सोमवार, 23 फ़रवरी 2015

नागपुर का ठीकरा/बेदी का सिर



चित्र गूगल साभार

हिन्दी में एक कहावत है, जिसमें ठीकरा फूटता है, और किसी के सिर पर फूटता है। कहावत की आम यानी सामान्य विशेषताओं के अलावा इस कहावत की विशेषता ये है कि इसमें ठीकरा किसी और का होता है, और जिस सिर पर फूटता है वो किसी और का होता है। बेदी का साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ है। अब इसे दिल्ली की शर्मनाक हार का ठीकरा मानो, मोदी की शर्मनाक हार का ठीकरा मानो, या संघ की बेशर्मी का ठीकरा मानो, फूटा वो बेदी के सिर पर है। नागपुर वाले बंदरों ने घोषणा कर दी.....सबकुछ खुलासा हो गया। दिल्ली की हार बेदी की वजह से हुई, पी एम का इसमें कोई दोष नहीं था, वैसे भी वो दोषमुक्त आत्मा है, इसीलिए उसे पीछे करके बेदी को आगे किया गया था। 
कमाल ये है कि राजनीति विज्ञान की स्टूडेंट को इस बात का पता ना चला, पता चलना तो दूर, उसे इस बात की भनक भी नहीं हुई। बल्कि हार के बाद वो अपनी हार का जिम्मेदार दिल्ली की जनता को बताती हैं। अब सचमुच समय आ गया है कि किरन बेदी को इस जनता को खारिज करके अपने लिए दूसरी जनता चुन लेनी चाहिए। बताइए तो, क्या कमी थी बेदी में, अवसरवादी वो, तानाशाह वो, किसी और को कुछ ना समझने वाली शख्सियत वो, और एक सी एम बनने के लिए आखिर और क्या चाहिए। दिल्ली की बेहूदा जनता को ये तक नहीं पता कि उसे बेदी की कितनी जरूरत थी। बेदी का बस चलता तो वोट-फोट का चक्कर ही खत्म कर देतीं, सीधा-सादा हिसाब था, वो महान हैं, और कोई और उनके सामने किसी हालत में नहीं ठहरता, तो फिर होना ये चाहिए था कि जैसे ही बेदी अपनी उम्मीदवारी घोषित करतीं, लोग उन्हे ससम्मान सीएम पद पर बिठा देते, नालायक और नाकारे लोग, बेकार में ही इनकी सेवा में, 40 साल बर्बाद किए। वैसे बड़ा कमाल तो ये था कि उन्हे अपनी इस 40 साला सेवा का पता ही तब चला जब मोदी ने उन्हे बुलाकर बताया कि उन्होने 40 साल दिल्ली की सेवा की है, इससे पहले तो वो समझीं थी कि, पहले वो सरकारी नौकरी कर रही थीं, फिर एन जी ओ का धंधा कर रही थीं, ये सेवा है इसका इन्हे कुछ-कुछ पता तो था, उंचे-उंचे सरकारी पदों पर बैठे लोग, जब ये समझने लगते हैं कि नौकरी से ज्यादा पैसा तो एन जी ओ के धंधे में है, तो वो नौकरी छोड़ एन जी ओ करने लगते हैं, हींग लगे ना फिटकरी रंग चोखा। माल का माल, सेवा की सेवा। तो किरन बेदी ने भी यही किया, लेकिन फिर मोदी ने उन्हे बुलाया और कहा, कि आपने 40 साल दिल्ली की ”सेवा” की है, अभी थोड़ी और करनी है ”सेवा”......तब किरन बेदी को लगा कि ओह.....जो अब तक वो कर रही थी वो सेवा थी। बस तबसे बेदी को धुन लग गई कि अब तो वो दिल्ली की ”सेवा” करके मानेंगी....बस इस कमीनी दिल्ली की जनता ने नहीं करने दी। 
और इधर संघ है, नागपुर की वैसे भी दो ही चीजें मशहूर हैं, संतरे और बंदर, और बंदरों का कोई ठिकाना तो होता नहीं है, फिर भी, अपनी बेशर्मी, अपने उत्पात, और अपनी काली करतूतों की जगह, किरन बेदी को दिल्ली में हार का जिम्मेदार ठहराने के लिए जिस शातिराना, लेकिन बेहूदा चाल इन्होने चली है, उसके बारे में तो सभी समझदार ”भक्त नहीं” लोगों को पहले से ही पता था। जो लोग किरन बेदी की भाजपाई उम्मीदवारी को मास्टरस्ट्रोक बता रहे थे, वही साथ में ये भी कह रहे थे कि अगर जीत गए तो मोदी लहर की बात होगी, हार गए तो किरन बेदी की बात होगी। पता नहीं उस समय बेदी ने ये बात सुनी की नहीं, नहीं ही सुनी होगी, वरना वो अपने पैर पर कुल्हाड़ी थोड़े ही मारतीं....
नागपुर वाले खास किस्म की राजनीति की दीक्षा देते हैं, ये खास किस्म है अवसरवादिता की, जब मौका देखो तो सांप हो जाओ, या भेड़िये, या गीदड़ और दुम हिलाते कुत्ते भी हो सकते हो, पर हमेशा ध्यान रखो कि हमला घात लगाकर हो, जब दुश्मन कमजोर हो तो वार करो, और जब दुश्मन मजबूत हो तो उसके सामने हाथ जोड़ कर खड़े रहो, उसकी प्रशंसा करो। अंग्रेज राजा हों तो उनकी सेवा करो, और आज़ादी के लिए लड़ने वालों को गाली दो, फिर जब आज़ाद भारत में हों तो देश के लिए लड़ने वालों को अपना हीरो बताना शुरु कर दो, यानी चित भी अपनी रखो, पट भी अपनी रखो, सोचो कुछ, करो कुछ और.....ईमानदारी की छुओ भी मत, मानवीयता से कोसों दूर रहो, लोकतंत्र में विश्वास जताओ लेकिन दिल से तानाशाही चाहते रहो......। नागपुर वालों की इस दीक्षा में पारंगत वही हो सकता है जिसके आंख और कान बंद हों, और नाक में गौमूत्र, और गौमल की सुगंध जा रही हो। 
किरन बेदी को भी ये दीक्षा मिली होगी, हो सकता है आधी मिली हो, या आधी से थोडा कम....ये काफी लंबी बहस का विषय हो सकता है, क्योंकि, उनकी अपनी शख्सियत में इनमें से कुछ गुणों की भरमार भी है। फिर अभी वो परेशान हैं, पशेमान हैं, उपर से उन पर संघ ने भी अटैक कर दिया है.....ऐसे में थोड़ी सहानुभूति तो बनती है....आखिर नागपुर का ठीकरा जो बेदी के सिर फूटा है....

रविवार, 15 फ़रवरी 2015

बेदी का पिटारा या भानुमति का.....?





चुनाव मंे हारने के बाद अमूमन लोगों को झटका लगता है, सपने टूटते हैं। कुछ लोग अवसाद में चले जाते हैं, कुछ लोग सन्यास ले लेते हैं, कुछ लोग नाराज़ होते हैं, तो कुछ लोग......कुछ लोग बावले हो जाते हैं। इनमें बावले होने का खतरा उन लोगों को होता है, जो अतिआत्मविश्वास में खुद को चुनाव होने से पहले जीता हुआ मान लेते हैं। ये लोग वो होते हैं जो रात में सपना लेते हैं तो मान लेते हैं कि सपना सच हुआ कि हुआ, और अगर सपना सच नहीं होता तो उसमें उन्हे लोगों की साजिशें दिखाई देने लगती हैं। यूं साजिशें भी होती ही हैं, इसमें किसी को कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए। यहां तो हालत ये है कि लाखों-करोड़ों के घोटाले हो रहे हैं कि और किसी के माथे पर शिकन तक नहीं आता, न्यूज़ चैनल के वही रिपोर्टर जो घोटालों के स्टिंग में पकड़े जाते हैं, दूसरों से भ्रष्टाचार पर सवाल पूछते हैं। 
चुनाव के लिए टिकट मिलने से पहले ही उन्होने मान लिया था कि वो जीत गई हैं, टी वी पर उनके आसूं उनके हारने के पूर्वाभास की हताशा नहीं थे भई, वो वोट पड़ने से पहले ही अपनी जीत के प्रति उनके विश्वास का अतिभावनापूर्ण प्रदर्शन था। खैर.....इसके बाद तो अंबानी-अडानी के न्यूज़ चैनलों ने जैसे उनकी जीत सुनिश्चित मानते हुए दिल्ली वालों को किरण बेदी का चेहरा ऐसे दिखाया जैसे बाकी और कोई बचा ही ना हो टी वी में दिखाने के लिए.....उनके अधूरे जवाबों को ऐसे दिखाया गया जैसे वो दिल्ली की नहीं, बल्कि राजनीति की समस्याओं के शाश्वत समाधान हों, सुरक्षित सीट-सुरक्षित सीट का हल्ला मचाकर वोटरों को भरपूर भरमाया गया। इससे वोटरों पर कितना असर पड़ा ये तो नहीं पता, पर किरन बेदी ने सचमुच मान लिया कि उनकी जीत सुनिश्चित है। अब उसके बाद उन्होने सच में हद कर दी, वो टीवी पर इंटरव्यू भी ऐसे देने लगीं जैसे वो ना सिर्फ जीत चुकी हैं, बल्कि मुख्यमंत्री बन चुकी हैं। 
कृष्णा नगर में दौड़ लगाना, वोटर देने के बाद गाड़ी की छत पर चढ़ जाना और विजय का निशान बनाना, आखिर ये सब क्या था। फिर लगा उन्हे बड़ा झटका, कृष्णानगर की सीट, वो सीट जो दिल्ली में भा ज पा की सबसे सुरक्षित सीट कही जा रही थी, वहां से वो हार गईं, ओ हो हो......जहां से उनका जीतना लगभग तय था वहीं से वो हार गईं, उनका विजय अभियान शुरु होने से पहले ही खत्म हो गया। उफ....ये क्या हो गया....ये क्या हो गया....किरन बेदी हार गईं, जिसने इंदिरा गांधी की कार उठवा ली थी, मेरा मतलब पी एम के बेड़े की कार उठवा ली थी, मेरा मतलब कार का चालान कर दिया था, या चालान किसी और ने किया था, किरन बेदी ने सिर्फ......कुछ नहीं किया था.....पर क्रेडिट लेने में क्या जाता है। 
खैर उस किरन बेदी को लोगों ने वोट नहीं दिया......हार जाने से पहले किरन बेदी को सबकुछ अच्छा-अच्छा लग रहा था....सबकुछ.....गड़बड़ हुई किरन बेदी के हारने के बाद। किसने सोचा था कि वो हार जाएंगी, खुद किरन बेदी ने तो नहीं सोचा था। अब किरन बेदी जैसी शख्सियत हार जाए, तौबा-तौबा, वो भी कृष्णानगर जैसी सीट से, तौबा-तौबा.....तो हारने के बाद ऐसी शख्सियत करेगी क्या, वो कहेगी ”मैं नहीं हारी.....पार्टी हारी...” जैसे अगर वो इस पार्टी से टिकट ना लेतीं तो पक्का जीत जाती....तो मैडम आपसे कहा किसने था इस पार्टी से टिकट लेने के लिए। फिर पड़ी होगी डांट, पार्टी को बदनाम मत करो....तो बयान बदला...कहने लगी कि शाही इमाम ने जो समर्थन दिया उसकी वजह से उनकी हार हो गई। उनका मानना है कि उनके इस आरोप को आधार बनाकर चुनाव रद्द कर दिया जाए, या उससे भी अच्छा, उन्हे विजित घोषित किया जाए। 
मैं इस मामले में किरन बेदी के साथ हूं, उनसे सहमत हूं.....मैं भी चाहता हूं कि इस मामले में हाई कोर्ट, सुप्रीम कोर्ट, इलैक्शन कमीशन आदि-आदि जो भी अधिकृत संस्था हैं वो मिल कर फैसला करें कि इमाम जो खुद को शाही मानते हैं, ने जो समर्थन दिया, जिसे समर्थन दिए जाने वाली पार्टी ने अस्वीकार कर दिया, उस समर्थन को आधार बना कर चुनाव रद्द कर दिया जाना चाहिए। 
बड़बोली, बकवादी किरन बेदी ने ये एक ऐसी आफत अपने पिटारे से निकाली है कि क्या कहने.....अब साहेब को चिंता होनी चाहिए, अगर शाही इमाम के अस्वीकृत समर्थन को आधार बनाकर चुनाव रद्द किया जाएगा तो बाबू ये मामला आगे कहां पहुंचेगा.....? बाबा संत राम रहीम इंसान के समर्थन या फतवे का क्या किया जाएगा भई। तब तो लोकसभा के चुनाव पर भी यही फैसला लागू होगा, हरियाणा और दिल्ली में भाजपा की जीत को रद्द माना जाएगा....चलिए एक किरण बेदी की सीट बचेगी तो हरियाणा और दिल्ली की लोकसभा की कई सीटें बच जाएंगी....। 
अब भानूमति के इस पिटारे को किरन बेदी ने खोल तो दिया है, देखें इससे सुसरी क्या-क्या आफतें निकलती हैं। 

तो किरन बेदी जी अगर शाही इमाम का वो समर्थन जिसे आप और आपके साहेब फतवा कह रहे हैं, तो ज़रा ये बता दीजिए कि बाबा ”संत अजीब-गरीब इंसान” भाजपा को जो समर्थन देते हैं वो क्या था, हालांकि सुसरा वो समर्थन भी फेल हो गया, उनकी फिल्म भी पिट गई। लेकिन जब लोकसभा में ऐसे ही कई बाबाओं ने आपकी पार्टी को समर्थन दिया था उसका क्या होगा। देखिए, अगर इस बिना पर कोई केस होगा तो वो लोकसभा चुनाव के लिए भी होगा, पूरे हरियाणा और दिल्ली की सीटस् जाएंगी, तब आप क्या करेंगी.....
मैं इस मामले में किरन बेदी के साथ हूं.....बाबे शाही इमाम 

शुक्रवार, 13 फ़रवरी 2015

कहां से कहां तक.....

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सैर कर दुनिया की गाफिल जिंदगानी फिर कहांजिंदगानी गर कुछ रही तो नौजवानी फिर कहां.....


बचपन में, शायद स्कूल की किसी किताब में उसने ये शेर पढ़ा था। नौजवानी तो ना जाने कब खत्म हो गई थी, लेकिन जिंदगानी के जितने दिन उसने गुजारे थे, वो सब दुनिया की सैर में ही गुजारे थे। नौजवानी फिर कहां....सोचते हुए वो हंस पड़ा, इस दुनिया के हर हिस्से के किस्से उसके पास थे, कहीं जेब कट गई थी तो, उसे लोगों से पैसे मांगने पड़े थे, कहीं दो दिन की आशिकी में उसने रातें जाग कर, बारिश में भीग कर गुजारी थी। कहीं गलतफहमी में पुलिस ने उसे पकड़ कर हवालात में डाल दिया था, तो कहीं लोकल शादियों में बैंड बजाने वालों ने उसे रात को ठहरने की जगह दी, और नदी किनारे उसका बिस्तर लगाया था। कहीं घरों में घुस आने वाले बादलों में उसकी मूंछों पर ओस की बूंदे जमा हो गई थीं और कही उसे पानी की कमी के चलते एक लीटर पानी तीन दिन चलाना पड़ा था। 
अब तो उसे ये भी याद नहीं था कि उसका बचपन कहां गुजरा था, या शायद वो याद नहीं करना चाहता था। याद करके आखिर होता भी क्या.....उसका बचपन किसी भी कोण से खास नहीं था, ना ज्यादा दुख देखा, ना ज्यादा सुख देखा। एक शहर में, एक सामान्य बच्चे का जैसा बचपन हो सकता था वैसा ही था उसका बचपन। इसीलिए उसे अपना बचपन ना तो याद था, ना ही वो उसे याद करता था। जवानी का किस्सा अलबत्ता अलग ही था। अपनी जवानी की हर घटना उसे ऐसे याद थी, जैसे अभी हुई हो। हालांकि नौजवानी से सबको प्यार होता है, आखिर नौजवानी ही वो उम्र होती है जिसमें इंसान अपने दिल के अरमान पूरे करता है या कम से कम पूरे करने की कोशिश करता है। उसे अपनी नौजवानी के बारे में यही बात सबसे ज्यादा पसंद थी, उसने अपनी नौजवानी में हर वो काम किया था जिसे करने की उसने सोचा था।   
वहीं, उसी उम्र में उसने ये तय कर लिया था कि कहीं टिक के रहना, कहीं घर-परिवार बनाना, मकान बनाना, उसके बस का काम नहीं है, और उसने ये जिंदगी बना ली थी, हाथों में हुनर था, वो हर तरह का काम कर सकता था, पढ़ा-लिखा था, इसलिए ऑफिस का काम कर सकता था, ठीक-ठाक मैकेनिक भी था, खाना अच्छा बना लेता था, अंग्रेजी, के अलावा हिन्दुस्तान की कई भाषाएं आसानी से बोल लेता था, और सबसे बड़ी बात, पैसे को लेकर चिक-चिक नहीं करता था। इसलिए जहां भी जाता था, आसानी से नौकरी हासिल कर लेता था, कुछ दिन वहीं रहता था, घूमता था और फिर चल देता था, अपने अनंत जिंदगी के सफर पर।
अपनी इसी जिंदगी में उसे प्रेम भी हुआ, उसका दिल भी टूटा, एक बार नहीं, कई-कई बार उसने अपनी इस सफरी जिंदगी से किनारा करने की कोशिश भी की, कभी प्रेम के चक्कर में, कभी सिर्फ इसलिए कि उसे लगा कि वो थक गया है, और उस वक्त वो जो भी कर रहा है, वो उसकी जिंदगी का सबसे अच्छा मौका है, इसलिए उसे टिके रहना चाहिए। लेकिन......लेकिन वो कभी टिक के नहीं बैठा, टिक के नहीं बैठ सका। 
लेकिन अब शायद इस जिंदगानी से सफर को हटा कर ठिकाना बनाना चाहिए। क्या अजीब मामला था, पूरी जिंदगी इधर से उधर घूमने के बाद आज उसे लग रहा था कि उसे टिक जाना चाहिए। वैसे भी उसे यहां आए हुए ग्यारह महीने हो चुके थे। इससे पहले वो नौशहर में था, और यहां सिर्फ इसलिए चला आया था कि वहां बोर हो गया था, वहां वो हाइवे के एक ढाबे में चाय, नाश्ता बनाता था, मालिक उससे जितना संभव हो सम्मान से ही पेश आता था, शायद इसलिए कि वो सुबह अंग्रेजी का अखबार पढ़ता था और सभी ग्राहकों से बहुत तमीज से बात करता था। हाइवे के ढाबे पर अक्सर शहर के नौजवान रईस खाना-वाना खाने आते थे, जबसे उन्हे पता चला कि वो ना सिर्फ अंग्रेजी में बात कर सकता है, बल्कि काफी पढ़ा-लिखा है, मॉर्डन टेक्नॉलॉजी को जानता है, तो कुछ लड़के उसके दोस्त बन गए, और वो ढाबा खास मशहूर हो गया। मालिक को पैसे से मतलब था, वो वहां ठीक-ठाक खुश था, बस बोर हो गया था, छोटा सा शहर था, और लोग बहुत ही आम थे, बहुत ज्यादा आम थे, इसलिए वो बोर हो गया था, अब जब उसे जाना था तो एक दिन उसने शहर को विदा कहा, और ढाबे पर रुके हुए ट्रक पर अपना बैग रखा और निकल लिया। 
वो ट्रक यहां धनोसर संतरे लेकर आया था, सो वो भी ट्रक के साथ धनोसर आ गया, यहां से अहमदाबाद सिर्फ 80 किलोमीटर था, इसलिए वो अहमदाबाद आ गया। पहले तो एक सस्ते से होटल में कमरा लिया और फिर काम की तलाश में निकला, ये उसका स्थापित रूटीन था। किसी भी शहर में जाओ तो पहले दो-तीन शहर का जायज़ा लो और फिर जहां संभव हो वहां काम की तलाश करो, हाथ में हुनर हो और कैरियर बनाने या अमीर बनने की चाह ना हो तो आराम से काम मिल जाता है। उसे भोलाभाई पटेल मॉल में एक साइबर कैफे में नौकरी मिल गई, मालिक ने उसका सर्टिफिकेट देखा, उसके पास कुछ लेटर भी थे, और सबसे बड़ी बात बहुत आधुनिक मोबाइल भी था, खैर 8000 रु. माहवार पर वो साइबर कैफे में काम करने लगा। 
मालिक पास में ही रहता था, वो सुबह आकर मालिक के घर जाता था, वहां से साइबर कैफे आकर सफाई करता था, बाकी कम्प्यूटर और पिं्रटर को ठीक-ठाक करता था और फिर काम शुरु करता था। वो जानता था कि इस तरह वो मालिक का मेन्टेनेन्स का खर्चा भी बचा रहा था, लेकिन उसके लिए ये आरामदेह काम था। उसे पढ़ने का शौक था, यहां उसे पढ़ाई का पूरा मौका मिलता था, जिस बस्ती में वो रहता था, वो पास ही थी, सस्ती थी, और शहर के लोग बहुत दिलचस्प थे। यूंही करते-करते उसे यहां पूरे ग्यारह महीने हो गए थे। वो पिछले ही महीने यहां से कहीं और जाने की सोच रहा था कि उसका ख्याल बदल गया। 
साइबर कैफे में अक्सर आस-पास के लोग ही आते हैं, रोज़ के लगे-बंधे ग्राहक, ऐसा बहुत कम होता है कि वहां नये या अनजान ग्राहक आएं, और जो अनजान ग्राहक आते भी थे वो अपना काम करते थे और चले जाते थे। हर ग्राहक से चाहे वो रेगुलर हो या नया, वो आई डी लेता था और तभी उन्हे इंटरनेट पर काम करने देता था। दोपहर का समय था और कैफे के सिर्फ दो केबिन फिल थे, वो एक भारतीय लेखक का अंग्रेजी उपन्यास पढ़ रहा था और खुद को कोस रहा था कि उसने बेकार ही उस पर पैसा खर्च किया, जब उसने साइबर कैफे में कदम रखा। ”भैया कुछ पिं्रट करवाना है” उसने गुजराती में कहा, 
”जी” 
”प्रिंट निकलवाने हैं” 
”अच्छा.....क्या है” 
”मेल में है....”
तब उसने उसे गौर से देखा, खास गुजराती चेहरे-मोहरे वाली, सूती सलवार-कमीज, हाथ में एक फोल्डर, वो कोई कामकाजी युवती थी।
”आई डी.....”
”क्या....”
” मेल के लिए तो आई डी देनी होगी.....”
”आई डी......?”
”हां....कुछ भी चलेगा, वोटर आई डी, डी एल....या कुछ और.....”
”ओह....लेकिन....आई डी तो इस वक्त मेरे पास नहीं है......बस एक मेल ही खोलना है मुझे.....”
”बिना आई डी के तो नहीं होगा.....”
”अरे भैया बहुत जरूरी है.....”
”बिना आई डी के तो नहीं होगा....मैम....” उसने रटा-रटाया जवाब दिया। अभी कुछ ही दिन पहले, पास के ही एक साइबर कैफे में रेड पड़ी थी, वहां से किसी ने किसी को कोई मेल भेजी थी, तब मालिक ने आई डी को लेकर उसे और सख्ती बरतने को कहा था। 
”कुछ करो ना भैया....मेरा तो घर बहुत दूर है.....और ये ऑफिस वाले......आज एप्लीकेशन का भी आखिरी दिन है....इन्होने एक जरूरी कागज खो दिया है.....मैं जब तक घर जाकर आई डी लाउंगी तब तक तो ऑफिस बंद हो जाएगा.......”
”आई डी के बिना तो नहीं हो सकता मैम....सॉरी....” आखिर वो कर भी क्या सकता था.....
”अच्छा ऐसा करो ना....तुम खोल लो कम्प्यूटर....तुम मेरा मेल खोल लो......बस कुछ डॉक्यूमेंट प्रिंट करने हैं.....”
उसने सांस छोड़ी......”सॉरी मैम......मैं ये भी नहीं कर सकता.....” वो अपनी कुर्सी पर बैठ गया.....अब तक वो खड़ा हुआ था....लेकिन अब वो सचमुच में कुछ नहीं कर सकता था।
उसकी शक्ल मायूस हो गई थी, जरूरी काम हो तो सबकी हो जाती है। उसने इधर-उधर देखा और फिर मोबाइल निकाल कर फोन करने लगी। वो अंग्रेजी में बात कर रही थी, और उसे भला-बुरा कह रही थी, शायद अपनी किसी सहेली से मदद की गुहार कर रही थी, आखिर ये भी तो कहना ही था कि वो बेकार ही ज़िद कर रहा है, खुद को बहुत इंर्पोटेंट साबित करने की कोशिश कर रहा है, और सारे मर्द एक ही जैसे होते हैं। फिर आखिरकार उसने फोन रख दिया, शायद उसकी सहेली भी उसकी कोई मदद नहीं कर पाई थी। लेकिन कुछ सलाह तो उसने जरूर दी होगी, इसीलिए वो अब तक वहां खड़ी थी। 
”अच्छा सुनो......तुम पिं्रट कितने का निकालते हो....”
”पांच रु. पेज....”
” तो तुम मुझे दस रुपये पेज ले लो, बीस रुपये ले लो......”
वो वैसे ही गरदन हिलाने लगा.....”नहीं हो सकता मैम.....बात पैसे की नहीं है.....”
”देखो....” उसने फोल्डर खोल लिया और उसमें से 500 का नोट निकाल लिया, ”मुझे सिर्फ दस-बारह पेज का पिं्रट निकलवाना है......बाकी जो भी बचे वो तुम रख लो.....लेकिन ये प्रिंट मेरे लिए बहुत जरूरी है.....तुम.....तुम कुछ भी करके बस ये प्रिंट निकाल दो.....”
वो सोच में पड़ गया......उसे लगा कि शायद वो पैसे को देखकर लालच में आ गया है......
”कर दो भैया.....इतने पैसे में तो कोई भी निकाल देगा.....”
”आजकल पुलिस की इतनी सख्ती है कि आप दस हजार भी देंगी तो बिना आई डी कोई नहीं निकालेगा मैम....” उसने अंग्रेजी में कहा, ”लेकिन आपके लिए शायद ये बहुत जरूरी है....इसलिए मैं कोई रास्ता सोच रहा हूं......आप ऐसा कीजिए.....आपके मोबाइल में नेट है क्या......”
”नहीं....”
”मेरे मोबाइल में है....आप मेरे मोबाइल से अपना मेल एक्सेस कीजिए और फिर अपने वो डॉक्यूमेंट मेरे मेल पर भेज दीजिए....मैं प्रिंट निकाल दूंगा.....”
”अच्छा......” वो थोड़ा सकते में थी....शायद उसने ये नहीं सोचा था कि ये शख्स जो इतना निर्विकार सा काउंटर पर बैठा है ऐसी अंग्रेजी बोल सकता है। उसने अपने मोबाइल पर नेट ब्राउज़र खोल कर उसे दिया, और फिर एक स्टेशन पर कम्प्यूटर को ऑन कर दिया। कुछ देर बाद जब उसके मेल पर डॉक्यूमेंट आ गए तो उसने वो डॉक्यूमेंट खोले, उन्हे देखा, अपने तरीके से उन्हे ठीक से सेट किया और फिर पिं्रट कमांड दे दिया। 
”तुम.....आप ये पैसे रख लो....” वो अपने कागजात संभालती हुई बोली.....
”जी शुक्रिया..... पर मैं आपको इसलिए मना नहीं कर रहा था कि मुझे पैसे चाहिए थे या मैं खुद को इर्म्पोटेंट साबित करना चाहता था......” उसने प्रिंट के पैसे काट कर बाकी पैसे उसे दे दिए....
”आई....आई एम सॉरी......” वो साइबर कैफे से निकल गई.....
इस बात को दस-बारह दिन गुज़र गए और उसके जेहन से ये बात और वो महिला बिल्कुल निकल गए....तो एक दिन वो फिर आ गई......साइबर कैफे लगभग खाली पड़ा था।
”हाय....मैं याद हूं आपको...” उसने मुस्कुराते हुए कहा....
”बिल्कुल.....आई डी....हैलो.....” उसने भी मुस्कुराते हुए जवाब दिया....आज वो खूबसूरत लग रही थी....शायद परेशान नहीं थी इसलिए.....
”मैं बस उस दिन के अपने व्यवहार के लिए माफी मांगना चाहती थी......बहुत देर से आई हूं क्या......पहले तो मैं यही सोचती रही कि जाउं कि ना जाउं.......लेकिन फिर सोचा कि.....”
”उस दिन ऐसी कोई बात नहीं हुई थी कि आपको माफी मांगने की ज़रूरत हो.....आप परेशान थीं और ऐसे में इंसान कुछ कड़ी बातें कह ही देता है.....”
”नहीं नहीं.....आप....क्या ये साइबर कैफे आपका है.....”
”जी नहीं....मैं यहां नौकरी करता हूं......”
”ओह....”
चाय वाला उसके लिए चाय ले आया था,
”चाय पिएंगी आप...” उसके हां कहने से पहले ही वो लड़के को एक और चाय लाने की कह चुका था.....वो सामने वाली कुर्सी पर बैठ गई......उसने अपनी चाय का कप उसे थमा दिया और अपनी चाय का इंतजार करने लगा.....जब लड़का उसके लिए भी चाय ले आया तो उनके बीच कुछ हल्की-फुल्की बातें चलने लगीं। फिर वो चली गई। उसके बाद कुछ सिलसिला सा बन गया.....वो हफ्ते में दो या तीन बार आ जाती थी....कुछ बातें करती थी और चाय पीकर चली जाती थी। एक दिन उसने उससे पूछा कि क्या वो कम्प्यूटर के बारे में कुछ जानता था। उसके घर पर जो कम्प्यूटर था वो काफी दिनों से चला नहीं था, और अगर उसे कोई जहमत ना हो तो क्या वो उसे देख सकता है। इस तरह उसका उसके घर जाने का रास्ता बना। यही उसने पहली बार रेवती को देखा। रेवती उसकी बेटी थी, बहुत प्यारी सी, पहले ही दिन से वो रेवती से प्यार करने लगा, और रेवती से मिलने के लिए उसके घर जाने लगा, वो रेवती के साथ खेलता था, रेवती को पढ़ाता था और उसके साथ घूमने जाता था, उससे बात करता था। वो खुश थी, वो भी खुश था। वो बार बार उसके घर जाता रहा। 
वो जानता था कि ये क्या सिलसिला है, क्या सिलसिला बन रहा है, उसके साथ ऐसे कई सिलसिले कई बार बन चुके थे। लेकिन उसने कुछ खास परवाह नहीं की, और वैसे ही जिंदगी जीता गया। लेकिन उसे रेवती से प्यार हो गया था, उसे लगता था कि वो अब ज्यादा खुश रहने लगा था, वो जब रेवती से मिलकर आता था तो उसे बहुत अच्छी नींद आती थी, हंसने का मन करता था, और वो अगली बार रेवती के साथ समय गुजारने की योजना बनाता था। 
उसका अपने पति से तलाक हो चुका था, और वो किसी स्कूल में टीचर थी, उसके पति को रेवती से मिलने में कोई दिलचस्पी नहीं थी। इधर उसे लगता था कि वो कौन शख्स होगा जो रेवती से प्यार ना करे। वो कई बार रात को रेवती की मां, आनंदी के घर में ही रुक जाता था, सुबह रेवती को स्कूल छोड़ने जाता था, उसे बहुत अच्छा लगता था कि वो रेवती का हाथ पकड़ कर उसे बस में बैठाने जाता है, और सुबह-सुबह रेवती से ढेर सारी बातें करता था। कई बार शाम का खाना खाने के बाद वो रेवती को गोदी में उठाकर थपकियां देकर सुलाता था, और उसे ये भी बहुत अच्छा लगता था। 
पहले उसने इधर-उधर कम्प्यूटर रिपेयर के काम पकड़ने शुरु किए, फिर उसने साइबर कैफे वाली नौकरी छोड़ दी और एक दूसरी नौकरी पकड़ ली जिसमें उसे ज्यादा पैसा मिलता था, फिर एक दिन जब आनंदी ने उससे कहा कि वो वहीं उनके घर पर रहे, तो उसने फौरन ये बात मान ली, आखिर इस तरह वो ज्यादा से ज्यादा समय रेवती के साथ गुजार सकता था। 
आज आनंदी ने उसे बताया कि उसका अपने पति से तलाक फाइनल हो गया था, और अब वो आज़ाद थी। ये बात उसने बहुत अर्थपूर्ण तरीके से बताई थी, उसे आनंदी में उतनी ही दिलचस्पी थी जितनी किसी मर्द को किसी औरत में हो सकती है, लेकिन वो रेवती से प्रेम करने लगा था, उसने गहरी सांस ली। सैर कर दुनिया की गाफिल.....जिंदगानी सफर में गुजारी जा सकती है.....और ये भी हो सकता है कि जिंदगी को एक दिलचस्प सफर मान लिया जाए, जिसमें अगर कोई दिलचस्प मुकाम आ जाए तो......तो ठहर लिया जाए....उसने सोचा। रेवती डांस क्लास में गई थी, और वो पार्क में बैठा उसका इंतजार कर रहा था। सामने से रेवती आती दिखाई दी......वो हंस रही थी, बहुत खुश थी, उसे देखते ही उसके चेहरे पर मुस्कुराहट आ गई। उसने वहीं टिक जाने का फैसला कर लिया। आखिर जिंदगी के सफर में उसका मुकाम यही था, रेवती। 

बधाई हो बधाई




लो, तुम लोगों को कतई चैन नहीं है। मोदी ने केजरीवाल को बधाई क्या दे दी, तुम्हे तो मौका मिल गया। अरे भई चुनाव में कोई जीत जाता है तो अचछे राजनीतिज्ञ यही करते हैं, एक-दूसरे को बधाई देते हैं। मोदी जीत जाता ना, तो केजरीवाल नहीं देता बधाई, पक्की बात है, ये तो मोदी ही है जो इस तरह के सामान्य शिष्टाचार निभाते हैं। अब तुम कहोगे कि केजरीवाल को 26 जनवरी की परेड में क्यों नहीं बुलाया, अरे यार उसमें ओबामा आ रहा था, अब ओबामा जैसे महान राष्ट्रपति का, ”जिसे काम शुरु करने से पहले ईनाम मिल जाता है ”नोबेल पीस प्राइस””, केजरीवाल जैसे इंसान से मिलना, तो शिष्टाचार नहीं होता ना। फिर मोदी की मर्जी, जो राजा होता है परेड उसकी होती है, अपनी परेड में मोदी केजरीवाल को बुलाए या ना बुलाए, तुमसे मतलब, इतना पेट में दर्द है ना तो अपने बर्थडे पर बुला लेना, हां नी तो। 
ये गजब कही तुमने कि 26 जनवरी देश का उत्सव है, अबे कभी जनता का उत्सव राजपथ पर मनता है क्या, जनता का उत्सव जनपथ पर मनेगा, राजा का उत्सव राजपथ पर मनेगा। इस उत्सव में राजा होता है, प्रजा होती है, राजा सलामी लेता-देता है, और खुद की ताकत-वाकत दिखाता है, जो मोदी ने दिखा दी, अब इसमें केजरीवाल कर भी क्या लेता भला, हैं। तो इसलिए मोदी ने नहीं बुलाया केजरीवाल को। 
इसके बाद आते हैं, दिल्ली के चुनाव। अब दिल्ली के चुनाव मोदी और केजरीवाल में सीधी लड़ाई थी, किरण बेदी तो ध्यान बटाने वाला आइटम थीं, जैसे सर्कस में सीरियस आइटम के बीच में कभी-कभी जोकर को ले आते हैं ना, वैसे, वरना लड़ाई तो मोदी और केजरीवाल की थी, अब केजरीवाल जो है ना, उसे दिल्ली की जनता ने चुना लिया, किया तो बेकार ही काम, लेकिन अब जो हो गया वो हो गया, तो मोदी ने शिष्टाचारवश केजरीवाल को बधाई दे दी, और तुम्हे इसमें भी मोदी को भला-बुरा कहने का मौका मिल गया। कई जगह तो ये चुटकी ली तुम नालायकों ने कि, मोदी ने तो केजरीवाल को नक्सली कहा था, अराजक कहा था, अब उसके साथ चाय कैसे पिएंगे। भाई लोगों देशप्रेम की, राष्ट्रवाद की तुम्हारी परिभाषा में खोट है, मोदी तो इस मामले में बिल्कुल साफ हैं। जो ये मान ले कि आर एस एस, एक महान राष्ट्रवादी देशप्रेमी संगठन है और मोदी उसके कर्णधार हैं, महान नेता हैं, उनका नेतृत्व महान हैं, वो होते हैं देशभक्त, कर्मठ और जाने क्या-क्या, समझे, उदाहरण के लिए, किरण बेदी, शाजिया इल्मी आदि जैसे ही मोदी को महान जननायक के रूप में देखने लगीं, वो देशभक्त, कर्मठ आदि-आदि हो गईं, बाकी जो अब तक ऐसा नहीं मानते वो सभी देशद्रोही हैं, जैसे दिल्ली की जनता, जिसने मोदी को महान नायक के तौर पर नहीं माना, वो तो मोदी का मूड ठीक था वरना, दिल्ली की सारी जनता का तो.......बस मैं आपको बता नहीं सकता। इसी दरियादिली के मूड में मोदी ने केजरीवाल को बधाई भी दे दी और उसे चाय पर बुला लिया है। 
कुछ लोगों को ये भी लगता था कि चुनाव हारने के बाद ये कहा जाएगा कि ये मोदी की हार नहीं है, मेरे दोस्तों, साफ देख लो, मोदी ने केजरीवाल को बधाई देकर साफ कर दिया कि ये लड़ाई वही लड़ रहे थे, किरण बेदी ने तो केजरीवाल को कोई बधाई ना दी, बल्कि ये और कह दिया कि ये उनकी हार नहंी है, पार्टी की हार है, बिल्कुल दुरुस्त कहा, राजनीति विज्ञान की विद्यार्थी से ऐसे ही जवाब की उम्मीद थी। वैसे अब तो मुझे इसमें कुछ डाउट लगता है कि वो कभी राजनीति विज्ञान पढ़ी भी हैं कि नहीं, लेकिन खैर.....तो मामला ये है कि मोदी ने अपने बयान से, अपनी बधाई से मामला साफ कर दिया है, दिल्ली की हार मोदी की हार है, वैसे भी युद्ध सेना ही हारती है, लेकिन नाम तो सेनापति का होता है, तो चाहे इसे किरणबेदी की हार मानिए, चाहिए मोदी की, लेकिन हार ये इन दो महान, अभिमान, कर्मठ....आदि आदि नेताओं की ही है। 
दिल्ली चुनाव के समय मोदी की प्रशंसा में जिस तरह की बातें किरण बेदी कर रही थीं, उन्हे सुनकर सच में ऐसा लगता था कि अगर भाजपा दिल्ली चुनाव जीत गई तो स्वर्ग से देवता मोदी पर फूल बरसाएंगे और जहां भी मोदी खड़े हो जाएंगे वहीं, धरती फाड़ कर पानी नकिलेगा ताकि मोदी के चरण धुल जाएं। अफसोस कि ऐसा नहीं हुआ, बाकी सबकुछ अलबत्ता हुआ। किरण बेदी की छिछालेदार हुई, मोदी की छिछालेदार हुई, अब तक हो रही है। अब गुजरात में मंदिर बना है तो मोदी को कुछ थोड़ा बहुत ढ़ाढ़स बंधा है, वरना उनका चेहरा बिल्कुल ही बदल सा गया था। चुनाव के समय किरण बेदी दिल्ली की रैलियों में बिल्कुल गब्बर सिंह के स्टाइल में भाषण देती फिर रहीं थीं, अरे ओ दिल्ली के वासियों, अगर दिल्ली को बचाना है तो मोदी को वोट देना, वरना.......खैर दिल्ली वाले उनकी धमकियों में नहीं आए, ऐसा होना मुश्किल ही था, शोले तो दिल्ली वालों ने भी देखी है मैडम जी......
किरण बेदी को अफसोस इस बात का नहीं है कि वो चुनाव हार गईं, बल्कि इस बात का है कि वो मुख्यमंत्री नहीं बन पाईं, अगर आज भी भाजपा कोई छल प्रपंच करके उन्हे सी एम बना दे, तो वो भाजपा के अंर्तमंथन वाली बात वापस ले लेंगी और अपनी हार के बारे में कुछ नहीं बोलेंगी। ये चरित्र की बात होती है, चुनाव तो वो आ आ पा से भी लड़ सकती थीं, बल्कि हमने तो सुना कि केजरीवाल ने ऐसा ऑफर भी दिया था, लेकिन वहां उनके मुख्यमंत्री के चांस कम थे। 
पंजाब के एक मशहूर गायक, शायद मस्ताना का एक गीत है, सानूं लोकां दित्ती वधाई काका जम्म् प्या.......इस गाने में गायक बताता है कि काका का जन्म जो कि खुशी का मौका है उसकी बर्बादी का कारण बन गया है, लोग बधाइयां दे रहे हैं और उसका दिवाला निकल गया है। मोदी यानी विकास के पापा को विकास नाम का जो बच्चा हुआ, उसके जन्म ने मोदी को बर्बाद कर दिया, लेकिन बधाई तो बनती है। 
खैर जो भी हो, मोदी ने सही किया कि केजरीवाल को बधाई दे दी, हार की शर्म भी छुप गई, ”दांत दबा के मुस्कुराओ मत” और शिष्टाचार भी निभा लिया गया। एक तीर से दो शिकार, मोदी ऐसे ही महान नेता नहीं हैं। 


शुक्रवार, 6 फ़रवरी 2015

अध्यादेश

चित्र गूगल साभार
अध्यादेश

जबसे मोदी सरकार सत्ता में आई है, ”हालांकि केंद्र की सत्ता हासिल करने से पहले, मोदी अखिल ब्रहमांड के सत्ताधीश थे, लेकिन वो बात बाद में”, तो जबसे मोदी सरकार सत्ता में आई है, तबसे इस देश में अध्यादेशों की बाढ़ आ गई है। ताबड़तोड़ अध्यादेश, अघ्यादेश पर अघ्यादेश......कोई बहस नहीं, कोई कानून नहीं, कोई सुनवाई नहीं, कोई चर्चा नहीं, कोई सलाह नहीं, बस अध्यादेश, अध्यादेश, अध्यादेश। अब आप सोचेंगे कि यार ये बात तो पुरानी हो गई, ये अब इस बात को क्यों रट रहा है.....क्योंकि मेरे भाई, पहले की तरह ही मैं आज भी अपने उस बयान पर कायम हूं कि मोदी.....विराट मोदी, महान मोदी, मोदीमय मोदी, जो हैं, वो ये जो कुछ कर रहे हैं, सोच समझ कर कर रहे हैं, और तुम जैसे क्षुद्र दिमाग वाले लोगों को उनका पूरा प्लान यानी योजना समझ नहीं आ रही है, इसलिए तुम इतने दिन बीत जाने के बाद भी इन अध्यादेशों पर विरोध की आवाज़ के नारे लगा रहे हो।
अध्यादेश यानी वो आदेश जो आधा होता है, आधा इसलिए होता है क्योंकि किसी कानून के कानून बनने के लिए जो प्रक्रिया होती है, ये उसका सिर्फ एक हिस्सा पूरा करता है बाकी तीन हिस्से छोड़ देता है। किसी कानून को कानून बनने के लिए पहले लोकसभा में पेश होकर पारित होना होता है, फिर राज्यसभा में पेश होकर पारित होना होता है, फिर राष्ट्रपति द्वारा साइन होना होता है, और फिर वो गजट में आता है। कई कानून जो हैं, समय से पहले जन्म लेते हैं और प्रीमैच्योर डिलीवरी की कठिनाइयों में मारे जाते हैं, कई कानून गांधारी के बेटों की तरह कई सालों तक जन्म ही नहीं ले पाते। ये भारतीय संसदीय प्रक्रिया की कठिनाइयां हैं, जिन्हे मोदी, महान मोदी, विराट मोदी, मोदीमय मोदी भली प्रकार समझते हैं। 
ऐसे में वे क्या करें, जिन्होने इस देश को ”विकास” के रास्ते पर धकियाया है। क्या लोकसभा, राज्यसभा जैसी तुच्छ जगहों में बहस करके समय नष्ट करेंगे.....नहीं....वे दुनिया को दिखा देंगे कि अगर हमें कानून बनाना हो तो हमें कोई रोक नहीं सकता। अभी तो ये समझिए कि राष्ट्रपति और गजट की औपचारिकता को बना रखा है, वरना मोदी जी को कौन रोक सकता है भला....वे चाहें तो रात में सपना लें और सुबह वो कानून बन जाए। ”शायद इसी डर से वो सिर्फ पांच घंटे सोते हैं।” 
खैर, हम कहां थे, हां.....अध्यादेशों का क्या है कि इनकी कुछ खास उपयोगिता होती है। जैसे बिना लोकसभा का सदस्य बने प्रधानमंत्री की होती है। अध्यादेशों की तरह इस तरह के प्रधानमंत्री भी छः महीने से ज्यादा वैध नहीं होते, तो क्या हुआ, जिस तरह हर छः महीने में राज्यसभा के सदस्य को दोबारा प्रधान मंत्री बनाया जा सकता है उसी तरह छः महीने पूरे हो जाने पर अध्यादेश को फिर से लागू किया जा सकता है, क्यों....समझे कुछ।  
राजनीति बड़ी विचित्र होती है। प्लेटो से लेकर ”जिन्हे राजनीति विज्ञान का दादा कहा जाता है” अब मोदी तक राजनीति के जितने दांव-पेंच खेले जा सकते हैं सबका विश्लेषण करके देख लीजिए। इतनी विचित्र है ये बला कि इसका मुकाबला कोई नहीं कर सकता। जब मैने होश संभाला, यानी ये समझने लायक हुआ कि ये दुनिया क्या है, तबसे मुझे लगता था कि धर्म और ईश्वर की अवधारणा इस दुनिया की सबसे विचित्र चीज हैं, जबकि मैं भी किरण बेदी की तरह राजनीति विज्ञान का ही विद्यार्थी रहा हूं, और किरण बेदी की कसम, मै एक जमीनी स्तर का राजनीतिक कार्यकर्ता भी हूं, लेकिन हाल ही में मुझे अच्छी तरह समझ में आ गया कि राजनीति वास्तव में बहुत ही विचित्र चीज है। मोदी ने सत्ता में आने के बाद अब तक कुछ ऐसा नहीं किया जिसकी उनसे उम्मीद नहीं थी, ”अगर कुछ लोगों को लगे कि उनकी उम्मीद पर मोदी खरे नहीं उतरे तो उन्हे अपनी समझ का इलाज करवाना चाहिए।” अध्यादेश भी इसी विश्वास पर पास किया गया है कि आज हो चाहे छः महीने बाद, इस कानून को बदलना नहीं है। 
मैने पहले ही कहा था कि मोदी जो हैं, वो उससे ज्यादा देते हैं, जितना लोग उनसे उम्मीद करते हैं, बल्कि कई बार तो लोग उम्मीद भी नहीं करते और वो दे देते हैं, जिसे इस पर यकीन ना हो वो पूछ ले अडानी और अंबानी से, एक ही झटके में हजारों करोड़ का लोन, दम भर जमीन लो, कोई रोकने-टोकने वाला नहीं, जितने चाहे जैसे चाहे कानून बनवा लो, दर्जन में 13 बना के देंगे, ना बहस होगी, ना देर लगेगी। मोदी के पास पहले आओ, पहले पाओ वाली स्कीम है, तो पहले अडानी गए, उन्हे झोली भर मिल गया, तो अंबानी गए, उन्हे झोली भर मिल गया तो बाकी लोग लाइन में लगे हैं, यहां भी बिल्कुल तिरुपति वाला मामला है, अंबानी या उनके जैसे अमीर लोग चाहे जब मर्जी जाएं, पहला नंबर उनका होता है, उसके बाद बेचारी गरीब, धक्के खाती जनता 18 घंटे लाइन में लग कर पहंुचती है, अब तब तक क्या होता है कि झोली खाली हो चुकी होती है, जब तक वो झोली, दोबारा भरेगी तब तक, तुम्हारा नंबर निकल चुका होगा, अब किस्मत पर भरोसा करने वाले परधान मंतरी, तुम्हे किस्मत के भरोसे रहने का संदेश देने के अलावा और कर ही क्या सकते हैं। और तुम बद्किस्मत उन्हे दोष देते हो। शर्म करो, अपनी किस्मत को दोष दो और फूट-फूट कर रोओ, क्योंकि अभी तो रोने के अलावा तुम्हारी किस्मत में कुछ बचा ही नहीं है। बाकी अच्छी किस्मत है मोदी ”जी” की और उनके होते-सोतों की.......
चचा गालिब ने कहा था, इब्तिदाए इश्क है रोता है क्या, आगे-आगे देखिए होता है क्या......अभी तो संविधान में संशोधन होगा, अध्यादेश के जरिए, फिर शायद संविधान के औचित्य पर सवाल उठाए जाएं, आखिर मोदी, महान मोदी, विराट मोदी, मोदीमय मोदी को संविधान के निर्देशों, आदेशों आदि की जरूरत ही क्या है, वे स्वयं ही संविधान हैं, वे स्वयं ही विधान हैं, तो संविधान आउट हो जाएगा, फिर राज्यसभा की क्या जरूरत है, क्या किसी पुरातन भारतीय ऋषि ने कभी संविधान या राज्यसभा जैसी किसी चीज़ के अस्तित्व को स्वीकारा है, नहीं, तो बस, संविधान गया, जब संविधान नहीं है तो न्यायालय क्या करेगा, जो भी मुकद्मा-फैसला होना होगा वो मोदी ”जी” के दरबार में होगा, अब जब इतना सबकुछ मोदी ”जी” कर ही लेंगे तो फिर राष्ट्रपति के पद की भी जरूरत क्या है.....भला समझो कुछ....कहते हैं समझदार को इशारा काफी होता है......बस फिर ये देश, मोदी मय हो जाएगा, इस देश का नाम होगा मोदी-स्थान और पावन पुरातन संस्कृति, इतिहास, विज्ञान और हवन के शुद्ध घी के धुएं से पवित्र होगा इस मोदी-स्थान का वातावरण और इसमें से बद्किस्मतों को निकाल फेंका जाएगा, मोदी-महासागर में और जो बचेंगे वो मोदी की किस्मत पर जिएंगे या रोएंगे। 
पर ये सब अभी धीरे-धीरे होगा, इसलिए बद्किस्मतों, अध्यादेशों पर मत चिल्लाओ, दूर दृष्टि लाओ और जो आने वाला है उसकी तरफ अपनी आंखे लगाओ। बाकी अध्यादेशों का क्या है, वो तो पास होते ही रहे हैं, होते ही रहेंगे। 


महामानव-डोलांड और पुतिन का तेल

 तो भाई दुनिया में बहुत कुछ हो रहा है, लेकिन इन जलकुकड़े, प्रगतिशीलों को महामानव के सिवा और कुछ नहीं दिखाई देता। मुझे तो लगता है कि इसी प्रे...