गुरुवार, 25 जून 2015

डिग्री और कमाल

डिग्री और कमाल

फर्जी डिग्री के मामले में दिल्ली के पूर्व कानून मंत्री तोमर जी ज्यूडिशियल कस्टडी में हैं, पूलिस हर बार दो दिन का रिमांड ले रही है। तोमर जी की पत्नि का कहना है कि तोमर जी कोई आतंकवादी तो हैं नहीं कि उनके साथ ऐसा बर्बर व्यवहार किया जाए, गोया आतंकवादी के साथ ऐसा बर्बर व्यवहार किया ही जा सकता है। पर खैर, मामला है फर्जी डिग्री का.....तोमर के वकील का कहना है कि आपका आरोप डॉक्यूमेंटस् के बारे है, आपके साक्ष्य दस्तावेजी हैं, ऐसे में किसी गवाह को बहला-फुसला लेना आदि चीजें तो हो नहीं सकतीं.....तो तोमर जी को बेल पर छोड़ दिया जाए। लेकिन जज साहब का दिल नहीं पिघला, उनका कहना है कि नेता लोग जनता लोग को बेवकूफ बनाता है, इसलिए नेता को गलत काम करने पर जेल में रहना चाहिए। नेक ख्याल है, पर कम है, देर से आया है। देखिए करोड़ों का घोटाला करने वाली जयललिता, छूट गई हैं, अमित शाह और मोदी, ललित नहीं रे, नरेन्द्र, छुट-छुटा कर बैठे हैं। जज साहब, ये भी नेता ही हैं, और दंगे और भ्रष्टाचार आदि करके भी ये छुट्टे घूम रहे हैं। 
तोमर की वकालत नहीं करता, लेकिन, बात तो सही ही है, दस्तावेजी सबूत, जो आपने जमा कर लिए हैं, उन्हे पेश कीजिए, या कारण बताइए कि अब तक आप ऐसा क्यों नहीं कर पाए। आखिर आरोप था क्या, कि तोमर की एल एल बी की डिग्री फर्जी है, आसान सा मामला है, तोमर द्वारा पेश की गई डिग्री को जारी करने वाली यूनिवर्सिटी भेजा जाए और पता लगा लिया जाए। पर ये दिल्ली पुलिस है, जो अपराधियों के पीछे बुरी तरह पड़ी होती है, बुरी तरह काम करने की इसकी आदत ने दिल्ली का तो बंटाधार कर ही दिया है। बाकी सुना है कि आज स्मृति ईरानी वाला केस भी सामने आ रहा है, देखें क्या होता है। हालांकि इस बात में कोई संदेह नहीं है कि जज उन्हे छोड़ देगा। देखना ये है कि वो उन्हे कुछ समय देता है, या मामले को फर्जी कहके उन्हे पूरी तरह बरी कर देता है। इस देश में कुछ भी हो सकता है। जब कोई शादीशुदा होने के बाद कुंवारा हो सकता है तो ये क्यों नहीं हो सकता कि कोई पहले बी ए पास हो और फिर बी कॉम पास हो जाए। वैसे  होने को ये भी हो सकता है कि ये सिर्फ छोटी सी भूल हो, यानी ईरानी जी ये भूल गई हों कि आखिर उनकी डिग्री कौन सी है, तो पहले उन्होने सोचा हो कि मैं बी ए पास हूं, फिर ध्यान से देखा तो पता चला, ओह, ये तो बी कॉम है......हो ही सकता है। यकीन मानिए ऐसा होता है। 
खैर जो भी हुआ हो, मतलब की बात ये है कि हाल फिलहाल में बहुत सारी ऐसी डिग्रियों की जो बाढ़ आई है और उससे सरकारों की जो फजीहत हो रही है, उसी को ध्यान में रखते हुए सरकार ने ऐसे कदम उठाने की बाबत फैसला किया है ताकि फेक डिग्री की जरूरत ही खत्म हो जाए। ये बिल्कुल ऐसा ही है कि जैसे मान लीजिए कि अफीम का कारोबार गैरकानूनी है और कई सरकारी अधिकारी इसके लपेटे में आ जाते हैं, या गैरकानूनी शराब का मामला मान लीजिए, तो ऐसे में इन गैरकानूनी धंधों को रोकने का सबसे कारगर तरीका होता है कि माल को ही कानूनी घोषित कर दिया जाए। अब फेक डिग्रियों को ही ले लीजिए, इनके मामले में सीधी सी बात ये है कि डिग्री लेने वाला पैसे खर्च कर सकता है, समय और मेहनत नहीं, तो इसका सीधा सा हल ये है कि सरकारी और प्राइवेट यूनिवर्सिटीज़ के बीच के अन्तर को खत्म कर दिया जाए। अब प्राइवेट यूनिवर्सिटीज़ जिनका इकलौता मकसद पैसा बनाना होगा, वो किसी को भी डिग्री दे सकेंगी और ये मंत्री, मंत्रियों के बेटे, करोड़पति सेठों के बेटे-बेटियां, होते-सोते, बस पैसा फेकेंगे और डिग्री ले लेंगे। ईरानी जी ने तो ये काम शुरु भी कर दिया है, सी बी सी एस असल में इसी काम की शुरुआत है। इसके बाद स्मृति जी खुद के लिए पी एच डी की डिग्री का भी जुगाड़ कर लेंगी, और उसमें जाता क्या है।
बाकी बची वो आम जनता जिसके लिए हर साल, बिना किसी सुविधा के कॉलेजों की कट ऑफ 100 का आंकड़ा पार कर रही है, तो आखिर उन्हे पढ़ने को कहा किसने हैं, कुछ आई टी आई कर लो, किसी मल्टीनेश्नल में कॉल सेंटर, मार्केटिंग फार्केटिंग कर लो, बाकी चाहिए क्या तुम्हे, जीने के लिए खाना मिल जाए, रहने के लिए एक कमरे का क्वार्टर, बाकी कुछ एक्स्ट्रा दे देंगे, ताकि तुम लिवाईस की जींस पहन के, केन वाली बीयर पीते हुए खुद को भारत जैसे गरीब देश में रहते हुए अमेरिका जैसे देश में होने का अहसास करा सको, ना अपनी हालत सुधारने के बारे में सोचो, ना कोई सवाल करो। बाकी जो है सो तो हइए है। 
आखिरी बात ये कि यार, कुछ डिग्री फिग्री  का जुगाड़ हो जाए, तो हमे भी बता देना, काफी दिनो से इच्छा थी कि सुसरी पी एच डी मिल जाए, करी ना पा रए, कछु हो जाए तो बता दीजो।

मंगलवार, 23 जून 2015

योग: विवादासान




राजपथ पर पद्मासन लगाकर बैठे, गले में राष्ट्रीय ध्वज को मफलर की तरह डाले प्रधानमंत्री, आ हा हा हा हा.....किसी देश के लोकतंत्र के लिए कितनी सुखद बात है। ऐसी बातें देखने में कहां आती थी साहब, तरस गए थे, भारतीय संस्कृति के इस विशद, विराट रूप को देखने के लिए। चलो साहेब की कृपा से गिनीज़ बुक में भी नाम दर्ज़ हो ही गया.....जहां दुनिया के सबसे लंबे कद के आदमी और सबसे ज्यादा बालों वाले इंसान, कीलें खाने वाले इंसान के साथ एक देश के तौर पर भारत का नाम भी आ ही जाएगा। कितनी बड़ी उपलब्धि है ये देश के लिए......और ये अधम लोग अब भी विवाद करने से नहीं चूक रहे हैं। योग को बदनाम कर रहे हैं। ये लोग इस देश का भला नहीं चाहते, बताइए, बाबा रामदेव जैसे योगियों ने योग को एक माल के तौर पर पूरी दुनिया के आगे परोसा, और व्यापारीरूपी प्रधानमंत्री और प्रधानमंत्रीरूपी व्यापारी ने उस व्यापार का ये जर्बदस्त प्रचार-प्रचार किया तो इसमें बुरा क्या है भाई। अगर तुममे ज़रा भी समझ होती तो तुम भी रामदेव हरिद्वारवाले, लंपट रविशंकर, लुच्चे चिदानंद, ढोंगी वासुदेव की तरह आश्रम खोल लेते और फिर मौज उड़ाते, ना हो बड़ा, छोटा ही खोल लो, पंतजलि के नाम से चलने वाली मुहल्ले की दुकाने देखते हो, कमा रहे हैं भाई लोग, और तुम योग को बदनाम कर रहे हो।
असल में ये लोग योग को जानते नहीं हैं अभी, योग जैसा कि प्रधानमंत्री और अन्य मंत्रियों का कहना है, इंसान को सृष्टि के साथ एकमेक कर देता है। चित्त को शांत करता है, और आत्मा को चेतन कर देता है, कुंडलियों का जागरण आदि कर देता है। समस्या ये है कि भूखे लोग योग नहीं करते सुसरे, भूखे लोग अगर योग करें तो वो अपनी भूख भूल जाएंगे, गरीबी भूल जाएंगे और उन्हे शारीरिक कष्ट परेशान नहीं करेंगे क्योंकि गीता में कहा ही है कि आत्मा ना कटती है, ना मरती है, ना गीली होती है ना सूखती है.......अब भूखे लोगों का राग अलापने वालों, अबे योग करो, यही सारी समस्याओं का समाधान है। अगर योग करते हुए गरीब लोगों की आत्मा प्रकृतिस्थ हो जाए तो बताओ उन्हे भूख क्योंकर लगेगी, और योग करते-करते वो परमात्मा में विलीन हो जाएं तो इससे अच्छी मृत्यु कहां मिलेगी। 
योग के बहुत फायदे हैं। एक तो यही कि जनता का ध्यान, बेरोजगारी, बढ़ती महंगाई और घटती जी डी पी से हटा रहता है। रोम में सीज़र जो है यूं ही अपने खर्चे पर कोलोसियम में दुनिया भर के तमाशे नहीं करता था, और अपने चुनावी भाषणों में प्रधानमंत्री ये साबित कर चुके हैं कि वो बाकी कुछ चाहे जाने या ना जाने इतिहास बहुत अच्छी तरह से जानते हैं। वो जानते हैं कि रोम के सीज़र की तरह जनता का ध्यान भुखमरी और बेरोज़गारी से हटाने के लिए योग दिवस जैसे टोटके करते रहना चाहिए। 
मेरा ये कहना है कि योग जैसी चीजों का प्रचार असल में घर से ही शुरु होना चाहिए, मेरा मतलब प्रधानमंत्री को खुद अपने मंत्रीमंडल को पहले योग कराके लाभान्वित करना चाहिए था। गडकरी को देखिए, अमितशाह को देखिए, छाती 30 इंच की है तोंद 52 इंच की हो रही है, अब अगर ये लोग योग करते रहे हैं तो बाकी देश को ऐसा तोंद बढ़ाने वाला योग क्यों करवा रहे हो जी, और अगर ये लोग योग नहीं करते हैं तो पहले इन्हे करवाइए जी। बाकी मन-आत्मा की शांति के बारे में भी हमें थोड़ा संदेह ही है, खुद प्रधानमंत्री जिनके बारे कहा जाता है कि वो तो जनम भर से योग कर रहे हैं, झूठ बोलने में नहीं झिझकते, अमितशाह महिलाओं की जासूसी करवाते हैं, वसुंधरा और सुषमा अपराधियों के साथ मौज-मस्ती करते हैं, और स्मृति ईरानी चुनाव आयोग को दर्ज़ एफिडेविट में झूठ बोलती हैं। तो इन्हे पहले योग करवाइए, फिर जनता को करवाइएगा। 
योग से और कुछ हो ना हो, विवाद खूब हुआ है, पहले तो यही कि अपने आपको योगी कहने वाले ये साधू खुद योगी हैं भी कि नहीं। इनमें से ज्यादातर के चेहरे से ही कपट और लंपटई झलकती है, ये लोग योग नहीं करते हो सकते, सोने की कुर्सी पर बैठकर संसार को माया बताने वाले ये साधू, गोरी-गोरी, छोटे कपड़े पहने विदेशी महिलाओं को योग सिखाने के बहाने.......जाने क्या-कराने वाले ये कपटी, योग के बेसिक, एडवांस, और अल्ट्रा एडवांस कोर्स कराने वाले ये नासुरे पाखंडी, किसे और कैसा योग करवा रहे हैं। लेकिन मेरी मानिए ऐसा है नहीं, रामदेव बहुत ही सद्चरित्र योगी हैं, ये ठीक है कि उन्होने काले धन के बारे में झूठ बोला, लेकिन तब मजबूरी थी, ये भी ठीक है कि वो पंडाल से महिलाओं के कपड़े पहन कर भागे थे, लेकिन वो भी मजबूरी थी, इस नश्वर काया को बचाना था, अपनी महत्वाकांक्षा का पूरा करना था। योगी का क्या मन नहीं होता, रविशंकर ने भी पॉलिटिक्स में हाथ आजमाना चाहा, लेकिन होम करते ही हाथ जल गए, इसलिए किनारे से सरक लिए, अपना योग अच्छा है, बाकी आर्ट और लिविंग में आर्ट नहीं है, फार्ट है। जो लोग रविशंकर के यहां जाते हैं, उनका कब्ज सुना है दूर हो जाता है। तो गैस की अपच की शिकायत सुनते हैं उनकी दूर हो जाती है इसलिए उसका सही नाम फार्ट ऑफ लिविंग है, डैड क्या फार्ट करेगा जी। लेकिन योगी वो बहुत बढ़िया हैं, बालक मर रहे हों, महिलाओं का बलात्कार हो रहा हो, वही चिरस्थाई मुस्कान लेकर कहेंगे कि आर्ट ऑफ लिविंग का कोर्स कर लो, ठीक हो जाएगा। और करना भी चाहिए, पैसा ना हो तो बैंक से कर्ज ले लो।
दूसरा विवाद हुआ योग के बाद.....पहले तो राम माधव ने कहा कि, ”जब राष्ट्रपति तक ने योगा किया लेकिन उप राष्ट्रपति ने नहीं किया” जवाब में उपराष्ट्रपति कार्यालय ने कहा कि भई उपराष्ट्रपति को तो निमंत्रित ही नहीं किया गया था। ओहो, फिर राम माधव ने कहा कि, ”उन्हे सूचित किया गया है कि उपराष्ट्रपति की तबीयत खराब थी, इसलिए वो अपना कथन वापस लेते हैं, क्योंकि उपराष्ट्रपति संस्था सम्मान के लायक है।” इन्हे पहले समझ ना आया ये सम्मान, अगर सम्मान के लायक है तो माधव बाबू आपने पहला कथन ही क्यों दिया। और इससे भी महत्ववपूर्ण बात ये है कि आपको ये सूचना किसने दी कि उपराष्ट्रपति की तबीयत खराब है। क्योंकि खुद उपराष्ट्रपति कार्यालय ने स्पष्ट किया कि ”उपराष्ट्रपति बिल्कुल ठीक हैं, वो राजपथ इसलिए नहीं गए, क्योंकि उन्हे निमंत्रित नहीं किया गया था।” मामला यहीं खत्म नहीं होता। कहा जाता है कि योग करने वाले का मस्तिष्क कुशाग्र बन जाता है, इसलिए आयुष मंत्री के कुशाग्र दिमाग से एक और रास्ता निकला, उन्होने कहा कि भई जिस कार्यक्रम में प्रधानमंत्री मुख्य अतिथि हो उसमें उपराष्ट्रपति को निमंत्रित किया नहीं जा सकता, क्योंकि प्रोटोकोल है। अब भक्तों ने इसे लपक लिया। सवाल ये है कि भाई साहब, ये राष्ट्रपति क्या वहां बिन बुलाए पहुंच गए थे, इन्हे निमंत्रण नहीं मिला था क्या, अगर ये बिना निमंत्रण के पहुंचे तो इन्होने राष्ट्रपति पद की गरिमा को ठेस पहंुचाई है, और अगर इन्हे निमंत्रण दिया गया था, तो फिर आयुष मंत्रालय ने प्रोटोकोल में गड़बड़ की है। क्योंकि ऐसा कौन सा प्रोटोकोल है जो उपराष्ट्रपति के निमंत्रण के आड़े आ जाए, और राष्ट्रपति जो उससे उंचा पद है, उसके लिए ठीक रहे। बात कुछ समझ नहीं आई, हो सकता है कि योग करने से कुछ समझ मंे आए। 
माधव राम ने कौनसा योग किया, इसका अभी पता नहीं चला है, वैसे पता तो ये भी चलाना है कि कौन-कौन मंत्री, नेता, आई ए एस, आई पी एस, प्रशानिक अधिकारी आदि-आदि राजपथ पहंुचा था, जो नहीं पहंुचे उनके खिलाफ कार्यवाही तो करनी होगी ना, वरना इन नालायक प्रशासनिक अधिकारियों की इतनी हिम्मत हो जाएगी कि सरकारी आयोजन से ही गोल हो जाएंगे। 
हमने योग नहीं किया, करते भी नहीं, ये रामदेव-फामदेव वाला तो कतई नहीं करते, बाकी कुछ शरीर को इधर-उधर, टेढ़ा-मेढ़ा सा करते हैं, सो करेंगे। राजपथ पर कुल लोग पहंुचे थे, 35000, सरकारी आंकड़ा है, बाकियों को वापिस भेज दिया गया था। योग दिवस से पहले ही ये घोषणा कर दी गई थी जो सूर्य नमस्कार ना करे उसे पाकिस्तान भेज दो। मेरे कुछ एक दोस्तों ने तो इसीलिए योग नहीं किया, बोले यार कराची और लाहौर देखना है, चलो सरकारी खर्च पर ही सही। अब देखना ये है कि हमारे जैसे लोग जो भारत की कुल आबादी, घटा 35000 लोग हैं, को कब पाकिस्तान भेजा जाता है। 

सोमवार, 15 जून 2015

छिमा बड़ेन का चाहिए, छोटन को उत्पात



आप मानिए या ना मानिए, मानवियता का समय होता है, ज़रूरी नहीं कि हर समय आप मानवीय रहें, अगर जीवन भर मानवीयता का बोझा ढोते रहेंगे तो खुद के लिए कुछ ना कर पाएंगे, कुकुर की तरह मारे जाएंगे, या जीवित भी रहेंगे तो कुकुर की तरह। इसलिए मानवीयता हो ये सही है, लेकिन सही मौके पर हो, इसकी आवश्यकता है। आम इंसान इस बात का समझ नहीं पाता, इसलिए गलत मौके पर मानवीयता आदि की बात करने लगता है और मारा जाता है। आपको सही मौके की तलाश करनी चाहिए और अपनी मानवीयता वहीं दिखानी चाहिए, जहां सही समय हो, मौका हो। 

बात को और आसानी से समझने के लिए, मान लीजिए लाल चंदन के जंगल में बीस निर्दोष मजदूरों को एनकाउंटर कर दिया जाए, तो ये मानवीयता दिखाने का सही मौका नहीं हो सकता। इसी तरह छत्तीसगढ़ या झारखंड में आदिवासियों के पक्ष में मानवीयता कभी काम नहीं कर सकती। कश्मीर या उत्तर-पूर्व में, मानवीयता कारगर नहीं होती, बल्कि उल्टा असर करती है। इसके बरअक्स इन्ही सब जगहों पर नक्सल हमले में मारे गए सेना या पुलिस अफसरों के प्रति आपको मानवीयता के दायरे में सोचना होगा। इन इलाकों में अगर आपने आदिवासियों के हक में मानवीयता के नाते कुछ किया तो हो सकता है कि आपसे मानव होने का हक भी छीन लिया जाए। जैसे प्रो. साईंबाबा का मामला देख लीजिए, उन्होने आदिवासी हितों के बारे में लिखा और अपने मानव होने के हक से महरूम कर दिए गए, अब 90 प्रतिशत से ज्यादा पैरेलिटिक शरीर के साथ व्हीलचेयर पर भी बिना किसी मेडिकल सहायता के लिए जेल में पड़े हैं, सरकार का कहना है कि उन्हे इसलिए बेल नहीं दी जा सकती, क्योंकि वो खतरनाक हैं, अब इस मामले में मानवीयता का कोई मतलब ही नहीं बनता, क्योंकि साईंबाबा आदिवासी हितों में काम करते हैं। 

दूसरे देखना ये भी चाहिए कि जिसके प्रति आप मानवीयता दिखला रहे हैं वो मानवीयता का हकदार है भी कि नहीं, गरीबों, फुटपाथ के सोने वालों, मजदूरों, आदिवासियों, अल्पसंख्यकों के प्रति मानवीयता का दृष्टिकोण आपको कोई लाभ नहीं दिला सकता, अतः इन मामलों में मानवीयता का कोई मतलब नहीं रह जाता। दूसरी ओर, सलमान खान, संजय दत्त, ललित मोदी, हाशिमपुरा कांड के अभियुक्त, बाथे-बथानी के कर्मकांडी, सलवा-जुडुम के नेता आदि के प्रति मानवीयता दिखाने से आप काफी फायदा उठा सकते हैं, इसलिए इनके प्रति मानवीयता दिखाई जा सकती है। 

कई बार यूं भी होता है कि आप कुछ कर दें और बाद में उसे मानवीयता की कैटेगरी में डाल दें। ऐसी मानवीयता ज्यादा कारगर होती है। कुछ काम करने से पहले ही उन्हे मानवीयता की कैटेगरी में डाल देने से भी बात बन सकती है। अब मान लीजिए कि आप जानते हैं कि आपको कुछ करना होगा, तो पहले से ही उस काम के पक्ष में मानवीयता आदि का वातावरण तैयार करना शुरु कर दें, इस तरह आपके विरोधी उस कार्य का विरोध नहीं कर पाएंगे, क्योंकि, मानवीयता का विरोध करना तो वैसे भी मानवीयता विरोधी होता है साहेब।

अब यही लीजिए, सुषमा स्वराज ने मानवीयता के आधार पर ललित मोदी की सहायता की, और भाई लोग उन्हे दोषी करार देने लगे हैं। सुषमा जी के इस मानवीय कार्य का विरोध करने वाले वही लोग हैं जो मानवीयता के आधारभूत नियम से अपरिचित हैं, मानवीयता वहीं संभव है जहां मौका है, और मौका, मौका होता है। आप लोग चाहते हैं कि हर मामले में मानवीयता ठोकी जाए, आप तो भेड़-बकरी सबको एक ही लाठी से हांकने की बात कर रहे हैं। ये संभव नहीं है, इस तरह तो संसार का विधान उलट-पुलट जाएगा। ललित मोदी की बात दूसरी है, अगर वो नहीं होते तो कहिए ज़रा दुनिया को आई पी एल जैसे क्रिकेट से पैसा कमाने का तरीका कैसे मिलता, क्या हुआ कि वो थोड़ा लालची था, सिर्फ इस आधार पर उसे इंग्लैंड या फ्रांस में छुट्टियां मनाने से नहीं रोका जा सकता, ये तो अमानवीयता होती। इसलिए माननीया मानवीया सुषमा जी ने उसे मानवीयता के आधार पर इंग्लैंड जाने में मदद की। 

इसलिए मितरों, मानवीयता की पुरानी परिभाषा पर मत जाइए, मौके की नज़ाकत को पहचान का मनवीयता को बरतिए, याद रखिए ”छिमा बड़ेन का चाहिए, छोटन को उत्पात”, यानी बड़े लोगों को क्षमा कर देना चाहिए और छोटों को उत्पाती करार देकर जेल में डाल देना चाहिए। यहां क्षमा को मानवीयता की कैटेगरी में डाल कर कहा जा रहा है। ये भारतीय परंपरा रही है, मानवीयता उसी के साथ बरती जाती है जो मानवीय हो, राम ने भी मौका देखकर मानवीयता बरती थी, जब जंगल में जा रहे थे, तो आदिवासियों की मदद चाहिए थी, इसलिए शबरी के बेर भी खाए, और जब वापस आकर राजा बन गए तो शंबूक के कानों में सीसा भी डलवा दिया। ये मौके की बात होती है, अब मोदी जी को राम राज लाने के लिए राम के नक्शे कदमों पर ही चलना होगा। इसे आप सब मोदी विरोधी नहीं समझ सकते, इसे समझने के लिए मोदी भक्त होना अनिवार्य होता है। 

मुझे लगता है कि मानवीयता की इस नई परिभाषा को विश्वभर में फैलाने की जरूरत है, मोदी जी जैसे ही विश्व योग दिवस मना कर फुरसत पाते हैं वे मानवीयता की इस नई परिभाषा को भी प्रसिद्ध करेंगे ऐसी हम आशा करते हैं, सुषमा स्वराज जी की मानवीयता को बधाई, सारे नेताओं को उनसे सबक लेकर देश के सभी बड़े अपराधियों को मानवीयता के आधार पर बाहर जाने की, बेल की सुविधा देनी चाहिए। जेलों का क्या है उसके लिए काफी लोग हैं, जो सुसरे मानव की कैटेगरी में ही नहीं आते। 

शुक्रवार, 12 जून 2015

आ आ पा और भा ज पा


लीजिए साहब, आ आ पा के नेता सोमनाथ भारती पर उनकी पत्नि ने घरेलू हिंसा का आरोप लगा दिया। कुछ लोग इसे भा ज पा की साजिश करार दे रहे हैं, हो सकता है हो ही, लेकिन आरोप तो लगे हैं। नैतिकता, सच्चाई, ईमानदारी के तथाकथित सिंहासन पर बैठे हुए लोगों की कलई खुल रही है। हालांकि डिग्री के मामले में ईरानी साहिबा का भी पेंच है, लेकिन वो केन्द्रीय मंत्री हैं, बचा ले जाएंगी, आप का क्या होगा जनाबे आली......
प्रशांत भूषण और योगेन्द्र यादव को पार्टी से निष्कासित करके अरविंद केजरीवाल ने जो साख खोई थी, उसे वापस हासिल करने की राह पर वो चल पड़े थे, जिसका मौका उन्हे अजीब जंग ने दे ही दिया था। अजीब जंग के इस अजूबे व्यवहार और तौर तरीके को हम बहुत करीब से देख चुके हैं, जामिया में वी सी होते थे, और क्या होते थे। साहब की जी हुजूरी, और मातहतों की ऐसी-तैसी इनके खून में ही है। जामिया तो बच्चों के लिए नरक बना दिया था जनाब, जब एल जी बने दिल्ली के, तो हम कहे थे, लीजिए, दिल्ली का भी बुरा दिन आ गया। खै़र, अजीब जंग ने केजरीवाल को बेकार ही छेड़ कर, या समझिए कि केन्द्र के इशारे पर आ आ पा को छेड़कर खुद आ आ पा के लिए, केजरीवाल के लिए जीवनदान वाली दवा का इंतजाम कर दिया था। दिल्ली की जनता में एक बार फिर से सुगबुगाहट होने लगी थी कि, भई केजरीवाल को काम नहीं करने दिया जा रहा, और उसके निकम्मेपन, बेईमानी और तानाशाही चेहरे की असलियत लोगों के सामने आती-आती रह गई थी। असल में गलती केजरीवाल, या सिसोदिया की नहीं है, इस सिस्टम में इसके अलावा रह सकने का कोई और विकल्प है ही नहीं, अगर आप बेईमान ना हों, झूठे ना हों, आम जनता पर अत्याचार ना कर सकते हों, तो आप सत्ता की कुर्सी पर एक दिन टिके नहीं रह सकते। हो सकता है कि आप सोचते हों कि केजरीवाल ने तो कुर्सी छोड़ दी थी, नहीं जनाब, असल में वो भी एक राजनीतिक कदम था, उस समय वो कुर्सी पर रह ही नहीं सकता था, बिना सपोर्ट के वो सरकार चला नहीं सकता था। मैने तब भी कहा था, कि भाई लोकपाल तुम चाहो तो भी नहीं बना सकते, क्योंकि ये राज्य का मामला नहीं है, ये केन्द्र सूची की बात है, उन दिनो ये भिड़े हुए थे लोकपाल के लिए, अब क्या हुआ, कहां गया लोकपाल, अब तो आपके पास 67 विधायक हैं। 
मुद्दा मजदूरों का हो, गरीबों को हो, ठेका मजदूरों का हो, या आम जनता का, आ आ पा ने सत्ता में आते ही सबसे मुहं मोड़ लिया। और तो और, हर मुद्दे पर धरना देने वाली आ आ पा ने अपने साथी की दिन-दहाड़े हत्या का विरोध करने वाले, और उसके लिए उचित मुआवजे की मांग करने वाले डी टी सी के कर्मचारियों को कारण बताओ नोटिस और नौकरी से बर्खास्तगी की धमकी तक दे डाली। अरे वाह रे केजरीवाल, यानी धरना दोगे तो तुम, और शासन करोगे तो तुम, और बाकी जो कोई करे तो उसे पुलिस से पिटवाओगे, नौकरी से निकाल दोगे, भई वाह गजब तुम्हारी ईमानदारी, और गजब तुम्हारा लोकतंत्र। 
कई दिनो से दिल्ली के अलग-अलग हिस्सों में देख रहा  हूं कि केजरीवाल सरकार ने 152 के करीब अफसरों को सस्पेंड कर दिया है, और करीब तीस-चालीस गिरफ्तार किए गए हैं, तो भई ये तो बड़ा काम हुआ। असल में ये भी धोखे की टट्टी है। एक पत्रकार मित्र के हवाले से सूचना ये है कि जितने भी ये तथाकथित अफसर सस्पेंड या गिरफ्तार हुए हैं, वो सब इन्सपेक्टर या उससे नीचे के रैंक के हैं, तो उपर वाले क्या सुसरे सब ईमानदार भरे पड़े थे, या उनके खिलाफ किसी ने शिकायत नहीं की, या सरकार को दिखाई ना दी, या आ आ पा का मानना है कि बेईमानी और भ्रष्टाचार सिर्फ नीचे रैंक वाले करते हैं, उपर वाले सभी ईमानदार होते हैं। वैसे आ आ पा ये मान भी सकती है, क्योंकि उसके अपने सारे मंत्री, दूध के धुले हैं, छिछोरे विश्वास कुमार से लेकर, स्व पत्नि पीड़क सोमनाथ भारती तक सब सद्चरित्र, स्वनुशासित हैं। बाकी अगर उनका किसी से कोई अफेयर रहा तो वो निजी मामला है, अगर डिग्री फर्जी है तो वो निजी मामला है, अगर वो पार्टी को दो करोड़ चंदा देकर टिकट लिए हैं तो ये पार्टी और उनके बीच का मसला है, और अगर उनकी पत्नि ने उन पर अत्याचार आदि का इल्जाम लगाया है तो ये भाजपा की साजिश है। 
बात ये भी है कि अगर तोमर को फर्जी डिग्री के मामले में गिरफ्तार किया जा सकता है, इसलिए कि उसने चुनाव आयोग को अपने एफिडेविट में झूठी डिग्री दी थी तो फिर यही काम नरेन्द्र मोदी के लिए क्यों ना हो, जो एक चुनाव में कुंवारे और दूसरे में शादीशुदा होते हैं, स्मृति ईरानी के लिए क्यों ना हो, जो एक चुनाव में बी ए पास होती हैं, दूसरे में बी कॉम पास होती हैं, और फिर कहीं ये बयान देती हैं कि उनके पास तो ऑक्सफोर्ड की डिग्री है।
खैर कुल मिलाकर मामला इतना है कि राजनीति के धुरंधर खिलाड़ी पटखनियां खा रहे हैं, राजनीतिक विश्लेषक चकरा रहे हैं, किसी को कुछ समझ नहीं आ रहा कि आखिर ये हो क्या रहा है। मामला इतना संगीन है कि कुछ लोगों को तो ये तक लगने लगा है कि कहीं आ आ पा दिल्ली विधानसभा में खुद ही विपक्ष ना बना जाए, आखिर उसे भी विपक्ष की कमी खल रही होगी। पर चाहे कुछ भी हो, मजा खूब आ रहा है इस सब उठापटक में, कभी एल जी केजरीवाल को पटखनी दे देते हैं, कभी केजरीवाल एल जी के उपर भारी दिखते हैं, गजब कुश्ती चल रही है भाई। हाल ये है कि जब कोई पटखनी देने वाला नहीं बचता तो केजरीवाल के मंत्री खुद ब खुद पटखनियां खाने लगते हैं, कभी तोमर कुछ कर देते हैं, कभी राखी बिड़ला, और कभी सोमनाथ भारती। हो सकता है कि अगली बार केजरीवाल दिल्ली की जनता के पास ये मुद्दा लेकर जाएं कि दिल्ली की सारी सत्तर सीटों से सिर्फ और सिर्फ केजरीवाल को ही जिता दिया जाए, ताकि उनके ऊपर किसी मंत्री आदि की कोई नैतिक जिम्मेदारी ना हो। अब अगर वही पूरी विधानसभा में अकेले होंगे तो फिर ईमानदारी ही ईमानदारी होगी, भ्रष्टाचार गायब हो जाएगा। हालांकि हमें यकीन है तब भी होगा यही कुछ जो अब हो रहा है, लेकिन वो चुनाव देखने में मजेदार होगा, जहां दिल्ली की सारी सत्तर सीटों से केजरीवाल ही केजरीवाल चुनाव लड़ेंगे। तब तक इंतजार कीजिए क्योंकि ये सब कारगुजारियां देखते हुए वो दिन दूर नहीं लग रहा जब इतने बड़े मैन्डेट से बनने वाली सरकार खुद अपने ही बोझ तले गिर जाएगी और दिल्ली में एक बार फिर से चुनाव होंगे। 
  

शुक्रवार, 5 जून 2015

एक लोटे की आत्मकथा - 6 - अंतिम पड़ाव


भाग-6
कॉलेज का माहौल तो मुझे देखते ही रास आ गया। चारों तरफ़ युवा लड़के-लड़कियाँ थे, सभी जोश से ऐसे भरे हुए थे जैसे दुनिया ही बदल डालेंगे। और फिर वो लड़का जिसका नाम था...म्म्म्म्म, राजीव...नहीं, सुनील, कयूम, निशांत...अभी भी याद नहीं लेकिन भला सा नाम था। और सबसे बड़ी बात थी कि वो एक थिएटर ग्रुप में काम करता था। ग्रुप में काफ़ी सारे लड़के-लड़कियाँ थे और वो मुझे यूँ उठा लाया था कि वो लोग अभी जो नाटक कर रहे थे, उसमें लोटे का बहुत बड़ा रोल था। 
लीजिये, बिना कोई मेहनत किये मैं एक्टर बन गया था। मेरा रोल उस नाटक में कितना बड़ा था, इसका अंदाज़ा आप इसी बात से लगा सकते हैं कि जब मुझे ग्रुप से इन्ट्रोड्यूस कराया गया तो सब के चेहरे खिल गये थे क्योंकि उनके नाटक का रिहर्सल उस एक लोटे की वजह से रूका हुआ था और वो सब चाहते थे कि कहीं से उनके हाथ कोई लोटा लग जाये। ग्रुप की माली हालत बहुत अच्छी नहीं थी इसलिए वो लोटा खरीदने की जगह कहीं से लोटा जुगाड़ने की सोच रहे थे, और एक चमत्कार की तरह मैं उनके हाथ लग गया था। ‘‘अमेज़िंग है यार, कितना शाइन कर रहा है ना‘‘, ‘‘पर शक्ल से तो एन्टिक लग रहा है‘‘। ये उनके पहले सम्बोधन थे, जो मेरे लिए थे ।
अगर मैं ये कहूँ कि मुझे नाटक का हिस्सा बनने से कोई रोमांच नहीं हुआ तो ये गलत होगा। सच कहूँ तो मेरे लिए तो ये बहुत ही आरामदायक ब्रेक था, दिन भर मैं ग्रुप के फ्लोर मैंनेजर देबू के बैग में रहता था फिर शाम को उनके साथ रिर्हसल में हिस्सा लेता था, और रात को देबू की कम्प्यूटर टेबल पर रहता था। उन लोगों को भी मेरे टेढ़े बैठने की आदत का पता चल गया था और सच कहूँ तो मुझे इसमें कोई प्रॉब्लम नहीं थी। वो लोग मुझे अपने नाटक के और किरदारों की तरह ही उतनी इज़्ज़त देते थे। बड़े प्रेम से रखते थे, सबसे बड़ी बात ये थी कि उनमें कोई एक डायरेक्टर नहीं था, बल्कि वो सब ही एक्सपिरियंस्ड थे और वो सभी नाटक में कोई न कोई पॉज़िटिव कॉन्ट्रिब्यूशन करते ही रहते थे। पर कुल  मिलाकर ये हिस्सा बहुत बढ़िया गुज़रा है, न खाने की परवाह, न सोने की फ़िक्र । इन बच्चों में समाज बदलने का जो जोश दिखाई देता था वो मुझे वो मुझे अपने कॉम. नसीर की याद दिला देता था। आप सोच कर हँस रहे होंगे कि लोटा तो इमोशनल हो गया लेकिन सच कहूँ तो इन बच्चों को देख कर तो कोई भी इमोशनल हुए बिना नहीं रह सकता। खै़र इन बच्चों ने बड़ी शिद्दत के साथ मेहनत करके अपना नाटक तैयार किया, लेकिन जब इनका शो होना था उससे ठीक पहले कुछ भयानक हुआ और सुना पूरे देश में दंगे फैल गये। नाटक तो दूर की बात है, लोगों का घरों से निकलना मुश्किल हो गया था। शायद कोई मस्जिद गिरने की बात थी, या ऐसा ही कुछ था, क्योंकि इन लोगों की बातचीत मंे ऐसे फिक्रे आते थे कि किसी ख़ास पार्टी का तो प्लान ही था कि वो मस्जिद गिरा देंगे, या ऐसा ही कुछ........मैं तो हिंदू मुसलमान दोनों के ही यहाँ रहा हूँ, मुझे तो दोनों की फ़ितरत में कोई ख़ास फ़र्क नज़र नहीं आया। कोई अच्छा ‘इंसान‘ लगा तो वो खुद को नास्तिक कहता था, कहता क्या था प्रचार करता था नास्तिकता का और कहता था, भगवान को मानने वाले बेवकूफ़ होते हैं (ये मेरे शब्द नहीं हैं)। हो सकता है, लोग बेवकूफ़ न हों बल्कि बहुत चालाक हों, और दूसरों को बेवकूफ़ बनाने के लिए भगवान को मानने का ड्रामा कर रहे हों क्योंकि जैसे आप भगवान को मानते हो उससे तो यही लगता है।
चलिये, मैं फिर भटक गया था (आदत के अनुसार) और आपने भी नहीं टोका (क्यों)। तो उन लोगों का नाटक नहीं हो सका, और मेरे एक्टर बनने का एक मौका, आख़री मौका भी चला गया। देबू ने मुझे अपने कमरे की अलमारी की छत पर रख दिया और भूल गया, कतई भूल गया, हो सकता है उसने फिर नाटक किया हो...लेकिन ऐसा कोई नाटक न किया हो जिसमंे किसी लोटे की ज़रूरत हो, और मैं भी दुनिया जहाँ को भूल कर उस अलमारी के ऊपर धूल खाता रहा। फिर जाने कितने समय के बाद शायद दिवाली या दुर्गा पूजा के समय सफ़ाई करते हुए मुझे निकाला गया लेकिन मुझे धो-पोंछ कर इस्तेमाल में लाने की उनकी कोई मंशा नहीं थी, क्योंकि उन्होंने मुझे किसी कबाड़ी को दे दिया जो मुझे अपने बोरे में डाल कर दुकान पर ले गया, जहाँ से मुझे बिना दाम लगाये अपने घर ले गया ।
कबाड़ी का घर कुछ ज़्यादा बड़ा नहीं था, शायद किराये का रहा होगा, आपमें से शायद ज़्यादातर लोग नहीं जानते होंगे कि एक कबाड़ी कमाई कैसे करता है। आख़िर वो आपका कबाड़ खरीदकर ले जाता है तो उसे इसमें क्या हासिल होता है। दरअसल एक कबाड़ी के घर रहकर इस बारे में मुझे बहुत कुछ पता चला है लेकिन वो सब मसाले आप के काम के नहीं हैं, आप बस ये समझ लीजिये कि एक तरफ कबाड़ी होता है जो आपसे सामान खरीदता है तो आगे वो भी वो सारा सामान किसी को बेचता ही है, मेरे मामले में ऐसा नहीं हुआ था। कई बार कबाड़ी लोगों को आपसे खरीदे हुए कबाड़ में कोई चीज़ पसंद आ जाये तो वो चीज़ आगे बेचने की जगह अपने पास रख लेते हैं, जैसे मुझे रख लिया था। 
मेरे नये मालिक ने मेरी कीमत समझी और मुझे अपने पास रख लिया। अब आप साचेंगे की मैं आपको अपने नये मालिक के बारे में कुछ बताऊँगा। जी नहीं, बिल्कुल नहीं।
जिस दिन मुझे वो अपने घर लाया उसके तीसरे ही दिन, उसने अपने दोस्तों के साथ दारू पी, पानी ज़ाहिर है मुझमंे ही भरा गया होगा। फिर रात में किसी समय जब दारू खत्म हो गयी तो आरोप, प्रत्यारोप का दौर आया । और उसी में से किसी ने इस सारे गुल-गपड़े के पीछे मुझे दोषी ठहरा दिया, फिर मुझे तो कुछ समझ ही नहीं की क्या हुआ...कभी कोई मुझे उठा के फेंक देता था तो दूसरा मुझे सम्भाल के रख लेता था। मेरी उम्र बहुत हो चली थी, मेरा र्जजर बदन इतना उत्पात झेल नहीं पाया और एक जगह से छिल गया । वो शारीरिक चोट कम और मानसिक चोट ज़्यादा थी, कहाँ तो मैंने सोचा था कि जिसके पास भी मैं रहूँगा उसकी ज़िंदगी बेहतर बना दूँगा और अब दारू पीकर जो झगड़ा हुआ उसने मुझे अपने जीवन के अंतिम रास्ते पर ला खड़ा कर दिया था।    क्या यही है तुम्हारी मानवीयता, इसी का दम भरके तुम खुद को श्रेष्ठ मानते हो, एक बेज़ुबान लोटे पर तो इतने अत्याचार तो जानवर भी नहीं करते।
सुबह उठकर उस कबाड़ी ने मेरा मुआयना किया और मुझे अपने झोले में डाल लिया, जब वो दुकान पर पहुँचा तो उसके पास बेचने के लिए कुछ था........
उसके बाद कई हाथों से गुज़रता हुआ मैं इस फैक्ट्री में आया हूँ और अपने गलाये जाने का इंतज़ार कर रहा हूँ। जाने मेरी धातु को गलाने के बाद ये मुझे किस शक्ल में ढ़ालेंगे। लेकिन ये तो तय है कि मेरी नियती नहीं बदलेगी। मैं उन्हीं नाशुक्रे, हैवान कहे जाने वाले काबिल इंसानों के काम आऊँगा।
मेरा आपको अपनी आप-बीती सुनाने का मक़सद यही था कि सुधर जाओ, अब भी वक्त है, और मुझे आवाजे़ं आने लगी हैं। लीजिए, मेरी कहानी और ये ज़िन्दगी खत्म हुई। शायद आपसे किसी और रूप में मुलाकात हो। अलविदा.........

मंगलवार, 2 जून 2015

एक लोटे की आत्मकथा - 5


भाग-5
फूल सिंह ने मुझे अपने पास नहीं रखा। लगता था कि अपनी बढ़ी हुई तोंद के अनुसार वो पुलिसिया होने का काफ़ी अनुभव बटोर चुका था और जान गया था कि अगर धरती पर कोई ख़़ुदा है तो वो, वही है-वही है-वही है। लेकिन बचपन की कुसंगतों के चलते ऐसी कई गंदी आदतें लग जाती हैं जिन्हंे हम चाह कर भी छुड़ा नहीं पाते। फूल सिंह को भी बचपन से ही मन्दिर जाने की आदत थी और ये आदत इतनी बुरी थी कि मान लिजीये वो किसी गरीब आदमी को मार रहे हों और रास्ते में मन्दिर आ जाये तो वो मशीनी तौर पर मन्दिर को प्रणाम करके आदमी को पीटने या महिला को घूरने के काम में मशगूल हो जाते थे। यानी किसी का ये विश्वास हो कि भगवान को याद करने से, या पूजा करने से कोई बुरे काम छोड़ देता है तो अपने विश्वास को दोबारा चेक करना चाहिये क्योंकि देश के सबसे वीभत्स काम तो उन्हीं थानों में होते हैं जिनके आँगन में हनुमान जी की मूर्ति लगी होती है। पुलिस वाले हनुमान जी की मूर्ति को प्रणाम करके अंदर जाते हैं और जी भर के रेप करते हैं, फिर बाहर आकर हनुमान जी को सवा रूपये का प्रसाद चढ़ाते हैं।
ख़ैर मैं बात कर रहा था फूल सिंह के बुरे संस्कारों की। वो अपने मोहल्ले की मन्दिर कमेटी के कुछ थे। लेकिन इसकी वजह ये नहीं थी कि वो खूब पूजा करते थे या उन्हें किसी भगवान विशेष से कोई विशेष लगाव था। बल्कि इसलिये थे क्योंकि वो पुलिस वाले थे और मन्दिर गैर-कानूनी जगह पर बना हुआ था। मन्दिर का पंडित उन्हीं के गाँव का रिशतेदार था और उसने आम प्रचलन के मुताबिक मन्दिर में ही अपने भतीजे को एक दुकान खुलवा दी थी, जैसा की आपने अक्सर देखा ही होगा। 100 गज के मन्दिर में 20 गज की चार दुकानें होती हैं और 15 गज में पंडित की फैमिली रहती है, बाकी 5 गज की जगह में भगवान जी, उनकी वाइफ़ और भगवान न करे उनका पेट घुटने के बल बैठा होता है, और हाँ उनका छोटा भाई भी कहीं बाजू में खड़ा कर दिया जाता है, अगर जगह हो तो ।
ये किसी पुलिस वाले को मन्दिर की सभा का कोई अधिकारी बनाना वैसा ही है जैसे किसी ऐसे आदमी को क्रिकेट कमेटी का अध्यक्ष बना देना जिसने जीवन में कभी क्रिकेट न खेला हो, या किसी ऐसे आदमी का ओेलम्पिक संघ का अध्यक्ष बना देना जो कभी ओलम्पिक न खेला हो। तो कुल मिलाकर फूल सिंह मन्दिर की सभा के ‘कुछ‘ थे। मन्दिर की दुकान से उन्हें कुछ सामान प्रभु-प्रसाद के तौर पर फ्री मिल जाता था और वो पंडित से बड़े प्रसन्न रहते थे। कुल मिलाकर सृष्टि का अरेंजमेंट बहुत अच्छा चल रहा था । तो जब मैं, यानी की एक भारी लोटा उनके हाथ में आया तो उन्होंने सोच लिया कि वो किसी ‘फेस्टिवल‘ पर मंदिर को दान कर देंगे। तो घर लाकर उन्होंने मुझे अलमारी में बन्द कर दिया (गरीब भिखारी से छीनी गयी चीज़ के दान की विसंगती पर ध्यान मत दीजिए, दुनिया का 98 प्रतिशत दान-धर्म इसी खाते में चलता है। जैसे बिल गेट्स दुनिया का खून चूस कर 100 खरब रूपये कमाता है और उसमें से 2 अरब गरीबों में बाँट कर दानवीर का खि़ताब पा जाता है, टाटा एक तरफ आदिवासियों पर गोलियाँ चलवाता है और उसके ज्प्ैै नाम के इंस्टिट्यूट में ट्राइबल वेलफेयर की जो़रदार पढ़ाई होती है, जहाँ बच्चे ये पढ़ते हैं कि ट्राइबल्स को मेनस्ट्रीम में कैसे  लाया जाये)।
लीजिये, मैं फिर भटक गया, आप टोक दिया कीजिये। दरअसल इतनी बातें भरी हुई हैं इस दिल में की सब निकाल देने को जी चाहता है। तो हम कहाँ थे..हाँ, फूल सिंह जी ने सोचा कि किसी बड़े फेस्टिवल पर मुझे यानी लोटे को मन्दिर में दान करके मोहल्ले पर अपनी दानशीलता की धाक जमाई जायेगी। और जल्दी ही वो दिन आ गया, पता नहीं त्योहार क्या था, पंडित के श्लोक पढ़ने से तो लग रहा था कि कोई जनरल त्योहार है। वैसे भी पंडित कुछ 3-4 पेट श्लोक याद कर लेते हैं और इंटरनेशनल करंसी की तरह हर जगह उसे इस्तेमाल करतेे रहते हैं, किसी के पैदा होने पर भी वही, मरने पर भी वही, शादी पर भी वही, और बाकी तीज-त्योहार पर भी वही....रूकिये, याद आने दीजिये..क्या था..हाँ, शांति रापा, शांति ये था, शांति वो था...आदि। पर हमें क्या, दुनिया ऐसे ही चलती आयी है,ऐसे ही चलती रहेगी । आप तो बस मेरी आपबीती  सुनिये....
कार्यक्रम के शुरू में ही फूल सिंह ने मुझे पंडितजी, यानी मन्दिर को दान कर दिया। क्योंकि उस मन्दिर का नाम राम मन्दिर नहीं था, बल्कि लँगड़े पंडित वाला मन्दिर था। जैसे सी.पी. में जो मन्दिर है वो लक्ष्मी नारायण मन्दिर नहीं बल्कि बिड़ला मन्दिर के नाम से जाना जाता है। तो मुझे लँगड़े पंडित के मंदिर को दे दिया गया। कल तक फ़कीरू मुझमें थूकते थे, अब भगवान जी मुझमंे दूध पीने लगे (वक्त भी क्या खेल खेलता है, मैनें ये कहावत कहीं सुनी थी, आज यहाँ फिट कर दी, उम्मीद है ठीक होगी...कहानी कहने वालों को कभी-कभी ऐसे ही फ़िलॉस्फ़र या शायर होने का पूरा अधिकार होता है) तो मैं अब श्री रामजी, उनकी वाइफ सीता, ब्रदर लक्ष्मण और उनके पेट मन्की को दूध पिलाने का काम करने लगा। इससे मुझे कोई आपत्ति नहीं थी, आपत्ति मुझे उस लिंग से थी जो मन्दिर के बीचों-बीच बना हुआ था। और मुझे उस पर दूध चढ़ाने के लिए इस्तेमाल किया जाता था। तुम इंसानों में यही बुरी बात है, अरे खु़द कुछ भी करो, हम बेज़ुबान बरतनों को अपने गंदे कामों में क्यों शामिल करते हो, भई हमें माफ़ करो। लेकिन फ़करू के सर्वप्रयोग के बाद मन्दिर में ऐश की ज़िंदगी से यकीनन मुझे कोई नैतिक ऐतराज़ नहीं था...
मन्दिर में ऐश की ज़िंदगी जीते हुए काफ़ी अरसा बीत गया था, फूल सिंह रिटायर होकर अपने गाँव (शायद फूलपुर) वापस जा चुके थे। जबकि उनके बेटे ने यहीं बिज़नेस खोल रखा था और अब अपने पिता की तरह वो भी मन्दिर सभा का कुछ था। पंडित बूढ़ा हो गया था, लेकिन हमेशा ये ध्यान रखता था कि शाम को मन्दिर बंद होने से पहले सारा सामान अन्दर रख दे। लेकिन उसका बेटा इतना चौकन्ना नहीं था, और एक रात वही हुआ कि शाम को मन्दिर बंद करते हुए उसका बेटा मुझे अंदर ले जाना भूल गया। रात हो गई और मैं वहीं पड़ा रह गया। आपने ध्यान दिया होगा कि इंसानों की तरह हम लोटों को डर या ठंड नहीं लगती, मच्छर हमारा खून नहीं पीते और मक्खियां हमें परेशान नहीं करती। तो बिना किसी परेशानी के मैं वहां पड़ा रहा।
कुछ रात गुज़र जाने के बाद वहां दो लड़कों का आना हुआ। ”अबे प्रिंस देख ये क्या है” ”अबे ये उस साले लंगड़े पंडित का लोटा है.....” प्रिंस ने जवाब दिया। ”अबे बाहर ही पड़ा है....” ”पड़ा है तो उठा ले....” और जिसका नाम प्रिंस नहीं था उसने मुझे उठा लिया, थोड़ा घुमा-फिरा कर देखा और फिर दोनो आगे चल दिए। दोनो की बातचीत से मुझे पता चला कि जिस लड़के ने मुझे उठाया था उसका नाम मुस्तफा था। दोनो ही गरीब थे, और छोटी-मोटी चोरी-चकारी करके अपना काम चलाते थे। चलते-चलते प्रिंस ने कहा, ”भई मैं चलता हूं.....काफी देर हो गई” ”ये लोटा ले जा” मुस्तफा बोला।
”अबे मैं लोटे का क्या करूंगा”
”अबे आज तू बड़ा दानी बन रहा है, साले खाली बोतल तक तो देता नहीं मुझे....”
”वो छोड़....मैने सोचा कि आज तू खुक्कल है....इसलिए....”
”इसलिए....अगर उस लंगड़े पंडित को पता चल गया ना....तो साले मेरा भुरकस बना देगा....फिर तू भी तो काफी दिनो से खाली है....चल कुछ और ना सही लोटा तो मिला....”‘कई बार मुझे साला 100-50 तो मिलता है, अब इसे बेचेंगे तो क्या मिलेगा‘‘...‘‘क्यों चिन्ता करता है यार, कुछ तो मिलेगा, जो मिलेगा उसे तू रख लियो, ठीक है, मैं चला‘‘, और ये कहकर प्रिंस चला गया ।
रात थी, ठंड थी, और अंधेरा था, धुँध भी थी, मुझे तो क्या ही डर लगता लेकिन इंसान होने के नाते मुस्तफ़ा को ठंड भी लग रही थी और डर भी लग रहा था। उसने सामने एक मस्जिद देखी और जाकर वहीं घुस गया । यूँ तो मस्जिद सुनसान पड़ी थी लेकिन गरमाहट तो थी, मुस्तफ़ा का पेट भरा हुआ था इसलिए वो सो गया । रात को मौलवी साहब ने मस्जिद के चक्कर लगाना ज़रूरी समझा होगा, उन्होंने देखा कि एक बच्चा ज़मीन पर अपनी चादर फैलाकर सिकुड़ा पड़ा है, तो उन्होंने उसे उठाया और उसे मस्जिद के अंदरूनी आते में ले गये, वहाँ उन्होंने उसे कम्बल दिया और अच्छी तरह सुला दिया । मुस्तफ़ा मुझे सीने से लगाये सो गया और सुबह जब उसकी आँख खुली तो उसने देखा कि मौलवी मिस्वाक कर रहे थे। उसने सोचा कि चला जाऊँ लेकिन शायद वो मुझे भूल चुका था, बेध्यानी में उसका हाथ मुझ पर लगा, मैं गिरा और दर्द से कराह उठा। मौलवी साहब ने मुड़कर उसे देखा तो उसके कदम जहाँ के तहाँ रूक अटक गये।
मौलवी साहब ने उसे इशारा किया तो वो उनके पास चला गया वहाँ मौलवी साहब के कदमों के पास मैं पड़ा था, उन्होंने झुक कर मुझे उठाया और उसे पास में जो हौज़ बना था, उसके पास रख दिया। फिर मौलवी साहब ने कुल्ला किया और उसे और मुझे अंदर ले गये । अंदर मुझे तो उन्हांेने एक मेज़ पर रख दिया और मुस्तफ़ा को बैठने के लिए मूढ़ा दिया। थोड़ी देर में एक बच्चा अन्दर से खाना ले आया तो मौलवी साहब ने उसे नाश्ता करने के लिए कहा, जो उसने चुपचाप कर लिया। मैं ग़ौर से देख रहा था कि इतने सालों तक मन्दिर में रहने के बाद मेरी किस्मत में एक चोर मालिक लिखा है या फिर मुझ बुतपरस्त लोटे को मस्जिद के काम में लाया जायेगा। नाश्ता करने के बाद मुस्तफ़ा बहुत सहज तरीके से उठा। मौलवी साहब से इजाज़त ली और निकल पड़ा, न उसने मेरी तरफ देखा, और न ही उसने मेरी तरफ हाथ बढ़ाया। हाँ मौलवी साहब अपनी रंगी हुई दाढ़ी पर हाथ फेरते हुए उसे गहरी नज़रों से देखते रहे।
तो ज़ाहिर है कि मैं मौलवी साहब के वज़ू का लोटा बन गया था। जात न पूछो लोटे की, बरतन से ये कब पूछा जाता है कि आप मस्जिद में इस्तेमाल होने से पहले वो किस मन्दिर में किस काम के लिए इस्तेमाल होता रहा था। मौलवी साहब बहुत सख़्त मिजाज़ इंसान थे, मस्जिद के पीछे ही दो कमरों के मकान में रहते थे जो मस्जिद के अहाते में ही थे...एक बीवी थी और दो बहुत ही खूबसूरत बच्चियाँ थाीं। लेकिन अपनी छुई-मुई सी बीवी और बच्चियों के लिये मौलवी साहब पूरे राक्षस थे। एसे वैसे नहीं सच के राक्षस थे, उनका कहना था कि उन्होंने तो अपनी बीवी से लड़के की इच्छा की थी लेकिन उसने उन्हें लड़कियाँ दीं। अब ये ख़ुदा की गलती तो हो नहीं सकती, ज़ाहिर है ये उनकी बीवी की गलती थी, तो वो बेचारी जब-तब अपनी गलती की सज़ा भुगतती रहती थी। और दोनों बच्चियाँ ऐसी सहमी हुई घर के किसी कोने में पड़ी रहती थीं कि लगता ही नहीं था कि घर पर कोई बच्चा रहता होगा। मौलवी साहब अपनी बीवी से इतना नाराज़ थे कि उन्होंने घर से सिर्फ़ खाने का नाता रखा हुआ था, अपनी बाकी ज़रूरतें वो बाहर से ही पूरी कर लिया करते थे। उनका दिन नमाज़ की अज़ान के साथ शुरू होता था और नमाज़ की आवाज़ पर ही खत्म हो जाता था । बीच में कुछ बच्चों को कुरान पढ़ाने भी जाते थे लेकिन वहाँ मैं उनके साथ नहीं जाता था।
इस तरह समय बीतता गया और मैं दिन-बा-दिन मुस्लिम लोटा बनता गया, सुबह की नमाज़ की अज़ान से पहले ही मेरी नींद खुल जाती थी और मैं वुज़ू का इंतज़ार करता था। लेकिन इतने सालों में मुझे कभी उस हौज़ के पास से नहीं हटाया गया जिसमें से वुज़ू का पानी लिया जाता है। मौलवी साहब की बच्चियाँ बड़ी हो गयी थाीं, लेकिन अपने बाप से बहुत डरती थीं। जहाँ उन्हें मौलवी साहब दिख जाते वो छुप जाती थीं, खौफ़ का आलम ये था कि जब मौलवी साहब घर पर होते थे तो घर पर बिल्कुल मरघट का सन्नाटा छाया रहता था । मस्जिद दो मंज़िला थी और छत पर एक कमरा था, मौलवी साहब की बच्चियों ने कुरान तो पढ़ ली थी लेकिन वो उन्हें कुछ और ही पढ़ा रहे थे। क्योंकि उनका कोई निश्चित टाईम नहीं था और वो अपनी बड़ी बच्ची को पढ़ाने में ज़्यादा दिलचस्पी लेते थे।
फिर एक दिन गजब हो गया, उनकी बड़ी बेटी ने सुबह-सुबह उल्टियाँ करनी शुरू कर दी। मौलवी साहब बाहर गये हुए थे, मस्जिद में कुछ तामिर का काम चल रहा था इसलिए मोहल्ले के कुछ लोग वहीं थे। उन्होंने बच्ची की खराब हालत देखी तो उसे पास के डॉक्टर के पास ले गये और जाने डॉक्टर ने क्या कह दिया कि पूरे मोहल्ले में एक दबा सा शोर मच गया । इस दबे हुए शोर में से कभी-कभी कुछ लफ़्ज़ बाहर कूद जाते थे। जिसमें ‘बच्ची, मौलवी, पेट‘ खास थे । खैर मोहल्ले वालों ने मौलवी को उसी रात मस्जिद से उठा दिया, उसका सामान पैक कर दिया गया, और दूसरे दिन से मस्जिद में नया मुअजि़्ज़न अज़ान दे रहा था। इस पूरे वाक़ये में उस बच्ची का क्या हुआ मुझे नहीं पता, एक बार दो लोगों की उड़ती-उड़ती बातचीत कान में पड़ी थी कि वो बच्ची बच्चा गिरवाते हुए टेबल पर ही मर गयी और उस पर किसी शैतान का साया था जिसकी वजह से मौलवी ने उसके साथ ये हरकत की। मैंने उस मासूम बच्ची को करीब से देखा था, मेरा दिल नहीं चाहता था कि उसके साथ कुछ इस तरह का हो इसलिए मैंनंे उस बातचीत पर भरोसा नहीं किया। आपसे भी यही कहूँगा कि सुनी-सुनाई बातों पर भरोसा नहीं करना चाहिये ।
लेकिन मस्जिद में जो नये मौलवी आये थे वो बहुत मज़ेदार थे। उन्हें लगभग हर चीज़ में हिन्दुओं की इस्लाम को नेस्ता-नाबूद करने की साज़िश नज़र आती थी। वो एक ही साँस में ये कहते थे कि इस्लाम तो धरती पर हमेशा के लिये रहने वाला धर्म है और अगर हमने कुछ नहीं किया और हिन्दुओं की साज़िश को नहीं रोका गया तो इस्लाम खत्म हो जायेगा । कमाल के बंदे थे, रात में अचानक चौंक कर चारपाई से उछल कर उठते थे और कुछ चूहों को मार कर ही सोते थे। दोपहर को मोहल्ले भर के शोहदों को जमा करके इस्लाम पर आये हुऐ खतरे की बातें करते थे और उन लोगों को ये बताने से नहीं चूकते थे कि इस्लाम की सच्ची राह क्या है। जैसे अगर किसी ने लाल रंग की कमीज़ पहन रखी है तो वो फ़ौरन कह देते थे कि लाल रंग की तो इस्लाम में मुमानियत है। उन्हें ये यकीन था कि इस्लाम की सच्ची जानकारी उन्हीं को थी और बाकी सब जाहिल हैं जो उसका सही मतलब नहीं समझ पाये हैं। कहीं लिखा था कि अगर किसी सुराख़ में से भी कोई बुराई होती देखो तो उसे रोको। अब मौलवी साहब ने वो पकड़ लिया था, सवाल ये था कि बुराई आप किसे कहेंगे, कोई रिश्वत ले रहा है तो बुरा है, यकीनन बुरा है लेकिन रिक्शे वाला आपको बस स्टॉप से मस्जिद तक लाया है और आप उससे 2 रूपये के लिये झगड़ा कर रहे हैं, ये बुरा नहीं है। मौलवी साहब के हिसाब से जो भी बात उनकी मजीऱ् के खिलाफ़ होती थी वो इस्लाम के खिलाफ़ है और ऐसी ही बातें...और मैं कोने में बैठा हुआ उनकी बातें सुनकर मुस्कुराता रहता था, काफ़ी दिनों तक ऐसा ही चलता रहा.....
ऐसे ही ज़िन्दगी चल रही थी, और दिन बीत रहे थे। ऐसे में मैंने एक आदत बना ली थी कि जब मुझे मुँडेर पर रखा जाता था तो मैं थोड़ा सा लुढ़क कर आराम की पोज़िशन में आ जाता था। पहले तो मौलवी साहब ने कोशिश की कि मुझे ज़बरदस्ती ठीक ही खड़ा किया जाये, लेकिन मैंने भी ठान लिया था कि आराम से नहीं बैठुँगा, इसलिए जैसे ही उनका ध्यान हटता मैं फिर आराम वाली पोज़िशन में आ जाता था। उन्होंने बहुत कोशिश की कि मैं ठीक हो जाऊँ लेकिन यहाँ भी अपनी ज़िद के पक्के थे। मौलवी साहब का गुस्सा उनकी उमर के साथ बढ़ता जा रहा था। पता नहीं कि लोग उनके बताये हुए इस्लामिक रास्ते पर नहीं चल रहे थे या इस बात का गुस्सा था कि इस्लाम उतना तेज़ी से नहीं बढ़ फैल रहा था जितना तेज़ी से उसे फैलना चाहिए था। जो भी हो उनका गुस्सा बहुत खतरनाक था हो सकता है लोगों को ऐसा न लगता हो। कुल मिलाकर ऐसा लगता था कि ये गुस्सा किसी भी दिन फट सकता है, शुक्र था कि वो विस्फोट अब तक नहीं हुआ था। 
मौलवी साहब की हालत दिन-बा-दिन बिगड़ती जा रही थी, वो रात को उठकर कुछ न कुछ पढ़ते रहते थे। कुछ तो गड़बड़ थी पर मैं इंसानों जितना अनुभवी नहीं था और इसलिये मुझे ये भी नहीं पता था कि इंसानों का नॉर्मल व्यवहार क्या होता है या इंसानों के व्यवहार में नॉर्मल नाम की भी कोई चीज़ हो सकती है क्योंकि अब तक मैं जितने लोगों के पास घूमा था उनमें से कोई भी दो लोग एक जैसे नहीं थे। एक कॉम. नसीर और उनके दोस्त अच्छे लगे थे तो उन्हें पुलिस ने मार दिया था। हो सकता है मौलवी साहब नॉर्मल हों और मुझे एबनॉर्मल लग रहे हों (आप सोच रहे होंगे ये लोटा इतनी इंग्लिश कैसे बोलने लगा, वो क्या हुआ कि मैं कुछ समय एक इंग्लिश के प्रोफेसर के यहाँ भी रहा था, जो नाटक भी करवाते थे)। तो मौलवी साहब के साथ समय ऐसे ही कट रहा था और वो दिन-ब-दिन और अजीब होते जा रहे थे। एक दिन वुज़ू करते-करते जाने क्या सोच कर मुझे उठा कर फेंक मारा। ख़ामाख़ाँ अपनी फªस्टेशन मुझपर उतारी ।
मैं तो भई उनसे कतई परेशान हो चुका था। कभी मन में आता तो जा़ेर-जो़र से अजीब सी आवाजे़ं निकालने लगते थे । कभी चुप हो जाते थे तो तीन-तीन दिन तक बिल्कुल चुप रहते थे और हाँ, बीवी तो थी नहीं तो कोई खाना बना के देने वाला भी नहीं था तो कई बार बिना खाना खाये ही रहते थे। सूख कर लकड़ी के सरीख़े हो गये थे। फिर एक दिन ये बम भी फट ही गया, और मुसीबत ये कि ये बम भी मुझी पर फटा । हुआ कुछ यूँ कि उन्होंने वुजू़ करके मुझे मुँडेर पर टिकाया तो मैं अपनी आदत से मजबूर सरक कर एक तरफ को लुढ़क गया । उन्होंने फिर मुझे सीधा रखा और मैं फिर लुढ़क गया, उन्होंने 3-4 बार कोशिश की  लेकिन मैं भी ज़िद्दी हो गया था (जो मेरे जितनी ज़िंदगी देख ले उसका ज़िद्दी हो जाना कोई आश्चर्य की बात नहीं है), लेकिन मुझे क्या पता था कि ये ज़िद मुझ पर इतनी भारी गुज़रेगी, उन्होंने तो अजीब-अजीब आवाज़ें निकालनी शुरू कर दी और मेरे ऊपर फूँक मारनी शुरू कर दी। जब उनकी चीखें बढ़ने लगीं, कुछ लोग आये तो उन्होंने ये अजीब मंज़र देखा कि मौलवी साहब दोजानूँ बैठे हैं और मैं उनके सामने लुढ़का पढ़ा हूँ और वो दम ले-ले कर मुझ पर फूँक मार रहे थे और अरबी या फ़ारसी में कुछ मंत्र पढ़ रहे थे। लोगों ने उन्हें सम्भाला तो उन्होंने चीखना शुरू कर दिया कि इस लोटे में शैतान बसा हुआ है और इसे तो वो मस्जिद से बाहर निकालकर ही मानेंगे। उस दिन बड़ा तमाशा हुआ, मौलवी साहब किसी की पकड़ में नहीं आ रहे थे। आखिरकार एम्बुलेंस बुलाकर उन्हें भेज दिया गया, लेकिन  उसके बाद मेरा भी बहुत बुरा हाल हुआ । न तो लोग मुझे मस्जिद में रखने को तैयार थे और न ही कोई मुझे अपने घर में रखने को तैयार नहीं था। आईरनी देखिए, लोग मौलवी को पागल समझ रहे थे लेकिन उन्होंने जिसे शैतान बता दिया था उसे कोई रखने को तैयार नहीं था। मुझे तो किसी अछूत की तरह दो डंडियों के सहारे उठा कर बाहर रख दिया गया और लोग मुझे हिकारत से देखते हुए जाने लगे। अब मेरा कोई मालिक नहीं था। फिर अचानक एक जवान लड़के ने मुझे उठाया और अपने कॉलेज चला गया। जहाँ कुछ लोग जुटे हुए थे जो नाटक कर रहे थे ।

महामानव-डोलांड और पुतिन का तेल

 तो भाई दुनिया में बहुत कुछ हो रहा है, लेकिन इन जलकुकड़े, प्रगतिशीलों को महामानव के सिवा और कुछ नहीं दिखाई देता। मुझे तो लगता है कि इसी प्रे...