चित्र गूगल साभार
हिन्दी में एक कहावत है, जिसमें ठीकरा फूटता है, और किसी के सिर पर फूटता है। कहावत की आम यानी सामान्य विशेषताओं के अलावा इस कहावत की विशेषता ये है कि इसमें ठीकरा किसी और का होता है, और जिस सिर पर फूटता है वो किसी और का होता है। बेदी का साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ है। अब इसे दिल्ली की शर्मनाक हार का ठीकरा मानो, मोदी की शर्मनाक हार का ठीकरा मानो, या संघ की बेशर्मी का ठीकरा मानो, फूटा वो बेदी के सिर पर है। नागपुर वाले बंदरों ने घोषणा कर दी.....सबकुछ खुलासा हो गया। दिल्ली की हार बेदी की वजह से हुई, पी एम का इसमें कोई दोष नहीं था, वैसे भी वो दोषमुक्त आत्मा है, इसीलिए उसे पीछे करके बेदी को आगे किया गया था।
कमाल ये है कि राजनीति विज्ञान की स्टूडेंट को इस बात का पता ना चला, पता चलना तो दूर, उसे इस बात की भनक भी नहीं हुई। बल्कि हार के बाद वो अपनी हार का जिम्मेदार दिल्ली की जनता को बताती हैं। अब सचमुच समय आ गया है कि किरन बेदी को इस जनता को खारिज करके अपने लिए दूसरी जनता चुन लेनी चाहिए। बताइए तो, क्या कमी थी बेदी में, अवसरवादी वो, तानाशाह वो, किसी और को कुछ ना समझने वाली शख्सियत वो, और एक सी एम बनने के लिए आखिर और क्या चाहिए। दिल्ली की बेहूदा जनता को ये तक नहीं पता कि उसे बेदी की कितनी जरूरत थी। बेदी का बस चलता तो वोट-फोट का चक्कर ही खत्म कर देतीं, सीधा-सादा हिसाब था, वो महान हैं, और कोई और उनके सामने किसी हालत में नहीं ठहरता, तो फिर होना ये चाहिए था कि जैसे ही बेदी अपनी उम्मीदवारी घोषित करतीं, लोग उन्हे ससम्मान सीएम पद पर बिठा देते, नालायक और नाकारे लोग, बेकार में ही इनकी सेवा में, 40 साल बर्बाद किए। वैसे बड़ा कमाल तो ये था कि उन्हे अपनी इस 40 साला सेवा का पता ही तब चला जब मोदी ने उन्हे बुलाकर बताया कि उन्होने 40 साल दिल्ली की सेवा की है, इससे पहले तो वो समझीं थी कि, पहले वो सरकारी नौकरी कर रही थीं, फिर एन जी ओ का धंधा कर रही थीं, ये सेवा है इसका इन्हे कुछ-कुछ पता तो था, उंचे-उंचे सरकारी पदों पर बैठे लोग, जब ये समझने लगते हैं कि नौकरी से ज्यादा पैसा तो एन जी ओ के धंधे में है, तो वो नौकरी छोड़ एन जी ओ करने लगते हैं, हींग लगे ना फिटकरी रंग चोखा। माल का माल, सेवा की सेवा। तो किरन बेदी ने भी यही किया, लेकिन फिर मोदी ने उन्हे बुलाया और कहा, कि आपने 40 साल दिल्ली की ”सेवा” की है, अभी थोड़ी और करनी है ”सेवा”......तब किरन बेदी को लगा कि ओह.....जो अब तक वो कर रही थी वो सेवा थी। बस तबसे बेदी को धुन लग गई कि अब तो वो दिल्ली की ”सेवा” करके मानेंगी....बस इस कमीनी दिल्ली की जनता ने नहीं करने दी।
और इधर संघ है, नागपुर की वैसे भी दो ही चीजें मशहूर हैं, संतरे और बंदर, और बंदरों का कोई ठिकाना तो होता नहीं है, फिर भी, अपनी बेशर्मी, अपने उत्पात, और अपनी काली करतूतों की जगह, किरन बेदी को दिल्ली में हार का जिम्मेदार ठहराने के लिए जिस शातिराना, लेकिन बेहूदा चाल इन्होने चली है, उसके बारे में तो सभी समझदार ”भक्त नहीं” लोगों को पहले से ही पता था। जो लोग किरन बेदी की भाजपाई उम्मीदवारी को मास्टरस्ट्रोक बता रहे थे, वही साथ में ये भी कह रहे थे कि अगर जीत गए तो मोदी लहर की बात होगी, हार गए तो किरन बेदी की बात होगी। पता नहीं उस समय बेदी ने ये बात सुनी की नहीं, नहीं ही सुनी होगी, वरना वो अपने पैर पर कुल्हाड़ी थोड़े ही मारतीं....
नागपुर वाले खास किस्म की राजनीति की दीक्षा देते हैं, ये खास किस्म है अवसरवादिता की, जब मौका देखो तो सांप हो जाओ, या भेड़िये, या गीदड़ और दुम हिलाते कुत्ते भी हो सकते हो, पर हमेशा ध्यान रखो कि हमला घात लगाकर हो, जब दुश्मन कमजोर हो तो वार करो, और जब दुश्मन मजबूत हो तो उसके सामने हाथ जोड़ कर खड़े रहो, उसकी प्रशंसा करो। अंग्रेज राजा हों तो उनकी सेवा करो, और आज़ादी के लिए लड़ने वालों को गाली दो, फिर जब आज़ाद भारत में हों तो देश के लिए लड़ने वालों को अपना हीरो बताना शुरु कर दो, यानी चित भी अपनी रखो, पट भी अपनी रखो, सोचो कुछ, करो कुछ और.....ईमानदारी की छुओ भी मत, मानवीयता से कोसों दूर रहो, लोकतंत्र में विश्वास जताओ लेकिन दिल से तानाशाही चाहते रहो......। नागपुर वालों की इस दीक्षा में पारंगत वही हो सकता है जिसके आंख और कान बंद हों, और नाक में गौमूत्र, और गौमल की सुगंध जा रही हो।
किरन बेदी को भी ये दीक्षा मिली होगी, हो सकता है आधी मिली हो, या आधी से थोडा कम....ये काफी लंबी बहस का विषय हो सकता है, क्योंकि, उनकी अपनी शख्सियत में इनमें से कुछ गुणों की भरमार भी है। फिर अभी वो परेशान हैं, पशेमान हैं, उपर से उन पर संघ ने भी अटैक कर दिया है.....ऐसे में थोड़ी सहानुभूति तो बनती है....आखिर नागपुर का ठीकरा जो बेदी के सिर फूटा है....

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