बुधवार, 27 मई 2015

एक लोटे की आत्मकथा - 4


भाग-4
अब पुलिसवाले के क्वॉटर्र में रहना कैसा होता है ये वही जान सकता है जो खुद उस क्वॉटर्र में रहा हो। मेरी पुलिसवालों से कोई दोस्ती या प्रेम नहीं है, लेकिन फिर भी एक बात कहनी पड़ेगी कि जिस अमानवीय तरीके से रहते हैं उसमें तो कोई भी वहशी हो जायेगा। थाने के अपने जीवन में मैंने बहुत पुलिसवालों को देखा। जब आते हैं तो बहुत अच्छे से बात करते हैं, लेकिन जल्दी ही मानवीय त्रासदी के प्रति उनका रवैया ऐसा ठंडा हो जाता है कि लगता ही नहीं कि वो इंसान हैं। लगता था कि जिस तरह हमारी ढ़लाई होती है उसी तरह पुलिसवालों को भी उस साँचे में ढ़ाला जाता है जसमें वो बिना कोई सवाल किये, अच्छा-बुरा सोचे-समझे बिना वो कर दें जो उनसे करने को कहा जाये।
वो पुलिसवाला काफ़ी समझदार और होशियार था, बहुत ज़्यादा ईश्वर-भक्त नहीं था, 4-5 दिन में एक बार उसे पूजा करने का टाईम मिलता था और उसी टाईम में वो मुझमंे पानी भरके ऐसे ही कहीं भी एक धार में पानी गिराता था और होठों में कुछ बुदबुदाता हुआ अपनी पूजा पूरी कर लेता था। पर ज़्यादातर ड्यूटी पर रहता था, कभी क्वॉटर्र आता भी था तो सिर्फ़ पीठ सीधी करने या फिर रात को सोने। रात को साने से पहले दारू के कुछ पेग ज़रूर लगाता था (एक बात जो मैनें किसी को नहीं बताई, आप भी मत बताइयेगा, ‘‘रात को उसे बुरे सपनें दिखते थे और वो भयानक डरता था‘‘) खैर, पहली बार दारू का स्वाद मैंने वहीं चखा था। एक बार उसका कोई दोस्त चाबी लेकर क्वॉटर्र में आया था, उसके साथ एक मासूम सा बच्चा भी था। बच्चा बेहद डरा हुआ था, लेकिन तब तक मेरी आदत हो गयी थी, थाने मंे पुलिस और नेता की वर्दी के बिना जो भी शख़्स जाता है वो डरा ही होता है। खैर उस पुलिस वाले ने लड़के को दूसरे कमरे में भेज दिया और फिर सारी बोतल दारू मेरे अंदर डाल के एक गिलास में डाली और पीता रहा, फिर जब उसे अच्छा-ख़ासा नशा हो गया तो अंदर से लड़के के चीखने की आवाज़ें आने लगीं ।
काफ़ी देर बाद वो पुलिसवाला बाहर आया और बाकी बची दारू खत्म करके वहीं पसर गया। रात भर उस लड़के के रोने की आवाज़ें आती रहीं। मैं थाने में ही रहता था इसलिये लोेगों के रोने की, चीखने की, चिल्लाने की आवाज़ें तो आती ही रहती थी। लेकिन उसके क्वॉटर्र में ऐसा पहली बार हुआ था, लेकिन फिर तो ये रोज़ का काम बन गया। रात को मुझमें दारू डाली जाती थी और सुबह जब मैं नशे से पूरी तरह बाहर भी नहीं आया होता था तो मुझमें पानी भरके मुझे ‘सूर्य को अर्ध्य‘ दिया जाता था। खैर मुझे क्या, वैसे भी अब तो मुझे लगता था कि सूरज को सुबह-सुबह दारू का ही अर्ध्य देना चाहिये (हा हा हा)।
रोज़ कोई न कोई पुलिसवाला किसी न किसी बच्चे को पकड़ कर लाता था और उसे दूसरे कमरे में भेज कर दारू पीता था । फिर दूसरे कमरे में चला जाता था, और फिर बच्चे के चीखने की आवाज़ें, कभी-कभी वो बच्चियों को भी लाते थे, और कभी एक से ज़्यादा पुलिसवाले होते थे। लेकिन कुछ दिनों के बाद में मैं शक्लें देखना भूल गया, मुझे लगा कि मैं अंधा हो गया हूँ। लेकिन बाकी चीज़ंे तो मुझे साफ़-साफ़ दिखाई देती थीं, कमरा, पुलिसवालों की वर्दी, बच्चे-बच्चियों के डरे हुए मासूम चेहरे। बस पुलिसवालों के चेहरे ही नहीं दिखाई देते थे, बस उनकी वर्दियाँ दिखती थीं।
फिर एक दिन उन्होंने भी एक काँड कर डाला, उस क्वॉटर्र में बच्चों को लाकर वो जो हरकतें करते थे उनसे एक बच्चे की मौत हो गयी, और फिर हड़कम्प मच गया...अख़बार, टीवी सबने चीख-चीख कर पुलिस की अमानवियता की दुहाई दी (हुँह, जैसे इससे पहले कभी मानवीय रही थी, अरे भई पुलिस फोर्स बनाने का एकमात्र लक्ष्य और उद्येश्य है अमीरों की सेवा में गरीबों को कुचल देना, कभी ये काम ढ़ँके-छुपे किया जाता है, तो कभी सामने आ जाता है, इसमें इतना हो-हल्ला मचाने की क्या ज़रूरत है, और वो गरीब बस्तियों में रहने वाले कूड़ा उठाने वाले बच्चे-बच्चियाँ ही तो थे। उनके साथ कुछ हुआ तो 100-200 का मुआवज़ा दे दो, और बात को रफ़ा-दफ़ा करो, इतनी सी बात के लिए बहादुर पुलिस को क्यों सस्पेंड और इंक्वायरी जैसी चीज़ों का डर दिखाते हो। एस.एच.ओ. को गिरफ़तार कर लिया। और मुझे, मुझे मालखाने की जगह सड़क पर फेंक दिया गया । बात यूँ हुई कि कुछ मीडिया वालों ने कहा था कि पुलिस स्टेशन में दारू का धंधा होता है, और कोई इंक्वायरी कमेटी बैठ गई थी। उस टीम का इन्सपेक्शन होना था और पुलिसवालों के पास इतना टाईम भी नहीं था कि वो मुझे धो कर साफ़ कर पाते, तो किसी ने मुझे खिड़की से बाहर यानी थाने से बाहर फेंक दिया। हा हा हा, मैं थाने से सही सलामत बाहर आ गया था। और सिवाय कुछ भावनात्मक गन्दगी के, मुझे कोई नुकसान भी नहीं हुआ था। ये तो चमत्कार ही था, हा हा हा .....
और इस बार मुझे उठाया एक भिखारी ने। वो लकड़ी की नीची सी गाड़ी पर बैठा दोनों पैरों से लाचार भिखारी जिसका नाम था मोहम्मद अलताफ़...कैसी किस्मत पाई थी मैनंे, कहाँ तो मजदूरों के साथ रहता था, फिर उनके हत्यारे ने मेरा इस्तेमाल किया और अब मैं एक ऐसे शख़्स के पास था जिसे आप प्रचलित सामाजिक भाषा मंे भिखारी कहते हो। और यहाँ मुझे पता चला कि एक कम्युनिस्ट से ज़्यादा किसी भी चीज़ का बहुउपयोग और कौन जानता होगा । भाई फ़करू,(मैं उसे इसी नाम से पुकारूँगा क्योंकि ये उसका प्रचलित नाम था), तो भाई फ़करू ने मुझे अपना घर-बार मान लिया था। वो खाते भी मुझमें थे, पीते भी मुझमंे थे और अक्सर धोते भी मुझमंे ही थे। इस सब से मुझे कोई नैतिक ऐतराज़ नहीं था क्योंकि आखिर मेरा काम तो उसके काम आना था जिसके हाथ में था (जैसे मैं कोई अलादिन का चिराग हूँ और मुझे घिसकर मेरा मालिक जो चाहे माँग ले)। ख़ैर इन बातों को करने का क्या फ़ायदा, मैं एक लोटा था जिसे मियाँ फ़करू ने बाल्टी, गिलास, प्लेट और टॉयलेट की बोतल गरचेे की हर चीज़ की तरह इस्तेमाल करके देख लिया था। मैं उनकी अस्वभाविक अपेक्षाओं पर ख़रा उतरा था और वो लगातार अपनी अस्वभाविक इच्छायें मुझ पर लादते जा रहे थे। 
उनकी ज़िन्दगी सच में बहुत खूबसूरत ज़िन्दगी थी, वो दिन में बाकायदगी से 8 घंटे काम करते थे। इस फ़ील्ड में बहुत पुराने और एक्सपिरियंस्ड यानी अनुभवी थे, इसलिए नये खिलाड़ियों यानी भिखारियों की तरह बहुत सब्र के साथ भीख माँगते थे। सुबह 8ः30 से 11ः30, जब लोगों के ऑफ़िस का जाने का टाईम होता है और शाम को 4ः30 से 8ः30 जब लोगों के ऑफ़िस से लौटने का समय होता है। उनका कहना था कि भीख माँगना उनका शौक नहीं पेशा था और इसे वो एक कैरियर की तरह मानते थे । उनकी अपनी खोली थी जिसमें वो बाकायदा खाना बनाते थे, चाय बनाते थे और अपने सहकर्मियों के साथ हँसी मज़ाक करते थे या नौसिखियों को अपने अनुभव बताते थे। उनके यहाँ टी॰वी था, वी॰सी॰डी प्लेयर था और बाकी सब सुविधाओं की भी कोई कमी नहीं थी। वो सुबह नाश्ता करके निकलते थे, टाईम पर अपने ठिकाने पहँुच जाते थे और काम ख़्त्म करके सीधे घर वापस, कभी दिल किया तो मार्केट की तरफ निकल जाते थे और चाय पीते हुए, लोगों से बात करते हुए वापस घर आ जाते थे, ऐसे ही एक मार्केट दौरे पर मैं उनसे मिला था। मैं उनके लिए प्राइज़्ड पोज़ेशन था और वो बड़े गर्व से मेरा प्रर्दशन किया करते थे। लेकिन मुझे आजतक ये समझ नहीं आया कि उन्होंने मुझे कभी घर पर क्यों नहीं रखा, वो काम पर निकलने से पहले अपना साजो-सामान ज़रूर सम्भालते थे और उसमें भी ये ज़रूर देखते थे कि मैं उनके पास हूँ या नहीं। कभी-कभी तो वो मुझे भीख माँगने के कटोरे की तरह भी इस्तेमाल करते थे।
जानबूझ कर गंदे रहते थे, और इसके अलावा उन्होंने एक ख़ास स्ट्रेटजी अपना रखी थी वो कभी दया का भाव दिखा कर भीख नहीं माँगते थे, बल्कि अपने चेहरे पर ऐसे भाव ले आते थे जैसे उनकी टाँगें कट गयी हैं। इसमें उन लोगों का हाथ है जो उनके सामने से गुज़र रहे हैं। एसे में गिल्ट के मारे लोग उन्हें पैसे दे ही देते थे। इसके अलावा उन्होंने अपने कुछ पक्के क्लाइंट्स भी बना रखे थे जो बिना लाग-लपेट के उन्हें पैसे दे देते थे। ये ऐसा ही था जैसे कुछ लोग एक खास मन्दिर को अपना मान लेते थे और फिर जो भी दान देना हो उसी मन्दिर में दिया जाता था। इसके अलावा उन्हें, जैसा कि उन्होंने पहले ही सोच रखा था, इस प्रोफेशन से महल बनाने का उनका कोई इरादा नहीं था और रोज़ी-रोटी लायक वो कमा ही लेते थे। जितने समय मैं उनके साथ रहा मैंने अपनी हालत के साथ एक सूफ़ी समझौता कर लिया था, जैसा तू चाहें वैसा चला, तेरे सिवा कोई न मेरा, ये गीत ईश्वर के लिए नहीं था बल्कि फकरु भाई के लिए था। आप मुझमें खाइये, नहाइये, धोइये और हो सके तो मेरे ऊपर सो जाइये, मैं कुछ नहीं कहूँगा। ये साधु जैसा निर्मोही भाव मुझे उनसे ही मिला था और दिन इसी गन्दगी में बीत रहे थे।
फिर एक दिन आपकी दया से मुझे फ़करु भाई से निज़ात मिल गयी। हुआ यूँ कि वो अपने एक ग्राहक से पैसे ले रहे थे कि पुलिस वाले आ गये। और भिखारी तो भाग गये लेकिन फ़करु भाई तो फ़करु भाई थे, वो नहीं भागे, और पुलिस वालों ने उन्हें पकड़ लिया। जिस पुलिस वाले ने उन्हंे पकड़ा था वो सूरत से ही काईयाँ लगने वाले फूल सिंह नाम का तोन्दियल हवलदार था। उसने बड़ी बेशर्मी से फ़करु  भाई से रिश्वत माँगी, और साफ़-साफ़ धमकी दे डाली कि अगर उसकी रिश्वत की माँग पूरी नहीं हुई तो वो फ़करु  भाई को बैगर्स होम में खाना बनाने लगा देगा। अब फ़करु  भाई को तो दया और पीड़ा का भाव चेहरे पर लाना भी नहीं आता था और पैसे उनके पास थे नहीं, ‘मरता क्या न करता‘ के अंदाज़ में उन्होंने फूल सिंह के साथ मेरा सौदा कर लिया, और इस तरह मैं बहुत भरे मन से ( फ़करु  भाई के भरे मन से) फूल सिंह के पास चला गया ।  

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

महामानव-डोलांड और पुतिन का तेल

 तो भाई दुनिया में बहुत कुछ हो रहा है, लेकिन इन जलकुकड़े, प्रगतिशीलों को महामानव के सिवा और कुछ नहीं दिखाई देता। मुझे तो लगता है कि इसी प्रे...