शुक्रवार, 16 जनवरी 2015

अज्ञान - विज्ञान



इस बार की विज्ञान कांग्रेस में अज्ञान का काफी प्रसार हुआ, कुछ लोग बहुत खुश हैं। विज्ञान हो या अज्ञान हो, सवाल ये है कि ज्ञान का प्रसार हुआ है। ये दौर जिसमें हम रह रहे हैं, बहुत ही खतरनाक दौर है, इसमें वो सब हो रहा है जो नहीं होना चाहिए। पुर्नजागरण के बाद के दौर का असामयिक देहावसान सा हो गया लगता है। कोई तर्कणा, और बुद्धि की बात सुनना-करना नहीं चाहता, ज्यादातर स्वपनलोक की स्वर्णिम कथाओं में विश्वास कर रहे हैं। कोई मुक्तिदाता है, जो उद्धार का विश्वास दिला रहा है, कोई योग से कैंसर ठीक करने का दावा कर रहा है, और कोई कह रहा है कि जब प्राचीन ऋषि-मुनि गण अपना शरीर छोड़ कर लोक-परलोक की सैर कर सकते थे तो हम क्यों नहीं कर सकते। 
विज्ञान फिर से पीछे ढकेल दिया गया है, और अज्ञान और मूढ़ता के सिर पर कामयाबी का ताज बांधा जा रहा है। वैज्ञानिक अपनी वैज्ञानिकता छोड़ कर निराधार बकवास को विश्वसनीय सिद्धांत मानने की बात कर रहे हैं और राजनयिक ऑफिस के चूल्हे पर धर्म और जाति की रोटियां सेंक रहे हैं। कहा जा रहा है कि पुराने यानी प्राचीन भारत में, लगभग 6000 साल पहले, परमाणु बम, अदृश्य विमान, कार, टीवी, कम्प्यूटर और ना जाने क्या-क्या ऐसा था जैसा कि आज कल्पना तक नहीं की जा सकती। बेवकूफ बाबाओं की इनर इंजिनियरिंग और आर्ट और लिविंग को छोड़ दीजिए, जीवन भर विज्ञान की अनगिनत शाखाओं में काम करने वाले वैज्ञानिक भी इसी जीवट में लग गए हैं कि किसी तरह प्राचीन विज्ञान को असली विज्ञान साबित किया जाए।
यकीन मानिए इस अज्ञान कांग्रेस में जो भी हुआ, उससे मुझे बहुत कम आश्चर्य हुआ। विमान, और प्लास्टिक सर्जरी तो कम है, मुझे तब भी आश्चर्य नहीं होता अगर वहां 6000 साल पहले गैलेक्सी में दूसरे ग्रहों पर जाने की बात का भी जिक्र होता। फिर जो इंसान आपके भूगोल और इतिहास की ऐसी-तैसी फेर चुका हो, उससे आप यही उम्मीद करेंगे कि अब वो विज्ञान, गणित, साहित्य जैसे विषयों की भी ऐसी-तैसी करेगा। शेक्सपीयर असल में हिंदु था, ना हो तो मधोक जी साबित कर देंगे, टी वी तो महाभारत में पहले से ही वर्णित है, वे ये साबित कर सकते हैं कि हमारे ऋषि मुनियों के पास गैलेक्टिक वाहन थे, जिससे वे दूसरे ग्रहों के प्राणियों को साथ चर्चा करते थे, और वे गैलेक्टिक यान चलते थे उनकी आध्यात्मिक उर्जा से....समझे कुछ। 
आघ्यात्म जीवन का एक नज़रिया हो सकता है, जब कर्म प्रमुख हो तो आघ्यात्म और ईश्वरीय प्रेरणा गौण हो जाती है, लेकिन जैसे ही वैज्ञानिक तर्कणा को गौण करके ईश्वरीय प्रेरणा और आध्यात्म को चराचर का आधार मान लिया जाता है, तो इसी तरह के खोखले दावों को वैज्ञानिक सोच का आधार बनाने की जिद की जाती है। पुर्नजागरण ने धर्म को दुनिया चलाने, दुनिया का इतिहास, वर्तमान और भविष्य तय करने से रोका, और आघ्यात्म की बजाय, तर्कणा, वैज्ञानिक सोच और कर्म में अपना विश्वास जताया। इसी वैज्ञानिक सोच और सिद्धांत का फल ये रहा कि 5000 साल के अंधे युग के बाद, एक ऐसा काल आया जब मानव अपने श्रम पर विश्वास करने लगा, जब विचारों की स्वतंत्रता का विचार सामने आया, जब जीवन को एक नए नज़रिए से देखने का विचार सामने आया। 
ईश्वरीय शक्ति में विश्वास ने दुनिया को क्या दिया, आपको क्या दिया। पश्चिम में हों या पूरब में, निर्बल, असहाय लोगों को जिंदा जलाने से लेकर, भ्रूण हत्या तक वो कौन सा अपराध है, जो धर्म ने नहीं किया। क्या ऐसा निकृष्ट काम है जो धर्म के नाम पर, पूरी दुनिया में नहीं किया गया। जबकि पुर्नजागरण के बाद से ही ऐसे प्रयास किए गए कि इंसान को तर्क की शक्ति दी जाए, नए विचारों को जगह दी जाए, किसी तरह सभी को कम से कम इंसान की तरह रहने की सहूलियतें दी जाएं। ये सही हैं कि हम इसमें अब तक सफल नहीं हुए हैं, ये भी सही है कि हमारी कोशिशों को लगातार धक्का लगता रहा है, लेकिन उस अंधे युग जैसा अंधेर तो कम से कम नहीं ही है। 
सत्ताधीशों की राजनीति इस देश को एक बार फिर उसी अंधेरे कुंए में ढकेलने की कोशिश कर रही है जब कुछ खास लोगों के हाथ में सत्ता की बागडोर होगी और वो वहशी जानवरों की तरह जिसे चाहे मारेंगे, और जिसे चाहे अपना दास बना लेंगे, जिसे चाहे राक्षस का नाम देकर जिंदा जला देंगे और जिसे चाहे अपने जूते तले रौंद देंगे। इन सभी कामों के लिए उन्हे किसी तार्किक आधार की जरूरत नहीं होगी, क्योंकि वो आस्था का खेल खेलते हैं, जब वे संस्कृत के चार श्लोक पढ़ कर आपको अनाश्व रथ और विमानों की स्वपनिल दुनिया में ले जाते हैं तो वो उसके तर्क की बात नहीं करते। वे आपकी आस्था को ललकारते हैं, वे आपके जातिय और धार्मिक गर्व को चुनौती देते हैं, वे आपकी धार्मिक पहचान से संबोधित होते हैं, छोटे में कहा जाए तो वे आपसे अपनी आस्था की नींव पर उनकी बातें मान लेने और उन पर विश्वास कर लेने को कह रहे होते हैं। 
जब से इस देश में राज बदला है कई लोग आस्थावान हो गए हैं, कई लोग धार्मिक हो गए हैं। जनता में कच्छेधारियों की तादाद बढ़ गई है। कुछ लोग ज्यादा बेकाबू हो गए हैं, तो कुछ लोग बंदरों की तरह उछल-उछल कर अपनी सारी अर्नगल बकवास की उल्टियां कर रहे हैं। यहां सवाल है कि आखिर ये इतने पढ़े-लिखे लोग, वैज्ञानिक कहलाने वाले लोग इस तरह की सोच का प्रचार क्यों कर रहे हैं। वैज्ञानिकों पर कोई इसलिए भरोसा नहीं करता कि उनकी सूरत अच्छी है या उनका नाम अच्छा है। कोई उनके किसी सिद्धांत या विचार पर तब तक भरोसा नहीं करता जब तक वे उसे तर्क से साबित नहीं कर देते। लेकिन राजनेताओं और धार्मिक बाबाओं की ऐसी कोई मजबूरी नहीं होती। उन्होने जो भी कहा, उसे वे जनता के सिरों पर आस्था के तौर पर लादते हैं, सवाल करने की मनाही करते हैं और इसी तरह उनका खेल चलता है। 
मुसीबत ये है कि वैज्ञानिकों के कैरियर और उनकी आय, उनके पद, उनके ऑफिस सबपर राजनेताओं का अधिकार होता है। इसलिए वो वैज्ञानिक या लोग जो तर्क की शक्ति पर भरोसा करते हैं, जहर पीने का मजबूर किए जाते हैं, या फिर उन्हे अपने वैज्ञानिक सिद्धांत को घुटनों के बल घिसटने और वापस लौटने को मजबूर किया जाता है। या फिर हमारी अवैज्ञानिक कांग्रेस में शामिल अवैज्ञानिकों जैसे भी होते हैं जो आंखे बंद करके, कानों में रूई डाल कर किसी राजनेता को भाषण सुनते हैं, उस पर तालियां बजाते हैं और किसी उंचे सरकारी ऑफिस में अपनी नौकरी पक्की होने का इंतजार करते हैं। 
अब जब तक बेवकूफों का राज है, ऐसी ही चीजों की, विचारों की अपेक्षा है, बाकि जनता समझदार है, नहीं है तो हो जाएगी, तब इन नकली साइंसदानों का क्या होगा, हो सकता है कि वो अपने अनाश्व रथों पर बैठ कर भाग जाएं, या फिर 6000 साल पहले वाले विमान पर बैठ कर उड़न छू हो जाएं....हमें तो बस इंतजार है।

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