गुरुवार, 29 अक्टूबर 2015

भय और नफ़रत के खिलाफ संगवारी


भय और नफ़रत के खिलाफ संगवारी

कल यानी 28 तारीख को डूटा ने दिनेश सिंह के वीसी पद से हटने यानी जाने के मौके पर एक कार्यक्रम का आयोजन किया। इस आयोजन का नाम ”गुड रिडन्स् डे” रखा गया। इस आयोजन में संगवारी को क्रांतिकारी गीत पेश करने के लिए आमंत्रित किया गया। संगवारी का हर उस संस्था से जो लोकतांत्रिक हितों और जन अधिकारों के संघर्ष में शामिल है, बहुत ही इंकलाबी रिश्ता कायम है। हम डूटा के कई कार्यक्रमों में पहले भी गए हैं, और डूटा के लोग हमारे कार्यक्रमों को बहुत पसंद करते हैं, इसलिए समय-समय पर हमें बुलाते भी रहते हैं। इसी तरह दिल्ली के अन्य संगठन भी संघर्ष के मौकों पर, संगवारी को अपने कार्यक्रमों में आमंतत्रत करते हैं। दिल्ली में जन संस्कृति से जुड़े ज्यादातर लोग जानते हैं कि संगवारी एक निश्चित राजनीतिक विचारधारा से जुड़ा हुआ सांस्कृतिक समूह है, हम हर हालत में जहालत का, फिरकापरस्ती का, पूंजीवाद का, विरोध करते हैं। हम जनता के अधिकारों के पैरोकार हैं, जनता की ताकत पर भरोसा करते हैं, और जनता के लिए, जनता के साथ, जनता से ही सीखे हुए गीत गाते हैं, नाटक करते हैं। संगवारी गैर सरकारी, स्वयंसेवी संस्थाओं के लिए काम नहीं करता, कार्यक्रम नहीं देता और ना ही किसी कोरपोरेट, कंपनी, सरकार आदि से पैसा लेता है। इसीलिए संगवारी भव्य कार्यक्रम नहीं करता, और अपने संघर्ष के साथियों के सहयोगअपने कार्यक्रमों का आयोजन व अन्य काम करता है। हमारे साथी, जैसे डूटा के सदस्य ये भी जानते हैं, कि संगवारी किस किस्म के गीत गाता है और कार्यक्रम करता है। तो जब संगवारी को डूटा की तरफ से कार्यक्रम में शिरकत का निमंत्रण मिला तो सगवारी ने उत्साह के साथ अपनी मंजूरी दी और नियत समय पर, निश्चित जगह यानी आटर््स फैकल्टी के गेट पर पहुंच गया। 

कार्यक्रम की शुरुआत में नंदिता नारायण जी ने कार्यक्रम का परिचय दिया और संगवारी को अपने गीत पेश करते हुए कार्यक्रम की शुरुआत करने को कहा। संगवारी ने अपने तौर पर कार्यक्रम की शुरुआत करते हुए, वी सी के जाने को सभी के लिए अच्छा बताते हुए हबीब जालिब की गज़ल ”मै नहीं मानता, मै नहीं जानता” पेश की। इसके बाद देश में नफरत और भय के, असहिष्णुता के और असहमति के दमन के खिलाफ, अपनी बात रखते हुए केरल हाउस पर बीफ ढूंढने के लिए पुलिस की रेड के बारे में बात रखते हुए कहा कि, ”मोदी अब पुलिस वालों को मेटल डिटेक्टर की जगह बीफ डिटेक्टर देने वाले हैं, इसलिए अपने-अपने टिफिन बचा कर रखें।” इसके बाद हमने गाना गाया, ”ये क्यों हो रहा है, जो ना होना था, हमारे दौर में....”

इस गाने के खत्म होते ही नंदिता जी जो पास ही बैठी थीं, फौरन उठीं और हमसे कहा कि आप एजेंडा पर ही रहें, इससे अलग ना हों। हमें लगा कि वे शायद ये कह रही हैं कि अब हम दो गीतों के बाद वक्ताओं को समय दें। क्योंकि ये तो हम सोच ही नहीं सकते थे कि हमें इन गीतों को गाने से मना किया जाएगा। खैर हम पूरी टीम अपनी जगह आकर बैठने लगे। तभी एक महिला और दो पुरुष मेरे करीब आकर चिल्लाने लगे कि, ”तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई ये सब बोलने की.....” मेरा जवाब था, ”कि मैने कुछ गलत तो नहीं कहा, जो भी कहा सच कहा” उनका कहना था कि, ैसच हो कि नहीं, ये हम नहीं बोलने देंगे।” और मैं लगातार यही कहता रहा कि जो सच है वो तो मैं कहूंगा और उसे कहने से मुझे कोई नहीं रोक सकता। दूसरे मैने कहा कि मैं एक सांस्कृतिक टीम लेकर आया हूं, इसलिए हम तो वही गाने गाएंगे जो हम गाते हैं, वही बात करेंगे जो हम करते हैं। 

इस बहस को अभी थोड़ी ही देर हुई थी कि आभा जी भी वहां आ गई, उन्होने मुझे कहा कि अगर यहां ये मुद्दा बन गया, तो वो असल मुद्दे जिनके लिए इस कार्यक्रम को आयोजन किया गया है, वो रह जाएंगे और इन लोगों का मकसद भी यही है। उनकी बात समझते हुए, और दूसरे उन्होने ही संगवारी को आमंत्रित किया था। मैने अंतिम तौर पर अपनी बात रखी कि मैंने जो कहा वो सच था, और सच मैं कहूंगा ही, लेकिन अब मैं आपसे ”जो लड़ने पर आमादा थे” कोई बात नहीं करूंगा क्योंकि बात तो आप करना चाहते ही नहीं हैं। 

तभी वहां नंदिता जी भी आ गईं, और उन्होनेे भी यही कहा कि डूटा के इस आयोजन में भाजपा के लोग भी हैं, इसलिए हम नाम नहीं ले सकते थे। लड़ाई को आमादा चिल्लाने वाले एक आदमी से उन्होने ये भी कहा कि इसीलिए हमें रोक दिया गया है, इसलिए इस तरह तमाशा ना करें, आयोजन को मुद्दे पर रहने दें। लेकिन नंदिता जी की इस बात को उस आदमी पर कोई असर नहीं पड़ा, और वो एक चबूतरे पर चढ़ कर मेरे खिलाफ धमकियां जारी करता रहा। मैने अपनी टीम की ओर देखा, और उन्हे शांति से बैठकर आयोजन में शामिल रहने को कहा। मेरी टीम बैठ गई थी। इधर पीछे की तरफ वो आदमी रह-रह कर मेरे लिए धमकियां जारी कर रहा था। मैं शांति से बैठा हुआ था, और मेरी टीम मुझे देख रही थी। मैं वहां जिन लोगों के आमंत्रण पर गया था, उन्होने मुझसे इस विवाद को खत्म करने की गुजारिश की थी, इसलिए मैने इसके बाद बात तक नहीं की, और चुपचाप धमकियां और गालियां सुनता रहा। 

नंदिता जी ने माइक से कहा कि, "ये हाल है आपका कि आप असहमति के दो लफ्ज़ नहीं सुन सकते। और हम यहां ये आयोजन ही इस अधिकार के लिए कर रहे हैं कि हमें कम से कम बोलने की आज़ादी तो दी जाए।" 

खैर वो आदमी लगातार कुछ ना कुछ बकता रहा। और हम कुछ देर बाद वहां से चले आए। कार्यक्रम में हम शिरकत कर ही चुके थे, और वहां बैठने का कोई और मकसद नहीं था। 

इस पूरे प्रकरण से जो दो चीजें साफ होती हैं। पहली तो ये कि असहिष्णुता और डर का जो माहौल बनाया जा रहा है, वो इस कदर है कि शिक्षण संस्थानों तक में किसी को कुछ भी बोलने की आज़ादी नहीं है। ये असहमति के गला घोंटने की राजनीति है जो आपको खड़े तक होने का, मुंह तक खोलने का मौका नहीं देना चाहती। दिल्ली विश्वविद्यालय के मुख्य द्वार पर इस तरह के लंपट और बदमाश, लोग चिल्ला-चिल्ला कर धमकियां जारी कर रहे हैं, और पुलिस वहां खड़ी हुई देख रही है। सब मुंह बाए देख रहे हैं। उस बदमाश को, गुंडे को चुप कराने की कोशिश कर रहे हैं। 

हालांकि नंदिता जी ने उसे चुप रहने को कहा, लेकिन मेरा कहना है कि ऐसे कार्यक्रम में जहां आप एक तानाशाह वीसी के जाने की खुशी जताते हुए अपने अधिकारों की लड़ाई को तेज़ करने बात कर रहे हैं, क्या देश के तानाशाह, देश में फासीवाद, देश में भय और नफरत के माहौल के खिलाफ बोलने वाले को सिर्फ इसलिए मना कर देंगे कि कहीं उसी फासीवादी पार्टी के लोग कार्यक्रम छोड़ कर ना चले जाएं। 

दूसरे ये कि इस देश का माहौल इस कदर हो गया है, कि अब आपको मुहं खोलने के लिए भी जान जोखिम में डालना होगी। इस कदर वहशत है, इस कदर डर है, कि कोई कहीं गाना गाएगा, नाटक करेगा, लिखेगा, बोलेगा तो उसे मारने की धमकी दी जाएगी और मार डाला जाएगा। इसलिए अगर इंसान की तरह जीने की शर्त ये है कि संघर्ष किया जाए, या मर जाया जाए, तो हम जीने के लिए, संघर्ष के लिए  तैयार हैं।  

वापस आते हुए, मैने अपनी टीम से पूछा कि आज की इस घटना से उन्होने क्या सीखा। टीम की एक सदस्य ने कहा, ”वो लोग कितना डरे हुए हैं, कि आपके सच बताने तक पर ऐसे भड़क रहे हैं। ये उनके डर को दिखाता है, ये बताता है कि वो लोग जनता से इतना डरे हुए हैं कि वो बात करने से कांप जाते हैं।” संगवारी हर संघर्ष में जनता के साथ है, जनता के साथ रहेगा, और हर तरह के फासीवादी खतरे, फिरकापरस्ती, शोषण और अत्याचार के खिलाफ लगातार काम करता रहेगा। गीत गाता रहेगा, नाटक करता रहेगा। 
इंकलाब जिंदाबाद

मंगलवार, 27 अक्टूबर 2015

पोशम्पा भई पोशम्पा.....दिल्ली में कल क्या हुआ...



अरे तुम्हे पता है कल क्या हुआ.....हां हां...वो छात्र लोग यू जी सी को घेर-घार कर बैठे हैं, वो तो है ही.....कल ये भी हुआ कि केरल हाउस की कैंटीन में पुलिस पहुंच गई कि उनका खाना चैक करना है, क्योंकि हिन्दु सेना वाले किसी सज्जन ने पुलिस को फोन किया था कि वहां बीफ परोसा जा रहा है। अखबार में छपा है कि हालांकि वहां बीफ यानी गौमांस नहीं परोसा जा रहा था, बल्कि अप्रतिबंधित भैंस का मांस परोसा जा रहा था, लेकिन वहां के प्रबंधक ने कहा है कि अब वहां भैंस का मांस भी नहीं परोसा जाएगा......मुसीबत कौन मोल ले.....




समझे मिस्टर.....यानी बकरे की मां, कब तक खैर मनाएंगी.....तुम चिकन भी बनाओगे तो हिन्दु सेना वाले पुलिस भेज देंगे, पालक का साग बनाओगे तो भी पुलिस पतीला उठाकर ले जाएगी.....किसी हिंदु सेना वाले ने फोन किया है कि इसमें बीफ है। अब बना हुआ मांस तो उठ कर गवाही देगा नहीं कि वो बीफ है कि नहीं है, और तुम्हारी औकात क्या, कि तुम्हारी बात मानी जाएगी, हिंदु सेना वालों की बात मानी जाएगी, क्योंकि वो शुद्ध शाकाहारी, ब्रहम्चारी किस्म के लोग हैं और पुलिस को उनकी बात पर पूरा-पूरा भरोसा है, इसलिए इधर उन्होने शिकायत की और उधर पुलिस पहुंची। प्रधानमंत्री की निगरानी में, अमित शाह की गाइडेंस में, आदित्यनाथ जैसे संतों की अगुआई में एक नई किस्म की पुलिस का गठन होगा जो बीफ की शिकायत पर किसी के भी घर, रेफ्रीजरेटर, आदि की जांच के लिए सदैव, सतत् तैयार रहेगी। 

घर दालों से खाली हैं, सब्जियां वैसे ही नहीं मिलती, अब अगर कुछ घास-फूस मान लो तुमने सब्जी के नाम पर बना लिया तो पुलिस आ जाएगी जांच के लिए। पचास-पचास कोस दूर, जब रात को चूल्हे पर हांडी चढ़ती है तो, पड़ोसी चिल्लाते हैं, बंद करो ये आग, अगर हिंदु सेना को पता चल गया कि तुमने हांडी चढ़ाई है तो पुलिस आ जाएगी। गाय का मांस राष्ट्रीय प्रश्न बन चुका है। लाखों किसान मर गए, लड़कियों का बलात्कार होता ही रहता है, दिल्ली में लड़कियां पुलिस में शिकायत करती है कि गुण्डे हमें छेड़ रहे हैं, ;ये भी ये सेना और दल वाले ही होते हैं, दोनो जगह रहते हैंद्ध तो पुलिस के कानों पर जूं नहीं रेंगती, गुण्डे लड़की के चेहरे पर तेजाब डाल कर चले जाते हैं, लड़की को कार में खींच लेते हैं और घंटो बलात्कार करके किसी सड़क के कोने पर मरने के लिए छोड़ देते हैं लेकिन पुलिस को कोई फर्क नहीं पड़ता, और मान लीजिए किसी ने शिकायत कर भी दी तो पहले तो पुलिस पहुंचती नहीं है, पहुंचे तो पहले इसी बात पर गाली-गलौज होता है कि मामला किस थाने का बनता है, फिर कहीं जाकर बात होती है एफ आई आर की, और जांच-वांच की तो बात ही भूल जाओ आप। लेकिन जब हिंदु सेना को कर्मठ कार्यकर्ता बीफ की शिकायत पुलिस को फोन पर बताता है तो पुलिस दौड़ कर जाती है, ताकि बीफ को गिरफ्तार किया जा सके। इतनी कर्मठता आपको दो ही जगह मिलेगी, जब ये लोग गाड़ियों से रिश्वत बटोरने के लिए हाईवे पर ट्रक्स को जान पर खेलकर रोकते हैं। या फिर जब अल्पसंख्यकों के खिलाफ कोई सेना, दल, बल, आदि शिकायत करते हैं। 

मेरी मां ने कल सरसों का साग बनाया था, मुझे बहुत पसंद है, कटोरी में ढंक कर उपर ले गया, पड़ोसी ने आवाज़ लगाई, ”क्या ले जा रहे हो कपिल भाई, छुपा कर....” दिल धक्क से रह गया.....ये क्या सोच रहा है, कहीं पुलिस को फोन ना कर दे कि मैं बीफ खा रहा हूं, कहीं अगर पुलिस आ गई और इस साग की कटोरी को फोरेंसिक टेस्ट करने के लिए ले गई तो......? मैने घर में घुसते ही, बिना कपड़े उतारे, बिना हाथ मुंह धोए, बिना थोड़ी देर बैठे, पहले, सबसे पहले दो रोटियां निकालीं और साग खत्म कर दिया। अब कोई किसी को भी कह दे, मैने तो खा लिया। कम से कम ये तो रहा कि साग का टेस्ट नहीं किया जा सकेगा। हो सकता है कि शिकायत हो और पुलिस आ जाए, तो अब तो कल स्टूल का सैम्पल ही फोरेंसिक लैब में भेज कर पता किया जा सकेगा कि मैने बीफ खाया या नहीं।

अब मामला जो है उसकी गंभीरता आप नहीं समझ रहे हैं, इसलिए ये आर्टिकल पढ़ते हुए भी मुस्कुरा रहे हैं। बंधु-भगिनियों, ज़रा इस बात की गंभीरता को समझिए, आपके हाथ में निवाला है और पुलिस की ठक-ठक होती है, 
”निवाला नीचे रख” एक कड़क आवाज़ में आपको आदेश मिलता है, आप डरते सहमते कांपते हाथों से निवाला नीचे रख देते हैं। 
”तेरे खिलाफ फोन पर शिकायत आई है कि तू......बीफ खा रहा है” 
तुम शॉक्ड, तुमने तो शक्ल नहीं देखी बीफ की, खाना तो दूर की बात.....”न....नहीं सर....कोई गलतफहमी हो गई है आपको.....” 
”चोप्प.....साले वो सेना वाले क्या झूठ बोलेंगे.....वो राष्ट्रवादी, देशभक्त, गौ भक्त, हिंदू धर्म के रक्षक.....  झूठ बोलेंगे...... ये खाना पैक कर लो.....इसे फोरेंसिक जांच के लिए भेजा जाएगा....” 
”पर सर मैं खाउंगा क्या....” 
”ये देखो.....यहां गौ माता की रक्षा की बात हो रही है, राष्ट्र के बड़े संकट को टालने की, समस्या से जूझने की बात हो रही है, और तुझे अपने खाने की चिंता हो रही है....इसीलिए हमारा देश आगे नहीं बढ़ता है। तेरी किचन तब तक सील रहेगी, जब तक फोरेंसिक जांच से नतीजे सामने नहीं आते.....” 
”तो तब तक मैं.....क्या खाउंगा” 
”भूख रह....क्या तू देश के लिए, अपने राष्ट्र के लिए हफ्ता दस दिन भूख तक नहीं रह सकता....देशद्रोही तुझे तो ठौर मार देना चाहिए.....पर अभी रुक, रिपोर्ट आने दे....तब तक तू भूख से ही मर जाएगा....या....कोई और इंतजाम करेंगे.....”
कुल मिलाकर अब आप घीया खाओ, या तुरई, बैंगन खाओ या आलू.....;दाल तो वैसे हीं नहीं खा सकते.....द्ध यानी कुछ भी खाओ, उसे जांच के लिए जब मर्जी ले जाया जा सकता है। 
बाकी दिल्ली में यू जी सी पर छात्र लोगों का धरना भी चल रहा है, जिसके चारों ओर पुलिस देखी जा सकती है। जाहिर है ये पुलिस कुछ लोगों की सुरक्षा के लिए है, क्योंकि शासन को डर रहता है, ये शंातिपूर्वक प्रदर्शन करने वाले छात्रों को पुलिस पकड़ कर बस में डाल देती है, कभी जेल में डाल देती है, कभी डंडे चला देती है। वहीं सेना वाले, बल वाले, दल वाले छात्रनुमा गंुडे जब आते हैं, तो यही पुलिसवाले उनकी हुड़दंगई में मदद करने को तत्पर दिखती है। उन्हे आने-जाने का सुगम रास्ता भी बताती है, और उनके साथ पूरी पटकथा डिस्कस करके काम करती है। पहले ये अभाविप के छात्र नेता आते हैं, उनके साथ कुछ अछात्र/कुछात्र किस्म के छात्र भी होते हैं, जो गालियां देने में, पत्थर चलाने में, दंगे आदि करने में माहिर होते हैं। फिर ये पहले आकर ठी-ठी करके हंसते हैं, फिर पुलिसवालों से राम-राम करते हैं, हाथ-वाथ मिलाते हैं, फिर थोड़ा भारत माता की जय टाइप नारे लगाते हैं, फिर जब मन भर जाता है, या पटकथा के मुताबिक अखबार आदि के लिए फोटो खिंच जाता है तो पुलिसवालों को इशारा कर दिया जाता है, पुलिसवाले इन्हे उठालेते हैं और ये पुलिस स्टेशन चले जाते हैं, जहां पहले से ही इनकी गाड़ियां खड़ी होती हैं, अंदर जाकर ये थोड़ा ठंडा, नाश्ता आदि करते हैं फिर अपने घर, या कॉलेज, जैसा प्रोग्राम हो चले जाते हैं। 
तो कल दिल्ली में ये सब हुआ। अब आपके सामने दो रास्ते हैं। एक तो आप जेल में जाओ, दूसरे आपको पुलिस पकड़ कर जेल ले जाएगी। समझदार नहीं हैं आप, आसान गणित नहीं समझ आ रहा आपको। देखो, अगर तुम यू जी सी जाओगे तो पुलिस तुम्हे पकड़ कर जेल ले जाएगी, और अगर तुम यू जी सी नहीं जाते हो, तो पुलिस किसी की शिकायत को आधार बनाकर तुम्हे गिर-तार कर लेगी और फिर तुम्हारे साथ जा  होगा.....
खैर बात ये हो रही थी कि दिल्ली में कल क्या हुआ.....केरल हाउस में हिंदु सेना आई, लोकतंत्र की हुई पिटाई, छात्रों ने किया, यू जी सी ऑक्यूपाई, अब तुम जो चाहे कर लो भाई, अब तो जेल में जाना पड़ेगा। हा हा हा हा हा हा हा

बुधवार, 21 अक्टूबर 2015

शर्म तुमको मगर नहीं आती......




भई बहुत ही शानदार समय है। कुछ समय तक तो यूं लगता था कि इस देश में कुछ होगा भी कि नहीं, लेकिन अब पिछले कुछ समय से, इतना कुछ चल रहा है? जैसा कि नेतृत्व ने यकीन दिलाया था। बहुत कुछ है देखने-सुनने-समझने के लिए, अभी दादरी के अख्लाक की मौत की खबर ठंडी भी नहीं हुई थी कि पता चला कि रामलीला देखते हुए एक बच्ची को उठा ले गए और उसके साथ बलात्कार कर दिया, फिर एक और बच्ची के साथ ऐसा हुआ, फिर तीसरी बच्ची के साथ भी यही करने की कोशिश की गई। दूसरी तरफ फरीदाबाद में दो बच्चों को जिंदा जला दिया गया। देश का कोई कोना ऐसा नहीं है जहां से हत्या, बलात्कार, दंगा, की खबर ना आ रही हो। लोगों को इसलिए मारा जा रहा है, क्योंकि उनके लिखने से, खाने से, पीने से, जीने से ऐतराज है। गजब समय है जहां मुल्क और कौम के रहबर ये कह रहे हैं कि, ”ये हत्याएं, बलात्कार स्वाभाविक प्रतिक्रिया हैं” यानी कुल मिलाकर हत्यारों को, बलात्कारियों को इन रहबरों का वरदहस्त मिला हुआ है। 
जाने कौन है जिसे विकास चाहिए, जिसके लिए इतना सब कुछ कुर्बान कर देना पड़ रहा है। क्या आपको नहीं लगता कि किसी भी तरह के विकास के लिए ये कीमत बहुत बड़ी है। क्या आपको समाज के आपसी विश्वास, प्यार और सद्भाव की कीमत पर बुलेट ट्रेन चाहिए। कुछ समय पहले मेरा मतलब है तब जबकि सारे देश में चुनाव की लहर दौड़ रही थी, मैने तब भी एक जगह लिखा था कि लाशों के अंबार पर शानदार सड़कें, चमचमाते शहर, और दुनिया भर का विकास नहीं चाहिए, अब तो मैं ये कहना चाहता हूं कि किसी भी तरह से अगर वो दोनो बच्चें वापस आ जाएं, इन बच्चियों के बलात्कार रुक जाएं, तो ये जो दो चार दिन की सांसे भी हैं वो भी ले लो यारों, कम से कम देश के इस तथाकथित विकास के लिए बच्चों की बलि मत दो। 
इन खबरों को पढ़कर भी तुम्हारा दिल ”मेक इन इंडिया” ”स्वच्छ भारत” जैसे नारों से बहलता है, अब भी तुम ये सवाल नहीं करना चाहते कि आखिर ये देश कहां जा रहा है, किस दिशा में बढ़ रहा है। कलबुर्गी, पन्सारे, और दाभोलकर को इसलिए मार दिया गया कि उन्होने जो लिखा वो तुम्हे रास नहीं आया, अख्लाक को इसलिए मार दिया क्योंकि उसने जो खाया वो तुम्हे रास नहीं आया, इन बच्चों को इसलिए जला दिया कि आखिर ये जो चाहते थे वो भी तुम्हे रास नहीं आ रहा था। मेरे एक दोस्त ने याद दिलाया कि ये असल में पिछले साल हुए एक झगड़े का बदला था जिसमें दलितों के एक लड़कों को नाली से गेंद निकालने के लिए कहा गया था, दलित को नाली से गेंद निकालने का आदेश देने की हिम्मत जिस संस्कृति से मिलती है, थू है ऐसी संस्कृति पर। और तुम यही संस्कृति पूरे देश में फैलाने की बातें कर रहे हों। हलक से निवाला नहीं उतरता, और लोग पूरे दिन सोशल मीडिया पर उन बच्चों के फोटो चस्पा कर रहे हैं। 
तुम्हे शर्म नहीं आती कि अब भी तुम उन्ही कामों का बचाव कर रहे हो, जिनकी वजह से इन बच्चों की जान गई है। क्या तुम्हारे कानों में वो चीखें नहीं गूंज रही, क्या तुम्हे इस मॉल के शांत वातावरण में उन बच्चों का आर्तनाद नहीं सुन रहा, क्या यहां ईको टॅूरिज्म करते हुए अचानक तुम्हारी नाक में जलते मांस की गंध नहीं समा जा रही। क्या अब भी तुम्हे समझ नहीं आ रहा कि आखिर क्यों जरूरी है कि विरोध के सभी स्वरों को एकसाथ मिलाया जाए, क्या अब भी तुम्हे लेखकों, साहित्याकारों, नाटकारों, शिक्षकों और बुद्धिजीवियों के इस सत्ता के और इन हत्यारों के खिलाफ खड़े होने का मतलब समझ नहीं आता। 
कौन है जिसने ये माहौल बनाया है, कौन है जो इस माहौल को पाल-पोस रहा है। कौन है जिसे इस माहौल से फायदा होता है, क्यों है ये माहौल ऐसा कि जिसके बारे सोचते ही आपकी नस-नस में नपसंदगी और वहशत छा जाती है। वो कौन है जो लोगो के गोश्त-पोस्त से अपने लिए बेहतरी के रास्ते तलाश सकता है। 
अब इसके अलावा अमनपसंद लोगों के पास, अपने अधिकारों के प्रति जागरुक लोगों के पास, आत्म सम्मान के साथ जीने वाले लोगों के पास, आज़ादी पसंद लोगों के पास क्या चारा बचा रह जाता है कि वो एक साथ इस माहौल के विरोध में, इस असहिष्णुता के विरोध में, इस अंधे हत्यारे युग की शुरुआत के विरोध में, इस बलात्कारी समय की कोशिश के खिलाफ, इस जहालत से भरे विकास के झूठे वादों वाले युग के खिलाफ अपनी पूरी ताकत, पूरे चेष्टा से अपना प्रतिरोध दर्ज करवाएं। क्योंकि अगर आज चुप रहे तो कल आप ही के पास इस बात का जवाब नहीं होगा कि जब एक पूरे युग की हत्या हो रही थी, जब अधिकारों का गला घोंटा जा रहा था, जब मानवता के हाथ बांधे जा रहे थे, सद्भावना को चाकुओं से गोदा जा रहा था, और पूरे समाज को दहशत में पिरोया जा रहा था, तब तुम कहां थे। जो लोग इस लड़ाई में जन के पक्ष में हैं वो तो जाहिर है लड़ रहे हैं, कुछ लोग चुप हैं, शायद डरे हुए हैं, उम्मीद है कि वो भी साथ आ ही जाएंगे, आज नही ंतो कल......
असली मामला उन लोगों का है जो इस सबके बावजूद सत्ता की इस वहशियाना कोशिश के समर्थन में हैं और आज भी, इतने सब के बावजूद किसी ना किसी तरह से इसे सही साबित करने की कोशिश कर रहे हैं। महिलाओं का बलात्कार हो रहा है, मासूम बच्चियों तक को नहीं छोड़ा जा रहा, सिर्फ शक करके किसी को भी मारा जा रहा है, जिंदा जलाया जा रहा है, तमाम तरह की धमकियां दी जा रही हैं। विरोध के, असहमति के हर स्वर को मारा जा रहा है, मारने की धमकी दी जा रही है, और फिर भी तुम अमीर बनने के, वाई-फाई के, स्मार्ट सिटी के सपने में इन सबको नज़रअंदाज़ कर रहे हो.....कुछ तो शर्म करो....कुछ तो शर्म करो......

मंगलवार, 20 अक्टूबर 2015

तुम्ही कहो कि ये अंदाजे-गुफ्तगू क्या है.....


विरोध में 
सुबह-सुबह एक दोस्त का फोन आया तो पता चला कि रवीना टंडन ने कहा है कि ये लेखक-फेखक जो पुरस्कार लौटा रहे हैं, ये उन्होेने तब 26/11 पर क्यों नहीं लौटाया था। मुझे माजरा समझ नहीं आया, तो दोस्त ने ही समझाया कि रवीना टंडन का कहने का मतलब था कि जो लेखक अब देश में फासीवाद की बढ़त और असहिष्णुता के महौल के खिलाफ, इमरजेंसी जैसे हालात के खिलाफ और बोलने-लिखने की आज़ादी के पक्ष में जो अपने पुरस्कार वापस कर रहे हैं, रवीना टंडन उसी संदर्भ में उन्हे याद दिला रही थी कि उन्हे आतंकवादी हमले के समय अपने अवार्ड लौटा देने थे। रवीना टंडन बहुत समझदार हैं उनकी समझदारी का मुकाबला सिर्फ अरुण जेटली की समझदारी से ही लगाया जा सकता है। हालांकि समझदारी के मामले में इस वक्त भाजपा में सभी ढाई किलो से ज्यादा के हैं...”वहां समझदारी किलो के हिसाब से ही होती है”। अब जैसे योगी आदित्यनाथ की समझदारी और बतरा की समझदारी और संबित पात्रा की समझदारी और अमित शाह की समझदारी और....अंततः मोदी की समझदारी। इस समय भाजपा की समझदारी किलो में 1100 ग्राम के हिसाब से मिल रही है, भाजपा में इस वक्त सिर्फ विचार ही विचार हैं, बाकी और कुछ है ही नहीं.....
पर कुछ भी कहिए, आखिर रवीना टंडन ने बात बिल्कुल सही कही है, आखिर इन लेखकों ने तब क्यों नहीं अपने अवार्ड लौटाए जब देश पर आतंकवादी हमला हुआ था, इसका मतलब साफ है......यानी मतलब ये है कि......बात यूं है....चलिए अनुपम खेर की बात करते हैं। उनका कहना है कि लेखकों का ये कदम जो है राजनीति से प्रेरित है, और प्रधानमंत्री को डिस्क्रेडिट करने के लिए उठाया जा रहा है। अनुपम खेर समझदार इंसान हैं, उन्होने बिल्कुल सही कहा, लेखक इसीलिए ऐसा कर रहे हैं, उनका ये कदम राजनीति से प्रेरित है, लेकिन जनाब ये तो इतनी ही साफ बात है, जैसा आपका ये कहना कि लेखकों को ऐसा नहीं करना चाहिए। यानी आप प्रधानमंत्री के समर्थन में बयान दें तो ठीक, हम उनकी आलोचना करें तो गलत, गजब समझदारी है साहब आपकी। लेकिन खुशी इस बात की है कि रवीना टंडन ने भी लेखकों के विरोध में अपना स्वर दिया है। मैं रवीना टंडन से सहमत हूं, हालांकि मैने उनकी कोई फिल्म नहीं देखी, ”भूल-चूक क्षमा होनी चाहिए” लेकिन 26/11 के विरोध में, और लेखकों के इस अवार्ड लौटाने के विरोध में, रवीना टंडन का समर्थन करते हुए मैं उनकी कोई फिल्म खरीद कर लौटाने के लिए तैयार हूं.....इसमें आप मेरी मदद कीजिए और मुझे उनकी किसी फिल्म का नाम बता दीजिए। मैं आपका शुक्रगुज़ार रहूंगा। 
तवलीन सिंह से लेकर रवीना टंडन तक का सफर बहुत ही दिलचस्प है। तवलीन सिंह अखबार में एक कॉलम लिखती हैं, कुल मिलाकर हफ्तावारी कॉलम जिसे लोग संडे की शाम तक भूल जाते हैं, उसमें वे लिखती हैं कि जो लो अवार्ड लौटा रहे हैं, वो पहले ही भूला दिए गए हैं और इसलिए अवार्ड लौटा रहे हैं ताकि फिर से लाइम-लाइट में आ सकें। तवलीन जी बहुत ही तल्लीन किस्म की राइटर हैं, कहीं कुछ भी हो रहा हो, वे किसी ना किसी तरह पी एम के लिए एक दरार पैदा  कर ही देती हैं। बाकी उन्हे कुछ नहीं सूझता, उन्हे लगता है कि दंगे तो कांग्रेस के राज में भी हुए थे, तो फिर मोदी के राज में ही क्यों अवार्ड लौटाया जाए, आगे उन्हे लगता है कि लेखक लोग, या वो लोग जिन्हे मोदी का राज पसंद नहीं है, वो इसलिए कि उन्हे निजी तौर पर मोदी पसंद नहीं है। तवलीन जी का मानना है कि उनके कॉलम को लोग जीवन-भर याद रखते हैं और बाकी जो भी इस देश में लिखा जा रहा है उसे लोग फौरन भूल जाते हैं, इसके पीछे वही आर एस एस वाली सोच है, कि जो मोदी के पक्ष में है सब बेहतर है, जो भी आलोचना है वो देशद्रोह है। तवलीन जी को कभी पढ़िए काफी मजेदार होता है, वो अक्सर अपना लिखा याद दिलाती हैं। वे मोदी राज की हर घटना दुर्घटना के पक्ष में कैसा भी तर्क दे सकती हैं, उनके कॉलम का मकसद किसी भी तरह से मोदी राज के कांडों को सही साबित करना होता है। और इस तरह मोदी की, मोदी राज की आलोचना का उन्हे इसके अलावा कोई कारण लगता ही नहीं है। भारत में पिछले एक साल में साम्प्रदायिक हिंसा और हिंसक वारदातों में खतरनाक रूप हुई वृद्धि उन्हे दिखाई ही नहीं देती, उन्हे दाल, आटा, चावल, सब्जी की कीमतों में बेतहाशा वृद्धि भी नहीं दिखाई देती, उन्हे प्रधानमंत्री के विभिन्न गुर्गों के महिलाओं के खिलाफ, अल्पसंख्यकों के खिलाफ, लोकतंत्र और संविधान के खिलाफ बयान और काम नज़र नहीं आते। 
उन्हे लगता है कि विरोधियों को मोदी से नफरत है और इसलिए वे अवार्ड लौटा रहे हैं, रैलियां निकाल रहे हैं, और लोगांें की हत्याओं का विरोध कर रहे हैं। तवलीन सिंह जी की काबीलियत और उनकी लेखनी की रचनात्मका और वैचारिक क्षमता की सीमा ये है कि वे लेखकों, कलाकारों के विरोध को, आम जनता के विरोध को, ”हुंह, ये लोग तो मोदी से चिढ़ते हैं” तक सीमित कर देती हैं। जैसे हम तवलीन जी ही की तरह, नीतियों पर बात नहीं कर रहे, मोदी की हैंडसमनेस पर बात कर रहे हैं। वे चाहती हैं कि राजा ने आज क्या पहना पर बहस हो, बजाय इसके कि जनता में कितने लोग भूख से मरे। वे चाहती हैं कि लोग देश में लोकतंत्र पर हमले की बजाय मोदी के खाने की बात करें। और जो ऐसा नहीं करता वो उन्हे मोदी विरोधी लगता है। 
अचानक ऐसा हुआ कि कई लेखकों ने पुरस्कार लौटाना शुरु कर दिया, तो लोगों के मन में सवाल आया कि आखिर ऐसा क्यों हो रहा है। अब चैनल दिखाए या ना दिखाए, लेकिन जवाब तो बनता है कि आखिर ये लोग जो आज पुरस्कार लौटा रहे हैं, कल तक क्या कर रहे थे जी......पुरस्कार लौटाए क्यों नहीं थे। असल में इसका सीधा सा गणित है। जब लोगों की रोज़ी पर संकट  आता है तो वो अपने नाखूनों से आसमान नोच देते हैं। लेखक, गायक, नाटककार, आदि का काम है अभिव्यक्ति, अब मान लीजिए आपको ये कहा जाए कि आप कुछ अभिव्यक्त नहीं कर सकते, आप वही कहेंगे जो सत्ता आपसे कहे, आप वही लिखेंगे, वही नाटक करेंगे, गाने गाएंगे, नाचेंगे सत्ता आपसे चाहेगी, यानी विरोध नहीं करेंगे, असहमति नही जताएंगे, या किसी भी किस्म से सत्ता प्रतिष्ठान और उनके चेले-चपाटों की आलोचना नहीं करेंगे, बल्कि वो जो भी करें, उसका येन-केन-प्रकारेण समर्थन करेंगे। तो आप क्या करेंगे, जाहिर है आप या तो तवलीन सिंह, अनुपम खेर हो जाएंगे, नामवर सिंह हो जाएंगे या फिर आप ये कहेंगे कि भई देखो मियां, हम वो लिखेंगे जो हम लिखना चाहते हैं, और जिसकी आज़ादी संविधान हमें देता है, और अगर हमें लिखने से रोकोगे, या किसी की अभिव्यक्ति की आज़ादी में रुकावट डालोगे तो ये लो अपना अवार्ड बेटा, अपने गले लटका ल्यो, हमें नहीं चाहिए। और सुन लो भईया, लोकतंत्र और इंसानी अधिकारों की रक्षा के लिए लेखकों, विचारकों ने नोबेल तक लौटा दिया, ये तुम्हारा साहित्य अकादमी क्या है जी.....
रही बात रवीना टंडन की, तो उन्हे पहले तो ये समझान होगा कि साहित्य आकदमी अवार्ड और भारत में होते हैं और एकेडमी अवार्ड फिल्मों के लिए अमरीका देता है। दोनो अलग-अलग चीजें हैं। अनुपम खेर और तवलीन सिंह को ये समझाना होगा कि लिखना, पढ़ना, जीवन जीना सभी कुछ राजनीति है भईया, और तुम जो कर रहे हो उसे चापलूसी की राजनीति कहते हैं, हम जो कर रहे हैं उसे जनता की राजनीति कहते हैं। और भईया आखिरी बात अपने पसंदीदा योगी, जोकर, नेता, और मुख्यमंत्री पद के दावेदार, आदित्यनाथ जी के लिए, सुधर जाओ, जनता गोलबंद हो गई तो बहुत मारेगी बाबू, संतई और गुंडई दोनो ऐसी निकलेगी कि हथेली लगाने से भी नहीं रुकेगी। बाकी तो तो है वो हइए है।

शुक्रवार, 16 अक्टूबर 2015

बीफ का टेस्ट या डेमोक्रेसी का....?





जितने भी प्रगतिशीलों ने दादरी में हुई अख्लाक की हत्या का विरोध किया, मैं उनसे पूछना चाहता हूं कि क्या उनका ये विरोध उचित था? क्या उन्हे वाकई बहुत बुरा लगा कि अख्लाक की हत्या की गई। आखिर उसने बीफ खाया था, या कम से कम लोगों को लगा कि उसने बीफ खाया था। ये आस्था का मामला है, और आस्था प्रमाण नहीं मांगती। अगर लोगों की आस्था को ठेस लगेगी तो वो कुछ ना कुछ तो करेंगे ही। और आस्था को ठेस इस बात से नहीं लगती कि किसी ने वास्तव में बीफ खाया है या नहीं, आस्था को इस बात से ठेस लगती है कि उनके मन को ये लगे कि कोई बीफ खा सकता है या नहीं। यानी मान लीजिए, आपने आज तक खाना तो दूर बीफ देखा भी ना हो, लेकिन आपको ऐतराज ना हो बीफ खाने से, तो आपकी हत्या की जा सकती है। क्योंकि सवाल ये है ही नहीं, कि आपने बीफ खाया है या नहीं, सवाल ये है कि आप बीफ खा सकते हैं या नहीं। 
हमें तो अब समझ में आ रहा है कि आखिर ये हर घर में टॉयलेट बनवाने की प्रधानमंत्री की योजना का असल मतबल क्या था। अब अख्लाक के जैसे किसी के घर में घुस कर उसके रेफ्रिजरेटर में से खाने का सामान निकाल कर जांचने की जरूरत है ही नहीं.....आपने सुबह टॉयलेट में जो भी किया, वो सीधा जांच के लिए जाएगा, और जांच के बाद जिस किसी ने भी बीफ खाया होगा, उसके घर आस्थावान लोगों का झंुड पहुंच जाएगा। और फिर आपका क्या होगा, ये सोच लीजिए।
चिंता मत कीजिए, ये लोग बहुत सभ्य होते हैं, सिर्फ जान से मारते हैं, बलात्कार वगैरह नहीं करते। हां ये अनुशासन तो मानना पड़ेगा भाई साहब.....बलात्कार वाली टाइम बलात्कार ही करते हैं ये लोग, मारने के टाइम मारते हैं, गालियां देने के टाइम गाली ही देते हैं। अब जैसे किसी को उसके बच्चों समेत जिंदा जलाना हो, तो बहुत ही फोकस होकर बस यही काम करते हैं, जैसे ग्राहम स्टेंस के साथ किया था। या मान लीजिए इनकी आस्था को आपने ठेस पहुंचा दी, और आपकी हत्या का इन्होने फैसला ले लिया, तो बस ये आपके घर जाएंगे और सीधा गोली.....काम में बहुत अनुशासन है, ये तो मानना पड़ेगा। कभी-कभी ऐसा भी हो जाता है कि जैसे बलात्कार करना हो, या लड़कियों के कपड़े-वपड़े फाड़ने हों, उन्हे नंगा करके घुमाना हो, तो मार-पिटाई भी हो जाती है। लेकिन ये कभी-कभी ही होता है, ज्यादातर अनुशासन में ही रहते हैं, आस्थावान लोग।
कभी परसाई ने कहा था कि बाकी देशों में गाय दूध के, मांस के काम आती होगी, हमारे यहां तो गाय दंगे कराने के काम आती है। अभी तो हाल ये है कि गाय सिर्फ दंगे कराने के काम ही नहीं आती, इससे काफी सारे काम हो सकते हैं। अब ये अखलाक वाला मामला ही ले लीजिए, एक तरफ ये साफ हो गया कि आपके खाने की चीजों की जांच हो सकती है। यानी आपका घर हो, या रेफ्रिजरेटर कोई भी कभी भी आकर कोई भी सामान जब्त कर सकता है, और अगर पब्लिक को शक हो, यानी ”खास” पब्लिक को शक हो तो वो बिना कुछ सोचे-समझे आपको जान से भी मार सकती है। 
अच्छा मान लीजिए कि अखलाक ने बीफ ही खाया हो, मान लीजिए कि उसके परिवार ने अपने घर के रेफ्रिजरेटर में बीफ ही रखा हो। और आपकी उस मीट की फोरेंसिक जांच से ये साबित भी हो जाए कि वो गाय का ही मांस था, तो? माने तो क्या होगा? क्या आप अखलाक के हत्यारों को छोड़ देंगे, क्या उन पर हत्या का मामला नहीं  बनेगा। जिन लोगों को समझ में आता है, वो ये समझ लें कि दादरी में अखलाक को पीट-पीट कर नहीं मारा गया है, बल्कि वहां लोकतंत्र को पीट-पीट कर उसकी हत्या की गई है। आपके संविधान प्रदत्त अधिकार आई सी यू में पड़े हुए अंतिम सांसे गिन रहे हैं। 
अभी कल या परसों की सुना या पढ़ा था कि कोई मिनिस्टर कह रहा था कि दादरी में जो हुआ वो गलत था लेकिन प्रधानमंत्री क्यों बयान दे, क्योंकि ये संेटर का मामला नहीं है। तो आखिर सेंटर का मामला क्या है। आपके देश के किसी हिस्से में, चाहे वो कितना ही छोटा हिस्सा क्यों ना हो, जनता किसी एक धर्म की आस्था के सवाल पर किसी के भी घर में घुस का उसे पीट-पीट कर मार दे, ये आतंकवाद नही ंतो क्या है, ये फासीवाद नही ंतो क्या है, ये लोकतंत्र की सरेआम हत्या नही ंतो क्या है। क्या देश में लोकतंत्र रहे या भाड़ में जाए ये प्रधानमंत्री की चिंता नहीं होनी चाहिए?
और सबसे बड़ी बात तो ये कि आखिर ये लेखकों बु़ि़द्वजीवियों को क्या हो गया, आखिर ये लोग अपने-अपने पुरस्कार क्यों लौटा रहे हैं। ये अकादमी पुरस्कार लौटाना, पद्म-भूषण लौटा देना, आखिर चक्कर क्या है जी। अगर इतना ही शौक है तो ये लो लिखना ही क्यों नहीं छोड़ देते। जो समझदार लेखक हैं, जैसे चेतन आनंद हुए, बतरा साहब हुए, मधोक जी हुए या सदाबहार मस्तराम, इन लोगों ने तो कोई पुरस्कार वापस नहीं किया। यूं हो सकता है कि इन्हे कोई पुरस्कार ना मिला हो, लेकिन आगे मिलेगा, अब लिखने वाले यही लोग रह जाएंगे तो सरकार को पुरस्कार तो देना ही ठहरा। बाकी सरकार को चाहिए कि लिखने के लिए भी जीने जैसी शर्तें लगा दे, जैसे आप रामायण-महाभारत-वेद-पुराण आदि की प्रशंसा में, मोदी की प्रशंसा में, हिंदुत्व की भाजपाई परिभाषा वाली कितबें-कहानियां ही लिख सकते हैं। बाकी कुछ और लिखा तो जेल हो जाएगी, या फिर हो सकता कि आस्थवान लोगों की भीड़ आपको भी.......समझ गए ना। 
वैसे भी ये सरकार बहुत बढ़िया काम कर रही है। इससे पहले वाली सरकार ने तय कर दिया था कि सरकार का काम व्यापार करना नहीं है, इसलिए सबकुछ प्राइवेटाइज़ करने की शुरुआत कर दी, बिजली, पानी, शिक्षा, परिवहन, चिकित्सा.....गरज ये कि हर चीज़ को व्यापार मान कर प्राइवेट हाथों में सौंप दिया गया। अब खेती से लेकर विज्ञान तक हर चीज़ या तो अंबानी, अडानी, टाटा के हाथ में है, या फिर उन्ही की कोई सब्सीडरी कम्पनी के हाथ में है। तो सरकार को कोई काम तो बचा नहीं, सिवाय इसके कि वो इन कम्पनियों के काम को और आसान करने में उनकी मदद करे। तो आखिर ये सरकार क्या करे, क्योंकि सरकार है तो उसे कुछ ना कुछ तो करना ही होगा। तो इस सरकार ने अपना काम मान लिया कि ये जनता को बताएगी कि उसे किस तरह रहना है, क्या सोचना है, क्या पहनना है, क्या खाना है और आखिरकार ये कि उसे जिंदा रहना भी है या नहीं। 
तो एक मंत्री ने जिम्मेदारी ली कि वो बताएंगे कि महिलाओं को कैसे कपड़े पहनने चाहिएं, कब और कितनी देर तक घर के बाहर रहना चाहिए, उन्हे किससे प्रेम करना चाहिए और किससे नहीं, वो कितने बच्चे, कब पैदा करें। फिर लोग क्या सोचें, और क्या नहीं सोचना है। क्या खाएं और क्या नहीं.....कुल मिलाकर अब सरकार देश नहीं चलाएगी, बल्कि लोगों की जिंदगी तय करेगी। 
और इस काम को अंजाम देंगे हमारे राजा साहब। हमारे राजा साहब, प्रजा को बिल्कुल अपने बच्चों की तरह मानते हैं। ये सूडो-डेमोक्रेटिक, सूडो-सेक्यूलर, सूडो-इंटलैक्चुअल, क्या जाने कि राज-काज कैसे चलाया जाता है। राजकाज चलाया जाता था प्राचीन भारत में, जब भारत सोने की चिड़िया था, जब वायुयान, और अनाश्व-रथ होते थे, मन की गति से लोग अंतरिक्ष की अनंत सीमाओं तक चले जाते थे, और जब भारत पूरे विश्व का ही नहीं, पूरे ब्रहमांड का गुरु था। तो निश्चिंत बैठिए, दादरी में लोकतंत्र का छोटा सा टेस्ट हुआ है, इस तरह के छोटे-छोटे टेस्ट यानी परीक्षण पूरे देश में चल रहे हैं, और काफी फेवरेबल रिजल्ट भी आ रहे हैं। कुछ नालायकों को छोड़कर इन परीक्षणों को कोई ज्यादा विरोध नहीं हो रहा है। तो जल्दी ही लोकतंत्र को खारिज करके फिर से वही महान परपंरा वाला राजतंत्र फिर से इस देश में स्थापित होगा और फिर वही होगा जो अब हो रहा है.......तो तैयार हो जाइए........मरने के लिए.....या मारे जाने के लिए। 

महामानव-डोलांड और पुतिन का तेल

 तो भाई दुनिया में बहुत कुछ हो रहा है, लेकिन इन जलकुकड़े, प्रगतिशीलों को महामानव के सिवा और कुछ नहीं दिखाई देता। मुझे तो लगता है कि इसी प्रे...