मंगलवार, 3 मई 2016

संस्कृत, संस्कृति और राजनीती

फोटो गूगल से साभार

मैं कॉलेज में था, जब पहली बार मेरा साबका अंग्रेजी की मशहूरियत और जलवे से हुआ था। बात कुछ यूं थी कि मुझे अंग्रेजी नहीं आती थी, नहीं आती थी माने, जितना स्कूल का एग्जाम पास करने के लिए ज़रूरी थी उतनी ही आती थी, उससे ज्यादा नहीं आती थी। तब तक ये तो सोचा नहीं था कि आगे चलकर जिं़दगी में क्या करना है, हां इसकी कुछ धुंधली सी तस्वीर थी कि क्या नहीं करना है। जैसे मैने बहुत पहले ही, यानी जब मैं करीब 11 या 12 साल का था, तभी सोच लिया था कि कभी 9-5 वाली नौकरी नहीं करनी, और आज तक इस बात पर कायम हूं। पढ़ना अच्छा लगता था और ये सोचा था कि पढ़ना कभी नहीं छोडुंगा, ये भी कायम ही है। खैर, बात मेरे कॉलेज के दिनों और अंग्रेजी की हो रही थी, जो मुझे नहीं आती थी, लेकिन हिन्दी, मुझे बहुत बढ़िया आती थी। अपने स्कूल के दिनों में मुझे हिन्दी की टीचर अच्छी ही इसलिए लगती थी मुझे हिन्दी पसंद थी। वो अक्सर क्लास लेने में, कॉपियां चेक करने में, और भी कई कामों में मेरी मदद लिया करती थीं। काफी अच्छी टीचर थीं। तो हिंदी तो हुई अच्छा विषय, दूसरी टीचर थीं अंग्रेजी वाली, वो बिल्कुल अंग्रेजी वाली टीचर थीं, नाम था जोशी मैम, नहीफ सी थीं, लेकिन सारे स्कूल में उनका खौफ था। वो क्लास में आती थीं तो सारी क्लास को जैसे सांप सूंघ जाता था, हो सकता है ये उनके विषय का जहूरा रहा हो। जो भी था, अंग्रेजी मुझे कभी आई नहीं, क्योंकि दिलचस्पी ही नहीं थी, और उस पर मैं उनके कोप का भाजन बनता रहता था, क्योंकि स्टाफ रूम में जितने भी टीचर थे, उनमें से सिर्फ दो टीचर थे जिनके विषय में मैं कमजोर था, और बाकी जितने भी थे, जैसे इतिहास, भूगोल, हिन्दी आदि उनके विषय में मैं अव्वल था। इन टीचरों को जिनके विषय में मैं गोल था, यूं लगता था, शायद, कि मैं जानबूझकर उन विषयों में मेहनत नहीं कर रहा हूं, और मेरा कुछ यूं था कि जिसमें दिलचस्पी थी उस विषय की स्कूल की किताबें तो मैं दो क्लास आगे तक की पढ़ चुका था, इतिहास तो मैने 10वीं क्लास में बी ए की किताबें चाट डाली थीं, और गणित और अंग्रेजी मुझे कभी अपनी तरफ आकर्षित ना कर सकीं। 10वीं में किसी तरह तौबा-तौबा करके इन दोनो विषयों में पास हुए जिनमें, अंग्रेजी में तो फिर भी 60 के करीब नंबर आए थे, लेकिन गणित में तो मुझे यही पता नहीं था कि मैं लिख कर क्या आया हूं, वो तो भला हो उस अनजाने परीक्षक का, जिसने मुझे 42 नंबर दे दिए और यूं मैं गणित में भी पास हो गया। 
खैर, कॉलेज में आने के बाद मुझे यूं लगा कि जैसे अंग्रेजी ना जान कर मुझसे कोई गुनाह सरज़द हुआ है। अंग्रेजी मैंने तब भी नहीं सीखी, हां ये ज़रूर हुआ कि मैने एक बहाना बना लिया, वो ये कि अंग्रेजी क्योंकि हमारे देश पर जुल्म ढाने वालों की जुबान है इसलिए मैं इसे नहीं सीखूंगा और इसी ज़िद में और ज्यादा ज़ोर से हिंदी पढ़ने लगा, यहां ये बता दूं कि इस बीच किसी भी वक्त में उर्दू के लिए ऐसा कोई ख्याल मेरे दिमाग में नहीं आया था, और हालांकि मैं उर्दू नहीं जानता था, लेकिन ग़ालिब, मीर, जौक, हाली, कैफी, साहिर, मजाज़ और भी तमाम शायर मेरे पसंदीदा शायर थे। कॉलेज का ऐसा था कि कई लोग थे, जो जाने किस तरह अंग्रेजीदां बनकर ही कॉलेज आए थे, हो सकता है कि उनके स्कूल कॉन्वेंट टाइप हों, जिनमें अंग्रेजी सुना है घोंट कर पिलाई जाती है। शुबहा ये था कि मेरा कॉलेज था थोड़ा, हिंदी जानने वालों का कॉलेज, पी जी डी ए वी, और ये लोग थे, अंग्रेजीदां, और सिर्फ भाषा में ही नहीं, बल्कि अंदाज में भी, तो जाने क्यों ये इस खालिस हिंदी वाले कॉलेज में दाखिला लिए थे, हो सकता है नंबर कम आए हों। तो साहब इन लोगों से बड़ी कोफ्त होती थी, ना बातों में ज़ायका था, ना इनकी दोस्ती में......लीजिए अंग्रेजी से और थोड़ी दुश्मनी हो गई। सबसे बुरी बात लगती थी इन लोगों का, दूसरें लोगों के प्रति रवैया, अरे ऐसे साहब जैसे व्यवहार करते थे कि तौबा भली। वो तो ये समझिए कि कुछ अच्छी अंग्रेजी जानने वालों से बातचीत हुई, जो दोस्ती में बदली तब जाकर हमारा कुछ थोड़ा बहुत जे़हन इनकी तरफ भी माइल हुआ। 
कॉलेज में अपने पहले ही साल के दौरान कुछ बहुत ही बेहतरीन किस्म के लोगों से मेरी मुलाकात हुई और दोस्ती हुई, ये वो लोग थे, जिन्होने मुझे उस रास्ते पर लगाया जिस पर आज मैं चल रहा हूं और बहुत खुश हूं। इन लोगों की दोस्ती ने मुझे और पढ़ने, और जानने-समझने, और बेहतर जिंदगी जीने की राह दिखाई, इसके लिए उनका शुक्रिया। इन लोगों में से कुछ वो थे, जो खासे पढ़े-लिखे थे और अंग्रेजी के अच्छे लेखकों को जानते थे, उन्ही लोगांे ने अंग्रेजी ज़बान से सही तआरुफ करवाया और समझाया कि ज़बान बुरी नहीं है दोस्त, सिर्फ इस ज़बान को मालिकों की ज़बान समझने और उसे उसी मालिकाना ठस के साथ इस्तेमाल करने वालों के रवैये में बुराई है। 
उसके बाद तो लगातार ऐसे लोग मिले जो अंग्रेजी को भी सिर्फ ज़बान की तरह इस्तेमाल करते हैं, हालांकि आज भी ऐसे कई लोग मिल जाते हैं, जो बहुत नखरे के साथ कहते हैं, ”सर सॉरी, आई कांट स्पीक इन हिंदी.....” ”नो प्रॉब्लम बेटा, स्पीक इन व्हाटएवर लैंग्वेज यू फील कर्म्फटेबल.....” मेरा जवाब होता है। फिर धीरे-धीरे पता चलता है कि वही बच्चा जो मुझे समझा रहा था कि उसे हिंदी नहीं आती, वो हिंदी में बात कर रहा है। ये जो नखरा उसने दिखाया वो सिर्फ इसलिए ताकि उसे दूसरों से अलग समझ लिया जाए। और ऐसा सिर्फ बच्चे ही नहीं करते, बड़े भी करते हैं, अरे भाई रिक्शा में चढ़े हो, उस गरीब को अंग्रेजी नहीं आती, उस पर अपनी मालिकाना ज़बान का रौब झाड़ने का क्या मतलब, सीधे-सीधे हिंदी में बताइए कहां जाना है। 
ये सब इसलिए कि इस बीच संस्कृत को लेकर बहुत बहस चल रही है। लोग संस्कृत और संस्कृति में फर्क किए बगैर संस्कृत को कोसते जा रहे हैं। मानते हैं कि भई संस्कृत जो है वो ब्राहम्णों की भाषा रही है, और संस्कृत को ब्राहम्णों ने मालिकाना भाषा बना कर रखा, उसे किसी दूसरे को हाथ भी ना लगाने दिया, शंबूक के कानों में सीसा इसीलिए डलवाया गया था ना......तो भैया उस भाषा को हाल देख लो, ये है कि जो जानता है वो भी महज़ इसलिए जानता है कि या तो उसे नंबर लेने हैं, या फिर उससे इसकी रोज़ी चल रही है। कई तो संस्कृत की बदौलत रोज़ी कमाने वाले तक संस्कृत नहीं जानते। हंसी आती है बेचारों पर, श्लोक बोल रहे हैं, और मतलब पता नहीं। आगे ओम और पीछे अम लगा कर इन्हे जो भी रटवा दीजिएगा ये वही बोल देंगे। 
तो मामला आई आई टी में संस्कृत लाने का है। क्यों नहीं हो जी संस्कृत आई आई टी में, शोध संस्थान है दोस्त, शोध संस्थान में भाषा पर शोध होने ही चाहिएं। और संस्कृत में ही क्यों, तामिल, तेलुगू, संथाली और नगा पर भी शोध होने चाहिएं। ये भी भाषाएं हैं। कहने का कुल मतलब ये है कि संस्कृत का सिर्फ इसलिए विरोध ना हो कि ये भाषा है जो अंग्रेजी नहीं है। जानते हैं, एक जमाने में इंग्लैंड में फ्रेंच के खिलाफ छात्रों ने बगावत की थी और उसे अपने देश से उखाड़ फेंका था, मामला वही था कि अंग्रेजी वहां थी, दोयम दर्जे की भाषा और फ्रेंच थी अमीरों की और मालिकों की भाषा। यहां भी यही हाल है, अंग्रेजी बनी हुई है मालिकों की भाषा और बाकी देसी भाषाओं का ये हाल है कि धीरे-धीरे गायब हो जा रही हैं। यहां अपनी भाषा का लेखक, कवि, साहित्यकार सिर्फ लेखन कर्म के भरोसे चले तो भूखों मर जाए, और अंग्रेजी में लिखने वाला, लाखों कमाता है। मेरी मंशा ये कहने की नहीं है कि अंग्रेजी को हटा दीजिए, पढ़ाइए भाई, पर उसे भाषा की तरह बरतिए, धौंस की तरह नहीं। 
अब आई आई टी में संस्कृत एक स्वागत योग्य कदम होना चाहिए। लेकिन मामला फिर वहीं अटक जाता है कि जो शिक्षा मंत्री संस्कृत का स नहीं जानती, वो भला क्यों ऐसा कर रही हैं। ऐसा हो सकता है कि उन्होने किसी विशेषज्ञ ने बताया हो कि जी संस्कृत होना अच्छा है, अफसोस ये है कि वो खुद से बड़ा विशेषज्ञ किसी और को मानती ही नहीं हैं, और ये मैं इसलिए कह रहा हूं कि अगर कोई भाषाविद् होगा, तो उससे कम से कम इतनी उम्मीद तो हमें है कि वो इस तरह का कोई सुझाव देने से पहले, ये सुझााव देगा कि भई पहले इसके लिए माहौल तैयार किया जाए। यानी तकनीकी की, विज्ञान की, किताबों को, ज्ञान को, पहले संस्कृत में तैयार किया जाए, अन्य भारतीय भाषाओं में तैयार किया जाए। और फिर ये कोशिश की जाए कि संस्कृत या अन्य भाषाओं को भारतीय उच्च शिक्षण संस्थानों में बतौर माध्यम की भाषा इस्तेमाल किया जाए। 
लेकिन ये गजब तुगलकी फरमान है कि, भगौना, कटोरी लो और आई आई टी में संस्कृत चालू कर दो, बाकी बाद में देखा जाएगा। दरअसल संस्कृत की दुर्दशा के लिए यही लोग जिम्मेदार हैं, जिन्होने संस्कृत से इस देश की संस्कृति को जोड़ रखा है और इस देश के अजाने महान इतिहास में संस्कृत को महान भाषा, देवों की भाषा बताने, साबित करने का ठेका ले रखा है। ये संस्कृत इसलिए नहीं लाना चाहते कि इन्हे भाषा से कोई लगाव है, इसलिए लाना चाहते हैं कि गाय, एक जानवर के तौर पर दंगे के लिए हासिल है, उसी तरह संस्कृत भी एक भाषा की तरह दंगे के लिए हासिल हो जाए। ना इन्हे गाय से मतलब है ना संस्कृत से। मकसद है खुद को हिंदु धर्म का सबसे बड़ा ठेकेदार साबित करना, दंगे की ज़मीन तैयार करना, और गली मुहल्लों में अपने गंुडों को लड़ाई-झगड़े और मारपीट का एक और मौका मुहैया करवाना। और असल विरोध इसी का होना चाहिए। 
मुसीबत ये है कि यार लोग, संस्कृत के पीछे डंडा लेकर पड़ गए और इनकी इस मंशा को पीछे कर दिया। सही तब होता जब हम ये कहते जी, बिल्कुल ठीक, तो तैयार कीजिए संस्कृत में पाठ्य पुस्तकें, और अन्य भाषाओं के लिए भी रास्ता साफ कीजिए। अब तो हो ही जाए, देश की तमाम भाषाएं जिनमें आदिवासी भाषाएं भी शामिल हों, उन्हे महत्ता दिलाई जाए। देश के तमाम स्कूलों में, कॉलेजों में, न्यायालयों में, विधानसभाओं में, संसद में और अन्य सरकारी संस्थानों में सभी नागरिकों के लिए उन तमाम भाषाओं में काम करने और करवाने की सुविधा हो जो इस देश में उपलब्ध हैं। 
संस्कृत बहुत खूबसूरत ज़बान है, गेय है, बिल्कुल संथाली की तरह, उसमें आप जो भी कहें वो कविता होता है। संस्कृत का व्याकरण शायद दुनिया का सबसे सरल व्याकरण होता है, क्योंकि आप क्रिया, कर्ता और कर्म को वाक्य में कहीं भी रखें, कोई फर्क नहीं पड़ता। कभी पढ़ कर देखिए, साहित्य भी समृद्ध है, सचमुच खूबसूरत है। एक बार पढ़कर देखें, मज़ा ना आ जाए तो कहिएगा। वो तो इस देश की जातिवादी, सामंतवादी, ब्राहम्णवादी संस्कृति के चंगुल में ना होती, सच में महान भाषा होती संस्कृत। और आज भी ऐसा ही है, इस भाषा को इन लोगों के खूनी पंजे से बचा लीजिए, वरना गाय की तरह इसका हश्र भी यही होगा कि, लोग इसके पीछे मारे जाएंगे, दंगे होंगे, और ना जाने क्या-क्या होगा। आप संस्कृत को वेद, पुराण और मनुस्मृति से जोड़कर मत देखिए, अब उसमें ये सब लिखा गया तो ये भाषा की गलती तो है नहीं, ये गलती तो उन खरदिमागों की रही होगी, उस विचार को तोड़ डालिए, लेकिन भाषा के साथ दुराव मत कीजिए। मेरा तो ये मानना है......और आपका? 

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