शुक्रवार, 16 जनवरी 2015

हमें तो पहले से पता था



वो कुछ भी कहते रहें, हम तो यही कहेंगे कि हमें तो पहले से पता था। हालांकि ये भाजपा का मास्टरस्ट्रोक है, या कम से कम मास्टरस्ट्रोक जैसा तो है ही। हम तो यही कहेंगे कि हमें पहले से पता था। हो सकता है आपको मुगालता रहा हो, कोई संदेह रहा हो, हमें कभी कोई संदेह नहीं था। अन्ना हजारे का आंदोलन जितने भी दिन चला हो, उसमें जितने भी लोगों ने हिस्सेदारी की हो, इससे कोई इन्कार नहीं कर सकता कि उसे भगवा रंग से रंगने की कोशिशे हुई, और लगातार होती रहीं। हमें याद है कि रामलीला मैदान में हमें गाना गाने के लिए मंच पर बुलाया गया, अब हमारे गानों में तो सीधे वार होते हैं, हमारा गाना था, भ्रष्टाचार की जय-जय बोलो, जिसमें राहुल गांधी, मोदी, अमित शाह, अंबानी, बिरला, टाटा सबका नाम शामिल था। तो जब हम चढ़ रहे थे उस मंच की सीढ़ियां जहां अन्ना अपने अनशन पर बैठे थे और सामने थी सैंकड़ों जनता, तो मनीष सिसोदिया जो उस वक्त मंच संभाल रहे थे, हमारे कान में बोले, ”देखिए, सीधे-सीधे किसी का नाम ना लीजिएगा” हम ठहरे हम, हमने सुना, और उपर चढ़ कर सीधे नामों वाला अपना ये मशहूर गाना गा दिया ठहरा। हमने इसके अलावा जो गाना गया वो था, ”कोई मैं झूठ बोलया” और उसमें भी सीधे-सीधे सभी का नाम आता है, इस गाने को हमने इससे पहले अन्ना के ही राजघाट वाले कार्यक्रम में गाया था, गाना गाने के बाद जब हम वापस जा रहे थे, तो एक पुलिसवाले ने हमे रोककर कहा था, ”कमाल का गाना गाया यार, लगा वर्दी उतार के मैं भी शामिल हो जाउं” ये गाने की ताकत थी या उन सीधे प्रहारों का असर था मैं नहीं कह सकता, लेकिन उस पूरे अंदोलन में जहां भी हमने भारत माता की जय के नारे लगते थे, हमने तभी कह दिया था कि अंत-पंत इस आंदोलन के खंभे भाजपा में जाकर विलीन होंगे, खुद पार्टी की नियती के बारे में हम बार-बार कह ही चुके हैं कि इस पार्टी में, भाजपा या कांग्रेस में नीति या मुद्दों का कोई फर्क नहीं है। अगर किसी को कांग्रेस साम्प्रदायिक नहीं लगती, या आ आ पा मजदूरों का पक्ष लेने वाली लगती है, या भाजपा विकास करने वाली पार्टी लगती है, तो दोष उनकी समझदारी का है। लेकिन हमें तो पहले से पता था। 
हमें तो तब आश्चर्य ना हो जब अन्ना भाजपा में शमिल हो जाएं, किरण बेदी तो खैर उनकी सिपहसालार ही थीं। जब अरविंद केजरीवाल ने दिल्ली में आ आ पा बनाई थी और उसका प्रचार किया था, हमने तब ही कहा था कि इस पार्टी में और किसी दूसरी, दर्जन में तेरह के भाव मिलने वाली किसी और पार्टी में कोई फर्क नहीं है। सिवाय इसके कि इसके नारे ज्यादा लुभावने हैं, इसकी नीतियां वही हैं, इसके काम वैसे ही हैं, इसके साथी वही हैं, जो इस समाज की असमानताओं में अपना विश्वास तलाशते हैं, हमने कहा था, और अब भी कह रहे हैं कि, भारतीय लोकतंत्र में बहुमत का मतलब ये नहीं होता कि वो पार्टी, या उसकी विचारधारा ज्यादा लोकप्रिय है। आप लोगों को अब समझ में आ रहा है कि भाजपा का विकास का नारा झूठा है, हमे तो पहले से ही पता था। आप लोगों को अब समझ में आ रहा है कि मोदी किसी विदेश से कोई काला धन नहीं लाने वाला, हमे तो पहले से पता था, आपको अब समझ मंे आ रहा है कि इस वर्तमान सत्तारूढ़ पार्टी झूठ की सीढ़ियां चढ़ कर सत्ता तक पहुंची है, हमें तो पहले से ही पता था। आपको आज पता चला है कि किरण बेदी भाजपा में शामिल हुई हैं, हमें तो पहले से ही पता था। 
अब आप कहेंगे कैसे पता था, भारत को यहां रहने वाले सभी का देश ना मान कर उसे अपनी मां, बहन बेटी बनाने वाले, आखिरकार किस तरह आम आदमी के रहनुमा बन सकते हैं, ज़रा सोचिए। और इसके साथ ये भी ध्यान रख लीजिए, कि यहां मामला हिंदु-मुसलमान या किसी और धर्म का है ही नहीं, मामला किसी तरह जनता को धर्म के मामले में उलझाकर रखने और खुद मुनाफा कमाने का है। चलिए ज़रा यही सोचते हैं कि किरण बेदी ने आखिर ऐसा क्या किया है जो उन्हे दिल्ली के मुख्यमंत्री जैसी जिम्मेदार कुर्सी के लिए काबिल समझा जाए। क्या वो ईमानदार हैं? खुद उनकी वर्तमान पार्टी यानी भाजपा ने किसी जमाने में उन पर बेइमानी के इल्जाम लगाए हैं, किसी और पार्टी ने उनके खिलाफ सबूत भी दिए थे। क्या वो अच्छी प्रशासन दे सकती हैं? वो जिस पार्टी के रास्ते गई हैं, वो सिवाय झूठ और लूट के कुछ नहीं दे सकतीं, वो क्या अच्छा प्रशासन देंगी। याद रखिए कि उन्होने अपने पुलिस के वक्त में पूरी दिल्ली के ट्रक वालों की हाई-बीम यानी हेडलाइट को आधा काला करवा दिया था, लेकिन साथ ही ये भी याद रखिए कि उनका ये कदम आखिरकार सिर्फ ट्रक वालों के लिए था, मंहगी विदेशी कारों पर उन्होने ऐसा कोई प्रतिबंध या आदेश नहीं लागू किया था। उनके जेल सुधारों के बारे में भी बहुत कुछ पढ़ने में आता है, और अभी तो वे चुनाव लड़ेंगी तो बहुत कुछ पढ़ने में आएगा, लेकिन साथ ही ये भी याद रखिएगा कि जेल प्रशासन संभालते हुए उन्होने कभी भी, अंडर ट्रायल कैदियों का मुद्दा नहीं उठाया, उन्होने कैदियों को विपश्यना सिखाने पर जोर भले दिया हो, लेकिन जेल में रहने वालों के साथ पुलिस के व्यवहार पर उन्होने कोई काम नहीं किया था। इसके बाद उन्होने घरेलू मामलों पर सामाजिक काम करना शुरु किया, कई अखबारों, टीवी और रेडियों में उनके कार्यक्रम आए, लेकिन जब भी महिला अधिकारों को लेकर कोई सार्थक आंदोलन चला तो वो हमेशा गायब रहीं, अब ये चाहे 16 दिसंबर वाला मामला हो या उसके बाद कोई और आंदोलन हो। पर हमे तो पहले से ही पता था।
तो कुछ मिलाकर हम क्या कहना चाहते हैं? हम किरण बेदी के खिलाफ कोई मोर्चा नहीं खोल रहे हैं, वो हमें उतनी ही नापंसद हैं जितने मोदी, या मनमोहन सिंह, ना उससे कम, ना उससे ज्यादा, हम सिर्फ आपको ये बता रहे हैं, कि ये भाजपा की वही नीति है जिसके तहत स्मृति ईरानी को शिक्षा मंत्री बनाया गया है। वास्तव में अगर आप किसी ऐसे इंसान को मंत्री बना दो, जिसके पास या तो दिमाग ना हो, या उम्र भर यस सर कहने की आदत रही हो, तो आप काफी झंझटों से बच जाते हो। काम आपका, नाम उनका, वो अपनी तरफ से कुछ करते ही नहीं हैं, आपकी मुसीबत कम होती है, और आसानी से सब काम होते जाते हैं। मोदी ने आते ही सबसे पहले इसका ख्याल रखा है, आडवाणी बाहर, जोशी बाहर, स्मृति ईरानी अंदर, और अब किरण बेदी। अब आप इस बात को जाने या ना जाने, हमें तो पहले से ही पता था। 
अब यहां ये तो समझ में आता है कि भाजपा को इससे क्या फायदा हुआ। अरे भई सीधी सी बात है, आ आ पा ने सतीश उपाध्याय के खिलाफ आरोप लगाए और फिर उसके दस्तावेज़ भी दिखा दिए, अब बात सतीश उपाध्याय की है, उन्हे अपने कथनानुसार अरविंद केजरीवाल पर झूठे आरोप लगाने और मानहानी का दावा कर देना चाहिए, लेकिन जो भी हो, सतीश उपाध्याय इक्वेशन से बाहर, तो भाजपा के पास बचा कौन, जो अरविंद केजरीवाल के सामने खड़ा हो सकता, ये मुश्किल हल हुई किरण बेदी से, अन्ना आंदोलन में शामिल भी थीं, और गला भर-भर के भारत माता की जय के नारे भी लगा रहीं थी, वैसे भी अपने कर्मों में, अपनी सोच में, और अपने विचारों में वो भाजपा के ज्यादा करीब हैं। हो सकता है कि आप इस बात को ना समझते हों, लेकिन यकीन मानिए हमें पहले से पता था। लेकिन यहां ये भी सोचना ज़रूरी है कि आखिर किरण बेदी को इससे क्या फायदा है, अरे भई उनके लिए तो ये स्वर्णिम अवसर है, जहां उन्हे कोई सीट तक नहीं मिल रही थी, वहां भाजपा उन्हे अपने स्टार उम्मीदवार की तरह कैश करेगी और जीत गई तो मुख्यमंत्री की कुर्सी है ही। वैसे ”हतोत्वा प्राप्यसी स्वर्गम, जीत्वा वा मोक्ष से मही” वाला भी कोई सौदा हुआ हो सकता है। सौदा भले हमें ना पता हो, लेकिन बाकी हमें पहले से पता था। 
रही बात शाजिया इल्मी की, तो वो लगातार अप्रासंगिक होती जा रही थीं, आ आ पा से निकली तो कांग्रेस में जा सकती थीं, लेकिन कांग्रेस के कोई चांस नहीं हैं, फिर उनके रिश्तेदार हैं आसिफ भाई, जो ओखला से एम एल ए हैं, कभी सपा, कभी बसपा और कभी कांग्रेस, यानी जिसने कुर्सी दी उसकी की कनात में बैठे वाला मामला है। तो बहुत संभव है उनसे बातचीत हुई हो, और उन्होने राजनीति के इस पुरातन गुर में इल्मी को दीक्षित किया हो, और आखिरकार इल्मी भी भाजपा में शामिल हो गई। अब आप यकीन माने या ना मानें, जब किरण बेदी और इल्मी को भी नहीं पता था कि वो आ आ पा छोड़ेंगी और भाजपा में शामिल होंगी, हमें इससे पहले ही ये पता था। हा हा हा। 

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

महामानव-डोलांड और पुतिन का तेल

 तो भाई दुनिया में बहुत कुछ हो रहा है, लेकिन इन जलकुकड़े, प्रगतिशीलों को महामानव के सिवा और कुछ नहीं दिखाई देता। मुझे तो लगता है कि इसी प्रे...