चित्र गूगल साभार
अब आप चाहे कुछ भी सोंचे, लेकिन आत्मा की आवाज़ को जितना भारत में सुना जाता है उतना कहीं नहीं सुना जाता। आत्मा, आत्मा होती है, ये दिखाई नहीं देती, सुनाई नहीं देती, अभी तो कुछ मूढ़ लोग ये भी डाउट करने लगे हैं कि सुसरी होती भी है कि नहीं होती। पर जैसा कि अक्सर होता है और आगे भी होता रहेगा, भारतीय मनीषियों ने सदियों पहले आत्मा नाम के तत्व को खोज लिया था, हालांकि इसकी खोज में कई सदियां गुज़री, कुछ लोग तो पागल भी हो गए सुना, कुछ बहकी-बहकी सी बातें करने लगे, बोले: है - नहीं है, होता है - नहीं होता है, माने कुछ भी। पर आखिरकार आत्मा को खोज ही लिया गया, कुछ लोग तो परमात्मा तक का दावा करते हैं, लेकिन वो बात बाद में। अभी तो आत्मा नाम की इस चिड़िया के बारे में ही कह लिया जाए। देखिए मुझे पूरा भरोसा है कि आत्मा होती है। इस भरोसे के बहुत ही सरल-साधारण से कारण हैं, भैये अगर ये आत्मा नहीं होगी ना, तो भारतीय लोकतंत्र का बैंड बज जाएगा। जो लोग अभी रोज आत्मा की आवाज़ सुनकर अपनी पार्टी बदल रहे हैं, उन लोग का क्या होगा।
चुनाव से पहले ”ए” पार्टी, चुनाव के बाद आत्मा की आवाज़ पर ”बी” पार्टी और फिर कुछ ही दिन बाद, फिर आत्मा की आवाज़ पर वापिस ”ए” पार्टी। मेरा एक छोटा सा सवाल है, ये आत्मा की कोई एक आवाज़ है या ये मिमिकरी करती है। मेरा मतलब कभी अमिताभ बच्चन की आवाज़ में बोलती होगी, कभी अमरीश पुरी की आवाज़ में, कभी हेमा मालिनी की आवाज़ में भी बोलती होगी। तो बातचीत कैसे होती होगी।
आत्मा ;अमिताभ बच्चन की आवाज़ मेंद्ध: अरे मैने तो पहले ही बोला था, तुझे ”बी” पार्टी में चले जाना चाहिए था।
नेता: लेकिन तब टिकट तो ”ए” पार्टी ने दिया था.....
आत्मा: लेकिन वो पार्टी खराब है, जो पार्टी तुझे टिकट ना दे, उसकी लोकतंत्र में आस्था नहीं हो सकती.....उसे छोड़ दे, ”बी” पार्टी में जा, वो अभी की अभी तुझे टिकट दे देंगे......
नेता: तो क्या लोकतंत्र की रक्षा के लिए मुझे ”बी” पार्टी में चले जाना चाहिए.....
आत्मा: बिल्कुल....जो तेरी रक्षा नहीं कर पाई, वो पार्टी लोकतंत्र की रक्षा कैसे करेगी......सच्चा लोकतंत्र वही होता है जो खुद के लिए होता है, जब तक ”ए” पार्टी तुझे टिकट देने को तैयार थी, वो लोकतांत्रिक पार्टी थी, जैसे ही उसने किसी और को टिकट दिया, उसका लोकतंत्र खराब हो गया........इसलिए तू आत्मा की आवाज़ सुन और ”बी” पार्टी में जा.....
और तब आत्मा की आवाज़ सुनके नेता ”बी” पार्टी में चला जाता है। अब आत्मा की आवाज़ को कौन नकार सकता है। भारतीय कोर्ट को भी आत्मा की आवाज़ को उसी तरह मानना चाहिए जिस तरह भारतीय लोकतंत्र ने मान लिया है, लोकमानस भी मानता है। और जब लोकमानस मानता है कि आत्मा की आवाज़ होती है तो भारतीय न्यायपालिका क्यों नहीं मानती कि आत्मा की आवाज़ होती है।
मेरा मानना है कि आत्मा ही आवाज़ ही नहीं होती, बल्कि और भी बहुत कुछ होता है। जैसे कभी-कभी इन नेता लोगों की आत्मा को कष्ट भी होता है। आत्मा के कष्ट को आप अपच के कष्ट से अलग समझें, अपच इसलिए होता है कि नेता को कई बार एक ही दिन में कई पार्टियां अटैंड करनी होती हैं, हर जगह खाना पड़ता है, कई जगह कई तरह का खाना खाकर अक्सर नेता को अपच हो जाता है। लेकिन आत्मा को अपच नहीं होता, उसे कष्ट होता है। अब ये कष्ट किसी भी बात से हो सकता है। नेता की आत्मा को किसानों की आत्महत्या से कष्ट हो सकता है, चाहे उसकी आत्महत्या का कारण ये नेता और इनकी करनी ही रही हो। ये खास फर्क है अपच के कष्ट में आत्मा के कष्ट में, अपच के कष्ट में लगातार पेट से गुड़गुड़ की आवाज़ आती है, कभी-कभी गैस भी निकलती है। आत्मा का कष्ट सौ फीसदी, अकष्ट जैसा कष्ट होता है, इसमें आंखों से कुछ आंसू निकल सकते हैं, ना भी निकलें तो कोई परवाह नहीं। अपच का कष्ट आस-पास वालों को पता चलता है, आत्मा के कष्ट का सिर्फ नेता को पता चलता है या उनके चमचों को।
वैसे नेताओं की आत्मा आम आदमी की आत्मा से अलग होती है, जिसकी आवाज़ या जिसका कष्ट बहुत ही मौके पर जाहिर होते हैं। जेसे आत्मा की आवाज़ नेता को तभी पाला या पार्टी बदलने के लिए कहती है जब पाला बदलने से उसका फायदा होता हो, कष्ट भी नेता की आत्मा को तभी होता है जब उसे कोई फायदा हो। यूं आत्मा का जो रूप गीता में बताया गया है, वो बिल्कुल ही झूठ है, बताइए, ना सर्दी लगती है, ना गर्मी लगती है, ना हवा में उड़ती है ना आग में जलती है, ना पानी में गलती है, अजर है अमर है। हो ही नहीं सकता साहब। नेता लोगों की आत्मा गीता वाली आत्मा नहीं है, या फिर ये आत्मा का नया, डबल सिम वाला, एडीशन होगा, जो सिर्फ खास लोागों को ही मिलता होगा। मुझे लगता है जैसे ही कोई नेता बनता है उसे अलग से आत्मा लगा दी जाती होगी, ताकि वक्त जरूरत उसे आवाज़ आती रहे, या कष्ट होता रहे।
आत्मा की आवाज़ से लेकिन कभी-कभी मुश्किल भी हो जाती है। अब ये भाई लोग जो कांग्रेस सरकार से निकल कर भा ज पा की गोद में बैठे थे, वो आत्मा की आवाज़ पर लोकतंत्र ही बचाने गए थे, लेकिन आत्मा की आवाज़ सुनकर बेचारे संकट में पड़ गए। एक नेत्री हैं, सुना पहले वो कांग्रेस में थीं, फिर आत्मा की आवाज़ पर भा ज पा में चली गईं, फिर उसी आत्मा की आवाज़ पर फिर कांग्रेस में आ गईं, और इस बार फिर से भा ज पा के लिए वोट कर दिया। आत्मा की बात है, हम आप नहीं समझेंगे।
ज़रा देर के लिए ये सोच कर देखिए कि हम लोगों की भी आत्मा होती तो....? मेरा मतलब है तो क्या होता। हमारी आत्मा भी हमें आवाज़ देती.....मतलब बताती। कब क्या करना है, कब आंखें को आंसू से भरना है, कब रुंधे गले से बोलना है। लेकिन हमारा आत्मा सचमुच कष्ट में होती। बताइए जब 220 रुपये की दाल शरीर खाता तो क्या आत्मा को कष्ट नहीं होता। मुझे लगता है कि आत्मा को पसीना भी आता होगा। अब नेता लोग तो दिन भर ए सी हॉल में बैठते हैं, ए सी कार में घूमते हैं, पर किसानों की आत्मा को सोचिए, मजदूरों की आत्मा को सोचिए, अरे खुद अपनी आत्मा का सोचिए, इतनी गर्मी में आत्मा को पसीना तो आएगा ही। तो वो क्या करेगी। पंखे से तो पसीना जाता नहीं, बाहर धूप है। तब आत्मा को कष्ट होगा। यही फर्क है आपकी यानी आम आदमी की आत्मा में और किसी नेता की आत्मा में। नेता की आत्मा को पसीना आने से कष्ट नहीं होता, उसे किसान की आत्महत्या से, या लोकतंत्र की हत्या से कष्ट होता है, कभी-कभी प्रसन्नता भी होती है, लेकिन वो सिर्फ तब जब उसका खुद का फायदा हो।
चित्र गूगल साभार
ज़रा सोचिए कि एक किसान जब आत्महत्या करता होगा, तो क्या उसकी आत्मा उसे आवाज़ देती होगी। और अगर हां, तो बातचीत कैसी होती होगी।
आत्मा: कोई रास्ता नहीं बचा दोस्त......लटक जा।
किसान: लेकिन मेरा परिवार, बीवी, बच्चे.....
आत्मा: अबे मूरख......तूने जीकर ही कौन उन्हे सुख दे दिए, अब भी आधे पेट खाकर जिंदा हैं, कल भी ऐसे ही रहेंगे......या.....
किसान: या.......
आत्मा : छोड़ ना......”उबासी” अब लटकना है तो जल्दी लटक, ताकि मैं भी निकलूं और चल के देखूं शायद इस बार किसी नेता की आत्मा बन सकूं.......
किसान: क्या कोई और रास्ता नहीं है......
आत्मा: ”थोड़ा गुस्से में.....” बता तो दिया......नेताओं की आत्माएं उनके साथ ऐश कर रही हैं, वो तेरे हिस्से को लोन, सब्सिडी, पानी, बिजली, स्कूल, अस्पताल, और जमीन भी अपने दोस्तों को दे चुकी हैं.......अब इसके अलावा तेरे पास कोई चारा नहीं है कि तू आत्महत्या कर ले......
और किसान बिचारा आत्महत्या कर लेता है। ये आत्माएं भी अपना सुख देखती हैं। इनका क्या है, किसान, मजदूर से जल्दी छुटकारा मिला तो किसी नेता की आत्मा बनने के लिए लाइन में लग गईं, नेता या पूंजीपति मिला तो जिंदगी सुधर गई। कई बार आत्माओं को इसके लिए रिश्वत भी देनी पड़ती होगी।
अभी तो यूं लगता है कि देश की राजनीति असल में आत्माएं ही चला रही हैं, किसी को कष्ट हो जाता है, कोई प्रसन्न हो जाती है, तो किसी की आत्मा आवाज़ देती है, और राज्यों की, कभी-कभी तो देश की सरकारों में उलट-फेर हो जाता है। इस देश का लोकतंत्र सही मायनों में ये आत्माएं ही चला रही हैं मेरी मानिए।
खैर.....अभी तो ये देखिए कि जिस तेजी से किसान आत्महत्या कर रहे हैं, मजदूर मारे जा रहे हैं, और आम आदमी तबाह हो रहा है, उसमें एक समय ऐसा भी आ सकता है कि आत्माओं के लिए शरीर ही ना बचें......तब आत्माएं चिल्ला-चिल्ला कर आवाज़ लगाएंगी, तब ये नेता और उनकी आत्माओं का क्या होगा। सोच कर ही सिहरन होती है।


Badhiya Sir
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