शुक्रवार, 16 जनवरी 2015

हमें तो पहले से पता था



वो कुछ भी कहते रहें, हम तो यही कहेंगे कि हमें तो पहले से पता था। हालांकि ये भाजपा का मास्टरस्ट्रोक है, या कम से कम मास्टरस्ट्रोक जैसा तो है ही। हम तो यही कहेंगे कि हमें पहले से पता था। हो सकता है आपको मुगालता रहा हो, कोई संदेह रहा हो, हमें कभी कोई संदेह नहीं था। अन्ना हजारे का आंदोलन जितने भी दिन चला हो, उसमें जितने भी लोगों ने हिस्सेदारी की हो, इससे कोई इन्कार नहीं कर सकता कि उसे भगवा रंग से रंगने की कोशिशे हुई, और लगातार होती रहीं। हमें याद है कि रामलीला मैदान में हमें गाना गाने के लिए मंच पर बुलाया गया, अब हमारे गानों में तो सीधे वार होते हैं, हमारा गाना था, भ्रष्टाचार की जय-जय बोलो, जिसमें राहुल गांधी, मोदी, अमित शाह, अंबानी, बिरला, टाटा सबका नाम शामिल था। तो जब हम चढ़ रहे थे उस मंच की सीढ़ियां जहां अन्ना अपने अनशन पर बैठे थे और सामने थी सैंकड़ों जनता, तो मनीष सिसोदिया जो उस वक्त मंच संभाल रहे थे, हमारे कान में बोले, ”देखिए, सीधे-सीधे किसी का नाम ना लीजिएगा” हम ठहरे हम, हमने सुना, और उपर चढ़ कर सीधे नामों वाला अपना ये मशहूर गाना गा दिया ठहरा। हमने इसके अलावा जो गाना गया वो था, ”कोई मैं झूठ बोलया” और उसमें भी सीधे-सीधे सभी का नाम आता है, इस गाने को हमने इससे पहले अन्ना के ही राजघाट वाले कार्यक्रम में गाया था, गाना गाने के बाद जब हम वापस जा रहे थे, तो एक पुलिसवाले ने हमे रोककर कहा था, ”कमाल का गाना गाया यार, लगा वर्दी उतार के मैं भी शामिल हो जाउं” ये गाने की ताकत थी या उन सीधे प्रहारों का असर था मैं नहीं कह सकता, लेकिन उस पूरे अंदोलन में जहां भी हमने भारत माता की जय के नारे लगते थे, हमने तभी कह दिया था कि अंत-पंत इस आंदोलन के खंभे भाजपा में जाकर विलीन होंगे, खुद पार्टी की नियती के बारे में हम बार-बार कह ही चुके हैं कि इस पार्टी में, भाजपा या कांग्रेस में नीति या मुद्दों का कोई फर्क नहीं है। अगर किसी को कांग्रेस साम्प्रदायिक नहीं लगती, या आ आ पा मजदूरों का पक्ष लेने वाली लगती है, या भाजपा विकास करने वाली पार्टी लगती है, तो दोष उनकी समझदारी का है। लेकिन हमें तो पहले से पता था। 
हमें तो तब आश्चर्य ना हो जब अन्ना भाजपा में शमिल हो जाएं, किरण बेदी तो खैर उनकी सिपहसालार ही थीं। जब अरविंद केजरीवाल ने दिल्ली में आ आ पा बनाई थी और उसका प्रचार किया था, हमने तब ही कहा था कि इस पार्टी में और किसी दूसरी, दर्जन में तेरह के भाव मिलने वाली किसी और पार्टी में कोई फर्क नहीं है। सिवाय इसके कि इसके नारे ज्यादा लुभावने हैं, इसकी नीतियां वही हैं, इसके काम वैसे ही हैं, इसके साथी वही हैं, जो इस समाज की असमानताओं में अपना विश्वास तलाशते हैं, हमने कहा था, और अब भी कह रहे हैं कि, भारतीय लोकतंत्र में बहुमत का मतलब ये नहीं होता कि वो पार्टी, या उसकी विचारधारा ज्यादा लोकप्रिय है। आप लोगों को अब समझ में आ रहा है कि भाजपा का विकास का नारा झूठा है, हमे तो पहले से ही पता था। आप लोगों को अब समझ में आ रहा है कि मोदी किसी विदेश से कोई काला धन नहीं लाने वाला, हमे तो पहले से पता था, आपको अब समझ मंे आ रहा है कि इस वर्तमान सत्तारूढ़ पार्टी झूठ की सीढ़ियां चढ़ कर सत्ता तक पहुंची है, हमें तो पहले से ही पता था। आपको आज पता चला है कि किरण बेदी भाजपा में शामिल हुई हैं, हमें तो पहले से ही पता था। 
अब आप कहेंगे कैसे पता था, भारत को यहां रहने वाले सभी का देश ना मान कर उसे अपनी मां, बहन बेटी बनाने वाले, आखिरकार किस तरह आम आदमी के रहनुमा बन सकते हैं, ज़रा सोचिए। और इसके साथ ये भी ध्यान रख लीजिए, कि यहां मामला हिंदु-मुसलमान या किसी और धर्म का है ही नहीं, मामला किसी तरह जनता को धर्म के मामले में उलझाकर रखने और खुद मुनाफा कमाने का है। चलिए ज़रा यही सोचते हैं कि किरण बेदी ने आखिर ऐसा क्या किया है जो उन्हे दिल्ली के मुख्यमंत्री जैसी जिम्मेदार कुर्सी के लिए काबिल समझा जाए। क्या वो ईमानदार हैं? खुद उनकी वर्तमान पार्टी यानी भाजपा ने किसी जमाने में उन पर बेइमानी के इल्जाम लगाए हैं, किसी और पार्टी ने उनके खिलाफ सबूत भी दिए थे। क्या वो अच्छी प्रशासन दे सकती हैं? वो जिस पार्टी के रास्ते गई हैं, वो सिवाय झूठ और लूट के कुछ नहीं दे सकतीं, वो क्या अच्छा प्रशासन देंगी। याद रखिए कि उन्होने अपने पुलिस के वक्त में पूरी दिल्ली के ट्रक वालों की हाई-बीम यानी हेडलाइट को आधा काला करवा दिया था, लेकिन साथ ही ये भी याद रखिए कि उनका ये कदम आखिरकार सिर्फ ट्रक वालों के लिए था, मंहगी विदेशी कारों पर उन्होने ऐसा कोई प्रतिबंध या आदेश नहीं लागू किया था। उनके जेल सुधारों के बारे में भी बहुत कुछ पढ़ने में आता है, और अभी तो वे चुनाव लड़ेंगी तो बहुत कुछ पढ़ने में आएगा, लेकिन साथ ही ये भी याद रखिएगा कि जेल प्रशासन संभालते हुए उन्होने कभी भी, अंडर ट्रायल कैदियों का मुद्दा नहीं उठाया, उन्होने कैदियों को विपश्यना सिखाने पर जोर भले दिया हो, लेकिन जेल में रहने वालों के साथ पुलिस के व्यवहार पर उन्होने कोई काम नहीं किया था। इसके बाद उन्होने घरेलू मामलों पर सामाजिक काम करना शुरु किया, कई अखबारों, टीवी और रेडियों में उनके कार्यक्रम आए, लेकिन जब भी महिला अधिकारों को लेकर कोई सार्थक आंदोलन चला तो वो हमेशा गायब रहीं, अब ये चाहे 16 दिसंबर वाला मामला हो या उसके बाद कोई और आंदोलन हो। पर हमे तो पहले से ही पता था।
तो कुछ मिलाकर हम क्या कहना चाहते हैं? हम किरण बेदी के खिलाफ कोई मोर्चा नहीं खोल रहे हैं, वो हमें उतनी ही नापंसद हैं जितने मोदी, या मनमोहन सिंह, ना उससे कम, ना उससे ज्यादा, हम सिर्फ आपको ये बता रहे हैं, कि ये भाजपा की वही नीति है जिसके तहत स्मृति ईरानी को शिक्षा मंत्री बनाया गया है। वास्तव में अगर आप किसी ऐसे इंसान को मंत्री बना दो, जिसके पास या तो दिमाग ना हो, या उम्र भर यस सर कहने की आदत रही हो, तो आप काफी झंझटों से बच जाते हो। काम आपका, नाम उनका, वो अपनी तरफ से कुछ करते ही नहीं हैं, आपकी मुसीबत कम होती है, और आसानी से सब काम होते जाते हैं। मोदी ने आते ही सबसे पहले इसका ख्याल रखा है, आडवाणी बाहर, जोशी बाहर, स्मृति ईरानी अंदर, और अब किरण बेदी। अब आप इस बात को जाने या ना जाने, हमें तो पहले से ही पता था। 
अब यहां ये तो समझ में आता है कि भाजपा को इससे क्या फायदा हुआ। अरे भई सीधी सी बात है, आ आ पा ने सतीश उपाध्याय के खिलाफ आरोप लगाए और फिर उसके दस्तावेज़ भी दिखा दिए, अब बात सतीश उपाध्याय की है, उन्हे अपने कथनानुसार अरविंद केजरीवाल पर झूठे आरोप लगाने और मानहानी का दावा कर देना चाहिए, लेकिन जो भी हो, सतीश उपाध्याय इक्वेशन से बाहर, तो भाजपा के पास बचा कौन, जो अरविंद केजरीवाल के सामने खड़ा हो सकता, ये मुश्किल हल हुई किरण बेदी से, अन्ना आंदोलन में शामिल भी थीं, और गला भर-भर के भारत माता की जय के नारे भी लगा रहीं थी, वैसे भी अपने कर्मों में, अपनी सोच में, और अपने विचारों में वो भाजपा के ज्यादा करीब हैं। हो सकता है कि आप इस बात को ना समझते हों, लेकिन यकीन मानिए हमें पहले से पता था। लेकिन यहां ये भी सोचना ज़रूरी है कि आखिर किरण बेदी को इससे क्या फायदा है, अरे भई उनके लिए तो ये स्वर्णिम अवसर है, जहां उन्हे कोई सीट तक नहीं मिल रही थी, वहां भाजपा उन्हे अपने स्टार उम्मीदवार की तरह कैश करेगी और जीत गई तो मुख्यमंत्री की कुर्सी है ही। वैसे ”हतोत्वा प्राप्यसी स्वर्गम, जीत्वा वा मोक्ष से मही” वाला भी कोई सौदा हुआ हो सकता है। सौदा भले हमें ना पता हो, लेकिन बाकी हमें पहले से पता था। 
रही बात शाजिया इल्मी की, तो वो लगातार अप्रासंगिक होती जा रही थीं, आ आ पा से निकली तो कांग्रेस में जा सकती थीं, लेकिन कांग्रेस के कोई चांस नहीं हैं, फिर उनके रिश्तेदार हैं आसिफ भाई, जो ओखला से एम एल ए हैं, कभी सपा, कभी बसपा और कभी कांग्रेस, यानी जिसने कुर्सी दी उसकी की कनात में बैठे वाला मामला है। तो बहुत संभव है उनसे बातचीत हुई हो, और उन्होने राजनीति के इस पुरातन गुर में इल्मी को दीक्षित किया हो, और आखिरकार इल्मी भी भाजपा में शामिल हो गई। अब आप यकीन माने या ना मानें, जब किरण बेदी और इल्मी को भी नहीं पता था कि वो आ आ पा छोड़ेंगी और भाजपा में शामिल होंगी, हमें इससे पहले ही ये पता था। हा हा हा। 

अज्ञान - विज्ञान



इस बार की विज्ञान कांग्रेस में अज्ञान का काफी प्रसार हुआ, कुछ लोग बहुत खुश हैं। विज्ञान हो या अज्ञान हो, सवाल ये है कि ज्ञान का प्रसार हुआ है। ये दौर जिसमें हम रह रहे हैं, बहुत ही खतरनाक दौर है, इसमें वो सब हो रहा है जो नहीं होना चाहिए। पुर्नजागरण के बाद के दौर का असामयिक देहावसान सा हो गया लगता है। कोई तर्कणा, और बुद्धि की बात सुनना-करना नहीं चाहता, ज्यादातर स्वपनलोक की स्वर्णिम कथाओं में विश्वास कर रहे हैं। कोई मुक्तिदाता है, जो उद्धार का विश्वास दिला रहा है, कोई योग से कैंसर ठीक करने का दावा कर रहा है, और कोई कह रहा है कि जब प्राचीन ऋषि-मुनि गण अपना शरीर छोड़ कर लोक-परलोक की सैर कर सकते थे तो हम क्यों नहीं कर सकते। 
विज्ञान फिर से पीछे ढकेल दिया गया है, और अज्ञान और मूढ़ता के सिर पर कामयाबी का ताज बांधा जा रहा है। वैज्ञानिक अपनी वैज्ञानिकता छोड़ कर निराधार बकवास को विश्वसनीय सिद्धांत मानने की बात कर रहे हैं और राजनयिक ऑफिस के चूल्हे पर धर्म और जाति की रोटियां सेंक रहे हैं। कहा जा रहा है कि पुराने यानी प्राचीन भारत में, लगभग 6000 साल पहले, परमाणु बम, अदृश्य विमान, कार, टीवी, कम्प्यूटर और ना जाने क्या-क्या ऐसा था जैसा कि आज कल्पना तक नहीं की जा सकती। बेवकूफ बाबाओं की इनर इंजिनियरिंग और आर्ट और लिविंग को छोड़ दीजिए, जीवन भर विज्ञान की अनगिनत शाखाओं में काम करने वाले वैज्ञानिक भी इसी जीवट में लग गए हैं कि किसी तरह प्राचीन विज्ञान को असली विज्ञान साबित किया जाए।
यकीन मानिए इस अज्ञान कांग्रेस में जो भी हुआ, उससे मुझे बहुत कम आश्चर्य हुआ। विमान, और प्लास्टिक सर्जरी तो कम है, मुझे तब भी आश्चर्य नहीं होता अगर वहां 6000 साल पहले गैलेक्सी में दूसरे ग्रहों पर जाने की बात का भी जिक्र होता। फिर जो इंसान आपके भूगोल और इतिहास की ऐसी-तैसी फेर चुका हो, उससे आप यही उम्मीद करेंगे कि अब वो विज्ञान, गणित, साहित्य जैसे विषयों की भी ऐसी-तैसी करेगा। शेक्सपीयर असल में हिंदु था, ना हो तो मधोक जी साबित कर देंगे, टी वी तो महाभारत में पहले से ही वर्णित है, वे ये साबित कर सकते हैं कि हमारे ऋषि मुनियों के पास गैलेक्टिक वाहन थे, जिससे वे दूसरे ग्रहों के प्राणियों को साथ चर्चा करते थे, और वे गैलेक्टिक यान चलते थे उनकी आध्यात्मिक उर्जा से....समझे कुछ। 
आघ्यात्म जीवन का एक नज़रिया हो सकता है, जब कर्म प्रमुख हो तो आघ्यात्म और ईश्वरीय प्रेरणा गौण हो जाती है, लेकिन जैसे ही वैज्ञानिक तर्कणा को गौण करके ईश्वरीय प्रेरणा और आध्यात्म को चराचर का आधार मान लिया जाता है, तो इसी तरह के खोखले दावों को वैज्ञानिक सोच का आधार बनाने की जिद की जाती है। पुर्नजागरण ने धर्म को दुनिया चलाने, दुनिया का इतिहास, वर्तमान और भविष्य तय करने से रोका, और आघ्यात्म की बजाय, तर्कणा, वैज्ञानिक सोच और कर्म में अपना विश्वास जताया। इसी वैज्ञानिक सोच और सिद्धांत का फल ये रहा कि 5000 साल के अंधे युग के बाद, एक ऐसा काल आया जब मानव अपने श्रम पर विश्वास करने लगा, जब विचारों की स्वतंत्रता का विचार सामने आया, जब जीवन को एक नए नज़रिए से देखने का विचार सामने आया। 
ईश्वरीय शक्ति में विश्वास ने दुनिया को क्या दिया, आपको क्या दिया। पश्चिम में हों या पूरब में, निर्बल, असहाय लोगों को जिंदा जलाने से लेकर, भ्रूण हत्या तक वो कौन सा अपराध है, जो धर्म ने नहीं किया। क्या ऐसा निकृष्ट काम है जो धर्म के नाम पर, पूरी दुनिया में नहीं किया गया। जबकि पुर्नजागरण के बाद से ही ऐसे प्रयास किए गए कि इंसान को तर्क की शक्ति दी जाए, नए विचारों को जगह दी जाए, किसी तरह सभी को कम से कम इंसान की तरह रहने की सहूलियतें दी जाएं। ये सही हैं कि हम इसमें अब तक सफल नहीं हुए हैं, ये भी सही है कि हमारी कोशिशों को लगातार धक्का लगता रहा है, लेकिन उस अंधे युग जैसा अंधेर तो कम से कम नहीं ही है। 
सत्ताधीशों की राजनीति इस देश को एक बार फिर उसी अंधेरे कुंए में ढकेलने की कोशिश कर रही है जब कुछ खास लोगों के हाथ में सत्ता की बागडोर होगी और वो वहशी जानवरों की तरह जिसे चाहे मारेंगे, और जिसे चाहे अपना दास बना लेंगे, जिसे चाहे राक्षस का नाम देकर जिंदा जला देंगे और जिसे चाहे अपने जूते तले रौंद देंगे। इन सभी कामों के लिए उन्हे किसी तार्किक आधार की जरूरत नहीं होगी, क्योंकि वो आस्था का खेल खेलते हैं, जब वे संस्कृत के चार श्लोक पढ़ कर आपको अनाश्व रथ और विमानों की स्वपनिल दुनिया में ले जाते हैं तो वो उसके तर्क की बात नहीं करते। वे आपकी आस्था को ललकारते हैं, वे आपके जातिय और धार्मिक गर्व को चुनौती देते हैं, वे आपकी धार्मिक पहचान से संबोधित होते हैं, छोटे में कहा जाए तो वे आपसे अपनी आस्था की नींव पर उनकी बातें मान लेने और उन पर विश्वास कर लेने को कह रहे होते हैं। 
जब से इस देश में राज बदला है कई लोग आस्थावान हो गए हैं, कई लोग धार्मिक हो गए हैं। जनता में कच्छेधारियों की तादाद बढ़ गई है। कुछ लोग ज्यादा बेकाबू हो गए हैं, तो कुछ लोग बंदरों की तरह उछल-उछल कर अपनी सारी अर्नगल बकवास की उल्टियां कर रहे हैं। यहां सवाल है कि आखिर ये इतने पढ़े-लिखे लोग, वैज्ञानिक कहलाने वाले लोग इस तरह की सोच का प्रचार क्यों कर रहे हैं। वैज्ञानिकों पर कोई इसलिए भरोसा नहीं करता कि उनकी सूरत अच्छी है या उनका नाम अच्छा है। कोई उनके किसी सिद्धांत या विचार पर तब तक भरोसा नहीं करता जब तक वे उसे तर्क से साबित नहीं कर देते। लेकिन राजनेताओं और धार्मिक बाबाओं की ऐसी कोई मजबूरी नहीं होती। उन्होने जो भी कहा, उसे वे जनता के सिरों पर आस्था के तौर पर लादते हैं, सवाल करने की मनाही करते हैं और इसी तरह उनका खेल चलता है। 
मुसीबत ये है कि वैज्ञानिकों के कैरियर और उनकी आय, उनके पद, उनके ऑफिस सबपर राजनेताओं का अधिकार होता है। इसलिए वो वैज्ञानिक या लोग जो तर्क की शक्ति पर भरोसा करते हैं, जहर पीने का मजबूर किए जाते हैं, या फिर उन्हे अपने वैज्ञानिक सिद्धांत को घुटनों के बल घिसटने और वापस लौटने को मजबूर किया जाता है। या फिर हमारी अवैज्ञानिक कांग्रेस में शामिल अवैज्ञानिकों जैसे भी होते हैं जो आंखे बंद करके, कानों में रूई डाल कर किसी राजनेता को भाषण सुनते हैं, उस पर तालियां बजाते हैं और किसी उंचे सरकारी ऑफिस में अपनी नौकरी पक्की होने का इंतजार करते हैं। 
अब जब तक बेवकूफों का राज है, ऐसी ही चीजों की, विचारों की अपेक्षा है, बाकि जनता समझदार है, नहीं है तो हो जाएगी, तब इन नकली साइंसदानों का क्या होगा, हो सकता है कि वो अपने अनाश्व रथों पर बैठ कर भाग जाएं, या फिर 6000 साल पहले वाले विमान पर बैठ कर उड़न छू हो जाएं....हमें तो बस इंतजार है।

मंगलवार, 6 जनवरी 2015

पीके के बहाने...

पीके के बहाने.....


कुछ ही दिनों पहले फिल्म देखी, पूरी नहीं देखी, ऐसी कोई नहीं थी कि पूरी देखने का दिल करे, ना कॉमेडी थी, ना ढंग की ट्रेजेडी थी। पर कुछ तो मजा था, पहले तो यही सोच कर खुशी हुई कि चलिए अब एलियंस को, यानी किसी दूसरे ग्रह वासियों को भारत जैसे तीसरी दुनिया के देशों में भी उतरने, आने की चाह होने लगी है, वरना अब तक तो अमेरिका, इंग्लैंड ही उनके निशाने पर होते थे। तो मोदी के आने का एक फायदा तो यही समझ लीजिए कि पूरे ब्रह्मांड में ये खबर चली गई है कि भई अब पृथ्वी पर जाना हो तो भारत जैसी जगह भी जाया जा सकता है। ये कोई कम बड़ी उपलब्धि नहीं है, और सच कहें तो कम से कम पर्यटन मंत्रालय को अपनी 200 दिन की उपलब्धियों में इसे शामिल कर ही लेना चाहिए।  
अब बात करें, धार्मिक अंधविश्वासों को ठेस पहुंचाने की, तो बाबू, धर्म का मामला आस्था को मामला है, आस्था, आंखे मूंद कर आती है, और जो चीज़ आंखे बंद करके आती हो, जैसे नींद, सपने, उसे ठेस पहंचाने पर गुस्सा तो आता ही है। तो कोई आश्चर्य नहीं कि भक्तों को पी के बुरी लगी हो, वैसे पी के में बुरा लगने वाला कुछ है नहीं, आधी पकाई खिचड़ी की तरह की फिल्मों को गले में मैडल की तरह लटकाना और दुश्मन की तरह लाठी से मारना दोनो ही खतरनाक है। फिल्म देख कर हो सकता है कुछ लोग प्रगतिशीलता की चद्दर ओढ़ कर मन ही मन भगवान से माफी मांगते हुए इस फिल्म का विरोध ना कर रहे हों, और जो लोग भगवान के कोप का डर देखते-दिखाते विरोध कर रहे हैं वो तो दिखाई दे ही रहे हैं। सबसे मुखर विरोध उन लोगों को है जिनकी दुकानो पर सवाल उठाया जा रहा है। अब ये तो समझ में आने वाली बात है, किसी की दुकानदारी पर उंगली उठाओगे तो वो तो तुम्हे गरियाएगा ही, इसमें कुछ बुरा भी नहीं है। 
हालांकि पी के में ईश्वर के असतित्व पर सवाल नहीं उठाया है, सवाल क्या शंका तक नहीं जताई है, सिर्फ ईश्वर की पूजा के विभिन्न अजीबो-गरीब तरीकों का मजाक बनाया गया है। सच कहें तो और गौर से देखा जाए तो पी के ईश्वर के असतित्व को और पुख्ता सी करती लगती है। और यहीं मेरा विरोध पी के से और पी के का विरोध करने वालों से हो जाता है। मामला ये है कि मैं एक विशुद्ध नास्तिक इंसान हूं। अब अगर भारतीय संविधान के अनुसार धर्म की स्वतंत्रता है तो जाहिर है मुझे किसी भी धर्म को ना मानने की स्वतंत्रता होनी चाहिए। अब आता है मामला भावनाओं को ठेस पहुंचाने का, तो जनाब मेरी भावनाओं को तो हर रोज़ बिना नागा ठेस पहुंचती है। 
हर गली में मंदिर, हर चौराहे पर मस्जिद, गुरुद्वारा और गिरजा, लोग गाए जा रहे हैं भजन, मना रहे है त्यौहार, और मेरी भावनाओं को ठेस पहंुच रही है। इस सरकार ने, या भावनाओं के ठेकेदारों ने कभी मेरी भावना की कदर ना की। यकीन मानिए जब कहीं किसी मंदिर की घंटी बजती है तो मेरी भावनाओं को ठेस पहुंचती है, जब कहीं किसी मस्जिद से मुअज्जिन अजान देता है तो मेरी भावनाओं को ठेस पहुंचती है। मेरी भावनाओं को ठेस पहंुचती है जब कांवड़ या ऐसी की किसी धार्मिक यात्रा का जुलूस निकलता है, जब मुहर्रम पर ताजिया होता है तो मेरी भावनाओं को ठेस पहुंचती है। इस सरकार और प्रशासन को क्या ये नहीं देखना चाहिए कि मेरी, यानी एक विशुद्ध नास्तिक की भावनाओं को ठेस ना पहुंचे या फिर इस सरकार के सारे प्रयास धार्मिक भावनाओं वाले लोगों के लिए ही हैं, और अगर ऐसा है तो क्या ये पक्षपात नहीं है। मैं सरकार पर आरोप लगाता हूं कि मेरे साथ धार्मिक पक्षपात हो रहा है, और ये असंवैधानिक काम ये सरकार कर रही है। आज तक मैने कोई सरकारी फार्म नहीं देखा जिसमे नास्तिक को कोई कॉलम हो, जनगणना के आंकड़ों में नास्तिकों को कोई जगह नहीं है। तीन साल पहले जब मेरे घर जनगणना वाले आए और मैने उनसे कहा कि मेरा कोई धर्म या जाति नहीं है, मुझे आप नास्तिक वाली श्रेणी में डालिए तो उनके पास ऐसी कोई श्रेणी नहीं थी। क्या ये मेरे साथ पक्षपात नहीं है, जब भारत की जनसंख्या के बारे में सरकारी आंकड़े दिखाए जाते हैं तो उसमें नास्तिकों को, धर्म को ना मानने वालों को कोई जगह क्यों नहीं मिलती। बेकार के मामलों पर अपनी राय देने वाला सर्वोच्च न्यायालय पिछले 67 सालों से इस विषय पर कुछ नहीं कह पाया। 
इस देश में सारे त्यौहार धार्मिक उत्सवों के लिए ही होते हैं, सरकारी छुट्टी जिसे कहते हैं, बताइए कोई एक भी छुट्टी नास्तिकों के लिए की जा रही हो। ना नास्तिकों को कोई रियायत मिलती है, ना उन्हे कोई अतिरिक्त सुविधा मिलती है, ना उनके लिए कोई विशेष प्रावधान है। हम नास्तिक चुपचाप अपनी भावनाओं को दबाए रहते हैं। और मजेदार बात ये है कि धार्मिक दंगे करते हैं, धर्म को मानने वाले, और उनमें मरने वालों में हम नास्तिक भी होते हैं, मान लीजिए हिन्दुओं ने मुसलमानों को मारा, और मुसलमानों ने हिन्दुओं को मारा, पर इनमें से किसी ने भी नास्तिकों को क्यों मारा, वो ना तुम्हारे ईश्वर को मानते हैं ना तुम्हारे अल्लाह को, उन्हे क्यों अपनी झगड़े में लपेटा। 
जब भी घर-परिवार में, समाज में कोई धार्मिक मामला हो तो नास्तिकों से ये उम्मीद की जाती है कि वे दूसरों की धार्मिक भावनाओं का सम्मान करेंगे, चाहे वो किसी भी धर्म के हों, किसी ने आज तक ये ना सोचा कि नास्तिकों की धार्मिक भावनाओं को सम्मान क्यों नहीं होना चाहिए। अब मान लीजिए आप धार्मिक हैं, तो जाहिर है आप अपने ईश्वर या उसके किसी प्रचारक, धर्मगुरु आदि को मानते हैं और उसकी चर्चा करते हैं, उसका प्रचार करते हैं, ये आपका अधिकार है ऐसा आप मानते हैं, तो हम नास्तिकों को ये अधिकार है कि हम ईश्वर नहीं है का प्रचार करें। अब क्योंकि हम मानते हैं कि ईश्वर नहीं है इसलिए जो भी ईश्वर के नाम पर हो रहा है वो झूठ है हम ये मानते हैं। और जो झूठ कह रहा है, कर रहा है, वो झूठा है। ये तो सभी मानेंगे। तो किसी धर्मगुरु को, प्रचारक को झूठा कहने का अधिकार हमें क्यों नहीं है। जब आप अपने धर्म का प्रचार करते हैं तो हमसे क्यों उम्मीद की जाती है कि हम अपने विश्वासों का, कि ईश्वर नहीं है और उसके नाम पर जो कारोबार चल रहा है वो दुनिया की सबसे बड़ी ठगी है उसका प्रचार ना करें। हम तो करेंगे। घर पर कोई त्यौहार हो तो घर वालों को आग्रह, ”मत मानो, टीका तो लगवा लो, या फिरनी तो खा लो” और फिर रिश्तेदारों के ताने, कि, ”नहीं मानना तो मत मानो पर उनका दिल रखने के लिए इतना तो कर लो”, क्यों कर लें, हमारा दिल रखने के लिए तुमने तो कोई पाखंड ना छोड़ा, ये सुसरा दिल रखने का सारा ठेका हम नास्तिकों के पास ही क्यों है। 
आपके पास आस्था है हमारे पास तर्क है। आपके पास ईश्वर द्वारा बचा लिए जाने की उम्मीद है, हमारे पास अपने कामों पर विश्वास है। आपके पास अजीबो-गरीब हरकतें हैं, हमारे पास सहज प्रवृति है। आप डरते हैं, हम नहीं डरते। कई ऐसे दोस्त भी हैं, जो प्रगतिशीलता की ओट में ईश्वर को मानने से मना करते हैं, लेकिन वो मानते हैं कि कोई ”शक्ति” जरूर है। अरे बेवकूफों, वही ”शक्ति” ”ईश्वर” है। जो हो रहा है वो किसी ”डिवाइन प्लान” के हिसाब से नहीं हो रहा, जो हो रहा है वो तुम कर रहे हो, तुम्हारे उपर, अंदर, पीछे कहीं कोई शक्ति या ताकत नहीं है, तुम्ही हो, वरना इस देश में चोर-उच्चके और बदमाश, गुंडे और हत्यारे, उच्च पदों पर नहीं बैठे होते, अगर ईश्वर को बुराई से कोई ऐतराज होता तो मंदिरों पर चढ़ने वाले सोने, मस्जिदों पर चढ़ने वाली चादरें, सब आसमानी ताकतों से उड़ गई होतीं, कैसा भगवान है तुम्हारा कि जिसके अलम्बरदार डाकू और बटमार हैं, बलात्कारी हैं, चोर हैं और वो कुछ नहीं कर पा रहा, अपने उपर से चढ़ावा तक नहीं उतार पा रहा। 
पी के कोई ऐसी फिल्म नहीं है जिस पर कोई तर्क किया जाए, विरोध में भी और पक्ष में भी। अंततः पी के इसी बात का भरोसा दिलाती फिल्म है कि, धर्म गुरुओं के पास मत जाओ, ईश्वर तो तुम्हारे अंदर ही है, वही तुम्हे सही रास्ता बताएगा। पी के में इतना साहस नहीं है, हालांकि वो हमारे ग्रह का नहीं है, हमारे देश का भी नहीं है, कि वो ये कह सके कि ईश्वर नहीं है। जिसमें साहस होगा वो कहेगा कि ईश्वर नहीं है, वरना कहते हुए उंगलियां बांध कर मन ही मन भगवान से माफी मांगने वाले बहुत होते हैं। भगत सिंह ने कहा था, उनमें साहस था। मैं कह रहा हूं कि ईश्वर नहीं है, नहीं होता, नहीं हो सकता। धर्म इंसान को नफरत करना सिखाता है, नास्तिकता इंसान को प्रेम सिखाती है, धर्म इंसान को इंसानियत से परे ले जाता है, नास्तिकता इंसान को इंसानियत से रू ब रू करवाती है। अच्छा इंसान होने के लिए धर्म की जरूरत नहीं है, आप बिना ईश्वर के, ईश्वरीय कोप के डर के भी अच्छे इंसान हो सकते हैं। धर्म के झूठ पर, पाखंड पर, दुकानदारी पर बात करने के लिए बहस करने के लिए पी के जैसी दोयम दर्जे की, अधकचरी फिल्मों की जरूरत नहीं है, अपने सहज विश्वासों पर ध्यान करके भी यही काम किया जा सकता है। बाकी आप समझदार हैं ही। 

सोमवार, 5 जनवरी 2015

भूमि यज्ञ



भूमि अधिग्रहण अध्यादेश

तंग आ गया मैं आलोचनाएं सुनते-सुनते......और कुछ नहीं मिला तो भूमि अधिग्रहण पर सवाल उठा दिया। शर्म आनी चाहिए तुम बेशर्मो को, जमीन क्या तुम्हारे बाप की है। जमीन सदा की राजा की रही है, राजा को ये जमीन, शास्त्र सम्मत शब्दों में भूमि, स्वयं ईश्वर ने दी है, अब इतने हजार साल बाद जब इस पुण्य पावन भूमि पर ईश्वर की छाया आई सी लगती है तो तुम अपनी पापमय वाणी से किसान-मजूर-इंसान की बात करते हो। लज्जा नहीं आती तुम्हे अपने आप पर....अरे मूर्खों, जनता देश के लिए होती है, देश जनता के लिए नहीं होता, जनता राजा की होती है, राजा जनता के लिए नहीं होता, जमीन राजा की होती है, और राजा को ये ताकत मिलनी ही चाहिए कि वो जब चाहे, जिसे चाहे जमीन दे दे, फिर चाहे वो अडानी हो या अंबानी हो। अगर राजा ”खुश होने पर” अपने गले से मोतियों की माला उतार कर ना दे सके, और ”गुस्सा होने पर” किसी की गर्दन ना उतार सके तो वो काहे का राजा हुआ। ये अध्यादेश जो आया है इसीलिए आया है ताकि पुनः इस पुण्य पावन धरा पर वही राज लाया जा सके जिसमें राजा हो, राज हो। बहुत हुआ तुम्हारा घटिया और दकियानूसी लोकतंत्र, तुमने निम्न वर्णीय व्यक्तियों को अधिकार दिए, छिः, तुमने विधर्मियों को समान अधिकार प्राप्त नागरिक बनाने के नारे लगाए, छिः छिः, और तो और तुम महिलाओं के अधिकारों की बातें करते हो, छिः छिः छिः, ये सब कलयुग है, हम कलयुग नहीं आने देंगे। 
अंग्रेजों ने जब 1893 में इस देश में भूमि अधिग्रहण कानून लागू किया था तो तुम कौन होते हो उस कानून को बदलने की मांग करने वाले। वो देव थे, हमारे कुलगुरुओं ने हमें स्पष्ट निर्देश दिए थे कि हमें अंग्रेजों का समर्थन करना है और विधर्मियों का नाश करना है। उस स्वर्णिम अंग्रेजी राज में जो भी कायदे-कानून बनाए गए थे वही लागू होंगे, और तुम देखते रहो, लोकतंत्र की ऐसी की तैसी, ये तो फिर भी हम अध्यादेश ला कर कानून बदल रहे हैं, ज्यादा चूं-चपड़ करोगे तो हम बिना कुछ कहे संविधान को ही बदल डालेंगे, फिर करते रहना अपनी बक-बक....हां नहीं तो! 
एक बात कहें.....ये कहिए तो, देश के विकास के लिए किसी का जमीन चाहिए होगा तो काहे ना देंगे भाई....कंसेंट.....कंसेंट क्यों मांगा जाएगा, देश के लिए भूमि क्या, अगर किसी की जान चाहिए तो वो भी दे देनी होगी, उसके लिए कंसेंट मांगेगे क्या। इस अध्यादेश में आखिर रक्षण और भक्षण के लिए ही तो कंसेंट ना मांगने की बात की जा रही है, तो इसमें इतना वबाल काहे मचा रहे हैं भाई, और काहे का सामाजिक प्रभाव का मूल्यांकन, अगर देश विकास करेगा तो समाज विकास करेगा ही करेगा, और भविष्य के लिए आज का बलिदान तो करना ही पड़ेगा। सुरक्षा, रक्षा, ग्रामीण ढांचागत विकास, औद्योगिक कॉरीडोर, और सामाजिक ढांचागत क्षेत्र के अलावा जो भी कारण हो उसके लिए मान लीजिए होगा जो भी आप चाहते हैं, माने जांच, और पीपल कंसेंट-फंसेंट और जो भी है। बाकी इन क्षेत्रों के लिए कंसेंट नहीं चाहिए। असल में तो इसकी जरूरत भी होनी नहीं चाहिए थी। लेकिन अब से पहले की विधर्मियों की सरकार ने इस देश की राजशाही परंपरा का अपमान करते हुए जनता को ये अधिकार दे दिया था, हमने तब ही फैसला कर लिया था कि इसे तो हम पलट कर ही मानेंगे। 
ज़रा सोचिए, अच्छा लगता है कि मोदी जी की कोई महत्वाकांक्षी परियोजना, जो अपने परम मित्रों के साथ मिल कर सोचे हों, जनता की स्वीकृति के अभाव में लटक जाए। फिर राजा कैसा, राज कैसा, अब होगा ये कि अडानी को कोई जमीन चाहिए होगी तो वो सीधे पी एम यानी अपने परम मित्र को फोन लगाएंगे, मोदी उस जमीन को किसी पी पी पी प्रोजेक्ट के लिए अधिगृहीत करेंगे और बस......काम तमाम। और जनता का क्या काम है, कि वो अपने राजा के काम आए, बहुत हुआ देशद्रोह अब ना सहेंगे। 
इसके अलावा पिछले जो संशोधन किया गया था भूमि अधिग्रहण कानून में वो था कि अगर एक निश्चित समय तक सरकार अधिगृहीत भूमि का उपयोग नहीं करती तो उस भूमि पर वापस कंपनसेशन दिया जाएगा, अब बताओ, ये कोई बात होती है, सरकार की मर्जी, कर ली भूमि अधिग्रहीत, चाहे तो अब बनाए चाहे 20 साल बाद, तुम कौन होते हो बे जवाब मांगने वाले.....? आये बड़े फन्ने खां।
देखो भाई, तर्क तुम बहुत करते हो, कर सकते हो, लेकिन यहां मामला तर्क का नहीं है, आस्था का है। तुम्हे दो लोगों पर आस्था रखनी चाहिए, ईश्वर और मोदी, यकीन रखो, इस जन्म में तुम्हे अपनी आस्था का चाहे कोई फल मिले या ना मिले, मर कर तुम्हे स्वर्ग मिलेगा, और मरना तुम्हे हर हाल में है, हम ऐसी स्थितियां बना रहे हैं, निश्चिंत रहो।  

महामानव-डोलांड और पुतिन का तेल

 तो भाई दुनिया में बहुत कुछ हो रहा है, लेकिन इन जलकुकड़े, प्रगतिशीलों को महामानव के सिवा और कुछ नहीं दिखाई देता। मुझे तो लगता है कि इसी प्रे...