पहला पन्ना
महीने के दुसरे हफ्ते का तीसरा दिन था जब करुआ ने अपना बकाया माँगा था. उम्मीद थी की कुल मिलकर ५००० रूपये तक मिल जायेंगे तो घर जायेगा. घर के सूअर के अचार का स्वाद अभी से उसकी जुबान पर आ रहा था. यूँ तो सूअर का अचार बनता ही अच्चा था, पर माँ के हाथ में तो जैसे जादू था. उसने सब हिस्साब कर लिया था. जाते ही सबसे पहले तो बनिए का हिसाब करेग. कुछ २५०० का था, जिसके लिए बनिए ने उसकी माँ को गलियाँ दी थीं, अब बहुत ज्यादा हुआ तो ३००० हो गया होगा और क्या? साले के मुह पे मारूंगा और फिर गाली दूंगा, उसने सोचा, दिल्ली आये उसे ४ महीने होने को आये, आठवीं क्लास तक तो वो पढ़ा हुआ था, वो तो बाप मर गया वर्ना अभी और पढता, पर गलती तो उसकी भी थी, मास्टर ने कहा फीस नहीं तो इस्कूल नहीं, और वो नहीं गया, जाता तो कौन मास्टर उसे इस्कूल से निकाल ही देता। जो भी हो, उस पढाई का, चाहे आधी अधूरी हो, उसे फायदा तो हुआ ही था. यहाँ ढाबे में उसे बर्तन नहीं धोना पड़ता था, ठीक ठाक हिंदी में बात कर लेता था. गाहक खुस तो मालिक खुस, बाकी लोंडो की चिठ्ठियाँ पढ़ देता था, इसलिए वो भी साले खुस, एक बार तो उसके मन में ये भी आया था की छोड़ गाँव, सुसरे में रखा क्या है, पर उसे माँ बहुत प्यारी थी, बहुत याद आती थी उसकी। इसलिए उसने सोचा, की हिसाब करके घर चला जाये। उसने शाम को तोतले असोक से कह दिया था, की उसका हिसाब कर दे, वो घर जायेगा, असोक ने कह दिया ठीक है कल ले लियो। बस हो गया। अब तो बस दूकान बंद होगी, वो अपना सामान बंधेगा और छुट्टी। कल गाड़ी में बैठेगा, टिकेट खरीद के और परसों शाम तक घर।
दूकान के ऊपर छत खाली थी, और वहीं वो सोता था, पीछे की तरफ एक पीपल का पेड़ था, उसकी ठंडी ठंडी हवा भी लगती रहती थी, गर्मियों में और क्या चाहिए, सुबह जल्दी उठाना गाँव की आदत थी इसलिए उसे कोई परेशानी नहीं होती थी। सुबह उठ कर पानी भर के, जुट के कटते के साथ छोले उबालना उसी का काम था, जुट के साथ छोले उबलने से उसमे रंग आ जाता है, बोरा गन्दा हो तो और भी अच्छा, जितना मैला बोरा उतना गाढ़ा रंग। इसलिए वो छोले नहीं खाता था। ना, कभी नहीं, वो दाल खाता था, जब ताज़ी हो, क्यूंकि गर्मियों में तीन दिन पुराणी बदबू मारती दाल को बी असोक एक मुठ्ठी हल्दी मर के गाहकों को परोस देता था। अगर कुछ भी ताज़ा न हो, या ठीक न हो तो वो अचार के साथ रोटी खा लेता था। जब वो आया था, तो ये सब नहीं जानता था, वक़्त ने सिख दिया, असोक ने उसे २००० महीने पे रखा था, खाना रहना साथ।
जब आया था, तो उसे पता ही नहीं था की कहाँ जाये क्या करे, यूँ ही भटकता हुआ, यहाँ आ पहुंचा था, उसे ऐसे ही खड़ा हुआ देख कर असोक ने ही पुछा,
"त्यूं बे भोसड़ी ते, यहाँ त्या तर रहा है"
गाली उससे सहन नहीं होती, उसने भी पलट कर जवाब दिया,
"तेरे बाप की सड़क है क्या बे"
असोक चुप हो गया था, बड़ी देर तक उसे घूरता रहा फिर बोला
" अबे भोसड़ी ते, घर ते भाग्तर आया है ना, ताम तरना है तो बोल "
"हाँ करूँगा ना"
काम तो उसे चाहिए ही था।
"तो ल'जा ताम पे, और त्या "
"पगार क्या देगा"
असोक हंस दिया, "अबे अपनी सूरत देख भोसड़ी ते, थाना मिल जाये, बहुत समझ"
"लाला, खाने के लिए तो भीक मांग के चला लूँगा समझा, काम करना है, तो पगार बोल।"
"अच्छा आ तो जा, बता त्या लेगा।"
"पहले काम बोल"
"अबे ताम तो सारे ही तरने पड़ेंगे"
"तो करूँगा ना, तू बोल"
"१५०० रूपये"
"१५०० रूपये, क्यूँ मजाक कर रहा है लाला, देख २००० लूँगा और सारा काम करूँगा, देना हो तो बोल"
"तू पढ़ लिख लेता है"
" आठवीं पास हूँ "
"अच्छा तो फिर ठीत है, २००० रूपये में पत्ता, रहेगा तहाँ ?"
"यहीं सामने फुटपाथ पर सो जाऊंगा"
"ना ना, तू छत पर सो जयियो"
"ठीक है"
और तब से वो असोक के यहाँ काम कर रहा था, हर इतवार मंडी से सब्जी लाना, सदर से आटा और मसाले लाना, सुबह उठ कर पानी भरना, रात को ढाबे की सफाई करना उसकी जिम्मेवारी थी, जिसे वो बिना किसी परेशानी के कर लेता था। बस चार महीने हो गए, अब कल वो चला जायेगा, अपने घर। यही सोचते सोचते वो सो गया।
सुबह उठ कर वो नहाया, नए कपडे पहने, और तय्यार होकर असोक का इंतज़ार करने लगा, असोक ७ बजे तक दूकान पर पहुँच जाता था। असोक के आने के समय तक वो सार काम तयार रखता था। आज उसे असोक दूर से ही आता दिखाई दे गया। वो गल्ले वाली टेबल पर बैठा था, उछल के खड़ा हो गया। असोक दूकान के अन्दर आया, इधर उधर देखा, और फिर उसके एक झापड़ खींच के मारा।
"अबे साले नए तप्ड़े पहन कर दूल्हा बना बैठा है, भोसड़ी ते, ताम त्या तेरा बाप तरेगा"
उसका सर घूम गया, असोक ने इससे पहले उसे कभी मार नहीं था, गालियाँ देना उसका पसंदीदा काम था, भोसड़ी वाले उसका तकिया कलाम था, लेकिन मार.
"मैंने कल कहा तो था की मुझे आज जाना है"
"अबे तो जाना है तो त्या मेरा नास तरते जायेगा"
"क्या नास कर दिया मैंने-------"
"जुबान लड़ाता है, भोसड़ी ते…. ये ताम तौन तरेगा"
"मै नहीं करूँगा, मेरा हिसाब कर दे, में जाऊ" उसे समझ नहीं आ रहा था कि आखिर हुआ क्या है, पहले तो कभी ऐसा नही हुआ था। बल्कि शुरू शुरू में तो जब उसे पता नहीं था कि सुबह उठ कर ये सार काम उसकी जिम्मेदारी है, तो असोक आकर सार काम करवाता था। तो आज ही कौन सी आफत आ गयी।
"हिसाब तरुंगा तब, जब ताम थतम हो जायेगा।"
"लाला मुझे मेरा हिसाब अभी चाहिए------अभी का अभी"
"साले दो हज़ार रुपल्ली ते लिए मरे मन्ना-------साम तो दूंगा, समझा, अब ताम तर"
" दो हजार-------लाला पूरे पांच हजार बनते हैं गिन के देख ले…. "
" हाँ हाँ तेरा बाप साले उधार देकर गया है ना मुझतो, भाग जा भोसड़ी ते------वर्ना ये भी नहीं मिलेंगे"
"लेकिन तेरी मेरी बात तो दो हजार रूपये की हुई थी।"
"वही दे रहा हूँ भोसड़ी के-----"
उसे समझ में आ गया, उसे सब समझ में आ गया। लेकिन लाला को ये समझ नहीं आया था की वो गाँव से भाग क्यूँ था। उसने पैसे उठाये और सहेज कर जेब में रख लिए, फिर वो अन्दर के तरफ गया और छोले चलाने वाला कड़छुल उठा कर लाया और उसे लाल के सर पर दे मारा, असोक वहीँ ढेर हो गया, उसने बड़े शांत भाव से उसकी जेब से सारे नोट निकाले और उन्हें भी अपनी जेब में रख लिया। फिर उसी शांत भाव से सड़क पार करके दूसरी तरफ चला गया, वहां से उसे इस्टेशन की बस मिलनी थी। गाँव जाकर वो बनिए का पैसा उसके मुह पर मारेगा और अपनी माँ के हाथ का बना सूअर का अचार खायेगा।
जारी है

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जवाब देंहटाएंआज ही पढ़ी. बढ़िया है. बांधती है और कैरेक्टर, परिवेश, घटनाएं सभी पढ़ने का मजा देते हैं. पूरा करो फिर भरपेट बात होगी. बधाई.
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