किसी भी वस्तु का यथार्थ जानने का सबसे अच्छा तरीका है उसका विश्लेषण कर लिया जाए। यानी उसके इतिहास, वर्तमान और भविष्य की समीक्षा की जाए। उसे परिभाषित किया जाए और इस तरह ये पता लगाने की कोशिश की जाए कि आखिर वो है क्या। तो सवाल ये है कि घोटला आखिर क्या है? क्या होता है? कहां रहता है? समय-समय पर होता है या इसके घटित होने में कोई निरंतरता है? क्या ये बुरा होता है जैसा कि सामान्य धारणा है या फिर अच्छा होता है, जैसा कि इससे लाभ उठाने वाले लोग मानते हैं। या यूं भी हो सकता है कि ये निरपेक्ष हो, जाकी रही भावना जैसी, प्रभु मूरत देखी तिन तैसी, वाली कहावत के अनुरूप।
मानता हूं कि मसला पेचीदा है, लेकिन इतना भी पेचीदा नहीं है। बस थोड़ा सा नज़रिए को सत्यान्वेषी बनाना होगा, जैसे ब्योमकेश बख्शी ने किया। तो सबसे पहले ये जानते हैं कि आखिर घोटाला शुरु कहां से हुआ होगा। क्या कबीलाई युग में घोटाला होता होगा, क्या सामंतवादी युग में घोटाला होता होगा, क्या औपनिवेशिक काल में घोटाला होता होगा। या फिर ये घोटाला 15 अगस्त 1947 को पैदा हुआ जो अब इतना बड़ा हो गया है कि हर सरकारी दफ्तर, राजभवन, कोर्टाआदि में पाया जाने लगा है।
इसके लिए सबसे पहले तो घोटाले की परिभाषा बनानी पड़ेगी, और अगर पहले से कोई परिभाषा मौजूद है तो उस पर ध्यान देना होगा। मुझे याद नहीं पड़ता कि घोटाले पर पहले किसी ने इतने विस्तार से सोचा है, कि उसकी परिभाषा आदि के बारे में लिखा हो। ये सही है कि लोग कई घोटालों के बारे में लिख चुके हैं, कैसे हुआ, यानी प्रक्रिया क्या थी, किसने लाभ उठाया, यानी ये प्रक्रिया किसने चलाई थी, और इसमें किनकी जाने गईं। ये मरने वाले अक्सर वो होते हैं, जो घोटालों की सीमाओं पर या उनसे बाहर होते हैं। अक्सर घोटाले करने वालों का तो बाल भी बांका नहीं होता। उदाहरण आपके पूरे इतिहास में बिखरे पड़े हैं।
तो पहला सवाल पहले, घोटाले की परिभाषा क्या है, अगर है तो, और अगर नहीं है तो क्या हो सकती है। तो यकीन मानिए घोटाले की अभी तक कोई सर्वमान्य परिभाषा नहीं है, ये अभी तक अनाथ शब्द है। तो घोटाले की परिभाषा क्या हो सकती है, क्या यूं कह सकते हैं कि, ”वो चोरी जिसमें शासन और प्रशासन की सीनाजोरी हो, जिसमें अहंकारपूर्ण रहस्य हो, जिसमें अबोध निडरता हो, और मैं सबका बाप हूं किस्म की गैरकानूनियत हो”। हो सकता है कि इसमें आप कुछ और जोड़ना चाहें, लेकिन परिभाषा जितनी छोटी हो उतनी ही अच्छी होती है। अब ज़रा इस परिभाषा पर गौर करें, इसमें चोरी है जिसमें शासन और प्रशान है, अहंकार है, रहस्य है, निडरता है, और गैरकानूनीयत है।
इन सब बातों पर गौर करेंगे तो आप घोटाले का विश्लेषण करने के नज़दीक पहुंच जाएंगे। देखिए भारत में घोटाले की शुरुआत मानी जाती है तब से जब राजा-रानियों का अंत हो गया, अंग्रेजी हुकूमत के दौरान ये सैमी राजा-रानी हुआ करते थे, इसलिए उस वक्त हुकूमत करने वाले यानी अंग्रेज और राजा-रानी दोनो ही घोटाला करते थे, लेकिन 1947 के बाद घोटालों की पूरी जिम्मेदारी नेताओं ने, प्रशासकों ने अपने हाथ में ले ली और राजा-रानियों को इस जिम्मेदारी से मुक्त कर दिया।
आप पूछ सकते हैं कि क्या उससे पहले घोटाला नहीं होता था, जनाब, उससे पहले राजा-रानियों की हुकूमत चलती थी, जब सारा राज उनके बाप का होता था, या कम से कम माना जाता था। ऐसे में अपने माल में से कुछ भी, कभी भी ले लेना, चोरी, डाका या घोटाला तो नहीं का जा सकता ना। अंग्रेजी हुकूमत ने घोटालों को स्थापित करने की दिशा जो सबसे महत्वपूर्ण काम किया वो ये कि हुकूमत प्रशासकों के हाथ में आ गई, ये प्रशासक राजा नहीं थे, ना हो सकते थे, अब भारत की लूट का जो हिस्सा इंग्लैंड की रानी के नाम पर गया, उसे आप घोटाला नहीं कह सकते, क्योंकि रानी का मानना ये था कि भारत उसके बाप का है। लेकिन उसके दूरस्थ प्रशासकों ने जो भी चोरियां की, यानी भारत का माल जो वो चोरी-चुपके अपने साथ ले गए और जिसे उन्होने रानी के मालखाने में जमा नहीं करवाया, वो घोटाला ही था। इन प्रशासकों के ऐसा करने में गैरकानूनियत थी, क्योंकि अगर रानी को पता चल जाता तो शायद उनका सिर कलम कर दिया जाता, या जेल हो जाती, लेकिन इस लूट को वो जिस निडरता अहंकार और सीनाजोरी के साथ करते थे, वो इस लूट को घोटाला बनाता है।
दूसरी तरफ अंग्रेजी प्रशासकों की दया पर राजा-रानी बने हुए भारतीयों ने, इन्हीं अंग्रेजों से छुपा कर जिस माल की चोरी की, डाका डाला वो घोटाला ही था, क्योंेिक अंग्रेजों की हुकूमत में, ये राजा जो भी कमाते थे, वो अप्रत्यक्ष तौर पर रानी की संपत्ति माना जाता था। इन राजा-रानियों की इस लूट में भी, घोटाले की परिभाषा के अनुसार वो सबकुछ था, जो घोटाले के मूलतत्व होते हैं, जैसे प्रशासन और शासन सत्ता की भागीदारी, निडरता, गैरकानूनियत, और अहंकार भी था। अंग्रेजी हुकूमत के दौरान गांधी के पसंदीदा बिड़ला आदि ने भी घोटाले किए और खूब किए।
1947 के बाद सबसे पहले जिस चीज़ का राष्ट्रीयकरण हुआ वो घोटाला ही था। अंग्रेजों के जाने के बाद असल में प्रशासकों ने ये मान लिया कि अंग्रेजों की हुकूमत नाम के लिए बेशक लोकतंत्र हो चुकी है, लेकिन असल में तो सब उनके नाम हो चुका है। इसलिए उन्होने पूरे अहंकार, निडरता और शासन की मिलीभगत से जी भर के लूट-पाट की। इन प्रशासकों और शासकों ने मिलकर इतने घोटाले किए हैं कि अगर गिनीज़ बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड में सबसे ज्यादा घोटालों की बात हो तो इस देश का जिक्र जरूर आएगा। अफसोस बस यही है कि इनमें से ज्यादातर घोटाले पकड़े नहीं गए, और पकड़े गए तो संचार साधनों के अभाव में ज्यादा चर्चित नहीं हुए, जो चर्चित हुए उन्हे दबा दिया गया, और जिन्हे दबाया नहीं जा सका उनमें कुछ एक छोटे-मोटे लोगों की बलि देकर मुक्ति पा ली गई।
घोटालों के इतिहास के बाद हमें घोटालों के आधुनिक रूपों की बात करनी चाहिए। आज देश के भिन्न हिस्सों में विभिन्न आकार-प्रकार, मिजाज़, रंग-रूप आदि के घोटाले हो रहे हैं। कुछ मिनी साइज़ घोटाले होते हैं, कुछ व्यापमं टाइप मेगा साइज़ घोटाले होते हैं, कुछ मीडियम साइज़ के घोटाले भी होते हैं, जिन्हे लोग पिछले साल की दिसंबर की ठंड की तरह भूल जाते हैं और बस कभी-कभी इस घोटाले के चक्कर में उसे याद कर लेते हैं। यूं लोग मेगा घोटालों को भी भूल जाते हैं, जैसे 3जी, कोलगेट, जैसे घोटालों को अब कौन याद रखता है। अपने आकार-प्रकार के हिसाब से और इसमें आपकी इन्वोल्वमेंट के हिसाब से ही इसका हिसाब भी चुकता होता है। यानी अगर आपने एक मेगा घोटाले में कुछ हजार-पांच सौ का हिस्सा पाया है, तो समझिए कि घोटाले के उजागर होने पर आप लम्बे नप सकते हैं, जान से जा सकते हैं, जबकि अगर आपने कुछ सौ करोड़ कमाए हैं तो खुद पुलिस, प्रशासन, सत्ता, न्यायपालिका आपके बचाव में, मानवधिकार, मानवीयता, आदि की ढाल लेकर खड़े हो जाएंगे और आपका बाल भी बांका ना होगा।
आधुनिक भारत में घोटालों ने बहुत विकास किया है, देश के हर हिस्से में, ”जैसा कि मैने पहले कहा” घोटाला पनप रहा है, पनपाया जा रहा है। कुछ लोग खुलेआम, 56 इंची छाती फुलाकर घोटाला करते हैं, कुछ घोटालों को मक्खी की तरह उड़ा देते हैं, कुछ लोग दबे-छुपे घोटाले करते हैं, तो कुछ लोग हर घोटाले को संरक्षण देने की अपनी फीस लेते हैं। कुछ लोग सिर्फ घोटाले की स्कीम बनाते हैं और उसकी फीस लेते हैं। यहां तो अच्छे-खासे पेशेवर घोटालेबाज़ हैं और कोई मुजायका नहीं कि कुछ दिनो बाद विश्वविद्यालयों में घोटाला विभाग हो, और घोटाले का बाकायदा व्यावयासिक प्रशिक्षण दिया जाए, जिनमें सफल घोटालाबाज़ों को प्रोफेसर आदि बनाया जा सकता है।
घोटाले का इतना विश्लेषण करने के बाद कुछ बातें साफ हो जाती हैं।
घोटाले थे, हैं और रहेंगे।
घोटाले सरकारी और प्रशासकीय होते हैं। ”जनता ने आज तक कोई घोटाला नहीं किया, इसलिए कि इसके लिए जो साधन-संसाधन दरकार होते हैं वो जनता के पास होते ही नहीं हैं”
सरकारी और प्रशासकीय चरित्र होने के चलते घोटाले में लिप्त किसी भी व्यक्ति के खिलाफ कभी कोई कार्यवाही नहीं होती, ना हो सकती है।
घोटाले में लिप्त छोटी मछली हमेशा मारी जाती है। ”चाहे उसे जेल हो, या जान से हाथ धोना पड़े, इसके भी तमाम उदाहरण घोटाले के इतिहास में भरे पड़े हैं।”
अंतिम बात मैं घोटालों के प्रति सकारात्मक रुख दिखाते हुए कहना चाहता हूं,
जैसा कि मैने अपने निबंध में पहले ही साबित कर दिया है कि घोटाले तभी संभव हैं जब राज जनता का हो, यानी लोकतंत्र हो, जैसा कि ये है, जो चल रहा है। अरे भई, अगर लोकतंत्र की जगह राजशाही हुई तो घोटाले को घोटाला नहीं कहा जा सकेगा। इसलिए घोटाले की सकारात्मकता इसी में है कि घोटाला इसलिए है क्योंकि लोकतंत्र है, जिसमें सभी घोटाला कर रहे हैं, चाहे वो समाजवादी हों, या दलित वाले हों, चाहे कटट्र राष्ट्रवादी हों या कांग्रेसी हों, कुल मिलाकर घोटाले का होना ही लोकतंत्र के होने को साबित करता है। इसलिए अगर आप इस लोकतंत्र का बचाना चाहते हैं तो घोटालों को बचाए रखिए, क्योंकि लोकतंत्र का एकमात्र मीटर घोटाला है। यही घोटाले का यर्थाथ है, यही घोटाले की सार्थकता है।

Wah kya baat kahi hai...aap k likhe hue ka fayda Ye hota hai ki ek fresh perspective se sochne ka nazariya banta hai aur buniyadi sawalon k jawab dhoondne nahi padte...
जवाब देंहटाएंek sujhaav hai yadi is nibandh mein kuch references attach kar diye jayein toh ye ek papaer ki trarah kisi journal mein publish Ho sakta hai... ghotaale au unki utpatti..
shukriya......dekhta hun kya kiya jaa sakta hai.
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