शनिवार, 18 मई 2013

बाज़ार और गधा


बाज़ार और गधा



पिछले कुछ सालों में हमारे देश ने बहुत तरक्की कर ली है, तरक्की की ये अद्भुत कहानी उस साल शुरु हुई है जब भारत ने अपने दरवाजे़ दुनिया भर के बाज़ार के लिए खोल दिए, उसके स्वागत में लाल कालीन ”रेड कार्पेट” बिछा दिया और अपनी आत्मा को सदा-सर्वदा के लिए बाज़ार यानी मार्केट के लिए ”प्रतिबद्ध” कर दिया। ”प्रतिबद्ध” असल में बहुत ही ताकतवर शब्द है, इसका मतलब ही होता है किसी विचार के लिए बंध जाना, पहले लोग ”कटिबद्ध” शब्द का प्रयोग करते थे, और जब किसी विचार से अलग होना होता था तो सिर्फ धोती ढ़ीली कर लेते थे, कमर यानी कटि खुलते ही वो कटिबद्धता से मुक्त हो जाते थे और जो चाहे करते थे, उनकी ईमानदारी पर कोई संशय या आरोप नहीं लग पाता था। इसीलिए उस जमाने में दल-बदल भी बहुत होता था। खैर आधुनिकता ने बहुत सारे बदलाव किए और जमाने के साथ-साथ संसद में धोती वालों की जगह जीन्स वाले, पैंट वाले, पजामे वाले ज्यादा आने लगे, जो धोती वाले आते भी हैं वो धोती को लुंगी की तरह पहनते हैं और इस तरह कटिबद्ध होने से बचे रहते हैं। खैर इस तरह कटिबद्धता पर ”प्रतिबद्धता” ने विजय पाई और अब सभी ”प्रतिबद्ध” हैं जिसके खुलने या ढ़ीले होने की कोई गुंजाइश नहीं है। क्योंकि ”प्रतिबद्धता” का तो यूं है भैया कि आज इसके लिए ”प्रतिबद्ध” हो जाओ तो सुविधानुसार कल उसके लिए ”प्रतिबद्ध” हो जाओ। 

यही वजह है कि अक्सर एक ही हफ्ते में आपको दो या दो से अधिक यानी बहुवचन में भ्रष्टाचार के खुलासे मिलते हैं, पहले ऐसा नहीं होता था, अक्सर महीने-दो महीने पर किसी एक भ्रष्टाचार का किस्सा सुनने में मिलता था और जीवन काफी नीरस था। बाजार के खुलकर सामने आने का सबसे बड़ा फायदा, जो मेरे हिसाब से इतिहास की किताबों में लिखा जाना चाहिए, वो ये है कि जिन्दगी हंगामाखेज़ हो गई।

एक हंगामें पे मौकूफ है घर की रौनक
नग्माए शादी ना सही, नौहए ग़म ही सही।

तो साहब अब लीजिए आप लोग, एक हफ्ते में, और कभी-कभी तो एक-एक दिन में कई-कई भ्रष्टाचारों के खुलासे हो रहे हैं। और हर किस्म के लोग भ्रष्टाचार आदि में संलग्न हैं, राजनेता नफरत भरे भाषण ”मुझे हेट स्पीच” कहने में ऐतराज़ है” देकर बाइज्जत बरी हो जा रहे हैं, खिलाड़ी जुए के खेल में जुआ खेलने पर पकड़े जा रहे हैं, हत्यारे संदेहलाभ पाकर छूट जा रहे हैं, और कुछ लोग फाइलें इधर-उधर ”साफ कहें तो गायब” कर रहे हैं। और क्या चाहिए जिंदगी से, कुछ लोग इससे आहत भी हैं, मर्माहत भी हैं, लोगो के मर्म पर मलहम लगाने वाले लोग भी मौजूद हैं। अभी एक स”र्दु”ज्जन ने कहा कि भई सी बी आई को तोता कहने से उसकी साख घटी है, उसके मोराल में कमी आई है, मुझे इस बात से सहमत भी होना है और असहमत भी होना है। होता है कभी-कभी ऐसा, आप मर्म को समझें, शब्दों के पीछे लठ्ठ लेकर ना पड़ें। सी बी आई की साख को बट्टा उसके करमों से लगा है ना कि उसके करमों के उजागर होने से, और वो बट्टा लगाने वाले भी आप हैं। तो इस बात से तो मैं सहमत हूं कि सी बी आई की साख को बट्टा लगा है, भारी बट्टा लगा है, लेकिन इस बात से असहमत हूं कि वो बट्टा उसे तोता कहने से लगा है, वो बट्टा इसलिए लगा है क्योंकि उसे आपने तोता बना रखा है, और भैया तोते को लोग तोता नहीं कहेंगे तो क्या कौआ कहेंगे।

इधर क्रिकेट के नाम पर सिर तुड़वाने वाले, पिचें खोदने वाले, और जंग छेड़ने की धमकी देने वालों के लिए एक और मुसीबत हो गई है। कोई ज्ञानी भाई मुझे समझाए कि आखिर ये गड़बड़ है क्या? आपने बोलियां लगा कर, सट्टे लगा कर एक खेल का आयोजन किया, उसमें अगर किसी खिलाड़ी ने अपने निश्चित टेलेंट पर कुछ पैसा कमा लिया तो भाई इसमें गड़बड़ क्या और कैसी है। श्री संत हों चाहे अजहरुद्दीन पैसा कमाने के लिए जो करो सब बढ़िया है, बाज़ार तो यही कहता है, वरना टाटा क्या रिश्वत नहीं देता, टेप्स सबके सामने हैं, अंबानी खानदान क्या बिना रिश्वत के खरबों के वारे-न्यारे कर रहा है, मुकद्मों पर मुकद्में चल रहे हैं। और भैया बाज़ार का तो उसूल ही है, 

अवसर जो हो लपक लो, ना लपको तो भूल
हाथ में आया अर्श पर, फिसल गया तो धूल

अब ये तो बुरी बात है जो लोगों के साथ हो रही है, एक तरफ तो आप बाज़ार को ही विकास का पैमाना बता रहे हो, और दूसरी तरफ बाज़ार के उसूलों पर चलने वालों को आप दोषी मान रहे हो। खेल को पैसे के लिए खेलना आपने शुरु किया, श्रीसंत ने तो सिर्फ उसे थोड़ा और स्पेसिफिक कर दिया। क्या बुरा किया। किसी जमाने में ग्लैडिएटर वाले खेल होते थे जब लोग सरेआम लड़ाकों पर बोलियां लगाते थे, और जो जीतता था वो पैसा कमाता था, क्या वो सही था, अगर हां तो उसमें अगर कोई ग्लैडिएटर अपनी जान की कीमत पर कुछ पैसा अपने लिए कमा ले तो क्या ही गलत है। पिच पर कौन था, श्री संत, बॉल कौन फेंक रहा था, श्री संत, क्या वो ऐसा बिना किसी पैसे के लालच में कर रहा था, नही, क्या पूरी टीम का कोई भी खिलाड़ी बिना पैसा लिए खेल रहा था, नहीं, क्या टीम के मालिक या संयोजक इस खेल से कोई पैसा नहीं कमा रहे थे, जरूर कमा रहे थे, क्या ये जुआ नहीं है, है। तो फिर गलत क्या किया श्री संत ने। सिर्फ यही कि इस जुए में आपको शामिल नहीं किया, जुए की इस कमाई में उपर वाले लोगों को शामिल नहीं किया। हालांकि क्रिकेट जैसे वाहियात खेल के लिए इस तरह गंभीर बात करना भी बेकार ही है लेकिन जुए के इस खेल में जुआ खेलने वाले को जब दोषी माना जाए, आरोपी माना जाए तो मैं भी मर्माहत होता हूं इसलिए इतना लिखना पड़ा, वरना मेरे हिसाब से तो ये सारा मामला ही ऐसा है जैसे कोई बात करे कि गधा रेंक रहा था इसलिए वो आरोपी है, उसने पाप किया है।

1 टिप्पणी:

  1. सौ आना सच , कपिल भाई , बाज़ार का कोई नियम नहीं सिर्फ खरीद फ़रोख्त , अब कोई ये नहीं कहता की
    "मै तो एखलाक के हाथों ही बिका करता हूँ और होंगे तेरे बाज़ार में बिकने वाले "

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