मंगलवार, 21 जुलाई 2015

घोटालों का यथार्थ



किसी भी वस्तु का यथार्थ जानने का सबसे अच्छा तरीका है उसका विश्लेषण कर लिया जाए। यानी उसके इतिहास, वर्तमान और भविष्य की समीक्षा की जाए। उसे परिभाषित किया जाए और इस तरह ये पता लगाने की कोशिश की जाए कि आखिर वो है क्या। तो सवाल ये है कि घोटला आखिर क्या है? क्या होता है? कहां रहता है? समय-समय पर होता है या इसके घटित होने में कोई निरंतरता है? क्या ये बुरा होता है जैसा कि सामान्य धारणा है या फिर अच्छा होता है, जैसा कि इससे लाभ उठाने वाले लोग मानते हैं। या यूं भी हो सकता है कि ये निरपेक्ष हो, जाकी रही भावना जैसी, प्रभु मूरत देखी तिन तैसी, वाली कहावत के अनुरूप। 
मानता हूं कि मसला पेचीदा है, लेकिन इतना भी पेचीदा नहीं है। बस थोड़ा सा नज़रिए को सत्यान्वेषी बनाना होगा, जैसे ब्योमकेश बख्शी ने किया। तो सबसे पहले ये जानते हैं कि आखिर घोटाला शुरु कहां से हुआ होगा। क्या कबीलाई युग में घोटाला होता होगा, क्या सामंतवादी युग में घोटाला होता होगा, क्या औपनिवेशिक काल में घोटाला होता होगा। या फिर ये घोटाला 15 अगस्त 1947 को पैदा हुआ जो अब इतना बड़ा हो गया है कि हर सरकारी दफ्तर, राजभवन, कोर्टाआदि में पाया जाने लगा है। 
इसके लिए सबसे पहले तो घोटाले की परिभाषा बनानी पड़ेगी, और अगर पहले से कोई परिभाषा मौजूद है तो उस पर ध्यान देना होगा। मुझे याद नहीं पड़ता कि घोटाले पर पहले किसी ने इतने विस्तार से सोचा है, कि उसकी परिभाषा आदि के बारे में लिखा हो। ये सही है कि लोग कई घोटालों के बारे में लिख चुके हैं, कैसे हुआ, यानी प्रक्रिया क्या थी, किसने लाभ उठाया, यानी ये प्रक्रिया किसने चलाई थी, और इसमें किनकी जाने गईं। ये मरने वाले अक्सर वो होते हैं, जो घोटालों की सीमाओं पर या उनसे बाहर होते हैं। अक्सर घोटाले करने वालों का तो बाल भी बांका नहीं होता। उदाहरण आपके पूरे इतिहास में बिखरे पड़े हैं। 
तो पहला सवाल पहले, घोटाले की परिभाषा क्या है, अगर है तो, और अगर नहीं है तो क्या हो सकती है। तो यकीन मानिए घोटाले की अभी तक कोई सर्वमान्य परिभाषा नहीं है, ये अभी तक अनाथ शब्द है। तो घोटाले की परिभाषा क्या हो सकती है, क्या यूं कह सकते हैं कि, ”वो चोरी जिसमें शासन और प्रशासन की सीनाजोरी हो, जिसमें अहंकारपूर्ण रहस्य हो, जिसमें अबोध निडरता हो, और मैं सबका बाप हूं किस्म की गैरकानूनियत हो”। हो सकता है कि इसमें आप कुछ और जोड़ना चाहें, लेकिन परिभाषा जितनी छोटी हो उतनी ही अच्छी होती है। अब ज़रा इस परिभाषा पर गौर करें, इसमें चोरी है जिसमें शासन और प्रशान है, अहंकार है, रहस्य है, निडरता है, और गैरकानूनीयत है। 
इन सब बातों पर गौर करेंगे तो आप घोटाले का विश्लेषण करने के नज़दीक पहुंच जाएंगे। देखिए भारत में घोटाले की शुरुआत मानी जाती है तब से जब राजा-रानियों का अंत हो गया, अंग्रेजी हुकूमत के दौरान ये सैमी राजा-रानी हुआ करते थे, इसलिए उस वक्त हुकूमत करने वाले यानी अंग्रेज और राजा-रानी दोनो ही घोटाला करते थे, लेकिन 1947 के बाद घोटालों की पूरी जिम्मेदारी नेताओं ने, प्रशासकों ने अपने हाथ में ले ली और राजा-रानियों को इस जिम्मेदारी से मुक्त कर दिया। 
आप पूछ सकते हैं कि क्या उससे पहले घोटाला नहीं होता था, जनाब, उससे पहले राजा-रानियों की हुकूमत चलती थी, जब सारा राज उनके बाप का होता था, या कम से कम माना जाता था। ऐसे में अपने माल में से कुछ भी, कभी भी ले लेना, चोरी, डाका या घोटाला तो नहीं का जा सकता ना। अंग्रेजी हुकूमत ने घोटालों को स्थापित करने की दिशा जो सबसे महत्वपूर्ण काम किया वो ये कि हुकूमत प्रशासकों के हाथ में आ गई, ये प्रशासक राजा नहीं थे, ना हो सकते थे, अब भारत की लूट का जो हिस्सा इंग्लैंड की रानी के नाम पर गया, उसे आप घोटाला नहीं कह सकते, क्योंकि रानी का मानना ये था कि भारत उसके बाप का है। लेकिन उसके दूरस्थ प्रशासकों ने जो भी चोरियां की, यानी भारत का माल जो वो चोरी-चुपके अपने साथ ले गए और जिसे उन्होने रानी के मालखाने में जमा नहीं करवाया, वो घोटाला ही था। इन प्रशासकों के ऐसा करने में गैरकानूनियत थी, क्योंकि अगर रानी को पता चल जाता तो शायद उनका सिर कलम कर दिया जाता, या जेल हो जाती, लेकिन इस लूट को वो जिस निडरता अहंकार और सीनाजोरी के साथ करते थे, वो इस लूट को घोटाला बनाता है। 
दूसरी तरफ अंग्रेजी प्रशासकों की दया पर राजा-रानी बने हुए भारतीयों ने, इन्हीं अंग्रेजों से छुपा कर जिस माल की चोरी की, डाका डाला वो घोटाला ही था, क्योंेिक अंग्रेजों की हुकूमत में, ये राजा जो भी कमाते थे, वो अप्रत्यक्ष तौर पर रानी की संपत्ति माना जाता था। इन राजा-रानियों की इस लूट में भी, घोटाले की परिभाषा के अनुसार वो सबकुछ था, जो घोटाले के मूलतत्व होते हैं, जैसे प्रशासन और शासन सत्ता की भागीदारी, निडरता, गैरकानूनियत, और अहंकार भी था। अंग्रेजी हुकूमत के दौरान गांधी के पसंदीदा बिड़ला आदि ने भी घोटाले किए और खूब किए। 
1947 के बाद सबसे पहले जिस चीज़ का राष्ट्रीयकरण हुआ वो घोटाला ही था। अंग्रेजों के जाने के बाद असल में प्रशासकों ने ये मान लिया कि अंग्रेजों की हुकूमत नाम के लिए बेशक लोकतंत्र हो चुकी है, लेकिन असल में तो सब उनके नाम हो चुका है। इसलिए उन्होने पूरे अहंकार, निडरता और शासन की मिलीभगत से जी भर के लूट-पाट की। इन प्रशासकों और शासकों ने मिलकर इतने घोटाले किए हैं कि अगर गिनीज़ बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड में सबसे ज्यादा घोटालों की बात हो तो इस देश का जिक्र जरूर आएगा। अफसोस बस यही है कि इनमें से ज्यादातर घोटाले पकड़े नहीं गए, और पकड़े गए तो संचार साधनों के अभाव में ज्यादा चर्चित नहीं हुए, जो चर्चित हुए उन्हे दबा दिया गया, और जिन्हे दबाया नहीं जा सका उनमें कुछ एक छोटे-मोटे लोगों की बलि देकर मुक्ति पा ली गई। 
घोटालों के इतिहास के बाद हमें घोटालों के आधुनिक रूपों की बात करनी चाहिए। आज देश के भिन्न हिस्सों में विभिन्न आकार-प्रकार, मिजाज़, रंग-रूप आदि के घोटाले हो रहे हैं। कुछ मिनी साइज़ घोटाले होते हैं, कुछ व्यापमं टाइप मेगा साइज़ घोटाले होते हैं, कुछ मीडियम साइज़ के घोटाले भी होते हैं, जिन्हे लोग पिछले साल की दिसंबर की ठंड की तरह भूल जाते हैं और बस कभी-कभी इस घोटाले के चक्कर में उसे याद कर लेते हैं। यूं लोग मेगा घोटालों को भी भूल जाते हैं, जैसे 3जी, कोलगेट, जैसे घोटालों को अब कौन याद रखता है। अपने आकार-प्रकार के हिसाब से और इसमें आपकी इन्वोल्वमेंट के हिसाब से ही इसका हिसाब भी चुकता होता है। यानी अगर आपने एक मेगा घोटाले में कुछ हजार-पांच सौ का हिस्सा पाया है, तो समझिए कि घोटाले के उजागर होने पर आप लम्बे नप सकते हैं, जान से जा सकते हैं, जबकि अगर आपने कुछ सौ करोड़ कमाए हैं तो खुद पुलिस, प्रशासन, सत्ता, न्यायपालिका आपके बचाव में, मानवधिकार, मानवीयता, आदि की ढाल लेकर खड़े हो जाएंगे और आपका बाल भी बांका ना होगा। 
आधुनिक भारत में घोटालों ने बहुत विकास किया है, देश के हर हिस्से में, ”जैसा कि मैने पहले कहा” घोटाला पनप रहा है, पनपाया जा रहा है। कुछ लोग खुलेआम, 56 इंची छाती फुलाकर घोटाला करते हैं, कुछ घोटालों को मक्खी की तरह उड़ा देते हैं, कुछ लोग दबे-छुपे घोटाले करते हैं, तो कुछ लोग हर घोटाले को संरक्षण देने की अपनी फीस लेते हैं। कुछ लोग सिर्फ घोटाले की स्कीम बनाते हैं और उसकी फीस लेते हैं। यहां तो अच्छे-खासे पेशेवर घोटालेबाज़ हैं और कोई मुजायका नहीं कि कुछ दिनो बाद विश्वविद्यालयों में घोटाला विभाग हो, और घोटाले का बाकायदा व्यावयासिक प्रशिक्षण दिया जाए, जिनमें सफल घोटालाबाज़ों को प्रोफेसर आदि बनाया जा सकता है। 
घोटाले का इतना विश्लेषण करने के बाद कुछ बातें साफ हो जाती हैं।
घोटाले थे, हैं और रहेंगे। 
घोटाले सरकारी और प्रशासकीय होते हैं। ”जनता ने आज तक कोई घोटाला नहीं किया, इसलिए कि इसके लिए जो साधन-संसाधन दरकार होते हैं वो जनता के पास होते ही नहीं हैं”
सरकारी और प्रशासकीय चरित्र होने के चलते घोटाले में लिप्त किसी भी व्यक्ति के खिलाफ कभी कोई कार्यवाही नहीं होती, ना हो सकती है।
घोटाले में लिप्त छोटी मछली हमेशा मारी जाती है। ”चाहे उसे जेल हो, या जान से हाथ धोना पड़े, इसके भी तमाम उदाहरण घोटाले के इतिहास में भरे पड़े हैं।”
अंतिम बात मैं घोटालों के प्रति सकारात्मक रुख दिखाते हुए कहना चाहता हूं, 
जैसा कि मैने अपने निबंध में पहले ही साबित कर दिया है कि घोटाले तभी संभव हैं जब राज जनता का हो, यानी लोकतंत्र हो, जैसा कि ये है, जो चल रहा है। अरे भई, अगर लोकतंत्र की जगह राजशाही हुई तो घोटाले को घोटाला नहीं कहा जा सकेगा। इसलिए घोटाले की सकारात्मकता इसी में है कि घोटाला इसलिए है क्योंकि लोकतंत्र है, जिसमें सभी घोटाला कर रहे हैं, चाहे वो समाजवादी हों, या दलित वाले हों, चाहे कटट्र राष्ट्रवादी हों या कांग्रेसी हों, कुल मिलाकर घोटाले का होना ही लोकतंत्र के होने को साबित करता है। इसलिए अगर आप इस लोकतंत्र का बचाना चाहते हैं तो घोटालों को बचाए रखिए, क्योंकि लोकतंत्र का एकमात्र मीटर घोटाला है। यही घोटाले का यर्थाथ है, यही घोटाले की सार्थकता है। 

सोमवार, 6 जुलाई 2015

व्यापमं हम ही हम


व्यापमं का ज़ोर बहुत ज्यादा नहीं हो गया? आप लोग तो ऐसे शोर मचा रहे हैं जैसे कोई पहाड़ टूट पड़ा हो। शवराज सिंह चौहान, जो मध्यप्रदेश के मुख्य मंत्री हैं, इस घोटाले की जांच में बढ़-चढ़ कर सहयोग कर रहे हैं। आप जाने क्यों हल्ला मचा रहे हो। आप ही कहो, क्या ये संभव है कि राज्य की सत्ता के सहयोग के बिना जांच में आने वाले हर नाम को दुनिया से रुखसत कर दिया जाए। सहयोग की कौन सी परिभाषा आपकी समझ में आती है भाई, आप तो पीछे पड़े हो इस मोदी सरकार के, आप ही बताओ, खांग्रेस ने क्या घोटाले नहीं किए थे, क्या उसके मंत्री दागी नहीं हैं, आपकों तो भाजपा की सरकार से खुन्नस है बस। 
ये ठीक है कि घोटाले होते हैं, लेकिन क्या घोटाले की इस कदर चर्चा करके देश का नाम मिट्टी में मिलाना ठीक है। हमें इन घोटालों का भण्डाफोड़ करने वालों पर सख्त कार्यवाही करनी चाहिए। मोदी जी इतनी कोशिश कर रहे हैं कि विदेशों में देश की छवि अच्छी बने और यहां विदेशी निवेश हो, लेकिन आप लोग घोटालों की चर्चा करके, और लगातार करके, इस देश की छवि को घूमिल कर रहे हैं। एक आदमी आखिर कितना कर सकता है। इस पवित्र देश की माटी में घोटाले सदियों से होते रहे हैं, लेकिन नैतिकता और इंसानियत का फर्ज है कि हम इन घोटालों के बारे में खुले में बात ना करें। सरकार की लीपापोती पर भरोसा रखें, आखिर सरकार चाहती है कि एक स्वच्छ भारत की तस्वीर दुनिया के सामने जाए, घोटालें हों तो भी उनकी खबर ना बने, खबर बने तो वो जल्दी दब जाए, जल्दी ना दबे तो उसमें कुछ साबित ना हो, कुछ साबित हो जाए तो उससे अपने लोगों को निकालने के लिए सरकार के पास पर्याप्त बहाने हों, बहाने ना भी हों तो हमें कौन रोक सकता है। इसलिए उन लोगों का जाना ज़रूरी है जो देश की इज्जत के साथ खिलवाड़ करते हैं। हमने तो इसीलिए लोकायुक्तों की नियुक्ति तक नही की, ताकि कोई घोटाला हो तो सामने ही ना आए, बाकी हम कोशिश कर रहे हैं कि देश के हर छोटे बड़े संस्थान में हमारे ही आदमी हों, इसके बाद हमारी कोशिश ये होगी कि कैग जैसी संस्थाओं को खत्म कर दिया जाए। आखिर ज़रूरत क्या है घोटालों को इतना उछालने की। शासन है, प्रशासन है तो घोटाला होता ही है, क्या पिछले 70 साल में कोई घोटाला नहीं हुआ था, तब तो किसी ने फेसबुक पर, ट्विटर पर इस तरह का कोई आंदोलन नहीं चलाया। 
देश की अस्मिता की रक्षा के लिए 44 या 250 क्या, 2,5,10 लाख लोगों की कुर्बानी देनी पड़े तो भी हम देंगे। लोगांे की मतलब जनता की, अपने खास लोगों को तो हम पद तक से ना हटाएंगे, आखिर हमारी सत्ता है, कर लो जो तुमसे बन पड़े। असल में घोटाले होने की दो वजहे हैं, एक तो ये कि कोई पैसा खाए और कोई बमय सबूत जनता को ये बता दे कि पैसा खाया गया है। ये अपराधिक कार्य है, नहीं पैसा खाना नहीं, जनता को बमय सबूत ये बता देना कि पैसा खाया गया है। घोटाले के होने के बाद होना ये चाहिए कि उसे दबा दिया जाए, आखिर जिन घोटालों के बारे में जनता को पता ही नहीं है, उनके बारे में तो कोई बात नहीं करता। उनमें लिप्त लोगों की जान पर तो कोई खतरा नहीं है। मेरा ये कहना है कि ये व्यापमं घोटाले में जिन लोगों की जान गई है उनमें जनता का ही हाथ है। ना आप लोग उन्हे गंभीरता से लेते, ना आप घोटाले की जांच की बात उठाते और ना उन लोगों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ता। अब कहिए, इस पूरे देश की जनता के, या मान लीजिए उन लोगों के हाथ खून से रंगे हैं, जिन्होने इस घोटाले की जांच की मांग उठाई। आखिर प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति, मुख्यमंत्री और बाकी मंत्री शपथ लेते हीे पवित्र जीव बन जाते हैं और उन पर उंगली उठाना तक संविधान के प्रति गहरा पाप होता है, हजारों लोगों की हत्या से ज्यादा बड़ा पाप, ऐसा पाप जिसकी कीमत या तो आपको जेल में जाकर चुकानी पड़ती है, या ये भी हो सकता है कि आपका एनकाउंटर कर दिया जाए, बाकी व्यापमं जैसे तरीके भी इस्तेमाल किए जा सकते हैं, जिनमें हींग और फिटकरी लगे बिना रंग चोखा आता है। 
व्यापमं असल में कोई एकमात्र मामला नहीं है। इससे पहले हमने अपने संतों पर, अपने संगठनों पर लगे हुए दागों के खिलाफ इस तरीके को इस्तेमाल किया हुआ है, और नतीजा तसल्लीबख्श पाया है। हमारे परम-पूज्य आसाराम को देख लीजिए, उनके और उनके बेटे के खिलाफ जितने भी गवाह थे, सभी एक-एक करके दोज़ख-नशीन हो गए, और आखिरकार नारायण साईं को जमानत मिल गई। आप कहिए क्या आप प्रो. सांई बाबा को जमानत दिलवा पाए, वो तो जब हमें लगा कि अब हालत हमारे हाथ से बाहर हो गई है, तो हमने दे दी जमानत, वरना अदालत तो यही माने बैठी थी कि वो व्हील चेयर पर जिंदगी गुज़ारता इंसान कहीं भाग कर जंगल ना चला जाए, और वहां से नक्सली गतिविधियों को अंजाम ना देने लगे। अभी साध्वी प्रज्ञा और बाकी लोगों के नाम साफ करने के लिए भी यही मुहिम चल रही है, काफी समय से चल रही है, उनके खिलाफ जितने गवाह थे, वो सब या तो गायब हो गए हैं, या मारे गए हैं, और जो बाकी ऐसे सबूत हैं जिनकी जान नहीं ली जा सकती, उसे हमने एन आई ए के हवाले कर दिया है, वो उन सबूतों की जान वैसे ही निकाल लेगी। 
आपको समझ नहीं आता, ये सब इसलिए हो रहा है, किया जा रहा है ताकि भारत की छवि विदेशों में खराब ना हो। बताई, 2 जी, 3जी, कोयला घोटाला, प्रतिभूति घोटाला, ताबूत घोटाला आदि ने विदेशों में भारत की क्या छवि बनाई होगी, क्या आप चाहते हैं कि भारत की ऐसी ही छवि विदेशों में बनें? अगर आप ऐसा चाहते हैं तो आप पाकिस्तान जाकर रहिए, या अगर वहां नहीं जा सकते तो आपको जीवित रहने का कोई अधिकार नहीं है। बाकि हम आपसे ये वादा करते हैं कि भारत की स्वच्छ छवि को बरकरार रखा जाएगा, इसका ये मतलब नहीं है कि घोटाले नहीं होंगे, जो लोग पदों पर विराजे हैं, उन्हे खाने से कोई नहीं रोक सकता, और ये उनका अधिकार है, हमारा वादा ये है कि हम इन बातों को बाहर ही नहीं आने देंगे। मीडिया को हम या तो खरीद चुके हैं, या नेस्तनाबूद कर चुके हैं, घोटाले की जांच करने वाली संस्थाओं को बंद किया जा चुका है, या वहां हमारे अपने लोग बैठे हैं। उन जगहों पर जहां घोटाले किए जा सकते हैं, हम अपने लोगों बैठाने में जी - जान से लगे हुए हैं, और जल्दी ही ये काम भी पूरा कर लिया जाएगा। 
हमारी सबसे बड़ी दुश्मन ये जनता है, जो भक्त नहीं है, अगर ये आंख में पट्टी बांध ले और अन्धों की तरह हमारा अनुसरण करे, हमारी जय करे तो मामला आसान है, नही ंतो हमें इसका इलाज करना पड़ेगा। अभी हम ऐसा माहौल बना रहे हैं कि जनता में शामिल हर शख्स खौफ के साये में जिए, हर रोज़ अपने जिंदा होने की खुशी मनाए, और सिर्फ जीवित रहने को नियामत समझे, इसके साथ हम, शुद्धि कार्यक्रम भी चला रहे हैं, अभी छोटे-छोटे दंगे आयोजित किए जा रहे हैं, ये हमारे प्रयोग हैं, इनमें सफल होने पर बड़े दंगे भी कराए जाएंगे, बकरे की मां कब तक खैर मनाएगी। इसीके साथ हम चुनावों की निरर्थकता और लोकतंत्र की अव्यवहारिकता आदि पर चर्चा और संवाद चला रहे हैं, ताकि आने वाले समय में ऐसा माहौल तैयार किया जा सके कि जब हम संविधान को खत्म करके तानाशाही लागू करें तो लोग तालियों से उसका स्वागत करें। 
अभी तो आपसे यही कहना है कि व्यापमं का नाम लेना बंद करें, वरना आपका नाम भी व्यापमं से जोड़ दिया जाएगा, फिर आपका जो होगा......वो तो आप जानते ही हैं।

आंए-बांए-शांए



लो जी, राष्ट्रीय और अंर्तराष्ट्रीय दोनो ही जगहों पर साम्राज्यवादियों की मुसीबतें बढ़ गईं। इधर मोदी सरकार के कारनामों का भण्डाफोड़ हो रहा है, और उधर ग्रीस ने साम्राज्यवादियों के कर्ज़ की गलघोंटू रस्सी को सहर्ष स्वीकार करने से मना कर दिया।  हो सकता है कि अब अमरीका और योरोप के अन्य देश मिलकर ये प्रचार करें कि ग्रीस में लोकतंत्र की हत्या हो रही है और जनता पर अत्याचार हो रहा है, फिर ग्रीस पर हमला हो, और वहां अमेरिकी लोकतंत्र कायम हो जाए, जैसा दुनिया के अन्य हिस्सों में हो रहा है। इसके अलावा ये भी हो सकता है कि ग्रीस में साम्प्रदायिक दंगे भड़कने लगें, वहां आतंकवाद पनपने लगे और तब अमेरिकी साम्राज्यवाद मानवीय सहायता ”सैनिक सहायता के तौर पर” पहुंचाने के लिए ग्रीस को अपने कब्जे में कर ले। जो भी हो, ग्रीस की जनता की इस समवेत ”ना” के परिणाम क्या होंगे ये आने वाला वक्त ही बता पाएगा। 
इधर भारत में बहुत-बहुत सारे कांड एक साथ उभर कर आ रहे हैं। कुछ पुराने कांडों की परतें खुल रही हैं, कुछ नए कांड सामने हैं। व्यापमं के साए में अब तक 44 व्यक्ति ”प्राकृतिक” मौत का शिकार हो चुके हैं, और आगे का अभी पता नहीं है कि कितने लोग और इसकी भेंट चढेंगे। वसुंधरा और सुषमा बड़ी ही ढिठाई से अपनी कुर्सियों पर बैठी हैं, उनकी मानवीयता की परिभाषा लगातार विस्तार पा रही है। प्रधानमंत्री नित नई हवा-हवाई स्कीमें सोच कर जनता का ध्यान हटाने में लगे हैं, और उनके भक्त भिन्न मीडिया मंचों पर जनता को गालियां देने में व्यस्त हैं। कुल मिलाकर देश और विदेश में काफी उठापटक का माहौल है। 
यूं हमारे प्रधानमंत्री काफी बड़बोले हैं, जब मर्ज़ी, जहां मर्ज़ी, जो मर्ज़ी बोल देने का उन्हे पुराना मर्ज़ है, लेकिन पी एम की कुर्सी का कमाल ऐसा है कि पहले वाले पी एम मौनमोहन हो गए थे, ये वाले मौनमोदी हो गए हैं। मौन का ऐसा मारक मंत्र अब तक नहीं देखा था। इधर आएं-बांए-शांए उगलने का सारा काम गैरसरकारी हो गया है, मोदी भक्तों ने जगह-जगह मोर्चा खोल लिया है, और अब मोदी की जगह वो आंए-बांए-शांए बक रहे हैं। 
स्वच्छता अभियान, गौरक्षा, आदि-आदि के बाद मोदी ने अपनी जादू की पिटारी से डिजिटल इंडिया और सेल्फी विद डॉटर नाम के दो नये खेल निकाले हैं, और मोदी भक्त फिर से उन पर बलि-बलि जाने को उतावले हो गए हैं। मेरे एक मित्र थोड़ा चिंतित होकर कह रहे थे कि अचानक मोदी भक्तों की संख्या बढ़ गई है। मेरा कहना है कि कुछ भी अचानक नहीं होता, मोदियापे की गंदी गंगा बह रही है और उसमें डूब मरने के लिए तैयार लोग हाथ-पैर मार रहे हैं। बाकी जो पहले से ही इस गंदी गंगा में आंकठ उतरे हुए हैं, वो ज्यादा आंए-बांए-शांए बक रहे हैं। 
व्यापमं घोटाले से जुड़े लोगों की लगातार संदेहास्पद परिस्थितियों में हो रही मौत के बारे में बाबूलाल गौर का कहना है कि जो पैदा हुआ है वो मरेगा ही, अरुण जेटली का कहना है कि सुषमा स्वराज ने एक अपराधी को मानवीय आधार पर ही इस देश की अदालतों से बचाया है इसलिए उन्होने कोई गलत काम नहीं किया, संबित पात्रा का कहना है कि धौलपुर का महल चाहे किसी जमाने में भारतीय स्टेट का रहा हो, लेकिन अभी क्योंकि वो रानी धौलपुर के बेटे की मिल्कीयत है, इसलिए इसमें कुछ गलत नहीं है, और इस बीच गडकरी गौमूत्र से गडकरी मूत्र के महत्व को उत्तरोतर अधिक प्रचारित करने की कोशिश कर रहे हैं। 
पिछले हफ्ते एफ टी आई आई के छात्रों के प्रतिनिधिमंडल से मिले अरुण जेटली पूरी मीटिंग में आंए-बांए-शांए बकते रहे लेकिन मुद्दे पर एक बार भी चर्चा नहीं की। मोदी सरकार के सभी प्रवक्ता पूरे दिन टीवी पर आंए-बांए-शांए बकते हैं, और देश की जनता को नित नए लुभावने नारे देने की कोशिशों में लगे रहते हैं।
खैर, अभी तो हालत ये है कि देश में क्या हो रहा है किसी को पता ही नहीं चल रहा है, प्रधानमंत्री मन की बात करते हैं, लेकिन वो किसके मन की बात होती है ये खुद प्रधानमंत्री को नहीं पता होता, क्योंकि उनके काम और उनकी बातों में कोई साम्यता नहीं दिखाई देती, हिन्दू आतंकवादियों के खिलाफ सबूत और गवाह अचानक खत्म हो जाते हैं, और देश की सर्वश्रेष्ठ जांच एजेंसी अपने हाथ खड़े कर देती है, उसे कुछ संदेहास्पद भी नहीं मिलता। आसाराम और उनके पुत्र के खिलाफ सारे गवाह मारे जाते हैं, और किसी को कुछ पता नहीं होता कि क्या हो रहा है। आखिर इस देश में हो क्या रहा है, किसी को कुछ पता नहीं है, और आप चाहे किसी पुलिस अधिकारी से पूछ लें, नेता से पूछ लें, मंत्री या मीडियावाले से पूछ लें, सभी जवाब में आंए-बांए-शांए बकने लगते हैं। 
देश के राज्यों में अपने नाम के अनुसार ही घोटाले हो रहे हैं, छत्तीसगढ़ में छत्तीस हजार करोड़ रुपये का घोटाला, महाराष्ट्र में महाघोटाले, राजस्थान में राजघराने की कुलवधू राजमहलों में घोटाला कर रही है, और मध्य प्रदेश घोटालों का केन्द्र बना हुआ है, दिल्ली जिसे कभी ढिल्ली भी कहा जाता था, ढीले-ढाले ढंग से चल रही है, तो कुल मिलाकर भी तो देश और दुनिया का हाल एक ही जैसा लग रहा है।

महामानव-डोलांड और पुतिन का तेल

 तो भाई दुनिया में बहुत कुछ हो रहा है, लेकिन इन जलकुकड़े, प्रगतिशीलों को महामानव के सिवा और कुछ नहीं दिखाई देता। मुझे तो लगता है कि इसी प्रे...