सारी दुनिया बदल गई, लेकिन मंगत भाई की दुकान ना बदली। वही लकड़ी के बक्से जिनमें तमाम रोज़मर्रा की चीजें भरी हुई थीं, पीछे पुरानी लकड़ी के शेल्फों पर परचून का सामान, और एक छोटे कमरे में बोरियों में राशन......मंगत भाई की दुकान पर जाते ही लगता था जैसे 60 का दशक वापस आ गया हो।
पतले-सूखे से मंगत भाई खुद भी 60 के दशक के लगते थे, चौड़ी मोहरी वाला सफेद पजामा, पैरों में जूतियां, जिन्हे वो अपने लकड़ी के बक्सों के पास ही उतार देते थे, उपर पेट पर जेब वाली गंजी, और उसके उपर अगर कभी ज़रूरत हुई तो लठ्ठे की कमीज़। ना उनके पहनावे में कोई बदलाव आया, ना उनके घर में, और ना उनके अंदाज़ में।
उनकी दुकान सुबह 5 बजे खुलती थी, लकड़ी के भारी दरवाज़े, जिनमें लोहे के कुंडे लगे हुए थे, पुराने चार दरवाजों वाले इस दरवाजे को फोल्ड करके, वो चौखट को छूकर अपने माथे से हाथ लगाते थे और फिर अपनी गद्दी पर बैठ जाते थे। दुकान के दरवाजे़ के बाद बस इतनी ही जगह फर्श बचता था जहां दो लोग सहूलियत के साथ खड़े हो सकें, उसके बाद लकड़ी के बक्से शुरु हो जाते थे, जिनका ढक्कन उपर खुलता था, चौड़े वर्गाकार बक्सों में कुछ-कुछ सामान भरा हुआ था, जिसे ज़रूरत पर खोल कर मंगत भाई खरीदार को देते थे। बक्से भारी थे, हालांकि मंगत भाई हल्के थे, लेकिन तो भी उनका वज़न उठा रहे थे, इसलिए माना जाता था कि मजबूत थे। पीछे शेल्फ था जिस पर बच्चों के लिए टॉफियां, बिस्कुट, और बाकी रैपर वाला छोटा सामान रखा होता था, वहीं बीड़ी-सिगरेट और माचिसें भी होती थीं। दुकान के अंदर एक दरवाजा था जो एक कमरे में खुलता था, जिसमें मंगत भाई राशन का सामान रखते थे। सुबह पांच बजे से 12 बजे तक वो दुकान पर रहते थे, इसके बाद दुकान बंद करके घर चले जाते थे, इसके बाद वो चार बजे के करीब वापस दुकान खोलते थे जो रात नौ बजे तक चलती थी। इसके बाद वो घर चले जाते थे।
उनका घर भी 40 के दशक का बना हुआ ऐसा घर था, जिसके अंदर घुसने पर ही पता चलता था कि इमारतें बनाने के मामले में भी दुनिया कितनी बदल गई है। घर का मुख्य दरवाज़ा एक गैलरी में खुलता था, जो आगे जाकर आंगन बन जाती थी, सामने बरांडा था जो चार खंभों पर टिका हुआ था, उसके बाद एक कमरा था, जो घर का सबसे बड़ा कमरा था और मंगत भाई का कमरा था, इससे पहले वो मंगत भाई के पिताजी का कमरा था, इसके बाद एक और कमरा था जिसमें बाकी पूरा परिवार रहता था, घर के दांयी तरफ एक सीढ़ी थी जो उपर वाली मंजिल पर जाती थी, वहां 6 या सात कमरे बने हुए थे, और बिल्कुल कोने पर, जहां से गली दिखाई देती थी एक बाथरूम और लैट्रिन बनी हुई थी, जिसको देखने से साफ पता चलता था कि ये नई बनी हुई है। पूरे इलाके में मंगत भाई ही थे जिन्होने सुबह-सुबह लोटा लेकर जाना सबसे बाद में बंद किया था, और वो भी तब, जब उन्हे किराएदारों का टोटा सिर्फ इसलिए पड़ने लगा कि उनके घर में लैट्रिन नहीं थी। तो पहले किराएदारों के लिए लैट्रिन बनी और फिर जब खुद उनके परिवार के लोग भी वही लैट्रिन इस्तेमाल करने लगे और इसपर घर में रोज़ विवाद होने लगा, तो उन्हे मजबूर होकर नीचे के लिए भी लैट्रिन बनवानी पड़ी। हालांकि लैट्रिन बनने के काफी दिनो बाद तक वो खुद पाखाने के लिए पास की रेलवे लाइन पर जाते रहे थे, लेकिन आखिरकार उन्होने भी इस आधुनिकता के सामने हथियार डाल दिए और अब वो घर की लैट्रिन में ही जाते थे। कई बार उन्होने शिकायत की कि उन्हे घर में बदबू आने लगी है, जिसका इलाज ऐसे हुआ कि जो भी लैट्रिन इस्तेमाल करता था, वो उसमें बाल्टी भर के पानी डालता था। लेकिन शहर में पानी की कमी होने के चलते आखिर ये इलाज भी कुछ ही साल चल पाया। अब मंगत भाई को बदबू नहीं सताती, आदत हो गई है।
पूरे महल्ले में कहीं कोई मौत हो, तो वहां मंगत भाई की मौजूदगी ज़रूरी होती थी। वो चिता, अर्थी का सारा काम ऐसे जानते थे, जैसे पंडित शादी-वादी का काम जानते हों। कहां से कफन लाना है से लेकर, कौन से समय अर्थी को उठाना है, इस काम में उनकी महारत इतनी ज्यादा थी कि पंडित तक कुछ काम करने से पहले उनसे आंखों की आंखो सहमति मांगता था। जब किसी के घर कोई मौत होती थी तो सबसे पहले मंगत भाई को सूचित किया जाता था और वो अपनी दुकान बंद करके वहां जाते थे, इसके अलावा कभी समय से पहले या समय के बाद उनकी दुकान बंद नहीं होती थी। अगर कभी उनकी दुकान बेसमय बंद हो तो मुहल्ले के लोग-बाग समझ जाते थे कि किसी के घर में मौत हुई होगी। कहने वाले तो ये भी कहते थे कि इसके अलावा उन्होने अपनी शादी के समय भी अपनी दुकान कभी बेसमय बंद नहीं की थी।
मंगत भाई की दुकान के ठीक सामने मंदिर था, मंदिर क्या था, यूं समझ लीजिए मुहल्ले के भंगेड़ियों, शराबियों, का अड्डा था, अब ये शराबी, भंगेड़ी या नशाखोर वो वाले नहीं थे, जिन्हे आप अक्सर सड़कों पर पड़े देखते हैं, गंदगी से सराबोर नशे में होश खोए, देखते हो, ये मुहल्ले के इज्जतदार घरानों की उंची नाक वाले मां-बाप के नौनिहाल थे, जो शायद इसलिए कि उन्हे कुछ करने की ज़रूरत क्या है, कि तहत नशा किए रहते रहते थे और मंदिर के भीतर पेड़ के नीचे, छाया में आराम किया करते थे। इन लोगों का काम था कि सुबह एक नियत समय पर नशा करना और फिर पूरे दिन उसे नशे के खुमार के उतरने का इंतजार करना, ताकि शाम तक जब खुमार उतरे तो नशे की दूसरी डोज़ ली जा सके। इस मंदिर में कोई पुजारी नहीं था, आमतौर पर पुजारी उन्ही मंदिरों में होते हैं, जिनमें कमाई का ज़रिया हो, यानी कुछ चढ़ावा-भेंट पूजा हो, कुछ यजमान हों जो अपने घरों के मुंडन, कुंडन संस्कारों में मंदिरों के पुजारियों को बुलाएं, लेकिन इस मंदिर में जो मंगत भाई के घर के सामने था, कोई पुजारी नहीं था, जाहिर है, इसीलिए इसमें ना सुबह की आरती होती थी ना शाम की, बस एक मंगत भाई थे जो पूरे नियम से सुबह चार बजे जागने के बाद, नहा-धोकर दुकान खोलने से पहले इसमें दिया जलाते थे, एक तरफ एक टूटा-फूटा मंदिर जैसा था, फिर चौड़ा आंगन था, जिसमें एक पेड़ था, कौन पेड़ था ये याद नहीं, पर उसका बहुत बड़ा सा सीमेंट का चबूतरा था, और ठीक उसके सामने एक खुला कमरा था, जिसमें दो खंभे थे और दरवाजा कोई नहीं था। मंगत भाई दुकान खोलने से पहले और दुकान बंद करने के बाद उसमें नियम से दिया जलाते थे, और उनके परिवार वाले उनके इसी काम के चलते इस मंदिर पर अपना हक मानकर अपने घर के कभी-कभी होने वाले छोटे-मोटे आयोजन इसी मंदिर में कर लिया करते थे। मुहल्ले के लोगों को कभी इस बात से एतराज भी नहीं हुआ। बल्कि जब किसी को ज़रूरत होती थी, तब वो पहले मंगत भाई से पूछता था, उनकी राय लेता था, और उस दिन नशेड़ियों को वहां से भगाने और मंदिर की साफ-सफाई के लिए मंगत भाई की मदद भी लिया करता था।
वो मंदिर, मुहल्ले के हर मंदिर की तरह, खुद के प्राचीन होने का दावा करता था, और दिखने में लगता भी काफी प्राचीन ही था। उस मंदिर का इतिहास किसी को पता नहीं था, जाने कब मंगत भाई ने उसमें दिया जलाना शुरु किया, फिर वो उनका नियम बना, लेकिन कई साल बीतते-ना-बीतते उस मंदिर का नाम मंगत भाई वाला मंदिर पड़ गया। पहले जाने उस मंदिर का क्या नाम रहा होगा, लेकिन अब अगर किसी को रास्ता बताना हो तो कहा जाता था कि मंगत भाई वाले मंदिर के थोड़ा आगे एक गली होगी, या मंगत भाई वाले मंदिर से पहले वाले मोड़ पर.....यूं उस मंदिर को मुहल्ले में मंगत भाई वाला मंदिर कहा जाने लगा।
अब इस कहानी का तीसरा हिस्सा था, मंगत भाई का बड़ा बेटा। जैसा कि हर खानदान का होता है, मंगत भाई का भी ऐसा ही ये बेटा था। परले सिरे का कामचोर और निकम्मा, मंगत भाई की तरह सूखा, जैसे कसम लेकर पैदा हुआ हो कि मंगत भाई की कद-काठी निकालेगा, और मंगत भाई की ही तरह उसकी आवाज़ भी थी। महल्ले के सभी शरीफ खानदानों की तरह उसे भी बहुत बचपन से भांग की आदत लग गई थी, जो उसके जवान होते होते, कई और नशीले रास्तों से गुज़रती हुई, अब बड़े-बड़े नशों तक जा पहुंची थी। मंगत भाई वाले मंदिर के और नशेड़ियों की तरह उसका शगल भी यही था कि वो सुबह अपनी पहली डोज़ लिया करता था और फिर दिन भर चबूतरे पर पड़ा रहा करता था, फिर शाम को नशा उतरने पर नियम से अपना दूसरा डोज़ लिया करता था और फिर मंदिर में ही रात होती थी। घर सामने ही था, इसलिए खाना कभी कोई उसे वहीं दे जाता था, या फिर वो खुद लहराता हुआ घर जाता था और खाना खाकर वापिस मंदिर आ जाता था।
यूं ही करते-करते कई साल बीत गए, अच्छा मान लीजिए कई ना हों, लेकिन कुछ साल तो बीत ही गए। अब हर मुहल्ले की ये परिपाटी होती है कि अगर कोई काम लगातार हो तो लोग उसे परंपरा मान लेते हैं। इस तरह ये भी परंपरा सी ही हो गई कि मंगत भाई सुबह-शाम मंदिर में दिया जलाते थे और उनका भाई मंदिर का सदुपयोग करता था। ऐसे ही एक दिन मंगत भाई वाले मंदिर में मंगत भाई के बेटे का एक दूसरे नशेड़ी से झगड़ा हो गया। अब नशेड़ियों में झगड़ा हो जाना आम बात है, अक्सर होते रहते हैं, और क्योंकि ये झगड़े नशे के संदर्भ में होते हैं, इसलिए इनकी सुलह भी नशे के संदर्भ में ही होती है। यानी नशे में झगड़ा हुआ तो नशा उतरते ही सुलह हो गई, या सूफी में झगड़ा हुआ तो नशा करने के समय या नशे की हालत में सुलह हो गई। इसलिए इन झगड़ों पर कोई ध्यान नहीं देता। लेकिन ये झगड़ा थोड़ा मानीखेज़ बन गया, क्योंकि इस झगड़े में पीपल के पेड़ वाले मंदिर के ट्रस्ट के मैनेजर का बेटा और मंगत भाई का बेटा शामिल था, और सबसे बड़ी बात ये कि झगड़े के दौरान मंगत भाई के बेटे ने ट्रस्ट के मैनेजर के बेटे को यूं कह दिया कि, ”आज के बाद मेरे मंदिर में दिख मत जइयो.......” इस छोटे से जुमले ने मुहल्ले में आग लगा दी, बल्कि इस छोटे से जुमले के ”मेरे मंदिर” वाले हिस्से से मुहल्ले वालों के कान खड़े हो गए।
आखिर ये मंगत भाई वाला मंदिर मंगत भाई का कबसे हो गया। ये तो प्राचीन मंदिर था, किसी को पता नहीं था कि ये मंदिर किसने बनाया, किसकी मिल्कीयत थी और आखिर कब बना। मंगत भाई ने जाहिर था अपने बेटे से नाराज़ होते हुए भी उसका ही पक्ष लिया, और ट्रस्ट के मैनेजर ने अपने बेटे का पक्ष लिया, लेकिन ट्रस्ट के मैनेजर का पलड़ा भारी था, क्योंकि एक तो उसके पास किराएदार ज्यादा थे, दूसरे उसने कई साल स्मगलिंग का काम करके काफी पैसा कमाया था और तीसरे पीपल के पेड़ वाला मंदिर खूब चलता था, जिसमें पास की रईस कॉलोनी वाले भक्त भी आते थे, और चढ़ावे का बाकायदा बंटवारा होता था, जिसमें से पुजारी को उसकी तनख्वाह देने के बाद भी महीने का कुछ लाख रुपये बचता था। तो मुहल्ले में दबी ज़ुबान ये बातें चलने लगी कि किसी तरह मंगत भाई के चंगुल से मंदिर को छुड़वाया जाए।
इधर मंगत भाई को भी आभास हो गया था कि मंदिर उनके हाथ से छीन लिए जाने की तैयारियां हो रही हैं, इसलिए उन्होने भी अपनी ओर से कुछ काम शुरु कर दिए। जिसमें अपनी तरफ से थोड़ा पैसा लगाकर मंदिर के भीतर वाले मंदिर की मरम्मत कराई, उसमें एक साफ-सुथरी मूर्ति रखी और दिया जलाने के अलावा उसमें नियम से आरती करने लगे। मंगलवार को प्रसाद भी बांटने लगे। इस तरह के कामों के अलावा मंदिर भी साफ-सफाई भी की गई, और यूं कुछ दिन कटे। मंगत भाई ने एक दिन चबूतरे के उपर, पेड़ के नीचे एक कलश रखवाया जिसे उन्होने किसी तरह जुगाड़ा था। इसके नीचे चबूतरे पर उन्होने एक पत्थर चिनवाया, जिस पर लिखा था, प्राचीन सनातन धर्म मंदिर पर इस कन्दूसे की स्थापना श्री मंगत राम शर्मा, पुत्र श्री जगतलाल शर्मा, ने करवाई। उनके दादा ने इस मंदिर की स्थापना में भरपूर सहायता की थी। इस कन्दूसे की स्थापना और पत्थर की चिनाई कुछ ऐसे समय की गई कि एक दिन वो अचानक मुहल्ले वालों को दिखा। अब कही गई बात को हवा में उड़ाना आसान है, लेकिन ये बात तो पत्थर पर खुद गई थी, इसका तोड़ मुश्किल था।
ट्रस्ट के मैनेजर को अब अपना दांव खेलना था, तो उन्होने, अपनी विशेषज्ञता के मुताबिक चार दानवीर जमा किए और मंदिर के भीतर एक और मंदिर बनाने का चंदा उगाह लिया। आखिरकार मंदिर के दिन फिरे और मंदिर में भक्त लोगों का जमावड़ा शुरु हुआ। भक्तों में महिलाएं थीं, और फिर पेड़ पर धागा बांधकर अपने ब्याह की कामना करने वाली कुमारी लड़कियां भी थीं, इसलिए मंदिर से नशेड़ियों का निषेध हो गया। मैनेजर साहब ने बाकायदा महीने में एक बार मंदिर में भजन-कीर्तन का कार्यक्रम भी चालू करवा दिया, ताकि सनद रहे। लेकिन उनकी तमाम कोशिशों के बावजूद मंदिर का नाम मंगत भाई वाला मंदिर ही रहा।
फिर एक दिन लोगों को दिखा कि मंगत भाई का बड़ा लड़का सुबह-सवेरे पीली धोती और कुर्ता पहने, माथे पर टीका लगाए मंदिर में आरती कर रहा है। यूं एक और परंपरा बनी कि मंगत भाई वाले मंदिर का वो स्वघोषित पुजारी हो गया। हालांकि उसने नशे की लत नहीं छोड़ी लेकिन मंदिर की सुबह-शाम की आरती के समय वो बिल्कुल धोया हुआ लगता था। पता नहीं आरती करना उसने कहां से सीखा लेकिन ठीक-ठाक करता था क्योंकि किसी को उससे एतराज़ भी नहीं था। बाकी अपना नशा पानी वो अखाड़े में करता था जो मंगत भाई वाले मंदिर से निकाले जाने के बाद नशेड़ियों का नया ठिकाना था। इस बीच उसने एक काम ये शुरु कर दिया था कि वो मुहल्ले वालों को बीच रास्ते में रोक लेता था और फिर उनसे मंदिर के नाम पर हर महीने कुछ चंदा नियत करने का वादा लिया करता था। वो उन्हे कसमें दिलाता था, मां की, बाप की, खानदान की, मंदिर की, भगवान की और फिर अपनी......और किसी से 100 किसी से 500 आदि नियत करवा ही लेता था।
इधर ट्रस्ट के मैनेजर घात लगाए बैठे थे कि कौन मौका निकले कि वो मंदिर पर अपना दावा ठोंक सकें। अपने तमाम हथियारों के साथ वो मैदान में कूदने को तैयार बैठे थे। एक मंदिर से उन्हे काफी कमाई थी, अगर दूसरा मंदिर भी हाथ आ जाए तो सोने पर सुहागा। तो कुल मिलाकर दोनो तरफ से दांवपेंच लग रहे थे। मंगत भाई बच्चों को मुफ्त टाफियां देकर उन्हे मंदिर में आरती के समय भीड़ लगाने को उकसाते थे, और मैनेजर अपनी गोटियां चलते हुए मंदिर का इतिहास खोदने में लगे हुए थे। मुहल्ले के लोगों के बीच कभी ये कहानी उठती थी कि किसी पहुंचे हुए महंत ने इस मंदिर को बनवाया था, और इसका जिम्मा मुहल्ले के लोगों पर छोड़ा था, और कभी ये कहानी होती थी कि मंगत भाई के दादा ने इस मंदिर को बनवाने में जी-जान लगा दी थी, इसीलिए मंगत भाई को इस मंदिर का इतना ख्याल रहता है। मंदिर के लिए एक तरह से मुहल्ले में शीत युद्ध छिड़ा हुआ था, जिसमें एक तरफ सूखे-पिचके मंगत भाई थे और दूसरी तरफ एक मंदिर के ट्रस्ट के मैनेजर साहब थे। और मुहल्ले के लोग ध्यान लगाए देख रहे थे कि आखिर ये मंदिर किसके हाथ जाएगा। मुहल्ले के लोग ना तो मंगत भाई के साथ थे और ना ही मैनेजर साहब के, वो क्या है कि मैनेजर साहब ने स्मगलिंग से काफी पैसा कमाया, उस पैसे से मुहल्ले में इज्जत कमाई और उस कमाई से पीपल वाले मंदिर के ट्रस्ट की मैनेजरी कमाई, और अब वो काफी कमा रहे थे। दिन भर पीपल वाले मंदिर के सामने वाले बाग में बैठे हुए दांत कुरेदते रहते थे और हर आने-जाने वाले को रौब दिखाते थे। यूं कोई उन्हे कुछ कह नहीं सकता था, लेकिन सब उनकी बुराई करते थे। सबको लगता था कि आखिर स्मगलिंग से पैसा इन्होने ही क्यूं कमाया, हमने क्यंू ना कमाया, मंदिर की कमाई इनके घर क्यूं जाती है, हमारे घर क्यूं नहीं जाती। और इस क्यूं नहीं की जड़ से नैतिकता और संस्कार का फूल निकलता था जो कहता था कि बताओ, एक स्मगलर मंदिर के ट्रस्ट का मैनेजर, या बताओ, मंदिर के चढ़ावे की कमाई से घर चला रहे हैं। धर्म, नैतिकता और संस्कार का ये फूल अपनी बेबसी की देहरी पर चढ़ता था इसलिए कोई ऐसा खुलकर नहीं कहता था।
तो कुल मिलाकर मंदिर के लिए खींचतान चल रही थी और इसमें पलड़ा मंगत भाई का भारी था, क्योंकि अब उनका बेटा ना सिर्फ आरती करता था, बल्कि पूजा-पाठ भी कर रहा था, और धीरे-धीरे मुहल्ले के पीपल मंदिर वाले ग्राहक भी टूट कर इस मंदिर पर आ रहे थे। उनके से ज्यादातर ऐसे थे, जिन्हे पीपल मंदिर पर उतनी इज्जत नहीं मिलती थी जितनी पड़ोस की रईस कॉलोनी के ग्राहकों को मिलती थी। जबकि मंगत भाई वाले मंदिर में तो यही रईस थे, इसलिए इनकी खूब इज्जत होती थी। पीपल मंदिर पर भंडारा होता था तो पूरे दिन चलता था, जबकि मंगत भाई वाले मंदिर को भंडारा सिर्फ दो घंटे का होता था। लेकिन यहां भंडारा होता था तो मुहल्ले वालों का अधिकार होता था, जबकि पीपल मंदिर पर उन्हे लाइन में लगना होता था, बल्कि कभी-कभी तो धक्का भी पड़ जाता था।
मैनेजर साहब ये सब समझ रहे थे, और उनकी समझ नहीं आ रहा था कि वो क्या करें। आखिर उन्हे एक तरकीब सूझी। दिवाली के समय उन्होेेने बिना किसी से पूछे-ताछे, मंदिर की रंगाई-पुताई के लिए लोग भेज दिए। मंगत भाई दुकान पर बैठे थे कि लोग आए और मंदिर की जांच-पड़ताल करने लगे, मंदिर की ऐसी नाप-जोख देखकर मंगत भाई दुकान से उतरे और मंदिर पर पहुंच कर उनसे पूछ-ताछ करने लगे। इस पूछताछ के बीच ना जाने क्या हुआ कि वो जोर-जोर से चिल्लाने लगे और उनके और मजदूरों के बीच हाथापाई सी होने लगी। अब पतले सूखे मंगत भाई और काम करने वाले जोरदार मजदूर, हमले की शुरुआत जरूर मंगत भाई ने की, लेकिन अपना बचाव करने वाले मजदूरों के एक-दो हाथ पड़ते ही वो लुढ़क गए। ऐसे मामलों में मुहल्ला फौरन जमा हो जाता है, सो हो गया, मंगत भाई को मंदिर के भीतर पेड़ के चबूतरे पर लिटाया गया और उनके मंुह पर पानी के छींटे मारे गए। उन्हे होश में लाने की भरपूर कोशिश की गई, आखिरकार वो होश में आए। सारे वाकये को सुन कर उस जगह पर मुहल्ले की भीड़ ने ट्रस्ट के मैनेजर को जीभरकर कोसा, और मंगत भाई की तरह से आवाज़ लगाई। तब तक खबर ट्रस्ट के मैनेजर तक और मंगतभाई के बेटे तक भी पहुंच ही गई थी। संयोग ये कि दोनो मंदिर एक ही समय पर पहंुचे, मंगत भाई के बेटे ने, जो शायद नशे में था, आव देखा ना ताव और मैनेजर के उपर हमला कर दिया, हालांकि बाद में कहने वालों का ये मानना है कि हमला मैनेजर ने किया था, लेकिन मैनेजर का बयान था कि हमला मंगत भाई के बेटे ने किया।
हश्र जो होना था वही हुआ, मंगत भाई का सूखा-साखा बेटा, मैनेजर की कुहनी लगने से वहीं ढेर हो गया। अब तो मुहल्ले का रुख पूरी तरह से मंगत भाई के पक्ष में हो गया, पुलिस बुलाने की धमकियां हुई, बल्कि किसी ने पुलिस को बुला भी लिया। वो तो मैनेजर साहब के संबंध थे पुलिस थाने में कि उन्होने फौरन मामला सुलझा लिया और पुलिस झगड़े में पहुंच कर अपनी उपस्थिती दर्ज कराने से बच गई। लेकिन मैनेजर साहब फंस गए थे, वो रह रह कर मुहल्ले वालों को यकीन दिला रहे थे कि उनका कोई गलत इरादा नहीं था और सिर्फ धर्म के लिए कुछ भी कर जाने की अपनी फितरत के चलते ही उन्होने दिवाली के समय मंदिर की रंगाई के बारे में सोचा था। लेकिन उनके पास इस बात का कोई जवाब नहीं था कि इसके लिए उन्होेने मंगत भाई से क्यूं नहीं पूछा। मंगत भाई रह-रह कर मंदिर के लिए अपनी बरसों की सेवा, जिसे वो बचपन से की गई सेवा कह रहे थे, का हवाला दे रहे थे, अपने होनहार और मंदिर को समर्पित बेटे की बलाएं ले रहे थे और बेटे को कुछ होने की सूरत में मैनेजर को जान से मार कर मंदिर की चौखट पर मर जाने की कसमें खा रहे थे।
तभी उनके बेटे को होश आ गया। हो कुछ यूं रहा था कि मैनेजर उठ कर जाने की कोशिश कर रहे थे, जाहिर है वो इस सब सांसत से अपना पीछा छुड़ाने की कोशिश कर रहे थे, और मंगत भाई थे जो मौके की नज़ाकत को समझे बैठे थे और उसी वक्त ये फैसला कर लेना चाहते थे कि मंदिर पर मैनेजर कभी कब्जा जमाने की कोशिश ना करें। और मुहल्ले वाले अपने शोर-गुल में लगे हुए थे, ना उन्हे इस बात की फिक्र थी कि मंदिर किसके पास जाता है, और ना इस बात की, कि मंगत भाई और उनके बेटे का क्या होता है। उन्हे बस मजा आ रहा था। मैनेजर ने मंगत भाई के कंधे पर हाथ रखा और उन्हे एक तरफ को खींचने लगा, पहले तो मंगत भाई ने विरोध प्रकट किया, लेकिन आखिरकार वो उसके साथ खिंचते हुए चले गए। दोनो में कुछ देर कुछ बात हुई और फिर जब वो वापस आए तो मुहल्ले वालों के मनोरंजन का साधन खत्म हो चुका था।
इसके बाद वाले दिन से आज तक, मंगत भाई की दुकान नहीं खुली। वो दुकान जो साठ साल पुरानी लगती थी, अब बंद हो चुकी है। वैसे भी कम ही चलती थी, क्योंकि उसके मुकाबले और बहुत सी दुकाने खुल चुकी थीं। पीपल वाले मंदिर के ट्रस्ट के मैनेजर इस मंदिर के बोर्ड के सदस्य बन गए हैं, मैनेजर मंगत भाई हैं।
अब मंगत भाई और उनका बेटा मंदिर का काम संभाल रहे हैं। उन्होने मंदिर में एक पुजारी रख छोड़ा है, कुछ 20-21 साल का एक लड़का है, जिसे जाने कहां से ये कह कर लाया गया है कि खानदानी पुजारी है, और सबकुछ बहुत पवित्रता से करता है। मंदिर का नाम अब भी मंगत भाई वाला मंदिर ही है, हालांकि बाहर लगे बोर्ड पर ये ”प्राचीन” सनातन धर्म मंदिर है, लेकिन मुहल्ले वाले इसे अब भी मंगत भाई वाला मंदिर के नाम से ही जानते हैं। मंगत भाई वही सुबह चार बजे उठते हैं, लेकिन अब वो अपनी पुरानी दुकान पर नहीं बैठते, उन्होने अपनी नई दुकान संभाल ली है, उन्हे यकीन है कि उनकी पुरानी दुकान जिससे उनके बेटे की गृहस्थी चलने की कोई उम्मीद नहीं थी, ये नई दुकान उसकी गृहस्थी भी चला देगी।

Bhai Saheb, upanyas likhne ka waqt aa gaya hai. Kandoosa aur pacchas rupaya padh kar bahot hi accha laga.
जवाब देंहटाएंGhatnaon aur un ghatnanon ke beech jo pech hai, woh paatron ki masoom harkaton men dhool ki tarah jam jaate hain. Sajeev ho uthtee hain ek dukan, ek purana mandir aur purana ghar. Bhai wah!
thank you
जवाब देंहटाएंउम्दा लेखन ..
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