विरोध में
सुबह-सुबह एक दोस्त का फोन आया तो पता चला कि रवीना टंडन ने कहा है कि ये लेखक-फेखक जो पुरस्कार लौटा रहे हैं, ये उन्होेने तब 26/11 पर क्यों नहीं लौटाया था। मुझे माजरा समझ नहीं आया, तो दोस्त ने ही समझाया कि रवीना टंडन का कहने का मतलब था कि जो लेखक अब देश में फासीवाद की बढ़त और असहिष्णुता के महौल के खिलाफ, इमरजेंसी जैसे हालात के खिलाफ और बोलने-लिखने की आज़ादी के पक्ष में जो अपने पुरस्कार वापस कर रहे हैं, रवीना टंडन उसी संदर्भ में उन्हे याद दिला रही थी कि उन्हे आतंकवादी हमले के समय अपने अवार्ड लौटा देने थे। रवीना टंडन बहुत समझदार हैं उनकी समझदारी का मुकाबला सिर्फ अरुण जेटली की समझदारी से ही लगाया जा सकता है। हालांकि समझदारी के मामले में इस वक्त भाजपा में सभी ढाई किलो से ज्यादा के हैं...”वहां समझदारी किलो के हिसाब से ही होती है”। अब जैसे योगी आदित्यनाथ की समझदारी और बतरा की समझदारी और संबित पात्रा की समझदारी और अमित शाह की समझदारी और....अंततः मोदी की समझदारी। इस समय भाजपा की समझदारी किलो में 1100 ग्राम के हिसाब से मिल रही है, भाजपा में इस वक्त सिर्फ विचार ही विचार हैं, बाकी और कुछ है ही नहीं.....
पर कुछ भी कहिए, आखिर रवीना टंडन ने बात बिल्कुल सही कही है, आखिर इन लेखकों ने तब क्यों नहीं अपने अवार्ड लौटाए जब देश पर आतंकवादी हमला हुआ था, इसका मतलब साफ है......यानी मतलब ये है कि......बात यूं है....चलिए अनुपम खेर की बात करते हैं। उनका कहना है कि लेखकों का ये कदम जो है राजनीति से प्रेरित है, और प्रधानमंत्री को डिस्क्रेडिट करने के लिए उठाया जा रहा है। अनुपम खेर समझदार इंसान हैं, उन्होने बिल्कुल सही कहा, लेखक इसीलिए ऐसा कर रहे हैं, उनका ये कदम राजनीति से प्रेरित है, लेकिन जनाब ये तो इतनी ही साफ बात है, जैसा आपका ये कहना कि लेखकों को ऐसा नहीं करना चाहिए। यानी आप प्रधानमंत्री के समर्थन में बयान दें तो ठीक, हम उनकी आलोचना करें तो गलत, गजब समझदारी है साहब आपकी। लेकिन खुशी इस बात की है कि रवीना टंडन ने भी लेखकों के विरोध में अपना स्वर दिया है। मैं रवीना टंडन से सहमत हूं, हालांकि मैने उनकी कोई फिल्म नहीं देखी, ”भूल-चूक क्षमा होनी चाहिए” लेकिन 26/11 के विरोध में, और लेखकों के इस अवार्ड लौटाने के विरोध में, रवीना टंडन का समर्थन करते हुए मैं उनकी कोई फिल्म खरीद कर लौटाने के लिए तैयार हूं.....इसमें आप मेरी मदद कीजिए और मुझे उनकी किसी फिल्म का नाम बता दीजिए। मैं आपका शुक्रगुज़ार रहूंगा।
तवलीन सिंह से लेकर रवीना टंडन तक का सफर बहुत ही दिलचस्प है। तवलीन सिंह अखबार में एक कॉलम लिखती हैं, कुल मिलाकर हफ्तावारी कॉलम जिसे लोग संडे की शाम तक भूल जाते हैं, उसमें वे लिखती हैं कि जो लो अवार्ड लौटा रहे हैं, वो पहले ही भूला दिए गए हैं और इसलिए अवार्ड लौटा रहे हैं ताकि फिर से लाइम-लाइट में आ सकें। तवलीन जी बहुत ही तल्लीन किस्म की राइटर हैं, कहीं कुछ भी हो रहा हो, वे किसी ना किसी तरह पी एम के लिए एक दरार पैदा कर ही देती हैं। बाकी उन्हे कुछ नहीं सूझता, उन्हे लगता है कि दंगे तो कांग्रेस के राज में भी हुए थे, तो फिर मोदी के राज में ही क्यों अवार्ड लौटाया जाए, आगे उन्हे लगता है कि लेखक लोग, या वो लोग जिन्हे मोदी का राज पसंद नहीं है, वो इसलिए कि उन्हे निजी तौर पर मोदी पसंद नहीं है। तवलीन जी का मानना है कि उनके कॉलम को लोग जीवन-भर याद रखते हैं और बाकी जो भी इस देश में लिखा जा रहा है उसे लोग फौरन भूल जाते हैं, इसके पीछे वही आर एस एस वाली सोच है, कि जो मोदी के पक्ष में है सब बेहतर है, जो भी आलोचना है वो देशद्रोह है। तवलीन जी को कभी पढ़िए काफी मजेदार होता है, वो अक्सर अपना लिखा याद दिलाती हैं। वे मोदी राज की हर घटना दुर्घटना के पक्ष में कैसा भी तर्क दे सकती हैं, उनके कॉलम का मकसद किसी भी तरह से मोदी राज के कांडों को सही साबित करना होता है। और इस तरह मोदी की, मोदी राज की आलोचना का उन्हे इसके अलावा कोई कारण लगता ही नहीं है। भारत में पिछले एक साल में साम्प्रदायिक हिंसा और हिंसक वारदातों में खतरनाक रूप हुई वृद्धि उन्हे दिखाई ही नहीं देती, उन्हे दाल, आटा, चावल, सब्जी की कीमतों में बेतहाशा वृद्धि भी नहीं दिखाई देती, उन्हे प्रधानमंत्री के विभिन्न गुर्गों के महिलाओं के खिलाफ, अल्पसंख्यकों के खिलाफ, लोकतंत्र और संविधान के खिलाफ बयान और काम नज़र नहीं आते।
उन्हे लगता है कि विरोधियों को मोदी से नफरत है और इसलिए वे अवार्ड लौटा रहे हैं, रैलियां निकाल रहे हैं, और लोगांें की हत्याओं का विरोध कर रहे हैं। तवलीन सिंह जी की काबीलियत और उनकी लेखनी की रचनात्मका और वैचारिक क्षमता की सीमा ये है कि वे लेखकों, कलाकारों के विरोध को, आम जनता के विरोध को, ”हुंह, ये लोग तो मोदी से चिढ़ते हैं” तक सीमित कर देती हैं। जैसे हम तवलीन जी ही की तरह, नीतियों पर बात नहीं कर रहे, मोदी की हैंडसमनेस पर बात कर रहे हैं। वे चाहती हैं कि राजा ने आज क्या पहना पर बहस हो, बजाय इसके कि जनता में कितने लोग भूख से मरे। वे चाहती हैं कि लोग देश में लोकतंत्र पर हमले की बजाय मोदी के खाने की बात करें। और जो ऐसा नहीं करता वो उन्हे मोदी विरोधी लगता है।
अचानक ऐसा हुआ कि कई लेखकों ने पुरस्कार लौटाना शुरु कर दिया, तो लोगों के मन में सवाल आया कि आखिर ऐसा क्यों हो रहा है। अब चैनल दिखाए या ना दिखाए, लेकिन जवाब तो बनता है कि आखिर ये लोग जो आज पुरस्कार लौटा रहे हैं, कल तक क्या कर रहे थे जी......पुरस्कार लौटाए क्यों नहीं थे। असल में इसका सीधा सा गणित है। जब लोगों की रोज़ी पर संकट आता है तो वो अपने नाखूनों से आसमान नोच देते हैं। लेखक, गायक, नाटककार, आदि का काम है अभिव्यक्ति, अब मान लीजिए आपको ये कहा जाए कि आप कुछ अभिव्यक्त नहीं कर सकते, आप वही कहेंगे जो सत्ता आपसे कहे, आप वही लिखेंगे, वही नाटक करेंगे, गाने गाएंगे, नाचेंगे सत्ता आपसे चाहेगी, यानी विरोध नहीं करेंगे, असहमति नही जताएंगे, या किसी भी किस्म से सत्ता प्रतिष्ठान और उनके चेले-चपाटों की आलोचना नहीं करेंगे, बल्कि वो जो भी करें, उसका येन-केन-प्रकारेण समर्थन करेंगे। तो आप क्या करेंगे, जाहिर है आप या तो तवलीन सिंह, अनुपम खेर हो जाएंगे, नामवर सिंह हो जाएंगे या फिर आप ये कहेंगे कि भई देखो मियां, हम वो लिखेंगे जो हम लिखना चाहते हैं, और जिसकी आज़ादी संविधान हमें देता है, और अगर हमें लिखने से रोकोगे, या किसी की अभिव्यक्ति की आज़ादी में रुकावट डालोगे तो ये लो अपना अवार्ड बेटा, अपने गले लटका ल्यो, हमें नहीं चाहिए। और सुन लो भईया, लोकतंत्र और इंसानी अधिकारों की रक्षा के लिए लेखकों, विचारकों ने नोबेल तक लौटा दिया, ये तुम्हारा साहित्य अकादमी क्या है जी.....
रही बात रवीना टंडन की, तो उन्हे पहले तो ये समझान होगा कि साहित्य आकदमी अवार्ड और भारत में होते हैं और एकेडमी अवार्ड फिल्मों के लिए अमरीका देता है। दोनो अलग-अलग चीजें हैं। अनुपम खेर और तवलीन सिंह को ये समझाना होगा कि लिखना, पढ़ना, जीवन जीना सभी कुछ राजनीति है भईया, और तुम जो कर रहे हो उसे चापलूसी की राजनीति कहते हैं, हम जो कर रहे हैं उसे जनता की राजनीति कहते हैं। और भईया आखिरी बात अपने पसंदीदा योगी, जोकर, नेता, और मुख्यमंत्री पद के दावेदार, आदित्यनाथ जी के लिए, सुधर जाओ, जनता गोलबंद हो गई तो बहुत मारेगी बाबू, संतई और गुंडई दोनो ऐसी निकलेगी कि हथेली लगाने से भी नहीं रुकेगी। बाकी तो तो है वो हइए है।

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