बुधवार, 17 अगस्त 2016

मौत का ठिकाना



मौत का ठिकाना

जिस दिन उसे कत्ल होना था, उसे पता नहीं था कि वो उसकी जिंदगी का आखिरी दिन है, जैसे अमूमन किसी का पता नहीं होता कि वो उनकी जिंदगी का आखिरी दिन है। हालांकि मैने एक ऐसे इंसान के बारे में भी सुना है जिसे अपनी मौत के बारे में पूरी तरह पता था, जिसने बताया था कि वो किस दिन, किस जगह, और किस तरह मरेगा, यहां तक कि उसे ये तक पता था कि उसे मारने वाले उसके शरीर पर कहां-कहां वार करेंगे, और जब वो मरा तो उस पर शक करने वालों ने साफ देखा कि वो बिल्कुल वैसे मरा था, या कत्ल किया गया था जैसा कि उसने बताया था। दुनिया के जिस हिस्से में मैं रहता हूं, वहां याद के बहुत लंबे दायरे में मैने कोई स्वाभाविक या प्राकृतिक मौत नहीं देखी। जिसे भी मरते देखा कत्ल होते ही देखा, या सुना है। यहां तक की, प्राचीन भैंरों मंदिर वाले बाबाजी, जिनका जोरू ना जाता भगवान से नाता वाला हिसाब-किताब था, जिनकी किसी से कोई दुश्मनी नहीं थी, यहां तक कि वो किसी से दान-दक्षिणा तक नहीं मांगते थे, एक दिन उसी प्राचीन मंदिर की उससे भी प्राचीन मूर्ति वाले चबूतरे के पीछे मरे पड़े मिले थे, जिसने भी उन्हे मारा था, बहुत नफासत से लोहे का सुंआ उनके दिल के आर-पार कर दिया था। मरे तो शायद वो आराम से ही थे, क्योंकि उनकी लाश बहुत आराम से लेटी हुई थी, दांत बाहर की तरफ निकले हुए दिखाई दे रहे थे और कहीं से भी खून निकला नहीं दिख रहा था। 
हमारे यहां पुलिस का फेरा इतना ज्यादा लगता है कि पुलिस वालों ने गांव के बाहर की तरफ एक स्थाई चौकी ही बना ली है, हालांकि वहां रहता कोई नहीं, दिन भर कुत्ते आराम करते हैं, और रात में वो सारे गांव के चरसी-भंगेड़ियों का अड्डा बन जाता है। जब पुलिस वालों ने वहां नई चौकी बनाई थी तब पहले-पहल वहां बड़ी गहमा-गहमी रही थी। रोज़ दो पुलिस वाले मय बंदूक और कारतूस वहां बैठते-सोते थे। गांववालों ने उनकी खूब आव-भगत भी की, किसी घर से उनके लिए बढ़िया मलाईदार दूध जाता था, कहीं से ताजे मक्खन के साथ परांठे जाते थे, और रोज़ चाय का जुगाड़ होता था। लेकिन एक दिन जब खुद एक पुलिस वाले की लाश सुबह-सुबह खेत की मेड़ पर मिली, जहां वो शायद दिसा-मैदान के लिए गया था। तो पुलिस वालों की वो चौकी वीरान हो गई। हालांकि मारने वाले को शायद पता नहीं था कि मकतूल पुलिस वाला था, क्योंकि वो दिसा-मैदान के लिए वर्दी पहन कर नहीं गया था। पुलिस वालों ने उस कत्ल के बाद, बड़ी हाय-तौबा मचाई, गांव के लगभग सारे पहचाने हुए कातिल और गुंडे-बदमाश पकड़ लिए गए, यहां तक कि नीमपागल नसेरू तक को पुलिस पकड़ कर ले गई। कुल 39 लोग पकड़े गए थे। हालांकि गांव के लोगों को पुलिस की पकड़ की आदत थी, लेकिन एक साथ इतने लोग बस तब ही पकड़े गए थे जब वो पुलिस वाला कत्ल हुआ था। खैर पुलिस को कभी पता नहीं चला कि आखिर उस पुलिस वाले को किसने मारा था और क्यों मारा था, और अंततः पुरानी रंजिश का मामला बता कर, नामालूम कातिलों के नाम रिपोर्ट में लिख कर मामले का बंद कर दिया गया। वो सारे लोग जिन्हे पुलिस ने छोड़ दिया था, वापस गांव आ गए, सिवाए गिरिजा के जिसे गांव वाले धांधू कहते थे। 
गिरिजा कोई कातिल था भी नहीं, वो तो हल्ले में पकड़ में गया था, वरना कोई समझदार इंसान एक नज़र उसे देख कर कह सकता था कि उसने जिंदगी में कत्ल तो क्या किया होगा, किसी को जोर से डांटा तक नहीं होगा। और अगर डांटा भी होगा तो उसकी डांट का कोई असर किसी पर पड़ा होगा इसमें संदेह ही होगा। गिरिजा के बाप के पास कोई चार-पांच बीघे की खेती थी, जैसे गांव में और सबके पास थी, किसी के पास थोड़ी कम थी और किसी के पास थोड़ी ज्यादा थी। पूरे गांव में एक लगातार चलने वाली रार थी जिसमें हर कोई दूसरे की जमीन पर काबिज़ होने के मौके की तलाश में रहता था। गांव में हर कोई, हर किसी से किसी ना किसी तरह संबंधित था, और हर किसी के पास कहानी थी कि किसी जमाने में जब पुरखे यहां आए थे तो जमीन का कितना हिस्सा उसके पुरखे के हिस्से में आया था और कैसे किसी दूसरे के पुरखे ने धोखे से वो हिस्सा उससे छीन लिया था। अब इस पीढ़ी का ये फर्ज था कि कैसे ना कैसे जमीन का वो हिस्सा वापिस लिया जाए, तभी उस पुरखे की आत्मा को चैन मिलेगा जिससे धोखे से ये जमीन हथिया ली गई थी। जिनके पास जमीन नहीं थी, उनकी कहानी इससे जुदा नहीं थी, और अगर उनके पास कहानी नहीं थी तो भी वो किसी ना किसी पार्टी का हिस्सा तो ज़रूर थे। 
खै़र, गिरिजा के बाप के पास जो चार-पांच बीघे जमीन थी, उसके पीछे भी यही किस्सा था, और उसके रिश्तेदार, जो उसके चाचा-ताउ थे, उस जमीन को अपने हिस्से में देखना चाहते थे। खुद गिरिजा का बाप अपने भाइयों की जमीन कब्जे में करना चाहता था। जब गिरिजा का बाप अपने छोटे भाई के साथ बैठता था तो अपने बड़े भाई को धोखा देने के मंसूबे बनाता था और जब बड़े भाई के साथ बैठता तो छोटे को रास्ते से हटाने के सपने देखता था। यकीनन जब बड़ा भाई और छोटा भाई, यानी गिरिजा के ताउ और चाचा साथ बैठते होंगे तो वो गिरिजा के बाप को रास्ते से हटाने के सपने देखते होंगे। आखिरकार गिरिजा के ताउ या चाचा का दांव लग गया और एक दिन गिरिजा के बाप की टूटी-फूटी लाश, अड़सी बाग के किनारे पर मिली, पता नहीं वो वहां क्या करने गया था। पर कहा जाता है ना कि जिसकी जहां आई होती है, वो वहीं जाकर मरता है। गिरिजा का बाप सिर्फ गिरिजा का ही बाप नहीं था, वो गनेस, ज्ञान और गुड्डो यानी कमला का भी बाप था। इनमें गनेस बहुत तेज़ था, हालांकि वो गिरिजा और ज्ञान दोनो से छोटा था, लेकिन लाठी चलाने में, किसी का सर फोड़ देने में, और बात-बेबात पर गाली देने में उसे महारत हासिल थी। ज्ञान इन मामलों में उससे थोड़ा कम पड़ता था और इस कमी को उछल कर और बहुत शोर मचाकर पूरा किया करता था। और गिरिजा इन मामलों में बिल्कुल निकम्मा था। इतना निकम्मा था कि रोज़ स्कूल जाता था, और अव्वल आता था। 
तो गिरिजा के बाप के मरने के बाद जब चाचा ने अपनी जमीन की मेढ़ को बढ़ाने की जुगत की, तो गनेस और ज्ञान दोनो ही मरने-मारने पर उतारू हो गए। चाचा के पास लाठी चलाने वाले हाथों की कमी थी इसलिए उसे पीछे हटना पड़ा, इधर जब ताउ ने जोर मारा तो एक के बदले दो चोटें मिलीं। हुआ यूं कि ताउ ने रात की रात अपनी जमीन की मेंढ़ जो गिरिजा के बाप की जमीन की मेढ़ से मिली हुई थीं तोड़ डालीं और सुबह चार लोग यानी ताउ खुद और उसके तीन बेटे जमीन पर पहुंच कर लगे मेढ़ बनाने। इधर जैसे ही ज्ञान को पता चला तो वो गनेस और गिरिजा को लेकर खेत पहुंच गया और उसने वहां वो रौला काटा, कि बिना सिर फुटौवल के ही ना सिर्फ ताउ को पीछे हटना पड़ा बल्कि अपनी जमीन का कुछ हिस्सा भी गंवाना पड़ा। क्योंकि किसी वजह से उस दिन गांव में पुलिस का फेरा लगा हुआ था, और ऐसे में कोई फौजदारी संभव नहीं थी, और ज्ञान का शोर ऐसा था कि ताउ को लेने के देने पड़ सकते थे। हालांकि गांवो में अक्सर ऐसी रारा निपटाने के लिए पटवारी की बही पर भरोसा किया जाता है। लेकिन गांव के लोग पटवारी के पास जाना बंद कर चुके थे, क्योंकि गांव का पटवारी जिसके पास गांव की एक-एक इंच जमीन का हिसाब होता था, उसकी बन आती थी। हालांकि सारे गांव को पता था कि पटवारी की बही उसी के लिए सही, जिसकी जेब भारी होगी, लेकिन सारे उसके आगे-पीछे चक्कर काटते थे, और उसकी बही में काटा-पीटी करवाते थे। कटवाते-लिखवाते उसकी बही ऐसी हो गई थी जिसमें रकबे के नंबर दिखते ही नहीं थे बल्कि सिर्फ आड़ी-तिरछी लकीरें दिखती थीं। और आखिर इसका हल गांववालों ने ये निकाला कि कोई पटवारी की बही पर यकीन ही नहीं करता था, अपनी लाठी पर भरोसा करता था। 
खैर, ताउ और चाचा ने अपनी हार का बदला यूं निकाला कि पहले एक दिन गनेस अपने ही खेत में पाया गया, उसका भेजा बाहर बिखरा हुआ था, और फिर एक दिन ज्ञान को भी खेत में ही गंडासे से काट डाला गया। गिरिजा की मां ने तबसे गिरिजा का बाहर निकलना ही बंद कर दिया। जब गांव की पुलिस चौकी वाले पुलिस वाले का कत्ल हुआ और उसके हल्ले में धर-पकड़ शुरू हुई तो गिरिजा को भी पकड़ लिया गया, क्योंकि पकड़ करने वालों में एक पुलिसिया ऐसा भी था जिसने गिरजिा को ताउ के साथ हुए झगड़े में देखा था, और उसे लगा कि वो भी कत्ल करने की सिफत रखता है। तो इस तरह गिरिजा पकड़ा गया और बाकी 38 लोगों के साथ बंद कर दिया गया। जब पुलिस वाले के कत्ल का केस बंद हुआ ओर पुलिसवालों ने गांव वालों एक-एक, दो-दो करके रिश्वत के साथ छोड़ना शुरु किया तो गिरिजा के घर में रिश्वत देने वाला कोई नहीं बचा था। उसकी मां थी जिसे ये भी नहीं पता था कि उसे कहां जाना है, किसे रिश्वत देनी है। इसलिए वो छूटने वालों में सबसे आखिर था, लेकिन किसी को नहीं पता कि वो कैसे छूटा, कहां गया, क्योंकि छूटने के बाद वो गांव तो नहीं आया और गांव वालों को काफी देर तक यही लगता रहा कि वो जेल में ही बंद है। पुलिस वालों की इस फितरत से इस दुनिया का हर शरीफ आदमी या सिर्फ आदमी वाकिफ है ही, कि अगर वो किसी को पकड़ लें तो फिर उस पर किसी ना किसी किस्म का इल्जाम लगा कर एक पंथ दो काज करते हैं, एक तो किसी केस को हल करने का तमगा हासिल करते हैं, दूसरे अपना रौब यानी ”जेल में सड़ा दूंगा...” वाला रौब कायम रखते हैं। तो कुल मिलाकर जब गिरिजा छूटा तो गांव में किसी को नहीं पता था कि वो जेल से छूट चुका है। 
जेल में गिरिजा को सोचने का बहुत समय था, उसके गांव वाले तरह-तरह की बातें करते थे, और वो चुप उनकी बातें सुनता था। पकड़े जाने वालों में उसका ताउ और उसके तीनों बेटे भी थे, जो निगाहों में ही उस पर भाले-बर्छियां बरसाते थे। बाकी गांववाले भी थोड़े दूर के और थोड़े करीब के उसके रिश्तेदार ही थे। इनकी बातों को सुनकर, जिनमें ज्यादातर बातें, इसकी जमीन और उसकी जमीन से संबंधित होती थी, उसकी समझ में ये आया कि गांव जाकर वो एक ही हालत में रह सकता है, कि या तो वो अपने में ये माद्दा पैदा करे कि हर वक्त किसी ना किसी की जमीन पर काबिज होने के बारे में सोचे या फिर अपनी जमीन छोड़ दे और गांव भी छोड़ दे। और जब जमीन छोड़नी ही ठहरी तो गांव जाने का फायदा क्या हुआ। इसलिए जब वो जेल से छूटा तो गांव जाने की बजाय उल्टी तरफ चल पड़ा और शहर जाकर नौकरी करने लगा। पहले तो उसने एक बिल्डिंग में गार्ड की नौकरी की, फिर उसने ड्राइविंग सीख ली और एक कोठी में ड्राइवर लग गया। ना उसने कभी गांव जाने के बारे में सोचा और ना ही गांव में ऐसा कुछ था जो उसे वापस जाने के लिए सोचने के बारे में उकसाता। 
शहर में वो पहले एक खोली किराए पर लेकर रहता था जिसमें उसके साथ तीन और लोग रहते थे। फिर जब वो ड्राइवर हो गया तो उसे कोठी में ही एक कमरा मिल गया और वो वहां खानसामा के साथ रहने लगा। धीरे-धीरे उसे ये जिंदगी रास आने लगी और वो इसमें खुश रहने लगा। जब गांव में था तो स्कूल में अच्छे नंबर लाता था और मास्टरों का कहना था कि वो कुछ ना कुछ बन कर दिखाएगा। इधर कोठी के मालिकों की बेटी ने, जिसे वो रोज़ कॉलेज छोड़ने जाता था और फिर शाम को क्लब लेकर जाया करता था और भी कई जगह ले जाया करता था, उसमें दिलचस्पी लेना शुरु किया। जहीन तो वो था ही, साथ ही शक्ल सूरत से भी ठीक था। काफी दिन शहर में रहने की वजह से शहर की बोली और अंदाज़ भी सीख गया था। इसलिए उसमें और कोठी के मालिकों की बेटी में दोस्ती हो गई। कोठी के मालिक की बेटी ने उसमें और दिलचस्पी दिखाई तो उसे भी उसकी दोस्ती रास आई और उसने आगे की पढ़ाई शुरु कर दी। चार-पांच साल जो उसने उस कोठी में बिताए, उसमें उसने पहले 12वीं पूरी की, और फिर ग्रेजुएशन किया, ग्रेजुएशन के बाद उसकी दोस्त यानी कोठी के मालिक की बेटी के कहने पर कोठी मालिक ने उसे अपनी ही कंपनी में ज़रा बेहतर पद पर नौकरी दे दी। और यूं उसकी जिंदगी की गाड़ी पटरी पर आ गई, बल्कि उसे तो ये भी लगने लगा कि उसके मास्टर जो उसके बारे में कहते थे वो सही कहते थे कि आखिर वो कुछ बन कर ही दिखाएगा। नौकरी करते-करते उसने कुछ पैसे जोड़ लिए, पहले कोठी में ही रहता था, फिर किराए का घर ले लिया, और फिर वो शहर में ही चल रही कई सस्ते घर और, आसान किस्तों वाले घर के सपने देखने लगा। 
जिंदगी ठीक ही चल रही थी और कोई बड़ी बात नहीं थी कि वो शहर में कुछ बन के दिखा देता। पर उसे तो कत्ल होना था, और वो भी उस गांव में जिसमें लोग कत्ल होते थे। अपनी ही कंपनी में उसे सुधा मिली, जो शहर की ही पली-बढ़ी लड़की थी। शहर के ज्यादातर लोगों की तरह उसके पिताजी, कई साल पहले, जब वो बहुत छोटी थी, शहर में आकर बस गए थे, और किराए के घर में रहते थे। सुधा बहुत ठीक-ठाक सी लड़की थी, अपनी सीमा और मेयार जानती थी, जैसे ग्रेजुएशन करने के बाद उसने आगे पढ़ने के बारे में सोचा ही नहीं था, उसे पता था कि उसे हर हाल में अपने बुढौती की तरफ बढ़ते बाप की मदद करनी है, किसी तरह अपने भाई को पढ़ाना है यानी कुल मिलाकर परिवार पालना है। उसकी योजना बहुत सीधी-सादी थी और उसमें किसी बदलाव की गुंजाइश नहीं थी। इस योजना के चलते उसे बहुत इधर-उधर तांक-झांक नहीं करनी थी, घर से ऑफिस आना था और ऑफिस से सीधे घर जाना था। लेकिन ऐसा हो तो नहीं सकता था, आखिर वो गिरिजा एक ही ऑफिस में काम करते थे, पहले नज़रें मिलीं, फिर वो एक दूसरे को अच्छे लगने लगे और आखिरकार, दोनो में प्यार हो गया। जो कि बहुत स्वाभाविक भी था, क्योंकि एक लड़का था, दूसरी लड़की थी, दोनो उस उम्र में थे, जिसमें प्यार बुखार की तरह होता है, जिसके पीछे कोई तर्क नहीं होता। इस बुखार को, यानी प्यार को उतरने में बहुत देर भी नहीं लगती, चाहे आप कोई दवा करो या ना करो, लेकिन अक्सर लोग बुखार के लिए दवाइयां लेते हैं, डॉक्टर के पास जाते हैं। डॉक्टर की दवा से बुखार चाहे ना उतरे लेकिन आपको संतोष हो जाता है कि आपने अपनी तरफ से कोशिश की। लेकिन इस बुखार को कई लोग स्थाई भी कर लेते हैं, जिसे हमारे यहां शादी कहा जाता है। सच तो ये है कि इस मुल्क में प्यार कम और शादी के लिए प्यार का जुगाड़ ज्यादा होता है। हर लड़की चाहती है कि जिस लड़के को मै पसंद करूं वो शादी कर ले, और हर लड़का चाहता है कि ज्यादा से ज्यादा लड़कियां मुझे पसंद करें लेकिन शादी कोई ना करे, हालांकि दिखाता वो ऐसा ही है कि वो घर से निकला ही ये निश्चय करके है कि जो लड़की उसे पसंद कर रही है, वो उससे ही शादी करेगा, और शादी के अलावा कुछ नहीं करेगा। अगर लड़की समझदार हो तो वो और कुछ करने के लिए शादी का इंतजार करती है, वरना लड़का शादी के अलावा सब कुछ करता है और फिर निकल भागने का जुगाड़ करता है। 
शहर में पली-बढ़ी सुधा इस मामले में कुछ अपनी सहेलियों से सीख चुकी थी और कुछ उसे अपना भी इल्म था, जैसे ज्ञानी लोग खुद भी बहुत कुछ सीख जाते हैं, उपर से गिरिजा कुछ उस किस्म का नहीं था, और उसे बहुत कुछ पता नहीं था, लड़कियों के बारे में, कुल मिलाकर चार लड़कियों से उसकी करीब से जान-पहचान हुई थी, एक उसकी मां, दूसरी उसकी बहन, तीसरी उसकी इकलौती दोस्त कोठ मालिक की लड़की और चौथी सुधा। तो प्यार जब और कुछ करने की हद तक पहुंचा तो सुधा ने शादी की बात की और गिरिजा ने फौरन हां कर दी। यहां से असल बात शुरु होती है। असल में बात है जड़ की, लोग जहां से भी होते हैं, अपनी जड़ों का कुछ हिस्सा अपने साथ लेकर चलते हैं। गांव से इसलिए भाग आए कि गांव में रीति-रिवाजों के बहुत पचड़े होते हैं, और आप परेशान हो गए थे। शहर में जब तक रह रहे थे, कोई रीति-रिवाज़ नहीं माना, यानी वो किया जिसकी सुविधा हुई। जनेउ गायब, दिन में एक टाइम नहाना हो जाए काफी है, हर हफ्ते बीवी के साथ सिनेमा में फिल्म देखने जाएंगे, और वो सारे काम करेंगे कि अगर गांव या जाति के लोगों को पता चल जाए तो आपकी ऐसी की तैसी कर दें, लेकिन जैसे ही शादी की बात आएगी, गांव, जाति, समाज की सारी आड़ी-तिरछी बातें याद आ जाती हैं। जैसे जाति-समाज घर की छत पर ही बैठा हुआ है तो देखने लगा कि आप क्या और कैसे कर रहे हो। खैर सुधा के पिता ने जिनका अब भी घर पर कुछ हक था, साफ शब्दों में कह दिया कि लड़के के घर-परिवार से मिले बिना ये रिश्ता नहीं होने वाला। वैसे मेरा मानना ये है कि उसके पिता चाहते ही नहीं थे कि सुधा की शादी हो, आखिर शादी हो जाती, तो उनका अपना क्या होता। जब गिरिजा ने उन्हे बताया कि उसकी वापस गांव जाने की कोई इच्छा नहीं है, और गांव में उसकी मां है, और तीन-चार बीघा खेत है, तो वो रिश्ते के लिए राज़ी हुए लेकिन इस शर्त के साथ कि वो गांव जाए और अपनी मां को साथ लेकर आए। यूं गिरिजा की मौत उसे गांव लेकर आई। क्योंकि जिसकी जहां आई होती है, वो वहीं जाकर मरता है। 
गांव में ये खबर लोगों को बहुत देर बाद मिली कि गिरिजा जेल से छूट गया है लेकिन गांव वापस नहीं आया है। गांव के पेशेवर मुखबिर, यानी वो जिसे पुलिस वाले गुप्त सूत्र कहते हैं, ने ही गांव वालों को बताया कि गिरिजा को तो जेल से छूटे तीन साल हो चुके हैं, और वो गांव वापस नहीं आया। इन तीन सालों तक गिरिजा के ताउ और चाचा ने बहुत सब्र किया था, उसकी जमीन को थोड़ा-थोड़ा ही दबाया था, लेकिन जब उन्हे लगा कि गिरिजा नहीं आने वाला तब तो पूरा खेत खुल्ला खेल फरुर्खाबादी था। बस एक ही अड़चन थी, गिरिजा की बहन कमला और उसकी मां, जिसका हल ये निकाला गया कि ताउ और चाचा ने कमला का ब्याह एक दुहाजू से करवा दिया, जिसने दहेज में तीन लाख रुपये दिए, जिसमें से कमला की मां को ईमानदारी से एक लाख रुपया दिया गया, और बाकी एक-एक लाख रुपये और जमीन का आधा-आधा हिस्सा दोनो भाईयों के हिस्से आया। गिरिजा की मां ने वो रुपया बैंक में रख दिया, और अपने जेवर गहने बेचकर, पति की कमाई के साथ सबकुछ बैंक में रख दिया और उसका ब्याज खाते हुए अपने आखिरी दिन गिनने लगी। उसे ये यकीन हो चुका था कि उसका सबसे बड़ा बेटा यानी गिरिजा भी कत्ल हो चुका है, जिसकी खबर तक उसे नहीं दी गई है। ऐसे में छह साल बाद जब गिरिजा खुद गांव पंहुचा तो उसकी मां को पहले तो यकीन ही नहीं हुआ, और उसके बाद यकीन हुआ तो खुल कर यकीन हुआ। 
यकीन गिरिजा के ताउ और चाचा को भी पूरा हुआ कि गिरिजा वापिस आ गया है। अब उन्हे चिंता हुई कि वो अपनी जमीन वापस मांगेगा, या लड़कर लेगा, उपर से तुर्रा ये कि वो जब आया तो कोट-पैंट पहन कर आया था, लगता था कि पैसा-वैसा कमा कर आया है। और जिसके पास पैसा उसके पास पटवारी और पुलिस दोनो का दबाव होना ही होना था। ताउ चाचा की नींद हराम हुई, और एक बार फिर दोनो में, अपने भतीजे यानी गिरिजा, यानी एक दुश्मन के खिलाफ मंसूबे बनने लगे। इन बातों से बेखबर गिरिजा, थोड़ा पुराने दिनों की यादों में खोने लगा था, वो खेतों में घूमता था, गांव को देखता था। उसने अपनी मां से अपनी शादी की बात नहीं की थी, हालंाकि वो ज्यादातर बातें बता चुका था, और चाहता था कि मां को शादी की बात के लिए थोड़ा सा तैयार कर ले, इसलिए कुछ दिन गांव में ठहरा हुआ था। सुधा को बताकर आया था कि उसे कम से कम दस दिन लगेंगे। उसे गांव खेत घूमने का उसके ताउ चाचा ने दूसरा ही मतलब निकाला, उन्हे लगा कि वो अपनी जमीन की पैमाइश कर रहा है, और जल्दी ही अपना दंाव चलेगा। 
गिरिजा को वापस जाना था क्योंकि वो ऑफिस से दस ही दिन की छुट्टी लेकर निकला था और ग्यारहवें दिन उसे ऑफिस में हाजिर होना ही था, करीब एक हफ्ते के इंतजार के बाद आखिर आठवें दिन रात को खाना खाते हुए उसने अपनी मां को अपनी शादी का किस्सा बताया और उससे अपने साथ शहर चलने के लिए कहा। उसकी मां जिसका अपना वैसे ही गांव में कोई नहीं था उसके साथ चलने को तैयार हो गई और दोनो ने मिलकर अपने-अपने मंसूबे भी बना लिए, दूसरे दिन सुबह उसकी मां खुश थी, वो खुद भी खुश था। उसकी मां ने उसका पंसदीदा काले चने की घुटी हुई सब्जी और परांठे का नाश्ता बनाया जो उसने जी भर कर खाया और फिर यूं घूमने के लिए निकलने के लिए उठा। उसकी मां ने उसे छाछ का गिलास दिया, जो वो पड़ोस से मांग कर लाई थी, और उसे पता था कि गिरिजा को भुने हुए जीरे वाली छाछ बहुत पसंद थी। गिरिजा ने खूब चाव से छाछ पी और पी अपना दाहिना हाथ मंुह पर फेरा जहां छाछ का गीलापन लग गया था। फिर उसने गिलास का दरवाजे के पास वाली छोटी अल्मारी पर रखा और मुड़कर बाहर निकल गया। उसकी मां को उसका यही आखिरी रूप याद रहा। उस रात गिरिजा वापस नहीं आया और दूसरे दिन दो पुलिस वाले एक गोबर ढोने वाली बैलगाड़ी पर उसकी लाश लादकर शिनाख्त के लिए उसके घर लाए । उसकी कटी-फटी लाश वहीं अड़सी बाग के किनारे मिली थी जहां उसके बाप की लाश मिली थी। किसी को पता नहीं था कि वो अड़सी बाग क्या करने गया था, लेकिन कहा जाता है जिसकी जहां आई होती है, वो वहीं जाकर मरता है। 

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