”छोड़ मादर.....” उसकी मुठ्ठी में लड़की की धोती का एक सिरा था और दूसरे हाथ में उसने लड़की के बांये हाथ को कस कर पकड़ा हुआ था। लड़की ने कस कर अपने घाघरे का कमरबंद पकड़ा हुआ था। लड़की ने एक बार गुस्से से उसकी तरफ देखा और उसे थोड़ा जोर से झटका दिया। वो बुरी तरह लड़खड़ाया और अगर उसने लड़की को ही कस के ना पकड़ा होता, तो जरूर सड़क पर जा गिरा होता।
सड़क के बीच वाले डिवाइडर पर जहां ये लड़ाई चल रही थी, इन दोनो के लिए काफी जगह थी और वो दोनो ही अपनी जगह से हटने को तैयार नहीं थे। गुन्ना, या गुन्या, जब वो पूने में रहता था, रंगती से जो राजस्थान की थी, उन पचास रुपयों में अपना हिस्सा मांग रहा था, जो एक कार वाले साहब ने उसे ये कहते हुए दिए थे कि ”बांट लेना” और अब ये रंगती हरामजादी सारा पच्चास रुपया खुद हड़प जा रही है।
वो उसके घाघरे का कमरबंद नहीं छोड़ रहा था कि उसने रंगती को पचास रुपया वहीं उढ़सते देखा था। दांये हाथ से उसने उसकी धोती छोडी और रंगती के पेट में घूंसा मारने की कोशिश की, पता नहीं उसके घूंसे में जान नहीं थी या फिर रंगती कुछ ज्यादा मजबूत थी कि घूंसा लगा ही नहीं। वो और बिफर गया, ”सारी, मादर..... बहन.......उसके मुंह से गालियों के साथ झाग निकलने लगा था। ये साले नसे ने बरबाद कर दिया, वरना उससे गली के सारे लौंडे डरते थे, ऐसा घूंसा मारता था वो.....। पूना में रेलवे लाइन के पास वाले नाले के किनारे बसी बस्ती में रहता था। बाप पता नहीं क्या करता था, बस जब घर आता था तो भौत मारता था, बस मारता था। उसे पता नहीं किसने स्कूल में डाला, पता नहीं उसने वहां क्या पढ़ा, लेकिन वहीं स्कूल से ही उसे नसे की लत लग गई। पहले बीड़ियां, फिर दारू, फिर ये नासपीटा नसा। पहली बार लिया था, तो जन्नत नज़र आ गई थी, जन्नत। पता नहीं सुसरी कैसी होती है, उसे बस ये पता था कि उस दिन ना उसे अपने बाप की गालियों का कुछ पता चला, ना पेट की भूख का और ना ही ये पता चला कि कब बाप ने उसकी चमड़ी उधेड़ डाली थी। फिर तो वो रोज़ नसा करके घर जाने लगा था, वैसे भी घर में किसी को कोई परवा नहीं थी कि वो कहां रहता है, क्या करता है। मां ऐसी थी, जैसी हो ही ना। उसका बाप उसकी मां को भी भौत बुरी तरिया मारता था।
नसे की सबसे खराब बात है कि साल्ला पैसे से मिलता था, और उसके पास पैसे कहां से आते? तो वो चोरियां करने लगा, अपने घर में तो कुछ था नहीं, जिसे उठाकर बेच आता, तो वो पड़ोस की झुग्गियों में चोरियां करने लगा। कभी किसी का पतीला बेच दिया, कभी किसी की घड़ी मार ली, कभी किसी की साइकिल पार कर दी। धीरे-धीरे लोगों को पता चल गया कि वो नसा करता है और चोरियां भी करता है। पहले तो उसके बाप ने ही उसे मारा, मारा क्या, उस दिन तो बस मरने जैसा करके छोड़ दिया। पर भला हो नसे का जिसने उसे बचा लिया। उसे पता ही नहीं चला, दरद ही नहीं हुआ। और सुबह उठकर लंगड़ाते हुए वो फिर नसे के जुगाड़ में लग गया।
तब सारे उसे गुन्या कहते थे, गुन्या। जिस दिन उसके बाप ने उसे मारा तबसे उसने घर ही जाना छोड़ दिया। कभी किसी खंडहर में रात गुज़ार दी, कभी पुल के नीचे, और कभी......ऐसे ही कहीं भी। लोग अक्सर सोचते हैं कि नसेड़ी लोक रेलवे स्टेसन पर होता है, लेकिन रेलवे स्टेसन पर तो कोई उनको घुसने भी नहीं देता। पुलिस मारती है, कुली लोक मारता है, स्टेशन वाला मारता है, और स्टेशन और आसपास की दुकान वाला भी मारता है। कुत्ता समझ के रखा है सबने, सब मारते हैं, भगा देते हैं। पर इसमें उनका भी क्या दोस। वो साला जाता ही है, ऐसी जगह पर इसलिए ताकि कहीं से कुछ पैसे को जुगाड़ हो जाए तो नसा हो सके। खाने की परवा नहीं थी उसे, खाना तो कहीं भी, कभी दरगाह में, कभी मंदिर में, तो कभी गुरद्वारे में मिल ही जाता था। बात थी नसे की, जो इन जगहों पर नहीं मिलता।
उसे पता चला कि पूना में ही कोई जगह है जहां मुफत में नसा मिलता है। वो वहां गया तो पता चला कि साला लोक नसा नहीं देते, खाली सुंई देते हैं मुफत की, अबे भड़वों, इसमें नसा क्या तुम्हारा बाप भरेगा बे.......थोड़ा तख्सीस किया तो पता चला कि अंदर दवाई मिलता है जिससे नसा होता है, वो अंदर भी गया, वहां भौत सारे उसके जैसे नसेड़ी लोक बैठे थे, वो भी जाकर बैठ गया, थोड़ी देर बाद खाना मिला, फिर नसे का आवाज़ लगा। उसको नहीं मिला। उसको बेाला कि पहले नाम लिखवा, फिर फोटो खिंचवा और उसको एक कारड मिलेगा, फिर तीसरे दिन से नसा मिलेगा। ”तीसरे दिन से......तब तक मैं क्या करूंगा बे.....भोसड़ी के...... ” दवाई देने वाला हंस दिया। ”आज नाम लिखवा ले.....” ”चल ब ेचल......बड़ा आया साला......अबे इसे बत्ती बना कर अपनी गां.......में दाल ले” वो गुस्से से बोला और वहां से चला गया। साला आधा दिन खोटी कर दिया। अब्बी मैं क्या करूंगा। वो सोच रहा था कि उसे सामने खड़ी एक कार दिखाई दी, दरवाजा खुला हुआ था और उसमें एक बच्चा सो रहा था। बच्चे के गले में सोने की चेन उसे इतनी दूर से भी साफ दिखाई दे रही थी। उसने बिना कुछ सोचे-समझे कार के पास जाकर वो सोने की चेन झपट ली, और वहां से भाग लिया। सोने की चेन के उसे ढेर पैसे मिले थे जिससे उसने चार-पांच दिन का नसा एक बार में खरीद लिया था। बस अब कम से कम चार-पांच दिन तो चिंता का कोई बात नहीं था।
स्याम को उसे किसी उसी के भीडू ने बताया कि उसने जिस बच्चे की सोने की चेन खींची थी वो किसी पुलिस वाले का बच्चा था, और वो बच्चे के गले में भौत चोट लगा है, और पुलिस पागल कुत्ते की तरिया उसे ढूंढ रही है। उसी भीड़ू ने उसे कहा कि जान बचानी है तो बेट्टा भाग जा पून से कहीं और जाकर गांड मरा। और वो भाग लिया। स्टेसन पहुंच के उसने जो रेल चली देखी उसी मे कूद कर चढ़ गया और दिल्ली पहंुच गया।
सहर में कुछ खास बुराई नहीं थी, बस यही था कि ये पूना नहीं था। लेकिन उसे क्या फरक पड़ना था। चार-पांच दिन का नसा जेब में था, कुछ पैसा भी पास में था। बस इधर-उधर देखता हुआ सड़क-सड़क चलता गया तो उसे दिल्ली के अपने संगी साथी मिल गए। बस तबसे वो दिल्ली में है, क्या हुआ जो उसका नाम गुन्या से गुन्ना हो गया है। यहां एक तो नसा मिल जाता है, दूसरे छुपने के ठिकाने ज्यादा हैं, तीसरे यहां वो जब मौका लगता है तब चोरी कर लेता है, और कभी-कभी भीख भी मांग लेता है, यहां उसके अक्सर इतनी भीख मिल जाती है कि नसे का जुगाड़ हो जाता है। बस......वो पिछले दो हफ्ते से इस चौक पर भीख मांग रहा था, और आज जब उसे कार वाले ने लाइट पे कार रोकी तो वो एक तरफ से उसकी खिड़की पर पहुंचा ओर रंगती दूसरी तरफ से पहुंची। सेठ ने रंगती वाली साइड का सीसा नीचे करके पचास का नोट दिया और कहा था कि बांट लेना। अब ये साली उसका हिस्सा दे ही नहीं रही है।
उसने दोनो हाथों से रंगती को भंभोड़ना चाहा, वो चाहता था कि किसी तरह रंगती का हाथ कमरबंद से छूट जाए तो वो पचार रुपया छीन ले, फिर देंखे साली क्या करती है। पर रंगती की पकड़ मजबूत थी, साली पता नहीं क्या खाती थी, पतली सी थी, बड़ी-बड़ी आंखे, मैले कुचैले बाल......वो गुन्या से पहले से इसी चौक पर भीख मांगती आ रही थी।
रंगती असल में पिछले तीन महीने से इसी चौक पर भीख मांग रही थी। वो सिर्फ भीख ही नहीं मांगती थी, वक्त-जरूरत के हिसाब से जो हो जाता था कर लेती थी। चौक के सामने वाली गली में दारू का ठेका था, जहां से दारू लेकर कई लोग सड़क किनारे वाली मार्केट की छतों पर चढ़ कर दारू पीते थे। जिनमे से कई मार्केट के नीचे बने गैराज में मैकेनिक होते थे। स्याम को दारू के नसे में धुत उनमे से कई रंगती को ज़रा शटर खोल कर अंदर घुसा लेते थे, और उसे कुछ 50-100 रुपया दे देते थे। रंगती को इससे कोई एतराज नहीं था कि वो लोग कैसे थे, उसके साथ क्या करते थे, रात को जो उसके साथ चूमा-चाटी करते थे, सुबह उसे अपनी दुकान से पानी तक नहीं लेने देते थे, भगा देते थे, लेकिन रंगती को कोई ऐतराज नहीं था। उसे किसी भी काम से कोई ऐतराज नहीं था, लेकिन काम देता कून है यां पे। जिसने लाया उसको यां पे, पैले तो वोई हरामी था, फिर उसीने किसी घर में काम दिलाया, वो भी हरामियों का घर था। घर में तीन भाई और उनका बाप था। सारा दिन काम करो, और रात में चारों एक-एक करके उसे नोच-खसोट के जाते थे। पता नहीं उनकी बीवियों को पता था कि नईं, इतना तो इतना, तीन-चार महीने बाद जब उसने पैसा मांगा, तो सालों ने उसे धक्के देकर घर से निकाल दिया।
वो जाती कहां, और क्या करती। एक गठरी वो अपने साथ लाई थी, जो अब भी उसके पास थी। एक दो दिन इधर-उधर भटकी, भूख लगी तो ढाबे पर पौंची, ढाबे वाले ने उसे गौर से देखा और फिर उसे इशारे से पीछे की तरफ आने को कहा। वहां ढाबे वाले ने पहले उसके साथ नोचा-काटी की, अपना मन भरा और फिर उसे वहीं खाने को दे दिया। वहीं सड़के दूसरी तरफ उसी की तरफ के कुछ लोग तम्बू लगा कर रहते हैं, लुहार हैं, दिन के लुहार और रात के चोर। जो हाथ आ जाए, बस पुलिस से बचना होता है। उन लुहारों की औरतें वही करती थीं जो रंगती के साथ होता था लेकिन वो पैसे लेती थीं। पेले पैसे, वरना हाथ भी लगाने देने को, ये सब रंगती ने उनसे सीखा। लेकिन वो रंगती को अपने साथ रखने को तैयार नहीं थे। रंगती उनकी जात की नहीं थी। तो रंगती ने दूसरे चौक वाले मंदिर के पास अपना जुगाड़ कर लिया, एक झोपड़ी जिसमें एक भिखारिन पहले से रहती थी, वो सुबह दरगाह पर भीख मांगने जाती थी और रात को वापिस आ जाती थी। रंगती उसी के पास रहने लगी, कम से कम यहां खाना तो मिल जाता है।
गांव में रंगती बचपन से ही खेत-घर-ठाकुरों के घर का सारा काम करती थी। और खाने को कभी सूखी रोटी और कांधा और कभी साथ में छाछा मिलती थी। उसके घर में, टोले में सबका यही हाल था। सारे बच्चे खेतों में काम करते थे, घरों में काम करते थे, खाल समय हो तो गलियों में चक्कर लगाते थे, और कभी सादी ब्याह हो तो, पंगत खतम होने का इंतजार करते थे, तब उन्हे भी खाना मिलता था। उन्ही ठाकुरों के घर के एक नौकर ने, जो गाड़ी चलाता था, उसे दिल्ली के सुपने दिखाए थे, दिल्ली में काम करेगी तो खाना अच्छा मिलेगा, पहनने को नए कपड़े मिलेंगे। खाने की तो खैर उसे कोई खास परवाह नहीं थी, जो भी उसे मिलता था, वो बिना सोचे-समझे खा लेती थी, लेकिन उसे कपड़े अच्छे लगते थे। वो बस एक बार, बिना फटे सुथरे कपड़े पहनना चाहती थी। ऐसे कि जिन्हे धोना पड़े, उसने देखा था कि हवेली वाले अपने कपड़े घुलवाते थे, वो कपड़े बाहर रस्सियों पर लटके होते थे, तो उसे अच्छे लगते थे। वो चाहती थी कि कभी वो भी ऐसे ही अपने कपड़े धोकर सुखाए।
खैर दिल्ली में आके, दो-तीन हफ्ते तो चंदू ने उसे अपने पास रखा, और रोज़ अपने मन की करता रहा, उसी ने उसे ये घाघरा और धोती दी थी, चोली उसकी अपनी थी। आखिर उसे मिन्दरा सेठ की कोठी पर काम के लिए लगा दिया था, और खुद कहीं चला गया था। मिन्दरा सेठ के यहां वो तीन-चार महीने रही, और फिर यहां मंदिर के पास.......
ऐसा कभी-कभी होता था कि उसे एक साथ पचास रुपये मिल जाएं, मिलने को कभी-कभी वो तीन-चार सौ तक कमा लेती थी, लेकिन कभी-कभी भूंजी भांगन कड़वा तेल वाली बात भी हो जाती थी। अब आज ये पचास मिला, और अभी तो स्याम के तीन-चार घंटे का टाइम और था। कुछ और मिल जाएगा, तो वो अपनी झुग्गी में जाकर कपड़े धोएगी और खाना बनाएगी। और ये हरामी गुन्ना उसे छोड़ ही नहीं रहा। उसने गुन्ने की कलाई पकड़ कर उसे बहुत बेरहमी से मरोड़ दिया।
गुन्ना दर्द से कराह कर उसके पास से हट गया। लेकिन फिर से झपट कर उसे दबोच लिया। अब वो दोनो एक दूसरे से गुंथे हुए थे। लाइट लाल होने पर रुकने वाली कारें और मोटरसाइकिलें, उन पर बैठे लोग, रुकते थे, उन्हे देखते थे, हंसते थे और चले जाते थे।
सड़क की दूसरी साइड पर सतीश हवलदार दूध की डेरी पर बैठा हुआ था। वो उन पुलिसवालों में से था जिसने ये सोच कर पुलिस की नौकरी पकड़ी थी कि किसी तरह काहिली और रिश्वत से काम चल ही जाएगा। पुलिस की नौकरी में उसे 8 साल हो गए थे, इस बीच ना तो उसे कोई बहादुरी दिखाने का मौका मिला था और ना ही उसे किसी बहादुरी के मौके की तलाश थी, इसलिए रिश्वत का उसका हिस्सा भी बहुत कम होता था। वो अक्सर दिन के समय इस डेरी पर आकर बैठ जाता था, बैठे-बैठे उंघ लेता था, और उंघते-उंघते सो जाता था, डेरी वाला उसे चाय-वाय पिला देता था, और कभी-कभी बोतल भी नसीब हो जाती थी। वो सड़क के किनारे रेहड़ी खोमचे वालों पर रौब झाड़कर उनसे सौ-पचास छीन लेता था और शाम को वहां से चला जाता था। उसने अभी-अभी अपनी उंघ खत्म की थी, और अब वो ये सोच रहा था कि गुप्ता ढाबे पर खाना खा ले, जहां उसे पैसा नहीं देना होता। तभी उसकी नज़र डिवाइडर पर लड़ते हुए रंगती और गुन्ना पर पड़ी। उसने थोड़े देर उन्हे लड़ते हुए देखा और फिर खड़ा हो गया।
एक हाथ में डंडा लेकर और दूसरे हाथ से ट्रैफिक रोकता हुआ वो डिवाइडर पर पहुंचा और पहुंचते ही उसने कस कर एक झांपड़ गुन्ना के लगाया, गुन्ना झापड़ के जोर से छिटक कर डिवाइडर पर ही गिर गया, और कांपते हुए सतीश को देखने लगा।
”तेरी बहन की मारूं........... साले.......भाग यहां से......” फिर उसने दूसरे हाथ से डंडा उठा लिया। गिरे-गिरे ही उसने रंेकते हुए कहा, ”मेरे पैसे नीं दे री” ”पैसे मेरे हैं सा’ब.....”रंगती बोली। ”कहां हैं....?” सतीश ने कहा। रंगती ने धीरे से कमरबंद में उड़से हुए पचास के मुड़े-तुड़े नोट को निकाला। सतीश ने झपट्टा मार कर वो नोट उसके हाथ से ले लिया। फिर दूसरे हाथ का डंडा उसने गुन्ने के घुटने पर दे मारा। ”भाग साले......बहन की तेरी.....भाग यहां से” सतीश चिल्ला कर बोला। फिर उसने रंगती की तरफ भरपूर नज़र से देखा, भिखारन देखने में तो अच्छी थी, लेकिन वो हवलदार था। उसने पेंट की जेब में हाथ डाल कर खुद को छूकर तसल्ली की। फिर रंगती की छाती पर हाथ मारा। ”तू भी भाग यहां से ........साली रंडी......भाग.....दुबारा दिखाई दी तो ये डंडा घुसेड़ दूंगा.....समझी क्या।” रंगती डिवाइडर से उतर कर किनारे की तरफ भागी, बीच में एक दो स्कूटर वालों से टकराते हुए बची, और किनारे पर जाकर खड़ी हो गई। उसकी छाती में दर्द हो रहा था, पचास रुपया हाथ से जा चुका था। वो खड़ी-खड़ी देखती रही और सतीश वापस जाकर डेरी पर बैठ गया, छोटू चाय ले आया था, उसने गिलास में छोटी उंगली डाल कर थोड़ी सी चाय जमीन पर छिड़की और और बड़े बेफिक्रे अंदाज से एक हाथ सिर के उपर लगा कर चाय सुड़कने लगा।

कुछ कहने को शेष नहीं पढ़ने के बाद
जवाब देंहटाएंthnkyou, you like it.
हटाएंबहुत अच्छे से पुलिस के काम करने के ढंग को बया किया है सर।
जवाब देंहटाएंवैसे कही कही पढ़ने पर "मंटो" की झलक भी दिखाई दी मुझे :p
ha ha ha
हटाएं