सोमवार, 5 जनवरी 2015

भूमि यज्ञ



भूमि अधिग्रहण अध्यादेश

तंग आ गया मैं आलोचनाएं सुनते-सुनते......और कुछ नहीं मिला तो भूमि अधिग्रहण पर सवाल उठा दिया। शर्म आनी चाहिए तुम बेशर्मो को, जमीन क्या तुम्हारे बाप की है। जमीन सदा की राजा की रही है, राजा को ये जमीन, शास्त्र सम्मत शब्दों में भूमि, स्वयं ईश्वर ने दी है, अब इतने हजार साल बाद जब इस पुण्य पावन भूमि पर ईश्वर की छाया आई सी लगती है तो तुम अपनी पापमय वाणी से किसान-मजूर-इंसान की बात करते हो। लज्जा नहीं आती तुम्हे अपने आप पर....अरे मूर्खों, जनता देश के लिए होती है, देश जनता के लिए नहीं होता, जनता राजा की होती है, राजा जनता के लिए नहीं होता, जमीन राजा की होती है, और राजा को ये ताकत मिलनी ही चाहिए कि वो जब चाहे, जिसे चाहे जमीन दे दे, फिर चाहे वो अडानी हो या अंबानी हो। अगर राजा ”खुश होने पर” अपने गले से मोतियों की माला उतार कर ना दे सके, और ”गुस्सा होने पर” किसी की गर्दन ना उतार सके तो वो काहे का राजा हुआ। ये अध्यादेश जो आया है इसीलिए आया है ताकि पुनः इस पुण्य पावन धरा पर वही राज लाया जा सके जिसमें राजा हो, राज हो। बहुत हुआ तुम्हारा घटिया और दकियानूसी लोकतंत्र, तुमने निम्न वर्णीय व्यक्तियों को अधिकार दिए, छिः, तुमने विधर्मियों को समान अधिकार प्राप्त नागरिक बनाने के नारे लगाए, छिः छिः, और तो और तुम महिलाओं के अधिकारों की बातें करते हो, छिः छिः छिः, ये सब कलयुग है, हम कलयुग नहीं आने देंगे। 
अंग्रेजों ने जब 1893 में इस देश में भूमि अधिग्रहण कानून लागू किया था तो तुम कौन होते हो उस कानून को बदलने की मांग करने वाले। वो देव थे, हमारे कुलगुरुओं ने हमें स्पष्ट निर्देश दिए थे कि हमें अंग्रेजों का समर्थन करना है और विधर्मियों का नाश करना है। उस स्वर्णिम अंग्रेजी राज में जो भी कायदे-कानून बनाए गए थे वही लागू होंगे, और तुम देखते रहो, लोकतंत्र की ऐसी की तैसी, ये तो फिर भी हम अध्यादेश ला कर कानून बदल रहे हैं, ज्यादा चूं-चपड़ करोगे तो हम बिना कुछ कहे संविधान को ही बदल डालेंगे, फिर करते रहना अपनी बक-बक....हां नहीं तो! 
एक बात कहें.....ये कहिए तो, देश के विकास के लिए किसी का जमीन चाहिए होगा तो काहे ना देंगे भाई....कंसेंट.....कंसेंट क्यों मांगा जाएगा, देश के लिए भूमि क्या, अगर किसी की जान चाहिए तो वो भी दे देनी होगी, उसके लिए कंसेंट मांगेगे क्या। इस अध्यादेश में आखिर रक्षण और भक्षण के लिए ही तो कंसेंट ना मांगने की बात की जा रही है, तो इसमें इतना वबाल काहे मचा रहे हैं भाई, और काहे का सामाजिक प्रभाव का मूल्यांकन, अगर देश विकास करेगा तो समाज विकास करेगा ही करेगा, और भविष्य के लिए आज का बलिदान तो करना ही पड़ेगा। सुरक्षा, रक्षा, ग्रामीण ढांचागत विकास, औद्योगिक कॉरीडोर, और सामाजिक ढांचागत क्षेत्र के अलावा जो भी कारण हो उसके लिए मान लीजिए होगा जो भी आप चाहते हैं, माने जांच, और पीपल कंसेंट-फंसेंट और जो भी है। बाकी इन क्षेत्रों के लिए कंसेंट नहीं चाहिए। असल में तो इसकी जरूरत भी होनी नहीं चाहिए थी। लेकिन अब से पहले की विधर्मियों की सरकार ने इस देश की राजशाही परंपरा का अपमान करते हुए जनता को ये अधिकार दे दिया था, हमने तब ही फैसला कर लिया था कि इसे तो हम पलट कर ही मानेंगे। 
ज़रा सोचिए, अच्छा लगता है कि मोदी जी की कोई महत्वाकांक्षी परियोजना, जो अपने परम मित्रों के साथ मिल कर सोचे हों, जनता की स्वीकृति के अभाव में लटक जाए। फिर राजा कैसा, राज कैसा, अब होगा ये कि अडानी को कोई जमीन चाहिए होगी तो वो सीधे पी एम यानी अपने परम मित्र को फोन लगाएंगे, मोदी उस जमीन को किसी पी पी पी प्रोजेक्ट के लिए अधिगृहीत करेंगे और बस......काम तमाम। और जनता का क्या काम है, कि वो अपने राजा के काम आए, बहुत हुआ देशद्रोह अब ना सहेंगे। 
इसके अलावा पिछले जो संशोधन किया गया था भूमि अधिग्रहण कानून में वो था कि अगर एक निश्चित समय तक सरकार अधिगृहीत भूमि का उपयोग नहीं करती तो उस भूमि पर वापस कंपनसेशन दिया जाएगा, अब बताओ, ये कोई बात होती है, सरकार की मर्जी, कर ली भूमि अधिग्रहीत, चाहे तो अब बनाए चाहे 20 साल बाद, तुम कौन होते हो बे जवाब मांगने वाले.....? आये बड़े फन्ने खां।
देखो भाई, तर्क तुम बहुत करते हो, कर सकते हो, लेकिन यहां मामला तर्क का नहीं है, आस्था का है। तुम्हे दो लोगों पर आस्था रखनी चाहिए, ईश्वर और मोदी, यकीन रखो, इस जन्म में तुम्हे अपनी आस्था का चाहे कोई फल मिले या ना मिले, मर कर तुम्हे स्वर्ग मिलेगा, और मरना तुम्हे हर हाल में है, हम ऐसी स्थितियां बना रहे हैं, निश्चिंत रहो।  

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