्कर में मत पड़ो। ये बिल्कुल कॉरपोरेट के जैसा ही है, अगर ग्राहक किसी और दुकान पर चला गया तो इस दुकान का बंद होना तय है। उपर से धर्म का सारा कारोबार चलता है रेपुटेशन पर....अगर रेपुटेशन में कोई और धर्म बाज़ी मार ले गया तो इस धर्म का क्या होगा जिसके हम सेल्समैन हैं.....
खैर, जो समझदार होते हैं, वो सामाजिक प्राणियो की तरह बर्ताव करते हैं, और मेरे अपने अनुभव बताते हैं कि नास्तिक ज्यादा बेहतर सामाजिक प्राणी होते हैं, बाकी धर्म या किसी और वैचारिकी का पालन करना बहुत ही निजी मामला है....इसेलिए आपका धर्म....आपका ईश्वर आपको मुबारक....हमें अच्छा इंसान बनने के लिए किसी सज़ा के डर की, उपहार के लालच की, या किसी सहारे की ज़रूरत नहीं है।
इस बारे में और लंबी बात हो सकती है, लेकिन फिल्हाल इतना ही....





