शुक्रवार, 5 जून 2015

एक लोटे की आत्मकथा - 6 - अंतिम पड़ाव


भाग-6
कॉलेज का माहौल तो मुझे देखते ही रास आ गया। चारों तरफ़ युवा लड़के-लड़कियाँ थे, सभी जोश से ऐसे भरे हुए थे जैसे दुनिया ही बदल डालेंगे। और फिर वो लड़का जिसका नाम था...म्म्म्म्म, राजीव...नहीं, सुनील, कयूम, निशांत...अभी भी याद नहीं लेकिन भला सा नाम था। और सबसे बड़ी बात थी कि वो एक थिएटर ग्रुप में काम करता था। ग्रुप में काफ़ी सारे लड़के-लड़कियाँ थे और वो मुझे यूँ उठा लाया था कि वो लोग अभी जो नाटक कर रहे थे, उसमें लोटे का बहुत बड़ा रोल था। 
लीजिये, बिना कोई मेहनत किये मैं एक्टर बन गया था। मेरा रोल उस नाटक में कितना बड़ा था, इसका अंदाज़ा आप इसी बात से लगा सकते हैं कि जब मुझे ग्रुप से इन्ट्रोड्यूस कराया गया तो सब के चेहरे खिल गये थे क्योंकि उनके नाटक का रिहर्सल उस एक लोटे की वजह से रूका हुआ था और वो सब चाहते थे कि कहीं से उनके हाथ कोई लोटा लग जाये। ग्रुप की माली हालत बहुत अच्छी नहीं थी इसलिए वो लोटा खरीदने की जगह कहीं से लोटा जुगाड़ने की सोच रहे थे, और एक चमत्कार की तरह मैं उनके हाथ लग गया था। ‘‘अमेज़िंग है यार, कितना शाइन कर रहा है ना‘‘, ‘‘पर शक्ल से तो एन्टिक लग रहा है‘‘। ये उनके पहले सम्बोधन थे, जो मेरे लिए थे ।
अगर मैं ये कहूँ कि मुझे नाटक का हिस्सा बनने से कोई रोमांच नहीं हुआ तो ये गलत होगा। सच कहूँ तो मेरे लिए तो ये बहुत ही आरामदायक ब्रेक था, दिन भर मैं ग्रुप के फ्लोर मैंनेजर देबू के बैग में रहता था फिर शाम को उनके साथ रिर्हसल में हिस्सा लेता था, और रात को देबू की कम्प्यूटर टेबल पर रहता था। उन लोगों को भी मेरे टेढ़े बैठने की आदत का पता चल गया था और सच कहूँ तो मुझे इसमें कोई प्रॉब्लम नहीं थी। वो लोग मुझे अपने नाटक के और किरदारों की तरह ही उतनी इज़्ज़त देते थे। बड़े प्रेम से रखते थे, सबसे बड़ी बात ये थी कि उनमें कोई एक डायरेक्टर नहीं था, बल्कि वो सब ही एक्सपिरियंस्ड थे और वो सभी नाटक में कोई न कोई पॉज़िटिव कॉन्ट्रिब्यूशन करते ही रहते थे। पर कुल  मिलाकर ये हिस्सा बहुत बढ़िया गुज़रा है, न खाने की परवाह, न सोने की फ़िक्र । इन बच्चों में समाज बदलने का जो जोश दिखाई देता था वो मुझे वो मुझे अपने कॉम. नसीर की याद दिला देता था। आप सोच कर हँस रहे होंगे कि लोटा तो इमोशनल हो गया लेकिन सच कहूँ तो इन बच्चों को देख कर तो कोई भी इमोशनल हुए बिना नहीं रह सकता। खै़र इन बच्चों ने बड़ी शिद्दत के साथ मेहनत करके अपना नाटक तैयार किया, लेकिन जब इनका शो होना था उससे ठीक पहले कुछ भयानक हुआ और सुना पूरे देश में दंगे फैल गये। नाटक तो दूर की बात है, लोगों का घरों से निकलना मुश्किल हो गया था। शायद कोई मस्जिद गिरने की बात थी, या ऐसा ही कुछ था, क्योंकि इन लोगों की बातचीत मंे ऐसे फिक्रे आते थे कि किसी ख़ास पार्टी का तो प्लान ही था कि वो मस्जिद गिरा देंगे, या ऐसा ही कुछ........मैं तो हिंदू मुसलमान दोनों के ही यहाँ रहा हूँ, मुझे तो दोनों की फ़ितरत में कोई ख़ास फ़र्क नज़र नहीं आया। कोई अच्छा ‘इंसान‘ लगा तो वो खुद को नास्तिक कहता था, कहता क्या था प्रचार करता था नास्तिकता का और कहता था, भगवान को मानने वाले बेवकूफ़ होते हैं (ये मेरे शब्द नहीं हैं)। हो सकता है, लोग बेवकूफ़ न हों बल्कि बहुत चालाक हों, और दूसरों को बेवकूफ़ बनाने के लिए भगवान को मानने का ड्रामा कर रहे हों क्योंकि जैसे आप भगवान को मानते हो उससे तो यही लगता है।
चलिये, मैं फिर भटक गया था (आदत के अनुसार) और आपने भी नहीं टोका (क्यों)। तो उन लोगों का नाटक नहीं हो सका, और मेरे एक्टर बनने का एक मौका, आख़री मौका भी चला गया। देबू ने मुझे अपने कमरे की अलमारी की छत पर रख दिया और भूल गया, कतई भूल गया, हो सकता है उसने फिर नाटक किया हो...लेकिन ऐसा कोई नाटक न किया हो जिसमंे किसी लोटे की ज़रूरत हो, और मैं भी दुनिया जहाँ को भूल कर उस अलमारी के ऊपर धूल खाता रहा। फिर जाने कितने समय के बाद शायद दिवाली या दुर्गा पूजा के समय सफ़ाई करते हुए मुझे निकाला गया लेकिन मुझे धो-पोंछ कर इस्तेमाल में लाने की उनकी कोई मंशा नहीं थी, क्योंकि उन्होंने मुझे किसी कबाड़ी को दे दिया जो मुझे अपने बोरे में डाल कर दुकान पर ले गया, जहाँ से मुझे बिना दाम लगाये अपने घर ले गया ।
कबाड़ी का घर कुछ ज़्यादा बड़ा नहीं था, शायद किराये का रहा होगा, आपमें से शायद ज़्यादातर लोग नहीं जानते होंगे कि एक कबाड़ी कमाई कैसे करता है। आख़िर वो आपका कबाड़ खरीदकर ले जाता है तो उसे इसमें क्या हासिल होता है। दरअसल एक कबाड़ी के घर रहकर इस बारे में मुझे बहुत कुछ पता चला है लेकिन वो सब मसाले आप के काम के नहीं हैं, आप बस ये समझ लीजिये कि एक तरफ कबाड़ी होता है जो आपसे सामान खरीदता है तो आगे वो भी वो सारा सामान किसी को बेचता ही है, मेरे मामले में ऐसा नहीं हुआ था। कई बार कबाड़ी लोगों को आपसे खरीदे हुए कबाड़ में कोई चीज़ पसंद आ जाये तो वो चीज़ आगे बेचने की जगह अपने पास रख लेते हैं, जैसे मुझे रख लिया था। 
मेरे नये मालिक ने मेरी कीमत समझी और मुझे अपने पास रख लिया। अब आप साचेंगे की मैं आपको अपने नये मालिक के बारे में कुछ बताऊँगा। जी नहीं, बिल्कुल नहीं।
जिस दिन मुझे वो अपने घर लाया उसके तीसरे ही दिन, उसने अपने दोस्तों के साथ दारू पी, पानी ज़ाहिर है मुझमंे ही भरा गया होगा। फिर रात में किसी समय जब दारू खत्म हो गयी तो आरोप, प्रत्यारोप का दौर आया । और उसी में से किसी ने इस सारे गुल-गपड़े के पीछे मुझे दोषी ठहरा दिया, फिर मुझे तो कुछ समझ ही नहीं की क्या हुआ...कभी कोई मुझे उठा के फेंक देता था तो दूसरा मुझे सम्भाल के रख लेता था। मेरी उम्र बहुत हो चली थी, मेरा र्जजर बदन इतना उत्पात झेल नहीं पाया और एक जगह से छिल गया । वो शारीरिक चोट कम और मानसिक चोट ज़्यादा थी, कहाँ तो मैंने सोचा था कि जिसके पास भी मैं रहूँगा उसकी ज़िंदगी बेहतर बना दूँगा और अब दारू पीकर जो झगड़ा हुआ उसने मुझे अपने जीवन के अंतिम रास्ते पर ला खड़ा कर दिया था।    क्या यही है तुम्हारी मानवीयता, इसी का दम भरके तुम खुद को श्रेष्ठ मानते हो, एक बेज़ुबान लोटे पर तो इतने अत्याचार तो जानवर भी नहीं करते।
सुबह उठकर उस कबाड़ी ने मेरा मुआयना किया और मुझे अपने झोले में डाल लिया, जब वो दुकान पर पहुँचा तो उसके पास बेचने के लिए कुछ था........
उसके बाद कई हाथों से गुज़रता हुआ मैं इस फैक्ट्री में आया हूँ और अपने गलाये जाने का इंतज़ार कर रहा हूँ। जाने मेरी धातु को गलाने के बाद ये मुझे किस शक्ल में ढ़ालेंगे। लेकिन ये तो तय है कि मेरी नियती नहीं बदलेगी। मैं उन्हीं नाशुक्रे, हैवान कहे जाने वाले काबिल इंसानों के काम आऊँगा।
मेरा आपको अपनी आप-बीती सुनाने का मक़सद यही था कि सुधर जाओ, अब भी वक्त है, और मुझे आवाजे़ं आने लगी हैं। लीजिए, मेरी कहानी और ये ज़िन्दगी खत्म हुई। शायद आपसे किसी और रूप में मुलाकात हो। अलविदा.........

2 टिप्‍पणियां:

  1. कपिल जी, बहुत ही उम्दा लिखा है आपने। यूं कहे तो बहुत दिनो बाद कुछ अच्छा पढ़ने को मिला। बस एक ही शिकायत है, कहानी अभी समाप्त नहीं हुई थी। अभी लोटे का सफर जारी रखना था। फिर उस अँग्रेजी के प्रोफेसर से भी तो मिलना था। कोशिश कीजिये की कहानी को और आगे बढ़ाए। कहानी के बारे मे और क्या कहूँ, सिर्फ इतना समझ लीजिये की यह एक आईने की तरह हमे अपने ही चेहरे दिखाती गई। पर्त दर पर्त नकाब उतरते गए, नए नकाब चढ़ते गए, लोग बदलते गए, दौर बदलते गए। नहीं बदली तो इंसान की नियत, उसका स्वार्थ, उसकी वहशियात, और साथ मे नहीं बदली लोटे की किस्मत। आपने बहुत ही अच्छे तरीके से मानवीय भावनाओ को दर्शाने के लिए लोटे का इस्तेमाल किया है। साथ मे जो घटनाएँ आपने दर्शाई है, वह इस कहानी को हकीकत के बहुत करीब ले आती है। इसीलिए मैंने कहा की यह कहानी एक दर्पण का कार्य करती है। गुजारिश है, ऐसे ही लिखते रहिए, और यदि हो सके तो इस कहानी को तनिक और आगे बढ़ाए। इस कहानी का अंत तनिक जल्दी मे लिखा गया लगता है।

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    1. Thank you binny ji, I wrote this story on a mobile phone, may be thats why I put and end to it early. Well, please read my other stories too, I will wait for your comments on them too.
      thank you for liking it.

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