शुक्रवार, 29 नवंबर 2013

गुल्लक





गुल्लक 



आज महीने का 21वां दिन था, और जेब खाली हो चुकी थी, उसने एक बार फिर अपनी जेबों में हाथ डाला। शायद कहीं से कुछ निकल आए, एक बार फिर दरवाजे के पास वाली अल्मारी के सबसे उपर वाले खाने में देखा, कई बार बेध्यानी में वहां दस या बीस का नोट डाल का भूल जाता है। फिर ध्यान आया कि महीने के शुरु में ही खुली सिगरेट लेने के लिए वहां से पैसे निकाल चुका था। फिर भी हाथ डाला तो एक-एक के दो सिक्के दिखाई दिए। उसका मुहं बन गया, इन सिक्कों से क्या होगा। बस का किराया भी 10 रुपये से कम नहीं था। वो पड़ोस में रहने वाले शंकर से उधार नहीं मांगना चाहता था, पिछली बार उधार देते हुए, हंसते-हंसते ही शंकर ने उसे जो-जो ताने मारे थे, वो उसे आज तक याद थे। तनख्वाह मिलते ही सबसे पहले उसने शंकर के पैसे दिए थे। लेकिन अब क्या करे, ना जेब में सिगरेट थी, ना घर में राशन था, लेकिन पहले पहली जरूरत, उसे ऑफिस जाना था, और किराए तक के लिए पैसे नहीं थे। एक गहरी सांस लेकर वो फिर से बिस्तर पर पड़ गया।

बिस्तर क्या था, फर्श पर एक गद्दा डाल लिया था, जिस पर चद्दर डाल ली थी, वही बिस्तर था, वही बैठक का दीवान था, वही खाने की टेबल थी, और वही पढ़ाई-लिखाई की जगह भी थी। उसके घर, यानी उस कमरे में इतनी ही जगह थी जिसमें एक गद्दा बिछ सकता था, एक तरफ को अंदर जाने का रास्ता निकल सकता था, उसके दांयी तरफ एक शेल्फ जैसा कुछ बना हुआ था, जिसे चाहो तो किचन कह सकते थे, उस शेल्फ में एक छोटा सा छेद था, जो इसलिए किया गया था ताकि अगर नीचे सिलेंडर रखा हो तो उसका पाइप उपर गैस पर जा सके। लेकिन उसके पास छोटा सिलेंडर था, जिसके उपर ही चूल्हा लगा हुआ था, चावल-दाल हों, मैगी, चाय या आमलेट, वो सबकुछ उसी पर बनाता था। किचन की ये शेल्फ सीढ़ियों के नीचे की जगह पर था, इसलिए इसकी छत भी एक तरफ उंची और एक तरफ को नीची थीं। जिन सीढ़ियों के नीचे ये किचन नुमा शेल्फ या शेल्फ नुमा किचन थी, वो सीढ़ियां उपर छत पर बसे गुसलखाने को जाती थीं, जो टॉयलेट और गुसल दोनो का काम देता था। 

3000 महीने में इसी तरह का घर मिला करता है। बिजली का बिल अलग से था, महीने के पहले ही हफ्ते में घर का और बिजली का बिल चुका कर उसके पास बचते थे कुछ 9000 रुपये, जिसमें राशन, सिगरेट, आने-जाने का किराया और कुछ चाय-पानी के बाद उसके पास महीने के अंत में कुछ नहीं बचता था। और कभी-कभी तो नौबत ये होती थी कि उसे महीने के बीच में ही किसी ना किसी से उधार मांग कर काम चलाना पड़ता था। उधार वो चुका भी देता था, इसलिए उसे उधार मिल भी जाता था, जैसे नीचे की दुकान पर बनिए से, महीने भर अंडे, दूध और डबलरोटी वो उधार ही लेता था, महीने के शुरु में हिसाब चुका देता था।

 जारी.....

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