गुरुवार, 28 मार्च 2013

अमावस




तीसरा पन्ना 

ट्रेन अपनी गति से चलने लगी, और ट्रेन में मौजूद सभी लोग ऐसे हिचकोले लेने लगे जैसे किसी कपडे के झूले में बैठे हों। पहले तो करुआ  अपने शारीर को अटाने के लिए इधर उधर नज़र दौड़ाई, फिर ये देख कर की कहीं भी, किसी कोने में भी टिल धरने तक की जगह नहीं है, वो पेशाब घर वाले गलियारे में चला गया जहाँ पहले ही दो औरतें अपने बड़े बड़े गठ्ठर लेकर बैठी थीं। सूखी निचुड़ी मुची औरतें जो अक्सर इसी तरह के डिब्बों की शोभा होती हैं, जो बेनियाज़ होती हैं, बहुत ही फुर्सत वाले अंदाज़ में अपनी भरी पोटली के ऊपर या आजू बाजू बैठ कर बातें करती हैं, जिनका एक भी शब्द आपकी समझ में नहीं आ सकता। वहीँ दो तीन आदमी कोनो पर खड़े थे। आमतौर पर इस तरह के जनरल के डिब्बों का रास्ता रिजर्व्ड डिब्बों के लिए बंद होता है। यानी अगर आप जनरल डिब्बे में बैठे हों तो आपको उसी में रहना पड़ता है, उनसे होकर कहीं और नहीं जाया जा सकता। करुआ उन्ही लोगों के पास जाकर खड़ा हो गया। और इधर उधर ताक झाँक करने लगा। 

गाडी ने जब रफ़्तार सी पकड़ ली तो उसे ऊंघ सी आने लगी। लेकिन जेब में मौजूद पैसों की चिंता के चलते वो सो भी नहीं सकता था। क्या पता जैसे ही उसकी आँख लगे कोई उसकी जेब ही मार ले, उसके पैसे उड़ा ले। जब गाड़ी चले हुए २ घंटे से ज्यादा हो गया और उससे बर्दाश्त नहीं हुआ तो वो बाकी डिब्बे में अपने लिए जगह तलाश करने निकला, अब तक सभी जनरल सवारियां अपनी अपनी जगह सेट हो चुकी थीं इसलिए एक ख़ास किस्म की घुर मुर की आवाज़ आ रही थी, जैसे भिड के छत्ते के पास से आती है। वो हर कोच में जाकर इधर उधर निगाह मरने लगा, जैसे ही वो किसी कोच में जाता लोग उसे घूरने लगते, एक एक सीट पर ८-८ लोग बैठे हुए थे। ज़मीन पर ४-४ लोग बैठे थे। जनरल का डिब्बा इस तरह भी रिज़र्व के डिब्बों से अलग होता है कि उसमे गद्दों वाली सीट नहीं होती बल्कि लोहे के जंगलेनुमा फ्रेम पर लकड़ी के फत्ते कसे होते हैं। उन पर आप बैठ सकते हैं, सो सकते हैं, और चाहे तो खड़े भी हो सकते हैं, चाहें तो। ऐसे ही एक कम्पार्टमेंट में उसने देखा की कुछ लोग भीड़ लगा कर खड़े हैं, और एक आदमे नीचे वाली सीट पर खड़ा हुआ एक पेन को पंखे की जाली में घुस कर उसे चलने की कोशिश कर रहा है। बाकी लोग इस तरह उसे देख रहे थे जैसे वो दुनिया का सबसे दिलचस्प काम हो . वो भी उस भीड़ में शामिल हो गया, थोड़ी देर तक तो वो आदमी अपने पेन के साथ पंखे से जूझता रहा फिर अचानक उसने झुंझला कर एक जोर का झटका दिया, पंखा तो उस झटके से नहीं चला लेकिन उसका पेन आगे से टूट गया। पूरी भीड़ पर जैसे मुर्दनी सी चा गयी। उस आदमी ने पेन को झुंझला का खिड़की से बहार फेंक दिया और उचक कर ऊपर वाली बर्थ पर चला गया। 

अब ये एक दिलचस्प बात थी। जनरल के डिब्बे में, कम से कम दिन के समय तो कोई भी सीट लेटने के लिए नहीं होती, नीचे आठ आदमी बैठते हैं, तो ऊपर कम से कम पांच लोग। और अगर किसी ने बैठने की जुर्रत की तो ऐसा घमासान मचता है की लोग हल्दीघाटी भूल जाएँ। लेकिन ये आदमी ठाठ से ऊपर लेता था और लोग आराम से नीचे वाली सीटों पर बैठे थे। 
"तो में क्या कह रहा था ........हाँ .......अरे हम जब बौडर पर होते हैं तो ये नई देखते की गोली किसे लगेगी, निकली है सुसरी बन्दूक से तो भैया कहीं न कहीं तो लगेगी।" ऊपर लेता आदमी नीचे झाँक कर बोला।  
कुछ लोगों ने सर हिलाया और कुछ लोगों ने हुंकार भरी। करुआ थोड़ी देर तक तो दो कम्पार्टमेंट को अलग करने वाली पट्टी दे साथ लग कर खड़ा रहा फिर मौका ताड़ कर जमीन पर सरक गया। किसी का ध्यान इस तरफ नहीं गया की वो नीचे को सरक गया है और उसने पट्टी से पीठ लगा ली है , टाँगे पसार ली हैं, और वो आराम करने लगा है, वैसे भी ज़्यादातर लोग ऊपर लेते हुए उस आदमी के बातें सुन रहे थे। फिर जैसा की होता है, किसी के पैर से उसका पैर टकराया और वो जो सीट पर बैठा था हुंकार कर बोला, 
"क्यूँ बे, यहाँ कायकू बेठ गया। कहीं और जाके मर, यहाँ जगे नई ऐ।"
उसने कोई जवाब नहीं दिया, सब उसकी तरफ देखने लगे थे, वो भी सबकी तरफ देख रहा था. उसके चेहरे पर बेचारगी दे भाव आ गए, हालांकि उसे गुस्सा आ रहा था. तभी ऊपर लेते आदमी ने कहा, 
"टिकट है तेरे पास।" 
उसने टिकट निकाल कर दिखा दिया। 
"अच्छा, बैठने दो यार बच्चा है ......" उसे धकियाने वाला पीछे पीठ टिका कर बैठ गया जैसे उसे कोई फर्क नहीं पड़ता, वो तो दूसरों के भले के लिए कह रहा था. ऊपर वाले आदमी ने उससे पुछा, 
"कहाँ जायेगा?"
"गाँव ......" उसने कहा
"अच्छा-अच्छा बैठा रह "
तभी गाडी की रफ़्तार कम होने लगी, और एक झटके के साथ गाडी रुक गयी, कोई स्टेशन आया था, क्यूंकि स्टेशन की चिल्ल पों शुरू हो चुकी थी, लोग डिब्बे में चढ़ने की कोशिश कर रहे थे और जो डिब्बे में थे वो पूरी कोशिश कर रहे थे कि कोई और डिब्बे में ना आ पाए, ऐसा लग रहा था जैसे एक घमासान चल रहा हो. ऊपर वाला आदमी गर्दन नीचे की तरफ मोड़ कर बहार देखने की कोशिश कर रहा था. 
"......अरे कोई पूरी वूरी वाला हो तो रोकिओ ....."
लेकिन इतनी धकापेल में कौन सामान वाला अपनी ऐसी तैसी करवाता, 
"ये साले ऐसे नहीं सुधरेंगे ......" और उसने भरी सी डकार मारी और फिर सीधा लेट गया। कुछ एक दो आदमी उस कम्पार्टमेंट के सामने से निकले लेकिन वहां रुके नहीं। भूक तो करुआ को भी लगी थी, वो वहां से उठा और इधर उधर से जगह बनाता हुआ बाहर को निकल गया, थोड़ी ही दूर पूरी वाला खड़ा था जिसकी खोमचेनुमा गाडी पर एक टोकरी में अखबार के ऊपर पूरीओं का ढेर लगा हुआ था. करुआ ने जेब से २० रुपए निकाल कर दिए तो पूरी वाले ने उसे दो पत्तल में सब्जी और कुछ पूरियां पकड़ा दीं। वो जल्दी से अपने डिब्बे की तरफ बढ़ा और खिड़की में से झाँक कर उसने सब्जी के पत्तल खिड़की की मुंडेर पर रख दिए, फिर आगे को जाकर दरवाजे से अन्दर आ गया। अन्दर अपनी जगह आकर उसने देखा की ऊपर वाला आदमी उसे ही देख रहा था. करुआ ने चुपचाप पत्तल और पूरी उसकी तरफ बढ़ा दी, पहले तो वो आदमी हिचका फिर न जाने क्या सोच कर वो उठ बैठा और पत्तल पकड़ लिया। 
"कितने का आया ....."
"पता नहीं ....."
" ......अबे पैसे दिए थे ......"
" २० रुपए दिए थे"
"हाँ तो २० रुपए का दो पत्तल हुआ ना"  
उसने अपनी ऊपर वाली जेब में से कुछ नोट निकाले और उसमे से एक १० का नोट अलग करके करुआ की तरफ बढ़ा दिया, करुआ ने नोट ले लिया। करुआ नीचे बैठ कर पूरी खाने लगा, ट्रेन चल पड़ी थी, इतनी धकापेल के बावजूद स्टेशन पर मौजूद सभी लोग ट्रेन में चढ़ चुके थे, और अपनी जगह बैठ चुके थे। ऊपर वाले आदमी ने पूरी खाकर पत्तल को हाथ बढ़ाकर बहार फेंक दिया और पीछे से बोतल निकाल कर पानी पीने लगा। जाने कैसे करुआ के गले में सब्जी का दान फंस गया, वो जोर जोर से खांसने लगा, आँखों से आंसू निकल आये. ऊपर वाले आदमी ने नीचे वाले आदमी को अपनी पानी की बोतल देते हुए उसकी तरफ इशारा किया, नीचे वाले आदमी ने पानी की बोतल उसकी तरफ बढाई तो उसने जल्दी से बोतल ली और ढक्कन खोल कर गटागट एक दो घूँट मारे, पानी गले को छूते ही गला साफ़ हो गया और उसकी जान में जान आयी। उसने अपनी पूरियां ख़तम कीं, और फिर थोडा सा पानी और पीकर, अपना पत्तल मोड़ कर खिड़की से बहार फेंक दिया और बोतल ऊपर वाले आदमी की तरफ बढाई जो नीचे की तरफ झुक कर कुछ बात कर रहा था। 
"न न ......तू ही रख ले, वर्ना फिर प्यास लगेगी तो क्या करेगा। कहाँ जायेगा .......हाँ गाँव जायेगा बताया तो था तूने .......ऐसा कर तू ऊपर ही आ जा, आ जा ....चल भाई जवान, जगह दे बच्चे को थोड़ी ...." 
उसने कोने पर बैठे आदमी को बोला। एक पैर सीट पे और दूसरा पैर बहार को निकले हुए हुक पर रखकर वो ऊपर चढ़ गया. ऊपर वाले आदमी ने अपने पैर सिकोड़ लिए और उसके बैठने भर की जगह बना दी। करुआ  से बैठ गया तो उस आदमी ने अपने पैर उसकी पीठ के पीछे से बहार को निकाल लिए। और फिर आराम से लेट कर निचे की तरफ झुक कर बात करने लगा। अब क्यूंकि करुआ आराम से बैठ चूका था इसलिए उसका ध्यान भी उन बातों की तरफ गया, वो आदमी रुक रुक कर अपनी फौजी कारगुजारियां सुना रहा था। यानी फौजी था। गर्मी में बैठे बैठे करुआ को नींद आने लगी, और उसका सर छाती पर लटक गया, फिर अचानक झटके से ही उसकी आँख खुल गयी। ट्रेन फिर किसी स्टेशन पर फुकी हुई थी और शाम हो गयी थी। फौजी सो रहा था और नीचे भी सब लोग सो रहे थे। करुआ थोडा सरक कर नीचे कूदा और फर्श पर बैठे लोगों को अपने पैरों से बचत हुआ डिब्बे से बहार निकल गया. स्टेशन पर उसने पानी की दो बोतल खरीदी और भाग कर ट्रेन पर चढ़ गया। जब वो अन्दर आया तो फौजी जाग चूका था।
"कहाँ गया था ......?"
फौजी ने उससे पुछा 
"पानी लेने ....."
"अच्छा .....ठीक किया, ला एक बोतल मुझे दे दे ......"
उसने एक बोतल फौजी की तरफ बढ़ा दी और एक को बगल में दबा कर फिर ऊपर चढ़ गया। फौजी ने अपने सर के नीचे रखे बैग को खोल और उसमे से दारु की बोतल निकाल ली। बोतल आधी भरी हुई थी . फौजी ने उस आधी बोतल में पानी भर लिया और फिर एक घूँट भरा। 
"अबकी बार ट्रेन रुके तो कुछ खाने को ले अईयो ......ये ले ....."
फौजी उसे सौ का नोट दे रहा था. उसने बिना कुछ कहे वो नोट ले लिया। ट्रेन ने फिर से रफ़्तार पकड़ ली थी, और वो बैठा बैठा हिल रहा था. फौजी बोतल में से घूँट मार रहा था और अधलेटा सा कोई मैगजीन पढ़ रहा था. अब उसकी आँखों में नींद नहीं थी, खिड़की खुली थी और ट्रेन में ठंडी हवा आ रही थी, वो बैठे बैठे अपनी माँ के बारे में सोचने लगा। क्या कहेगी वो जब में जाकर उसे अपने सारे पैसे दे दूंगा। मै कहूँगा कि अब तुझे काम पर जाने की ज़रुरत नहीं है, बनिए का हिसाब करने के बाद जो पैसा बचेगा उससे बैल खरीद लूँगा और अपने जमीन पर ही खेती करूँगा, सुबह उठ कर खेत चला जाया करूँगा और माँ वहीँ खान लेकर आएगी, नहीं, इस्कूल जाना शुरू करूँगा, खेती तो दोपहर में भी हो जाएगी, पढ़ जाऊंगा तो फिर कोई ठाठ की नौकरी करूँगा, लेकिन माँ को काम नहीं करने दूंगा। जब तक नौकरी नहीं लगती खेत पर काम करूँगा, और किसी के यहाँ काम करके घर चलाऊंगा। और भी ना जाने क्या क्या सोच रहा था वो जब अगला स्टेशन आया. फौजी ने गर्दन नीचे करके किसी मुरमुरे वाले को बुलाया और मुरमुरे लिए, फिर फौजी बैठ गया, वो फिर से सरक कर नीचे उतर गया तो फौजी बोला,
"खान पैक करवा के लइयो .......रात में खाएँगे ......."
वो सर हिलाता हुआ चला गया। भूख उसे भी नहीं लगी थी, स्टेशन पर आखिर मिलता ही क्या है, उसने फिर से वही पूरी सब्जी पैक करवा ली। जब वो डिब्बे में वापस आया तो उसने देखा की फौजी ने पकोड़ों और भजिया की प्लेट सामे राखी हुई है, और वो ऊपर वाली बर्थ पर ही अधलेटा सा बैठा है। 
"आ जा .....आ जा ......." 
फौजी ने उसके हाथ से खान ले लिया, वो फिर ऊपर जाकर बैठ गया और उसने अपनी जेब से बाकी बचे हुए पैसे निकाल कर फौजी की तरफ बढ़ाये।
" न न .......रख ले, तू रख ले, अभी फिर कुछ लाना हुआ तो ......."
उसने पैसे चुपचाप जेब में रख लिए .
"ले पकोड़े खा ले ....."
उसने एक पकोड़ा उठा लिया और खाने लगा . फौजी खाता रहा और नीचे झुक कर बात करता रहा, जब एक बोतल ख़त्म हो गयी तो फौजी ने दूसरी निकाल ली, नीचे वाले भी बात कर रहे थे और फौजी उनकी बातों में शामिल था। अचानक फौजी ने कहा,
"सब अनपढ़ हैं ......जो ना हो तो बताओ ज़रा,  की कोयल किसे कहते हैं" 
नीचे अचानक चुप्पी छा गयी, भारत की कोयल, यानी भारत कोकिला .....
" लता मंगेशकर " 
किसी ने कहा,
"एह ....."
फौजी गुर्राया 
"आशा भोंसले"
किसी दूसरे ने कहा 
" सरोजिनी नायडू ......"
करुआ बोला, उसे पता था, इस्कूल में वो यही सब तो रटते थे, राष्ट्रपिता कौन था, सीमान्त गाँधी कौन था, बारदौली का बैल कौन था, भारत कोकिला कौन थी।
"शाबास ........ देखा इसे कहते हैं पढना, अपने देस ......हिक ......के बारे में पता होना "
फौजी ने कहा और आगे बढ़ कर उसके सर को सहला दिया 
"जीता रह ......जीता रह।"
उसे एक ख़ुशी सी महसूस हुई, किसी को जवाब नहीं पता था, उसे पता था. फौजी फिर से बातों में मशगूल हो गया, और वो फिर अपने सपनो में खो गया। इसी तरह बहुत समय गुज़र गया। फौजी ने खान निकाल और उन दोनों ने खान खाया। खाने के बाद फौजी ने कहा, 
"तू ऐसा कर मेरी पीठ की तरफ पैर कर ले और लेट जा, वर्ना रात में झटका लगेगा और नीचे गिर पड़ेगा ......" और हंस पड़ा .
खान खाने के बाद लेट कर जो कमर सीढ़ी हुई तो आँख बंद होते ही उसे नींद आ गयी। उसे लगा जैसे उसकी जांघ पर कोई कीड़ा रेंग रहा है। उसने पैर झटक दिया। कोई बड़ा कीड़ा था जो पैर झटकने से नहीं गया तो उसने हाथ से मसल दिया। थोड़ी देर बाद उसे लगा कि जैसे उसकी पैंट नीचे की तरफ उतर गयी है और कोई उसका कुल्हा सहला रहा है। फिर उसे लगा जैसे कोई लिजलिजी सी चीज़ उसके कूल्हों से रगड़ रही है। वो चौंक कर उठ बैठा। उसकी पैंट  हुई थी और फौजी की पैंट भी खुली हुई थी। फौजी उसे देख कर हंस पड़ा और उसका हाथ पकड़ कर अपने ........पर रख दिया। करुआ न फौजी का हाथ झटक दिया और तेजी से अपनी पैंट ऊपर चढ़ा कर बंद की, फिर झटके से ही नीचे कूड़ा और डिब्बे के दरवाजे की तरफ चल दिया। उसे फौजी पर गुस्सा नहीं आ रहा था, बस बहुत अजीब सा लग रहा था. वो थोड़ी देर तक दरवाज़े पर खड़ा रहा और फिर बाथरूम की तरफ चला गया, वहां अँधेरा था, वो थोड़ी देर तक टेक लगा कर खड़ा रहा लेकिन फिर उसे नींद आ गयी। 

थोड़ी देर बाद उसे लगा जैसे किसी ने उसे दबोच रखा है, उसकी आँख खुलने से पहले उसके नथुनों से शराब की गंध टकराई, वो दो जोड़ी मजबूत हाथों की गिरफ्त में छटपटाने लगा, जब तक उसे लगता की वो चिल्लाये तब तक फौजी ने उसके मुह पर हाथ रख दिया था, अब उसके मुह से गूं गूं की आवाज़ निकल रही थी। वो और ज़ोर ज़ोर से अपने शरीर को हिलाने लगा, अचानक ही फौजी की गिरफ्त छूट गयी और उसे फौजी की चीख सुनाई दी,  पीछे मुद कर देखा तो लगा की फौजी बहुत अजीब हालत में है, वो आधा ही दिखाई दे रहा था. आवाज़ सुन कर जो लोग उस तरफ आये उनमे से किसी ने अपने मोबाइल से टोर्च जलाई तो दिखाई दिया की फौजी का एक पैर बाथरूम की गैलरी के बाद पड़ने वाले रस्ते के जंग खाए नीचे वाले हिस्से में फंसा हुआ था, उसकी हालत बहुत खराब थी और वो सूअर की तरह डकरा रहा था. उसे इस हालत में देख कर लोग उसकी मदद के लिए आगे आये तो वो दरवाजे की तरफ को सरका। उसका पूरा बदन पसीने से भीगा हुआ था. दरवाज़े पर आकर वो अपने हवास काबू में करने लगा। लोगों ने फौजी को बहुत मुस्किल से बहार निकाल था, और वो दर्द से चिल्लाते हुए उन्हें गाली दे रहा था, दूर स्टेशन की रोशनियाँ दिखाई दे रही थी। जैसे ही गाडी धीमे हुई, करुआ बाहर की तरफ कूद पड़ा और तेज़ी से सॆधिओन की तरफ भाग, उसे लग रहा था की लोग उसे पकड़ने के लिए आ रहे हैं, लोग उसके पीछे भाग रहे हैं, पुल के ऊपर चढ़ कर उसे लगा की अगर वो बाहर की तरफ भाग तो लोग उसे पकड़ ही लेंगे, इसलिए वो दायीं तरफ पड़ने वाली सीढ़ी से फिर वापस स्टेशन पर उतर गया, कोई गाडी जा रही थी, बिना सोचे समझे वो उसमे चढ़ गया। 
"ओये कहाँ चढ़ा आ रहा है ......ये रिजर्व्ड डिब्बा है "
" वो .....वो ....गाडी छूट जाती इसलिए जल्दी से चढ़ गया ......"
" टिकट है "
" ह ह हाँ हाँ ......."
उसने जेब से निकाल कर पुराना वाला टिकट दिखा दिया। 
"अबे ये गाडी तो बम्बई जा रही है ..... ये तो उलटी तरफ का टिकट है" 
" ........"
" अब क्या करेगा .......सुन अगला स्टेशन आये तो इस डिब्बे से उतर जइयो ......समझा क्या .......अगर अगले स्टेशन के बाद यहाँ दिख गयाना , तो पुलिस में दे दूंगा ." 
कहकर टी टी वहां से आगे चला गया, और करुआ सर को हाटों में थाम कर वहीँ फर्श पर बैठ गया .


जारी .....
 


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Kapil

3 टिप्‍पणियां:

  1. 2nd paragraph bahaut khoobsurati se likha gaya hai :-) agle ank ke intezar me..

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  2. भाई, कहानी बहोत ही दिलचस्प है . और जिस तरह से तुमने बारीक विवरण दिया है हर एक सीन आँखों के स्समने चलचित्र की तरह चलता है। अभी तक कहानी लगभग एक ढर्रे पर चलती हुई लगती है . उत्सुकता है की इसमें क्या क्या ट्विस्ट बाकी हैं। लिखते रहो। तीनों भाग अच्छे थे। अमावस बाकी दोनों से बेहतर है, केवल इसलिए क्यूंकि कहानी उस बच्चे की बेबाक कहनी स्लीपर जनरल डब्बे में बहोत ही वास्तविक और सजीव है। कृपया आगे और लिखें।

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  3. Kahani main general compartment ka vivran mehsoos ki aapke sabdon ke saath... Aage likhen ham ptathikha karenke besabri se...

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