बाथे और बथानी
ईश्वर के अनेक रूप, आकार-प्रकार और रंग हैं, उसकी लीला अपरंपार है। वो जिसको चाहे जिलाता है, जिसे चाहे मार देता है, किसी-किसी को अपंग अशक्त भी करता है, और कुछ को किन्ही और तरीकों से सज़ा देता है। अब अगर आप ईश्वर की बनाई हुई व्यवस्था में यकीन रखते हैं तो आप इस सज़ा को कबूल कर लीजिए और चुप बैठिए, और अगर कहीं आपका यकीन ईश्वर में ना हो, तो धरती पर मौजूद उसके एजेंटों की जिम्मेदारी बन जाती है कि वो आपको समय-समय पर याद दिलाते रहें कि ईश्वर है।
बाथे में क्या हुआ, कौन जानता है। या तो ईश्वर या उसके एजेंट, आप कैसे कह सकते हैं कि आप जानते हैं। इस देश में लोकतंत्र है, न्याय की व्यवस्था है और कोर्ट हर सबूत देखकर, पूरे यकीन के साथ फैसला सुनाते हैं। कोर्ट को जब लगता है कि किसी जगह कोई जनसंहार ईश्वर का कृत्य है तो वो फिर किसी इंसान को सज़ा नहीं दे सकता। आखिर कोर्ट ईश्वर के यकीन से आगे बढ़कर फैसला कैसे दे सकता है। आखिर ये कोर्ट ही तो था जिसने एक मुकद्में में राम लला को एक पार्टी करार दिया था, तो वही कोर्ट अगर ये मान ले कि बाथे-बथानी जैसे जनसंहार ईश्वरीय कृत्य हैं जिनके लिए किसी को दोषी नहीं ठहराया जा सकता, सज़ा नहीं दी जा सकती तो आश्चर्य कैसा?
आज की इस दुनिया में पाप बहुत बढ़ गया है, दलित, निचली जाति के लोग, गरीब-गुरबा, अपने हाल पर खुश नहीं हैं, वो अपने हक-अधिकारों की बात करने लगे हैं। ऐसे में कैसे चलेगा ईश्वर का राज। जो व्यवस्था ईश्वर ने बनाई है, उसमें सवर्ण होते हैं, जिनकी सेवा करना नीची जात का काम होता है, और अगर कोई दलित अपने ईश्वर प्रदत्त काम से मुहं मोड़ता है, अपने अधिकार की बात करता है तो उसे सबक सिखाना ईश्वर के एजेंटो का परम कर्तव्य बन जाता है। कोर्ट ने बाथे जनसंहार के सभी अभियुक्तों को रिहा करके ये जतलाया है, और सही जतलाया है कि, वे सभी दलित-दमित लोग अपने किए की सज़ा पाए हैं, उन पर कोई अन्याय जैसी चीज़ नहीं हुई है। 11 नवंबर 1998 में जब उन सबको मारा गया था, तो ये काम किसी इंसान का नहीं हो सकता, और अगर किन्ही इंसानों ने ये काम किया भी हो तो उन्हे दोषी ठहराना, सज़ा देना, ईश्वर प्रदत्त व्यवस्था में सीधा हस्तक्षेप होगा।
निचली अदालतें अक्सर जनता के दबाव में आकर लोकतंत्र के गलत भावार्थ के ज़रिए दलितों-दमितों के पक्ष में फैसले दे देती हैं, लेकिन उच्च न्यायालय ज्ञानवान है, समृद्ध है, विचारशील है, वो निचली अदालतों में होने वाली गलतियों को सुधारता है, और उन्हे ईश्वर द्वारा बताए रास्ते पर लाता है। इसीलिए सभी अभियुक्तों को रिहा कर दिया गया। यकीन मानिए बाथे जनसंहार किसी मनुष्य का काम नहीं था। वो हो गया, जैसे उसके बाद के जनसंहार हुए, अभी हो रहे हैं, और होंगे।
ये लड़ाई दो वर्गों के बीच की लड़ाई नहीं है, बल्कि पाप और पुण्य के बीच की लड़ाई है। एक तरफ पापी, यानी दलित, दमित, अल्पसंख्यक हैं और दूसरी तरफ ईश्वर, उसके सारे सामंत सरदार, न्यायपालिका, कार्यपालिका, और उनके अधिकारक्षेत्र में जिनती ताकतें हो सकती हैं, वो सब हैं। अब समझिए आप, क्या आप ईश्वर से जीत पाएंगे। कहता रहे राष्ट्रपति इसे राष्ट्रीय शर्म, अरे ये तो राष्ट्रीय गौरव की बात है। अमीरदास आयोग जैसी चीजें इन्ही ईश्वर प्रदत्त व्यवस्थाओं में खामी ढूंढती हैं, आप कहिए क्या हक है इन्हें उसकी न्याय व्यवस्था में खामी ढूंढने का, इसलिए उस आयोग को भंग कर दिया गया, सोचिए अगर उस आयोग ने ये साबित कर दिया होता कि, इन जनसंहारों के पीछे रणवीर सेना का हाथ है, और इसके चलते किसी को सज़ा हो जाती, हे ईश्वर, मान लीजिए मुखिया को ही सज़ा हो जाती, तब कौन उठाता धर्म की ध्वजा, बिना संदेह के, कौन करता ये जरूरी काम।
कुछ लोग बाथे-बथानी जनसंहारों को इस देश में होने वाली अन्य घटनाओं से अलग करके देख रहे हैं, उनकी जानकारी के लिए, ये सब घटनाएं उसी एक व्यवस्था को कायम रखने के अलग-अलग किस्से हैं, जो धर्म की आस्था के ज़रिए स्थापित होती है। चाहे वो छत्तीसगढ़ में हो, या गुजरात में, कश्मीर में हो, या फिर मारुति जैसे औद्योगिक मजदूरों की बात हो। कोर्ट लगातार धर्म की ध्वजा उठाए चल रहा है, और लगातार मजदूरों, दलितों, दमितों को ये सबक सिखाने की कोशिश कर रहा है, कि मान जाओ, चुप्पे बैठ जाओ, नहीं तो मारे जाओगे, जिंदा जला दिए जाओगे, और बच गए तो तुम्हारे उपर ही हिंसा फैलाने का आरोप लगा कर तुम्हे जेल में बंद कर दिया जाएगा, तुम्हारी औरतों का बलात्कार किया जाएगा, तुम्हारे बच्चों को तलवारों की नोंक पर उछाला जाएगा, आग में फेंका जाएगा।
दुख बस यही है कि ये लोग अब भी नहीं मान रहे हैं, सदियों से स्थापित इस व्यवस्था के खिलाफ उठ खड़े हो रहे हैं। आक्रोश रैलियां, और खबरदार रैलियां निकाल रहे हैं, राजमार्गों को जाम कर दे रहे हैं, इनकी मुठ्ठियां भिंची हुई हैं, गर्दन की नसें फूली हुई हैं, और ये इंकलाब जिंदाबाद के नारे लगा रहे हैं। इन लोगों की आंखों में आक्रोश है, नारों में गुस्सा है, और दिलों में इंकलाब है। ये लोग बाथे-बथानी के जनसंहारों से नहीं मानने वाले, ये लोग रणवीर सेना, सलवा जुडुम से नहीं मानने वाले, ये लोग पुलिस, सेना, कोर्ट से नहीं मानने वाले, ये लोग सुशासन और समाजवाद के झूठे नारों से नहीं मानने वाले। ये लोग ईश्वर द्वारा स्थापित, सामंती सोच और शासकीय अहं द्वारा पोषित, पुलिस, फौज, कोर्ट द्वारा संरक्षित व्यवस्था को उलट देने की बातें करने लगे हैं। इन्हे दबाने के लिए लगातार बनने वाले कानून, उल्टे-सीधे फैसले, पूंजीवादी आकार-प्रकार की साजिशों के बावजूद ये लोग बढ़े आ रहे हैं। अब आर-पार की लड़ाई लड़नी होगी। अब इस धरती पर या तो ईश्वर की सत्ता रहेगी, या शोषितों, दलितों, दमितों का परचम फहराएगा।
धर्म की जय हो, अधर्म का नाश हो, प्राणियों में सद्बुद्धि हो, की जगह ये लोग हर जगह इंकलाब हो, इंकलाब हो, इंकलाब हो का नारा लगा रहे हैं। अगर इस युद्ध में ईश्वर की सत्ता उलट गई और ये लोग कल के शासक हो गए, तो उस समय के लिए, हे ईश्वर इन्हे कभी माफ ना करना, क्योंकि ये दलित, शोषित सर्वहारा सब जान समझ गए हैं, और सबकुछ जान समझ कर, तुम्हारी, धरती पर तुम्हारे एजेंटों की सत्ता को चुनौती दे रहे हैं, और ये जो कर रहे हैं पूरी समझ के साथ, पूरी निष्ठा के साथ इंकलाब लाने के लिए कर रहे हैं।

हर सवाल का एक जवाब - इंकलाब !
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