मंगलवार, 2 जून 2015

एक लोटे की आत्मकथा - 5


भाग-5
फूल सिंह ने मुझे अपने पास नहीं रखा। लगता था कि अपनी बढ़ी हुई तोंद के अनुसार वो पुलिसिया होने का काफ़ी अनुभव बटोर चुका था और जान गया था कि अगर धरती पर कोई ख़़ुदा है तो वो, वही है-वही है-वही है। लेकिन बचपन की कुसंगतों के चलते ऐसी कई गंदी आदतें लग जाती हैं जिन्हंे हम चाह कर भी छुड़ा नहीं पाते। फूल सिंह को भी बचपन से ही मन्दिर जाने की आदत थी और ये आदत इतनी बुरी थी कि मान लिजीये वो किसी गरीब आदमी को मार रहे हों और रास्ते में मन्दिर आ जाये तो वो मशीनी तौर पर मन्दिर को प्रणाम करके आदमी को पीटने या महिला को घूरने के काम में मशगूल हो जाते थे। यानी किसी का ये विश्वास हो कि भगवान को याद करने से, या पूजा करने से कोई बुरे काम छोड़ देता है तो अपने विश्वास को दोबारा चेक करना चाहिये क्योंकि देश के सबसे वीभत्स काम तो उन्हीं थानों में होते हैं जिनके आँगन में हनुमान जी की मूर्ति लगी होती है। पुलिस वाले हनुमान जी की मूर्ति को प्रणाम करके अंदर जाते हैं और जी भर के रेप करते हैं, फिर बाहर आकर हनुमान जी को सवा रूपये का प्रसाद चढ़ाते हैं।
ख़ैर मैं बात कर रहा था फूल सिंह के बुरे संस्कारों की। वो अपने मोहल्ले की मन्दिर कमेटी के कुछ थे। लेकिन इसकी वजह ये नहीं थी कि वो खूब पूजा करते थे या उन्हें किसी भगवान विशेष से कोई विशेष लगाव था। बल्कि इसलिये थे क्योंकि वो पुलिस वाले थे और मन्दिर गैर-कानूनी जगह पर बना हुआ था। मन्दिर का पंडित उन्हीं के गाँव का रिशतेदार था और उसने आम प्रचलन के मुताबिक मन्दिर में ही अपने भतीजे को एक दुकान खुलवा दी थी, जैसा की आपने अक्सर देखा ही होगा। 100 गज के मन्दिर में 20 गज की चार दुकानें होती हैं और 15 गज में पंडित की फैमिली रहती है, बाकी 5 गज की जगह में भगवान जी, उनकी वाइफ़ और भगवान न करे उनका पेट घुटने के बल बैठा होता है, और हाँ उनका छोटा भाई भी कहीं बाजू में खड़ा कर दिया जाता है, अगर जगह हो तो ।
ये किसी पुलिस वाले को मन्दिर की सभा का कोई अधिकारी बनाना वैसा ही है जैसे किसी ऐसे आदमी को क्रिकेट कमेटी का अध्यक्ष बना देना जिसने जीवन में कभी क्रिकेट न खेला हो, या किसी ऐसे आदमी का ओेलम्पिक संघ का अध्यक्ष बना देना जो कभी ओलम्पिक न खेला हो। तो कुल मिलाकर फूल सिंह मन्दिर की सभा के ‘कुछ‘ थे। मन्दिर की दुकान से उन्हें कुछ सामान प्रभु-प्रसाद के तौर पर फ्री मिल जाता था और वो पंडित से बड़े प्रसन्न रहते थे। कुल मिलाकर सृष्टि का अरेंजमेंट बहुत अच्छा चल रहा था । तो जब मैं, यानी की एक भारी लोटा उनके हाथ में आया तो उन्होंने सोच लिया कि वो किसी ‘फेस्टिवल‘ पर मंदिर को दान कर देंगे। तो घर लाकर उन्होंने मुझे अलमारी में बन्द कर दिया (गरीब भिखारी से छीनी गयी चीज़ के दान की विसंगती पर ध्यान मत दीजिए, दुनिया का 98 प्रतिशत दान-धर्म इसी खाते में चलता है। जैसे बिल गेट्स दुनिया का खून चूस कर 100 खरब रूपये कमाता है और उसमें से 2 अरब गरीबों में बाँट कर दानवीर का खि़ताब पा जाता है, टाटा एक तरफ आदिवासियों पर गोलियाँ चलवाता है और उसके ज्प्ैै नाम के इंस्टिट्यूट में ट्राइबल वेलफेयर की जो़रदार पढ़ाई होती है, जहाँ बच्चे ये पढ़ते हैं कि ट्राइबल्स को मेनस्ट्रीम में कैसे  लाया जाये)।
लीजिये, मैं फिर भटक गया, आप टोक दिया कीजिये। दरअसल इतनी बातें भरी हुई हैं इस दिल में की सब निकाल देने को जी चाहता है। तो हम कहाँ थे..हाँ, फूल सिंह जी ने सोचा कि किसी बड़े फेस्टिवल पर मुझे यानी लोटे को मन्दिर में दान करके मोहल्ले पर अपनी दानशीलता की धाक जमाई जायेगी। और जल्दी ही वो दिन आ गया, पता नहीं त्योहार क्या था, पंडित के श्लोक पढ़ने से तो लग रहा था कि कोई जनरल त्योहार है। वैसे भी पंडित कुछ 3-4 पेट श्लोक याद कर लेते हैं और इंटरनेशनल करंसी की तरह हर जगह उसे इस्तेमाल करतेे रहते हैं, किसी के पैदा होने पर भी वही, मरने पर भी वही, शादी पर भी वही, और बाकी तीज-त्योहार पर भी वही....रूकिये, याद आने दीजिये..क्या था..हाँ, शांति रापा, शांति ये था, शांति वो था...आदि। पर हमें क्या, दुनिया ऐसे ही चलती आयी है,ऐसे ही चलती रहेगी । आप तो बस मेरी आपबीती  सुनिये....
कार्यक्रम के शुरू में ही फूल सिंह ने मुझे पंडितजी, यानी मन्दिर को दान कर दिया। क्योंकि उस मन्दिर का नाम राम मन्दिर नहीं था, बल्कि लँगड़े पंडित वाला मन्दिर था। जैसे सी.पी. में जो मन्दिर है वो लक्ष्मी नारायण मन्दिर नहीं बल्कि बिड़ला मन्दिर के नाम से जाना जाता है। तो मुझे लँगड़े पंडित के मंदिर को दे दिया गया। कल तक फ़कीरू मुझमें थूकते थे, अब भगवान जी मुझमंे दूध पीने लगे (वक्त भी क्या खेल खेलता है, मैनें ये कहावत कहीं सुनी थी, आज यहाँ फिट कर दी, उम्मीद है ठीक होगी...कहानी कहने वालों को कभी-कभी ऐसे ही फ़िलॉस्फ़र या शायर होने का पूरा अधिकार होता है) तो मैं अब श्री रामजी, उनकी वाइफ सीता, ब्रदर लक्ष्मण और उनके पेट मन्की को दूध पिलाने का काम करने लगा। इससे मुझे कोई आपत्ति नहीं थी, आपत्ति मुझे उस लिंग से थी जो मन्दिर के बीचों-बीच बना हुआ था। और मुझे उस पर दूध चढ़ाने के लिए इस्तेमाल किया जाता था। तुम इंसानों में यही बुरी बात है, अरे खु़द कुछ भी करो, हम बेज़ुबान बरतनों को अपने गंदे कामों में क्यों शामिल करते हो, भई हमें माफ़ करो। लेकिन फ़करू के सर्वप्रयोग के बाद मन्दिर में ऐश की ज़िंदगी से यकीनन मुझे कोई नैतिक ऐतराज़ नहीं था...
मन्दिर में ऐश की ज़िंदगी जीते हुए काफ़ी अरसा बीत गया था, फूल सिंह रिटायर होकर अपने गाँव (शायद फूलपुर) वापस जा चुके थे। जबकि उनके बेटे ने यहीं बिज़नेस खोल रखा था और अब अपने पिता की तरह वो भी मन्दिर सभा का कुछ था। पंडित बूढ़ा हो गया था, लेकिन हमेशा ये ध्यान रखता था कि शाम को मन्दिर बंद होने से पहले सारा सामान अन्दर रख दे। लेकिन उसका बेटा इतना चौकन्ना नहीं था, और एक रात वही हुआ कि शाम को मन्दिर बंद करते हुए उसका बेटा मुझे अंदर ले जाना भूल गया। रात हो गई और मैं वहीं पड़ा रह गया। आपने ध्यान दिया होगा कि इंसानों की तरह हम लोटों को डर या ठंड नहीं लगती, मच्छर हमारा खून नहीं पीते और मक्खियां हमें परेशान नहीं करती। तो बिना किसी परेशानी के मैं वहां पड़ा रहा।
कुछ रात गुज़र जाने के बाद वहां दो लड़कों का आना हुआ। ”अबे प्रिंस देख ये क्या है” ”अबे ये उस साले लंगड़े पंडित का लोटा है.....” प्रिंस ने जवाब दिया। ”अबे बाहर ही पड़ा है....” ”पड़ा है तो उठा ले....” और जिसका नाम प्रिंस नहीं था उसने मुझे उठा लिया, थोड़ा घुमा-फिरा कर देखा और फिर दोनो आगे चल दिए। दोनो की बातचीत से मुझे पता चला कि जिस लड़के ने मुझे उठाया था उसका नाम मुस्तफा था। दोनो ही गरीब थे, और छोटी-मोटी चोरी-चकारी करके अपना काम चलाते थे। चलते-चलते प्रिंस ने कहा, ”भई मैं चलता हूं.....काफी देर हो गई” ”ये लोटा ले जा” मुस्तफा बोला।
”अबे मैं लोटे का क्या करूंगा”
”अबे आज तू बड़ा दानी बन रहा है, साले खाली बोतल तक तो देता नहीं मुझे....”
”वो छोड़....मैने सोचा कि आज तू खुक्कल है....इसलिए....”
”इसलिए....अगर उस लंगड़े पंडित को पता चल गया ना....तो साले मेरा भुरकस बना देगा....फिर तू भी तो काफी दिनो से खाली है....चल कुछ और ना सही लोटा तो मिला....”‘कई बार मुझे साला 100-50 तो मिलता है, अब इसे बेचेंगे तो क्या मिलेगा‘‘...‘‘क्यों चिन्ता करता है यार, कुछ तो मिलेगा, जो मिलेगा उसे तू रख लियो, ठीक है, मैं चला‘‘, और ये कहकर प्रिंस चला गया ।
रात थी, ठंड थी, और अंधेरा था, धुँध भी थी, मुझे तो क्या ही डर लगता लेकिन इंसान होने के नाते मुस्तफ़ा को ठंड भी लग रही थी और डर भी लग रहा था। उसने सामने एक मस्जिद देखी और जाकर वहीं घुस गया । यूँ तो मस्जिद सुनसान पड़ी थी लेकिन गरमाहट तो थी, मुस्तफ़ा का पेट भरा हुआ था इसलिए वो सो गया । रात को मौलवी साहब ने मस्जिद के चक्कर लगाना ज़रूरी समझा होगा, उन्होंने देखा कि एक बच्चा ज़मीन पर अपनी चादर फैलाकर सिकुड़ा पड़ा है, तो उन्होंने उसे उठाया और उसे मस्जिद के अंदरूनी आते में ले गये, वहाँ उन्होंने उसे कम्बल दिया और अच्छी तरह सुला दिया । मुस्तफ़ा मुझे सीने से लगाये सो गया और सुबह जब उसकी आँख खुली तो उसने देखा कि मौलवी मिस्वाक कर रहे थे। उसने सोचा कि चला जाऊँ लेकिन शायद वो मुझे भूल चुका था, बेध्यानी में उसका हाथ मुझ पर लगा, मैं गिरा और दर्द से कराह उठा। मौलवी साहब ने मुड़कर उसे देखा तो उसके कदम जहाँ के तहाँ रूक अटक गये।
मौलवी साहब ने उसे इशारा किया तो वो उनके पास चला गया वहाँ मौलवी साहब के कदमों के पास मैं पड़ा था, उन्होंने झुक कर मुझे उठाया और उसे पास में जो हौज़ बना था, उसके पास रख दिया। फिर मौलवी साहब ने कुल्ला किया और उसे और मुझे अंदर ले गये । अंदर मुझे तो उन्हांेने एक मेज़ पर रख दिया और मुस्तफ़ा को बैठने के लिए मूढ़ा दिया। थोड़ी देर में एक बच्चा अन्दर से खाना ले आया तो मौलवी साहब ने उसे नाश्ता करने के लिए कहा, जो उसने चुपचाप कर लिया। मैं ग़ौर से देख रहा था कि इतने सालों तक मन्दिर में रहने के बाद मेरी किस्मत में एक चोर मालिक लिखा है या फिर मुझ बुतपरस्त लोटे को मस्जिद के काम में लाया जायेगा। नाश्ता करने के बाद मुस्तफ़ा बहुत सहज तरीके से उठा। मौलवी साहब से इजाज़त ली और निकल पड़ा, न उसने मेरी तरफ देखा, और न ही उसने मेरी तरफ हाथ बढ़ाया। हाँ मौलवी साहब अपनी रंगी हुई दाढ़ी पर हाथ फेरते हुए उसे गहरी नज़रों से देखते रहे।
तो ज़ाहिर है कि मैं मौलवी साहब के वज़ू का लोटा बन गया था। जात न पूछो लोटे की, बरतन से ये कब पूछा जाता है कि आप मस्जिद में इस्तेमाल होने से पहले वो किस मन्दिर में किस काम के लिए इस्तेमाल होता रहा था। मौलवी साहब बहुत सख़्त मिजाज़ इंसान थे, मस्जिद के पीछे ही दो कमरों के मकान में रहते थे जो मस्जिद के अहाते में ही थे...एक बीवी थी और दो बहुत ही खूबसूरत बच्चियाँ थाीं। लेकिन अपनी छुई-मुई सी बीवी और बच्चियों के लिये मौलवी साहब पूरे राक्षस थे। एसे वैसे नहीं सच के राक्षस थे, उनका कहना था कि उन्होंने तो अपनी बीवी से लड़के की इच्छा की थी लेकिन उसने उन्हें लड़कियाँ दीं। अब ये ख़ुदा की गलती तो हो नहीं सकती, ज़ाहिर है ये उनकी बीवी की गलती थी, तो वो बेचारी जब-तब अपनी गलती की सज़ा भुगतती रहती थी। और दोनों बच्चियाँ ऐसी सहमी हुई घर के किसी कोने में पड़ी रहती थीं कि लगता ही नहीं था कि घर पर कोई बच्चा रहता होगा। मौलवी साहब अपनी बीवी से इतना नाराज़ थे कि उन्होंने घर से सिर्फ़ खाने का नाता रखा हुआ था, अपनी बाकी ज़रूरतें वो बाहर से ही पूरी कर लिया करते थे। उनका दिन नमाज़ की अज़ान के साथ शुरू होता था और नमाज़ की आवाज़ पर ही खत्म हो जाता था । बीच में कुछ बच्चों को कुरान पढ़ाने भी जाते थे लेकिन वहाँ मैं उनके साथ नहीं जाता था।
इस तरह समय बीतता गया और मैं दिन-बा-दिन मुस्लिम लोटा बनता गया, सुबह की नमाज़ की अज़ान से पहले ही मेरी नींद खुल जाती थी और मैं वुज़ू का इंतज़ार करता था। लेकिन इतने सालों में मुझे कभी उस हौज़ के पास से नहीं हटाया गया जिसमें से वुज़ू का पानी लिया जाता है। मौलवी साहब की बच्चियाँ बड़ी हो गयी थाीं, लेकिन अपने बाप से बहुत डरती थीं। जहाँ उन्हें मौलवी साहब दिख जाते वो छुप जाती थीं, खौफ़ का आलम ये था कि जब मौलवी साहब घर पर होते थे तो घर पर बिल्कुल मरघट का सन्नाटा छाया रहता था । मस्जिद दो मंज़िला थी और छत पर एक कमरा था, मौलवी साहब की बच्चियों ने कुरान तो पढ़ ली थी लेकिन वो उन्हें कुछ और ही पढ़ा रहे थे। क्योंकि उनका कोई निश्चित टाईम नहीं था और वो अपनी बड़ी बच्ची को पढ़ाने में ज़्यादा दिलचस्पी लेते थे।
फिर एक दिन गजब हो गया, उनकी बड़ी बेटी ने सुबह-सुबह उल्टियाँ करनी शुरू कर दी। मौलवी साहब बाहर गये हुए थे, मस्जिद में कुछ तामिर का काम चल रहा था इसलिए मोहल्ले के कुछ लोग वहीं थे। उन्होंने बच्ची की खराब हालत देखी तो उसे पास के डॉक्टर के पास ले गये और जाने डॉक्टर ने क्या कह दिया कि पूरे मोहल्ले में एक दबा सा शोर मच गया । इस दबे हुए शोर में से कभी-कभी कुछ लफ़्ज़ बाहर कूद जाते थे। जिसमें ‘बच्ची, मौलवी, पेट‘ खास थे । खैर मोहल्ले वालों ने मौलवी को उसी रात मस्जिद से उठा दिया, उसका सामान पैक कर दिया गया, और दूसरे दिन से मस्जिद में नया मुअजि़्ज़न अज़ान दे रहा था। इस पूरे वाक़ये में उस बच्ची का क्या हुआ मुझे नहीं पता, एक बार दो लोगों की उड़ती-उड़ती बातचीत कान में पड़ी थी कि वो बच्ची बच्चा गिरवाते हुए टेबल पर ही मर गयी और उस पर किसी शैतान का साया था जिसकी वजह से मौलवी ने उसके साथ ये हरकत की। मैंने उस मासूम बच्ची को करीब से देखा था, मेरा दिल नहीं चाहता था कि उसके साथ कुछ इस तरह का हो इसलिए मैंनंे उस बातचीत पर भरोसा नहीं किया। आपसे भी यही कहूँगा कि सुनी-सुनाई बातों पर भरोसा नहीं करना चाहिये ।
लेकिन मस्जिद में जो नये मौलवी आये थे वो बहुत मज़ेदार थे। उन्हें लगभग हर चीज़ में हिन्दुओं की इस्लाम को नेस्ता-नाबूद करने की साज़िश नज़र आती थी। वो एक ही साँस में ये कहते थे कि इस्लाम तो धरती पर हमेशा के लिये रहने वाला धर्म है और अगर हमने कुछ नहीं किया और हिन्दुओं की साज़िश को नहीं रोका गया तो इस्लाम खत्म हो जायेगा । कमाल के बंदे थे, रात में अचानक चौंक कर चारपाई से उछल कर उठते थे और कुछ चूहों को मार कर ही सोते थे। दोपहर को मोहल्ले भर के शोहदों को जमा करके इस्लाम पर आये हुऐ खतरे की बातें करते थे और उन लोगों को ये बताने से नहीं चूकते थे कि इस्लाम की सच्ची राह क्या है। जैसे अगर किसी ने लाल रंग की कमीज़ पहन रखी है तो वो फ़ौरन कह देते थे कि लाल रंग की तो इस्लाम में मुमानियत है। उन्हें ये यकीन था कि इस्लाम की सच्ची जानकारी उन्हीं को थी और बाकी सब जाहिल हैं जो उसका सही मतलब नहीं समझ पाये हैं। कहीं लिखा था कि अगर किसी सुराख़ में से भी कोई बुराई होती देखो तो उसे रोको। अब मौलवी साहब ने वो पकड़ लिया था, सवाल ये था कि बुराई आप किसे कहेंगे, कोई रिश्वत ले रहा है तो बुरा है, यकीनन बुरा है लेकिन रिक्शे वाला आपको बस स्टॉप से मस्जिद तक लाया है और आप उससे 2 रूपये के लिये झगड़ा कर रहे हैं, ये बुरा नहीं है। मौलवी साहब के हिसाब से जो भी बात उनकी मजीऱ् के खिलाफ़ होती थी वो इस्लाम के खिलाफ़ है और ऐसी ही बातें...और मैं कोने में बैठा हुआ उनकी बातें सुनकर मुस्कुराता रहता था, काफ़ी दिनों तक ऐसा ही चलता रहा.....
ऐसे ही ज़िन्दगी चल रही थी, और दिन बीत रहे थे। ऐसे में मैंने एक आदत बना ली थी कि जब मुझे मुँडेर पर रखा जाता था तो मैं थोड़ा सा लुढ़क कर आराम की पोज़िशन में आ जाता था। पहले तो मौलवी साहब ने कोशिश की कि मुझे ज़बरदस्ती ठीक ही खड़ा किया जाये, लेकिन मैंने भी ठान लिया था कि आराम से नहीं बैठुँगा, इसलिए जैसे ही उनका ध्यान हटता मैं फिर आराम वाली पोज़िशन में आ जाता था। उन्होंने बहुत कोशिश की कि मैं ठीक हो जाऊँ लेकिन यहाँ भी अपनी ज़िद के पक्के थे। मौलवी साहब का गुस्सा उनकी उमर के साथ बढ़ता जा रहा था। पता नहीं कि लोग उनके बताये हुए इस्लामिक रास्ते पर नहीं चल रहे थे या इस बात का गुस्सा था कि इस्लाम उतना तेज़ी से नहीं बढ़ फैल रहा था जितना तेज़ी से उसे फैलना चाहिए था। जो भी हो उनका गुस्सा बहुत खतरनाक था हो सकता है लोगों को ऐसा न लगता हो। कुल मिलाकर ऐसा लगता था कि ये गुस्सा किसी भी दिन फट सकता है, शुक्र था कि वो विस्फोट अब तक नहीं हुआ था। 
मौलवी साहब की हालत दिन-बा-दिन बिगड़ती जा रही थी, वो रात को उठकर कुछ न कुछ पढ़ते रहते थे। कुछ तो गड़बड़ थी पर मैं इंसानों जितना अनुभवी नहीं था और इसलिये मुझे ये भी नहीं पता था कि इंसानों का नॉर्मल व्यवहार क्या होता है या इंसानों के व्यवहार में नॉर्मल नाम की भी कोई चीज़ हो सकती है क्योंकि अब तक मैं जितने लोगों के पास घूमा था उनमें से कोई भी दो लोग एक जैसे नहीं थे। एक कॉम. नसीर और उनके दोस्त अच्छे लगे थे तो उन्हें पुलिस ने मार दिया था। हो सकता है मौलवी साहब नॉर्मल हों और मुझे एबनॉर्मल लग रहे हों (आप सोच रहे होंगे ये लोटा इतनी इंग्लिश कैसे बोलने लगा, वो क्या हुआ कि मैं कुछ समय एक इंग्लिश के प्रोफेसर के यहाँ भी रहा था, जो नाटक भी करवाते थे)। तो मौलवी साहब के साथ समय ऐसे ही कट रहा था और वो दिन-ब-दिन और अजीब होते जा रहे थे। एक दिन वुज़ू करते-करते जाने क्या सोच कर मुझे उठा कर फेंक मारा। ख़ामाख़ाँ अपनी फªस्टेशन मुझपर उतारी ।
मैं तो भई उनसे कतई परेशान हो चुका था। कभी मन में आता तो जा़ेर-जो़र से अजीब सी आवाजे़ं निकालने लगते थे । कभी चुप हो जाते थे तो तीन-तीन दिन तक बिल्कुल चुप रहते थे और हाँ, बीवी तो थी नहीं तो कोई खाना बना के देने वाला भी नहीं था तो कई बार बिना खाना खाये ही रहते थे। सूख कर लकड़ी के सरीख़े हो गये थे। फिर एक दिन ये बम भी फट ही गया, और मुसीबत ये कि ये बम भी मुझी पर फटा । हुआ कुछ यूँ कि उन्होंने वुजू़ करके मुझे मुँडेर पर टिकाया तो मैं अपनी आदत से मजबूर सरक कर एक तरफ को लुढ़क गया । उन्होंने फिर मुझे सीधा रखा और मैं फिर लुढ़क गया, उन्होंने 3-4 बार कोशिश की  लेकिन मैं भी ज़िद्दी हो गया था (जो मेरे जितनी ज़िंदगी देख ले उसका ज़िद्दी हो जाना कोई आश्चर्य की बात नहीं है), लेकिन मुझे क्या पता था कि ये ज़िद मुझ पर इतनी भारी गुज़रेगी, उन्होंने तो अजीब-अजीब आवाज़ें निकालनी शुरू कर दी और मेरे ऊपर फूँक मारनी शुरू कर दी। जब उनकी चीखें बढ़ने लगीं, कुछ लोग आये तो उन्होंने ये अजीब मंज़र देखा कि मौलवी साहब दोजानूँ बैठे हैं और मैं उनके सामने लुढ़का पढ़ा हूँ और वो दम ले-ले कर मुझ पर फूँक मार रहे थे और अरबी या फ़ारसी में कुछ मंत्र पढ़ रहे थे। लोगों ने उन्हें सम्भाला तो उन्होंने चीखना शुरू कर दिया कि इस लोटे में शैतान बसा हुआ है और इसे तो वो मस्जिद से बाहर निकालकर ही मानेंगे। उस दिन बड़ा तमाशा हुआ, मौलवी साहब किसी की पकड़ में नहीं आ रहे थे। आखिरकार एम्बुलेंस बुलाकर उन्हें भेज दिया गया, लेकिन  उसके बाद मेरा भी बहुत बुरा हाल हुआ । न तो लोग मुझे मस्जिद में रखने को तैयार थे और न ही कोई मुझे अपने घर में रखने को तैयार नहीं था। आईरनी देखिए, लोग मौलवी को पागल समझ रहे थे लेकिन उन्होंने जिसे शैतान बता दिया था उसे कोई रखने को तैयार नहीं था। मुझे तो किसी अछूत की तरह दो डंडियों के सहारे उठा कर बाहर रख दिया गया और लोग मुझे हिकारत से देखते हुए जाने लगे। अब मेरा कोई मालिक नहीं था। फिर अचानक एक जवान लड़के ने मुझे उठाया और अपने कॉलेज चला गया। जहाँ कुछ लोग जुटे हुए थे जो नाटक कर रहे थे ।

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