पीके के बहाने.....
कुछ ही दिनों पहले फिल्म देखी, पूरी नहीं देखी, ऐसी कोई नहीं थी कि पूरी देखने का दिल करे, ना कॉमेडी थी, ना ढंग की ट्रेजेडी थी। पर कुछ तो मजा था, पहले तो यही सोच कर खुशी हुई कि चलिए अब एलियंस को, यानी किसी दूसरे ग्रह वासियों को भारत जैसे तीसरी दुनिया के देशों में भी उतरने, आने की चाह होने लगी है, वरना अब तक तो अमेरिका, इंग्लैंड ही उनके निशाने पर होते थे। तो मोदी के आने का एक फायदा तो यही समझ लीजिए कि पूरे ब्रह्मांड में ये खबर चली गई है कि भई अब पृथ्वी पर जाना हो तो भारत जैसी जगह भी जाया जा सकता है। ये कोई कम बड़ी उपलब्धि नहीं है, और सच कहें तो कम से कम पर्यटन मंत्रालय को अपनी 200 दिन की उपलब्धियों में इसे शामिल कर ही लेना चाहिए।
अब बात करें, धार्मिक अंधविश्वासों को ठेस पहुंचाने की, तो बाबू, धर्म का मामला आस्था को मामला है, आस्था, आंखे मूंद कर आती है, और जो चीज़ आंखे बंद करके आती हो, जैसे नींद, सपने, उसे ठेस पहंचाने पर गुस्सा तो आता ही है। तो कोई आश्चर्य नहीं कि भक्तों को पी के बुरी लगी हो, वैसे पी के में बुरा लगने वाला कुछ है नहीं, आधी पकाई खिचड़ी की तरह की फिल्मों को गले में मैडल की तरह लटकाना और दुश्मन की तरह लाठी से मारना दोनो ही खतरनाक है। फिल्म देख कर हो सकता है कुछ लोग प्रगतिशीलता की चद्दर ओढ़ कर मन ही मन भगवान से माफी मांगते हुए इस फिल्म का विरोध ना कर रहे हों, और जो लोग भगवान के कोप का डर देखते-दिखाते विरोध कर रहे हैं वो तो दिखाई दे ही रहे हैं। सबसे मुखर विरोध उन लोगों को है जिनकी दुकानो पर सवाल उठाया जा रहा है। अब ये तो समझ में आने वाली बात है, किसी की दुकानदारी पर उंगली उठाओगे तो वो तो तुम्हे गरियाएगा ही, इसमें कुछ बुरा भी नहीं है।
हालांकि पी के में ईश्वर के असतित्व पर सवाल नहीं उठाया है, सवाल क्या शंका तक नहीं जताई है, सिर्फ ईश्वर की पूजा के विभिन्न अजीबो-गरीब तरीकों का मजाक बनाया गया है। सच कहें तो और गौर से देखा जाए तो पी के ईश्वर के असतित्व को और पुख्ता सी करती लगती है। और यहीं मेरा विरोध पी के से और पी के का विरोध करने वालों से हो जाता है। मामला ये है कि मैं एक विशुद्ध नास्तिक इंसान हूं। अब अगर भारतीय संविधान के अनुसार धर्म की स्वतंत्रता है तो जाहिर है मुझे किसी भी धर्म को ना मानने की स्वतंत्रता होनी चाहिए। अब आता है मामला भावनाओं को ठेस पहुंचाने का, तो जनाब मेरी भावनाओं को तो हर रोज़ बिना नागा ठेस पहुंचती है।
हर गली में मंदिर, हर चौराहे पर मस्जिद, गुरुद्वारा और गिरजा, लोग गाए जा रहे हैं भजन, मना रहे है त्यौहार, और मेरी भावनाओं को ठेस पहंुच रही है। इस सरकार ने, या भावनाओं के ठेकेदारों ने कभी मेरी भावना की कदर ना की। यकीन मानिए जब कहीं किसी मंदिर की घंटी बजती है तो मेरी भावनाओं को ठेस पहुंचती है, जब कहीं किसी मस्जिद से मुअज्जिन अजान देता है तो मेरी भावनाओं को ठेस पहुंचती है। मेरी भावनाओं को ठेस पहंुचती है जब कांवड़ या ऐसी की किसी धार्मिक यात्रा का जुलूस निकलता है, जब मुहर्रम पर ताजिया होता है तो मेरी भावनाओं को ठेस पहुंचती है। इस सरकार और प्रशासन को क्या ये नहीं देखना चाहिए कि मेरी, यानी एक विशुद्ध नास्तिक की भावनाओं को ठेस ना पहुंचे या फिर इस सरकार के सारे प्रयास धार्मिक भावनाओं वाले लोगों के लिए ही हैं, और अगर ऐसा है तो क्या ये पक्षपात नहीं है। मैं सरकार पर आरोप लगाता हूं कि मेरे साथ धार्मिक पक्षपात हो रहा है, और ये असंवैधानिक काम ये सरकार कर रही है। आज तक मैने कोई सरकारी फार्म नहीं देखा जिसमे नास्तिक को कोई कॉलम हो, जनगणना के आंकड़ों में नास्तिकों को कोई जगह नहीं है। तीन साल पहले जब मेरे घर जनगणना वाले आए और मैने उनसे कहा कि मेरा कोई धर्म या जाति नहीं है, मुझे आप नास्तिक वाली श्रेणी में डालिए तो उनके पास ऐसी कोई श्रेणी नहीं थी। क्या ये मेरे साथ पक्षपात नहीं है, जब भारत की जनसंख्या के बारे में सरकारी आंकड़े दिखाए जाते हैं तो उसमें नास्तिकों को, धर्म को ना मानने वालों को कोई जगह क्यों नहीं मिलती। बेकार के मामलों पर अपनी राय देने वाला सर्वोच्च न्यायालय पिछले 67 सालों से इस विषय पर कुछ नहीं कह पाया।
इस देश में सारे त्यौहार धार्मिक उत्सवों के लिए ही होते हैं, सरकारी छुट्टी जिसे कहते हैं, बताइए कोई एक भी छुट्टी नास्तिकों के लिए की जा रही हो। ना नास्तिकों को कोई रियायत मिलती है, ना उन्हे कोई अतिरिक्त सुविधा मिलती है, ना उनके लिए कोई विशेष प्रावधान है। हम नास्तिक चुपचाप अपनी भावनाओं को दबाए रहते हैं। और मजेदार बात ये है कि धार्मिक दंगे करते हैं, धर्म को मानने वाले, और उनमें मरने वालों में हम नास्तिक भी होते हैं, मान लीजिए हिन्दुओं ने मुसलमानों को मारा, और मुसलमानों ने हिन्दुओं को मारा, पर इनमें से किसी ने भी नास्तिकों को क्यों मारा, वो ना तुम्हारे ईश्वर को मानते हैं ना तुम्हारे अल्लाह को, उन्हे क्यों अपनी झगड़े में लपेटा।
जब भी घर-परिवार में, समाज में कोई धार्मिक मामला हो तो नास्तिकों से ये उम्मीद की जाती है कि वे दूसरों की धार्मिक भावनाओं का सम्मान करेंगे, चाहे वो किसी भी धर्म के हों, किसी ने आज तक ये ना सोचा कि नास्तिकों की धार्मिक भावनाओं को सम्मान क्यों नहीं होना चाहिए। अब मान लीजिए आप धार्मिक हैं, तो जाहिर है आप अपने ईश्वर या उसके किसी प्रचारक, धर्मगुरु आदि को मानते हैं और उसकी चर्चा करते हैं, उसका प्रचार करते हैं, ये आपका अधिकार है ऐसा आप मानते हैं, तो हम नास्तिकों को ये अधिकार है कि हम ईश्वर नहीं है का प्रचार करें। अब क्योंकि हम मानते हैं कि ईश्वर नहीं है इसलिए जो भी ईश्वर के नाम पर हो रहा है वो झूठ है हम ये मानते हैं। और जो झूठ कह रहा है, कर रहा है, वो झूठा है। ये तो सभी मानेंगे। तो किसी धर्मगुरु को, प्रचारक को झूठा कहने का अधिकार हमें क्यों नहीं है। जब आप अपने धर्म का प्रचार करते हैं तो हमसे क्यों उम्मीद की जाती है कि हम अपने विश्वासों का, कि ईश्वर नहीं है और उसके नाम पर जो कारोबार चल रहा है वो दुनिया की सबसे बड़ी ठगी है उसका प्रचार ना करें। हम तो करेंगे। घर पर कोई त्यौहार हो तो घर वालों को आग्रह, ”मत मानो, टीका तो लगवा लो, या फिरनी तो खा लो” और फिर रिश्तेदारों के ताने, कि, ”नहीं मानना तो मत मानो पर उनका दिल रखने के लिए इतना तो कर लो”, क्यों कर लें, हमारा दिल रखने के लिए तुमने तो कोई पाखंड ना छोड़ा, ये सुसरा दिल रखने का सारा ठेका हम नास्तिकों के पास ही क्यों है।
आपके पास आस्था है हमारे पास तर्क है। आपके पास ईश्वर द्वारा बचा लिए जाने की उम्मीद है, हमारे पास अपने कामों पर विश्वास है। आपके पास अजीबो-गरीब हरकतें हैं, हमारे पास सहज प्रवृति है। आप डरते हैं, हम नहीं डरते। कई ऐसे दोस्त भी हैं, जो प्रगतिशीलता की ओट में ईश्वर को मानने से मना करते हैं, लेकिन वो मानते हैं कि कोई ”शक्ति” जरूर है। अरे बेवकूफों, वही ”शक्ति” ”ईश्वर” है। जो हो रहा है वो किसी ”डिवाइन प्लान” के हिसाब से नहीं हो रहा, जो हो रहा है वो तुम कर रहे हो, तुम्हारे उपर, अंदर, पीछे कहीं कोई शक्ति या ताकत नहीं है, तुम्ही हो, वरना इस देश में चोर-उच्चके और बदमाश, गुंडे और हत्यारे, उच्च पदों पर नहीं बैठे होते, अगर ईश्वर को बुराई से कोई ऐतराज होता तो मंदिरों पर चढ़ने वाले सोने, मस्जिदों पर चढ़ने वाली चादरें, सब आसमानी ताकतों से उड़ गई होतीं, कैसा भगवान है तुम्हारा कि जिसके अलम्बरदार डाकू और बटमार हैं, बलात्कारी हैं, चोर हैं और वो कुछ नहीं कर पा रहा, अपने उपर से चढ़ावा तक नहीं उतार पा रहा।
पी के कोई ऐसी फिल्म नहीं है जिस पर कोई तर्क किया जाए, विरोध में भी और पक्ष में भी। अंततः पी के इसी बात का भरोसा दिलाती फिल्म है कि, धर्म गुरुओं के पास मत जाओ, ईश्वर तो तुम्हारे अंदर ही है, वही तुम्हे सही रास्ता बताएगा। पी के में इतना साहस नहीं है, हालांकि वो हमारे ग्रह का नहीं है, हमारे देश का भी नहीं है, कि वो ये कह सके कि ईश्वर नहीं है। जिसमें साहस होगा वो कहेगा कि ईश्वर नहीं है, वरना कहते हुए उंगलियां बांध कर मन ही मन भगवान से माफी मांगने वाले बहुत होते हैं। भगत सिंह ने कहा था, उनमें साहस था। मैं कह रहा हूं कि ईश्वर नहीं है, नहीं होता, नहीं हो सकता। धर्म इंसान को नफरत करना सिखाता है, नास्तिकता इंसान को प्रेम सिखाती है, धर्म इंसान को इंसानियत से परे ले जाता है, नास्तिकता इंसान को इंसानियत से रू ब रू करवाती है। अच्छा इंसान होने के लिए धर्म की जरूरत नहीं है, आप बिना ईश्वर के, ईश्वरीय कोप के डर के भी अच्छे इंसान हो सकते हैं। धर्म के झूठ पर, पाखंड पर, दुकानदारी पर बात करने के लिए बहस करने के लिए पी के जैसी दोयम दर्जे की, अधकचरी फिल्मों की जरूरत नहीं है, अपने सहज विश्वासों पर ध्यान करके भी यही काम किया जा सकता है। बाकी आप समझदार हैं ही।

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