सोमवार, 4 अप्रैल 2016

जय हो भारत माता की.....



बहुत शोर मच रहा है यार.....चारों और भारत माता, भारत पिता, भारत चच्चा की जय का शोर मच रहा है। लोग लिखे दे रहे हैं, मार कागज काले कर दिए, कोई भारत का हिस्ट्री खंगाल दे रहा है, कोई माता के मायने समझा रहा है, कोई भारत की मां और मौसी के रिश्ते की फोरेंसिक जांच में पिला हुआ है। भले लोगों ने कई किताबें पढ़ डालीं, उधर कई लोग एक साथ कई मंचों पर चिल्ला रहे हैं, हाथ काटे जा रहे हैं, सिर काटने की घोषणाएं हो रही हैं। किसी को विधानसभा से निलंबित कर दिया, किसी का देश छोड़ने की धमकी दे दी। और कुछ नहीं चाहिए, बस्स्स्स.....चाहिए भारत माता की जय। जो बोले सो निहाल, जो ना बोले उसे भारत से बाहर निकाल। छोटे-छोटे बच्चे जिन्हे ना भारत से कोई मतलब ना भारत की मां से, गली-कूचों में जिसे मर्जी पकड़ ले रहे हैं, बोल बेट्टा जै भारत माता की.....नईं बोलेगा....ले बेट्टा.....और आस-पास से निकलने वाले टुकुर-टुकुर ताक रहे हैं, किसी को उन्हे रोकने की हिम्मत नहीं हो रही, कल को कहीं उनका नंबर ना आ जाए। यही लड़के अपनी इस गुंडागर्दी से जो हिम्मत जुटा रहे हैं, उसे कल लड़कियों को गली में घेरने में इस्तेमाल करेंगे, और जो लोग आज इस मामले में चुप रह जाने में अपनी भलाई समझ रहे हैं, ”मैं बच गया” से खुश हो रहे हैं, वो जो कायरता कमा रहे हैं, जो डर जमा कर रहे हैं, वो कल इन लड़कों की गुंडागर्दी के काम आएगा।
हम क्या करें, भारत माता के मायने समझाएं, अपने तौर पर ये समझाने की कोशिश करें कि ”यूं तो हमें भारत की या भारत माता की जय बोलने में कोई एतराज नहीं है, पर अभी यूं नहीं बोलेंगे कि तुम बोलने को कह रहे हो....” या फिर मान लो बोल ही दें, भारत माता की जय, बोलने में क्या जाता है और ना बोलने में भी क्या जाता है। ना पहले कभी जाता था और ना अब कोई फर्क पड़ता है। जो बोलते हैं असल में उन्हे भी कोई फर्क नहीं पड़ता, बोल कर भी वो वही सब कुकर्म या कर्म करेंगे जो ना बोल करते, या करते हैं। 
असल में भारत मां की जय बुलवाने की जर्बदस्ती, बलात्कार जैसी है। यहां कन्सेंट का कोई मतलब नहीं है। पूरा मामला सत्ता का है, पॉवर का है। बोलो.....वरना तुम्हारी ऐसी-तैसी फेर दी जाएगी। हाथ तोड़ दिया जाएगा, जिंदा जला दिया जाएगा, गर्दन काट ली जाएगी। बोलो बेट्टा......बड़ी बात ये है कि आज, इस वक्त, देश का हर तबका यही कर रहा है। गली में नुक्कड़ पर गुटका खाकर थूकते हुए हर लड़की को घूरने की अपनी रोज़मर्रा की आदत के सदके गुंडई को अपना पेशा बनाने का सपना देखने वाले चिरकुटों से लेकर, कॉलेज की राजनीति से राष्ट्रीय राजनीति में अपनी पहचान बनाने का सपना देखने वाले मूर्खों तक, और किसी तरह जोड़-जुगाड़, तलवाचाटू कार्यों के सहारे किसी पद तक पहुंचने वाले सभी.....
असल में मामला ये है ही नहीं कि भारत की ये माता कहां से आई, इंग्लैंड से आई या जर्मनी से आई, मामला ये भी नहीं है कि झंडा भगवा हो कि तिरंगा हो, मामला कुछ और ही है। मामला रोमन साम्राज्य के सीज़र की एक महान उक्ति से निकला हुआ है, मामला शरद जोशी द्वारा लिखित नाटक ”एक था गधा....” के नवाब के संवाद जैसा है। सीज़र ने रोमन साम्राज्य में खेलों की शुरुआत करते हुए कहा था,” जनता को ऐसे मुद्दों में उलझाए रहो जिनका सत्ता और राजनीति से कोई मतलब ना हो, जैसे उन्हे एक नकली राष्ट्र नायक दे दो, जिसके नाम पर वो एक-दूसरे का खून तक करने को तैयार हों, यानी उन्हे ग्लैडिएटर दे दो, जो खुद अपनी जान बचाने को लड़ते हों, और वही जनता के नायक बन जाएं। इसी तरह एक था गधा का नवाब कहता है, कि ”हुकूमत का पहला उसूल ये है कि आम आदमी को बेवकूफ बनाए रखो” बड़ा ही स्पष्ट दर्शन है। 
ये बेवकूफी और किसी तरीके से हो ही नहीं सकती, धर्म तो आप चला ही रहे हो, अब राष्ट्र का सिक्का भी लगे हाथों चला कर देख ही लो। क्या कहते हो। भारत माता की.....अरे ये तो मान लीजिए एक नारा है, ये ना होता तो कोई दूसरा नारा होता, और मान लीजिए ना होता। सवाल तो राष्ट्रप्रेम को राष्ट्रीय मुद्दा बनाने का है। वो किसी भी प्रतीक से बन सकता है। मान लीजिए कि कल कोई नेता यही बयान दे दे कि जो रोज़ मिट्टी का तिलक अपने माथे नहीं लगाता वो देश द्रोही है। अब लगेंगे सारे ये खोजने कि मिट्टी से तिलक करने की परंपरा भारतीय है या नहीं, या कुछ लोग नकली गुस्से में चीखेंगे ”ताकी अखबार में उनका बयान आ जाए” कि वो मिट्टी से तिलक नहीं लगाएंगे और इसके लिए कोई उन्हे मजबूर नहीं कर सकता। अब जिन्होने तिलक लगाने की बात की, उन्हे भी पता है कि किसी को मजबूर नहीं किया जा सकता, क्योंकि इसके लिए कोई कानून है ही नहीं, बन भी नहीं सकता। और जो मना कर रहे हैं, उन्हे भी पता है कि ऐसा नहीं होने वाला। लेकिन सवाल तो जनता का है, जो इस मुद्दे के सामने दाल की बढ़ती कीमत की बली चढ़ा देगी। तो मामला ये है कि ”......आम आदमी को बेवकूफ बनाए रखो” लेकिन हमारे देश के बुद्धिजीवी, आपको इतिहास, भूगोल, नागरिक शास्त्र और वो तमाम चीजें पढ़ाने लगेंगे कि मिट्टी से तिलक लगाना कोई परंपरा है या नहीं, भारतीय परंपरा है या नहीं, या ऐसे ही और लटके......
जब दाल की कीमतें नीचे आने का नाम ना लें, और छज्जे पर खड़ी टुकुर-टुकुर आम आदमी को ताकती रहें, जब पैट्रोल की कीमत में आग लगे और पैट्रोल खुद उसे बुझाने में लाचार दिखे, जब देश का ये बुरा हाल हो कि गरीब किसान, दलित छात्रों, को आत्महत्या के लिए मजबूर होना पड़े, जब हर रोज़ किसी को मारे जाने की या किसी की आत्महत्या की खबर आ रही हो, तब भारत माता की जय का नारा लगाना खुद देश का अपमान करने के अलावा कुछ नहीं है। लेकिन सत्ता के लिए तब यही नारा, राष्ट्रवाद का नारा संकटमोचक साबित होता है। मेरी तो आपसे यही गुज़ारिश है कि इस चक्कर में ना पड़िए, जो भी कहे उसे कहिए कि भाई हालात ठीक होंगे तो लगा भी देंगे नारा, अभी तो दाल-रोटी का जुगाड़ होने दो। फिर देखेंगे कि भारत......माता है या किसी और जिंस की जय बोलनी है। 

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