सुर - असुर
अभी जो मैं लिखने जा रहा हूं, उसे लिखने से पहले कुछ बातें साफ कर देना बेहद जरूरी है। पहला तो ये कि मैं एक नास्तिक इंसान हूं, और किसी भी तरह के धर्म, ईश्वर, ईश्वरीय प्रतीक, रीति रिवाज़, आडबंर, परंपरा या निर्देश में मेरी कोई दिलचस्पी नहीं है। जब मेरी उम्र धर्म आदि को समझने की हुई थी, लगभग 12 से 15 साल पहले, तभी से मैने सभी तरह के त्यौहारों का बहिष्कार कर दिया था, पहले पूरी कट्टरता के साथ, कि मैं ना उनमें शामिल होता था, बल्कि उनसे संबंधित हर चीज़, यहां तक कि घर में त्यौहारों पर बनने वाले व्यंजनों और मिठाइयों का भी बहिष्कार करता था, बाद में मैने भोजन, व्यंजनों और मिठाइयों का बहिष्कार करना बंद कर दिया, लेकिन त्यौहार में अब भी किसी भी तरह सम्मिलित नहीं होता। दूसरे मैं अच्छी तरह जानता और मानता हूं कि समाज के हर वर्ग को, हर समूह को, हर समुदाय को अपनी बात कहने का हक है, सबको समान अवसर, समान अधिकार मिलने चाहिएं, और किसी भी तरह का भेदभाव मान्य नहीं है। तीसरे इतिहास का लेखन पक्षपातपूर्ण होता है, जिसमें विजेताओं का पक्षपोषण होता है और हारे हुए लोगों को या तो भुला दिया जाता है या फिर उन्हे निकृष्टतम रूप में दिखाया जाता है, यूं इतिहास हमेशा विजेताओं का इतिहास होता है, और अगर इतिहास का अध्ययन एवं विश्लेषण करना हो तो उसके बारे में सिर्फ सुनकर, या पढ़कर फैसला नहीं लिया जा सकता, बल्कि अन्य स्रोतों की सहायता लेना, व सामान्य ज्ञान का इस्तेमाल भी आवश्यक होता है। अब ये बातें साफ कर लेने के बाद मुझे लगता है कि निम्नलिखित को सही परिप्रेक्ष्य में समझा जाएगा, और इस पर अनर्गल प्रलाप की बजाय सही मायने में विचार होगा।
हिन्दुओं के बहुत सारे त्यौहार हैं, और कमाल ये कि सारे त्यौहार किसी ना किसी तरीके से किसी ना किसी धार्मिक मूर्ति से जुड़े हैं, अगर धार्मिक ना हों तो आध्यात्मिक मूर्तियां होती हैं। लेकिन ज़रा गौर से देखिए, कहां, किसका, कौन सा त्यौहार है जो धर्म से नहीं जुड़ा है। मनाइए, मत मनाइए, ये ना कहिए कि फलां त्यौहार का धर्म से कोई लेना देना नहीं है। अथवा मानिए कि जितने भी त्यौहार हैं, वो किसी ना किसी तरह लोक जीवन से जुड़े हैं, जिन्हे धार्मिक कथाओं के साथ यूं जानबूझ कर जोड़ा गया है कि वे लोक जीवन से कम और धर्म की प्रतिस्थापना करने वाले ज्यादा लगें। और यूं हर वो त्यौहार जो लोक जीवन से जुड़ा है जो मनाया जाता है, जो मनया जा रहा है। चाहे उसे 15 लोग मनाते हों, 2500 लोग मनाते हों, या 5 अरब लोग मनाते हों। लोक परंपराओं को धर्म से क्यों जोड़ गया, उसकी विवेचना करने की जरूरत मुझे नहीं लगता कि यहां है।
अभी हिंदुओं का एक त्यौहार मना, या कुछ ऐसा है जिसमें कई त्यौहार एक साथ जोड़ दिए गए हैं, इनमें दशहरा, देवता पुजाई, दुर्गापूजा, नवरात्र और भी कुछ होंगे, जो मुझे याद नहीं हैं, इसी के साथ एक धारा और भी चली, जो इसके बिल्कुल विपरीत, इन त्यौहारों को गलियाने वाली और इन त्यौहारों की कथाओं में आने वाले विलेन को प्रतिष्ठित करने वाली रही। अब क्योंकि मैं इन स्थापित धर्मों के खिलाफ हूं, बहुत ज्यादा खिलाफ हूं, मेरा अपना मानना ये है कि मानव सभ्यता का जितना बुरा इन धर्मों ने किया है, मानवता का जितना बुरा इन धार्मिक मान्यताओं ने किया है, उतना तो प्राकृतिक आपदाओं ने, युद्धों ने भी नहीं किया। इसलिए मैं दुर्गा की, राम की, और हिंदु मिथकीय नायक-नायिकाओं को ना सिर्फ नहीं मानता बल्कि उनकी पूजा करना भी निकृष्तम कार्य मानता हूं। लेकिन इसी के साथ मैं इन मिथकीय कथाओं में नामित दुष्कर्मियों को, असुरों का प्रतिष्ठित किए जाने का भी उतना ही विरोध करता हूं।
अब ये कहने के बाद सबसे पहले कुछ और बातों पर गौर किया जाए। जब इस तरह का कोई विचार सामने आता है, तो उस विचार को बनाने वाला, या उसे मान लेने वाले, उस विचार को फैलाने वाले, क्या पल भर रुक कर ये सोचते हैं, कि चलो एक बार, सिर्फ एक बार, कम से कम इस विचार का तथ्यात्मक ना सही, तर्कसंगत विश्लेषण तो कर लिया जाए, फिर देखा जाए कि इसे माना जा सकता है या नहीं, या इसका प्रचार किया जा सकता है या नहीं। तो बात शुरु होती है महिषासुर से। अब दुर्गा ने महिषासुर को मारा, या नहीं मारा इस बात पर बहस की जा सकती है। हो सकता है मारा हो, ज्यादा संभव है कि ना मारा हो, क्योंकि मेरे हिसाब से दुर्गा नाम को कोई रहा ही नहीं होगा, ये सिर्फ एक कहानी भर है, जिसे किसी ना किसी तरह जनमानस के जीवन को प्रभावित करने के लिए बनाया गया है। मिथक, इतिहास नहीं होते, वो कहानियां होते हैं, उनमें सामाजिक जीवन, न्याय, पुण्य, पाप आदि का मसाला डाला ही इसलिए जाता है ताकि जनमानस उसे सुरुचि से सुन सके, और हो सके तो अंत में, ”जय दुर्गे” जैसी चीजें बोल सकें। इससे किसी ना किसी को तो फायदा होता ही होगा। लेकिन ये क्या, यदि दुर्गा का असतित्व नहीं है तो ये कैसे मान लिया जाए कि महिषासुर का असतित्व रहा होगा। यानी ये प्रतिष्ठा दो तरीकों से की जा सकती है, एक तो ये मानकर की दुर्गा रही होगी, दूसरी तरफ ये मानकर कि महिषासुर रहा होगा। चाहे वो देवी रही हो, ये राक्षस रहा हो, या वो कहीं की रानी रही हो, और ये कहीं और का राजा रहा हो, बात इनके असतित्व की है। चलिए और आगे चलते हैं, यानी अगर दुर्गा रही हो, महिषासुर, यानी महिष और असुर, अब आप विद्वान लोग ज़रा सोचिए कि ऐसा हुआ होगा कि एक जनजाति रही, असुर, जिसके राजा थे महिषासुर, इनसे लड़ने वालों ने इनके विरोध में अपना नाम रखा सुर। बात कहीं से समझ में आने वाली है क्या। यानी अगर आपके दुश्मन का नाम ”अुसर” हो तो उससे विरोधी नाम के लिए आप अपना नाम ”सुर” रखें। क्या ये ज्यादा तर्कसंगत नहीं लगता कि आपका नाम ”सुर” रहा हो, और आपने अपने मनमुताबित अपने विरोधियों का नाम ”अुसर” रख दिया हो। अगर उपरोक्त तर्क जंचता हो, तो इसका मतलब ये जो ”अुसर” जनजाति है, यानी जो आज आप से हाथ जोड़ कर, भावनात्मक विनती कर रही है, महिषासुर इस जनजाति का नहीं रहा हो सकता, ये हो सकता है कि जिस जनजाति का महिषासुर रहा हो, उसके लोगों को बाद में असुर कहा गया हो, लेकिन तब उसका नाम कुछ दूसरा रहा होगा, यानी अपनी ”शहादत” से पहले। क्या नाम था, मैं उम्मीद करता हूं, वही बताएंगे जो इतने जोश-खरोश के साथ महिषासुर को असुर जनजाति का राजा घोषित और स्थापित करने की कोशिश कर रहे हैं।
इस देव प्रतिस्थापन अभियान में जुड़े ज्यादातर लोग बेवकूफ वकीलों की तरह तर्क कर रहे हैं। यानी वो पहले एक वक्तव्य देते हैं, जिसका कोई प्रमाण नहीं देते, और फिर अपनी सारी बहस को उस एक तर्क पर आधारित कर देते हैं, और हमसे उस वक्तव्य को ही प्रमाण मान लेने की जिद करते हैं। आर्यों का अनार्यों के साथ युद्ध। बार-बार इस बात को सामने लाया जा रहा है कि पूरा हिंदु मिथक सुर-असुर संग्राम से भरा पड़ा है जिसका अर्थ ये है कि आर्यों का यहां की मूल जनजातियों के साथ लड़ाई हुई, युद्ध हुआ, जिसमें आर्य जीत गए, और मूल निवासियों को उनके मूल अधिकार से वंचित कर दिया गया। पहले पहला सवाल, क्या यहां सिर्फ एक जाति थी, यानी ”अुसर” जिससे आर्यों का युद्ध हुआ, अगर हां, तो वो बाद में गोंड, संथाल, भील, हो, उरावं, सहरिया.........आदि जनजातियों में क्यों बंट गई, इसीके साथ इस पर भी गौर फरमाइएगा कि इनमें से हर आदिवासी जनजाति का अपना इतिहास ये कहता है कि पृथ्वी के मूल निवासी वे हैं, बाकी जनजातियां उन्ही में से निकली हैं। ”इनमें भी देवता, धर्म, आदि भरपूर है।” अगर नहीं तो फिर आखिर ऐसा क्या हुआ कि आर्यों ने सिर्फ असुरों से ही युद्ध किया, बाकी जनजातियों से या तो युद्ध नहीं किया, या फिर अपने मिथकों में उनका नाम ही नहीं लिया। हो सकता है बाकी जनजातियों के प्रति उनमें कोई सम्मान का भाव रहा हो, या फिर बाजी जनजातियों ने उनसे कहा हो, कि भाई हमें अपने मिथकों से अलग रखना, ताकि हमे हारा हुआ ना दिखाया जा सके।
अब एक बार इस बात पर भी बात हो ही जाए, कि आखिर महिषासुर को दुष्टात्मा क्यों दिखाया गया, दुर्गा को उस पर विजय पाते हुए क्यों दिखाया गया, उसकी पूजा क्यों होती है। जरा सामाजिक विकास की उस अवस्था की कल्पना कीजिए, जब तीन ही चीजें प्रमुख होती थीं। पहला भोजन की व्यवस्था, दूसरा अन्य कबीलों से अपने कबीले की रक्षा करना, और हो सके तो दूसरे कबीलों पर आक्रमण करके अपने कबीले को ज्यादा से ज्यादा मजबूत बनाना, और तीसरा अपने कबीले में ज्यादा से ज्यादा प्रजनन करना। ये तीनों ही प्राथमिकताएं असल में अपने असतित्व को बचाए रखने के लिए आवश्यक थीं, आज भी हैं। तब हीरो वो नहीं होता था जो अच्छा अभिनेता होता था, या मिमिकरी कर सकता था, अच्छी चित्रकारी करता था, और किताब लिखना तो जाने ही दीजिए, तब हीरो यानी नायक और नायिका वही हो सकते थे, जिसने दुश्मनों को मारा हो, जिसने दुश्मनों पर विजय पाई हो, जो कुशल और बर्बर योद्धा हो, चाहे वो किसी का सिर काट ले, चाहे खून पिए, चाहे मांस खाए। अब हो सकता है कि पहले ये पूजा डर के मारे की जाती हो, कि अगर इसकी पूजा ना की जो ये हमें भी मारेगा, और बाद में वही परंपरा बन गई हो, या हो सकता है कि इसके पीछे ये भावना काम करती हो कि, ये इतनी कुशल योद्धा है तो यही हमारी रक्षा करने में समर्थ है। आज भी ऐसा ही होता है, और जब आप अपने गांव के गुंडे का समर्थन करते हैं, तो ये नहीं देखते ही वो बर्बर है, बल्कि ये देखते हैं कि वो आपके दुश्मनों से कैसा सलूक करते हैं। अब आप उस दौर के सामाजिक मानकों को आज के नैतिक सिद्धांतों के तराजू पर नहीं तौल सकते। अगर आप ऐसा करना चाहते हैं, तो फिर बाबरी मस्जिद को ढहाने वालों को बुरा मत कहिए, क्योंकि वो भी तो यही चाहते हैं। अगर हम आज की मान्यताओं को आज के नैतिक, सामाजिक संदर्भ में देखना चाहते हैं, तो सबसे पहले तो उन घटनाओं को आज के मानकों पर तौलना बंद करना होगा, आज जो घट रहा है, उसका विरोध कीजिए, जरूर कीजिए, लेकिन सिर्फ उन घटनाओं को बुरा-भला कह देने भर से आप कुछ हासिल कर सकते हैं। आज के समाज की जरूरत ऐसे सामाजिक संघर्ष की है, जो पूरे समाज को समान अधिकार, समान अवसर, और सम्मान दिला सके। अगर आप इस तरह के संघर्ष की जगह किसी सतही संघर्ष में अपना हल तलाश कर रहे हैं तो माफ कीजिए आपको निराशा ही हाथ लगेगी। लेकिन असल में इस अभियान के पीछे कुछ ऐसे ही लोगों के हाथ होने की बात समझ आती है, क्योंकि ये पूरा अभियान इस तरह के आधारविहीन तर्कों के बल पर खड़ा किया गया है कि लगता है कि इसे शुरु करने वाले भी अच्छी तरह जानते हैं कि इस अभियान का, इसके जो कारण दिए जा रहे हैं, उनका कुछ होने-हवाने वाला नहीं है। लेकिन इससे इनकी दुकान खूब चल निकल सकती है।
यहां एक छोटा सा उदाहरण देना अनुचित नहीं होगा। जिन अफ्रीकी गुलामों को अमेरिका ले जाया गया था, उनके मालिक, उनके प्रताड़क सभी इसाई ही थे, जबकि ये अ्रफीकी गुलाम जो प्रकृति पर आधारित अपने किसी दूसरे की धर्म को मानते थे, उनके अपने धर्म कई सारे धर्म थे, या यूं कह लीजिए, अपने धर्म को, धार्मिक भावनाओं को व्यक्त करने के कई रूप थे। अब इसे कैसे बदला जाए, या दबाया जाए। एक पूरा अभियान चलाया गया, जिसमें काले पादरी हुए, काली नन हुईं, काले गिरजे हुए, और तो और, अब जीसस भी काले हो गए। अब इसे यूं मानिए कि धर्म की रूढियों से लड़ने के लिए जब भी कोई रूढ़ी सामने आती है, तो वो भविष्य में वो रूढ़ी ही धर्म की एक नई शाखा का रूप ले लेती है। बुद्ध की मिसाल लीजिए, अपने भीतर अपने सत्य को तलाशने की कहने वाले बुद्ध के साथ क्या किया गया, उनकी मूर्ति बनाई गई, उनके नाम पर शलोक बनाए गए, उनके मंदिर बनाए गए, और अब तो उनके नाम पर हत्याएं तक हो रही हैं। बनाइए नऐ प्रतीक, महिषासुर, रावण और भी जो आपको जंचे, या जिसे आप बना सकें, यकीन मानिए, ये रूढ़ियां, ये धार्मिक मिथकीय प्रतीक किसी का कुछ भला करें या नहीं, समाज का बुरा ही करेंगी। धर्म से, रूढ़ियों से, परंपराओं से और अंधभक्ति से लड़ने का सिर्फ एक ही तरीका संभव है, और वो इंसानी संघर्ष को धर्म के खिलाफ खड़ा कर देना, वैज्ञानिक चेतना, और इतिहास की वैज्ञानिक व्याख्या को मिथकों के सामने खड़ा करना, और जनता को इन मिथकीय रूढ़ियों के खिलाफ खड़ा करना।
आप कहानियां लिखिए, कहानियां बनाइए, अपनी जनजाति के इतिहास के गौरव को सुनिश्चित कीजिए, बेझिझक सभी से रूढ़ियों पर आधारित धर्म व त्यौहार ना मनाने की अपील कीजिए, लेकिन एक और धार्मिक प्रतीक मत खड़ा कीजिए।
धार्मिक प्रतीक और व्यक्तित्वों को निर्माण इसी तरह होता है, पहले किसी व्यक्ति, योद्धा को, राजा को स्थापित किया जाता है, फिर उसकी पूजा शुरु हो जाती है, धीरे-धीरे उसके जीवन के साथ किस्से कहानियां जुड़ती हैं, फिर आश्चर्य जनक और फिर अतिश्योक्तिपूर्ण वाकये जोड़े जाते हैं, ये सब उस व्यक्तित्व को और महान दर्शाने के लिए किया जाता है, धीरे-धीरे, जब लोग उसे मानने लगते हैं, उसकी पूजा करने लगते हैं, उसकी फोटो, मूर्तियां आदि बनाने लगते हैं, तो फिर उसके साथ कमाई करने वालों की जमात आती है, और उसकी कथाएं सुनाई जाती हैं, जिनमें उसके अति-अतिश्योक्तिपूर्ण कार्यों की, अतिमानवीय कार्यों की चर्चा की जाती है, और जल्दी ही वो इंसान ना होकर, ईश्वर या ईश्वर का अवतार हो जाता है। किसी भी एतिहासिक महापुरुष को देख लीजिए, अगर वो बचपन में गरीब था, तो ये हो ही नहीं सकता कि वो बचपन में बिजली के खंभे के नीचे ना पढ़ा हो, उसने दिए कि लिए पैसे ना बचाए हों, आदि, आदि। अब भी यकीन ना हो तो भीमा नायक, खाज्या नायक के किस्सों को देख लीजिए, अंग्रेजों से लड़ने वाले ये जनाजातिय धुरंधर, हवा में उड़ते थे, एक साथ 19 जगहों पर दिखाई देते थे, एक ही वार में 12 या उससे ज्यादा दुश्मनों को मार डालते थे। क्या बिरसा को भगवान का अवतार नहीं माना जाता, जनजातिय गौरव के लिए, इतिहसा में अपने सम्मानपूर्ण स्थान के लिए संघर्ष जरूरी है। लेकिन क्या इसके लिए शोषक मिथकों के समकक्ष अपने मिथक गढ़ना जरूरी है।
और अब बात आती है मूलनिवासियों, मूलवंशजों की। ये बात मैं यहां से शुरु करना चाहता हूं कि, एक बार एक महिला से बात हो रही थी, और उन्होने कहा कि किसी एक जनजातिय व्यवस्था में बलात्कार नहीं होता, महिलाओं का शोषण नहीं होता, और अब अगर होने लगा है, तो वो बाहरी प्रभावों का दुष्परिणाम है। यही बात बार-बार सामने आ रही है। सारी बुराईयां बाहर हैं, अंदर सबकुछ भला है, अच्छा है, जिसमें किसी तरह के सुधार की जरूरत नहीं है। जरूरत बस इस बात है कि इस जनजातिय समाज को बाहरी प्रभाव से बचा लिया जाए। क्या आपको ये कुछ सुना सुनाया विश्लेषण नहीं लगता। हमारी संस्कृति बहुत अच्छी है, हमारी संस्कृति सोने की है, हमारी संस्कृति सबसे महान है, इसमें कोई बुराई नहीं है, और अगर अब कोई बुराई है तो वो इसलिए कि वो पाश्चात्य प्रभाव में आ गई है। बात वही पुरानी है, खोल नया है। शोषित, पीड़ित हर समाज में रहे हैं, हैं, सवाल ये है कि आपने उन्हे कैसे देखा है, प्रभावशाली, प्रभुत्वशाली हर समाज में होते हैं, सवाल ये है कि क्या आप उन्हे पहचान पा रहे हैं या नहीं। अब यही बात जनजातिय समाज के बारे में कही जा रही है, कि साहब जनजातिय समाज में तो बलात्कार है ही नहीं है, होता ही नहीं, और अब जो होने लगा है तो वो तो दिकुओं का प्रभाव है। जिसने हमारे युवकों, युवतियों को बिगाड़ दिया है। अब इस संदर्भ को यदि ना समझा गया, तो फिर पड़े करते रहिए गुणगान अपनी सभ्यता और संस्कृति की पवित्रता का, जो हो रहा है वो होता रहेगा।
ज़रा इस पर गौर फरमाइए, आर्य बाहर से आए, यानी, यानी आर्य हिन्दुस्तान में बाहर से आए, मतलब, मतलब तब हिन्दुस्तान नाम की कोई चीज़ थी जिसमें आर्यों ने प्रवेश किया, अनाधिकार, ओह.....अच्छा। तो जनाब क्या आर्यों को वीज़ा पासपोर्ट लेना चाहिए था, क्या उन्हे यू एन नाम की किसी अंर्तराष्ट्रीय संस्था से अनुमति लेनी चाहिए थी, क्या उन्हे आप से अनुमति लेनी चाहिए थी। बात फिर वहीं है, आप उस दौर की घटना का मूल्याकंन आज के मानकों पर आधारित करके कर रहे हैं। मानव सभ्यता का विकास और फैलाव इसलिए हुआ क्योंकि इंसान स्वभावतः प्रवासी है, वो एक जगह से दूसरी जगह प्रवास करता है, खुद को नई जगह के हिसाब से ढालता है, और फिर वहां अपने रहने लायक जगह बनाता है, फिर उसका एक हिस्सा किसी दूसरी जगह की, किसी बेहतर जगह की तलाश में चला जाता है। यूं देखा जाए तो सारी मानव सभ्यता ही बाहरी है, जो दूसरी जगह की तलाश में जाता है, उसका मूलनिवासियों के साथ संघर्ष होता है, जिसमें किसी की जीत होती है, किसी की हार होती है, जिसकी हार होती है, वो दास, या शूद्र या उससे भी निकृष्ट श्रेणी में गिना जाता है, और जीते हुए लोग खुद को देव, या सुर या सबसे महान व्यक्तियों की श्रेणी में मानते हैं। क्योंकि इतिहास विजेता जाति का इतिहास होता है, मिथक विजेता जाति के मिथक होते हैं, विश्वास विजेता जाति का विश्वास होता है। विजेता जाति के योद्धाओं को पूजा जाता है, हारे हुए लोगों को शत्रु, और दुष्टों के रूप में चित्रित किया जाता है। अब आप एक तो ये मान सकते हैं कि शूद्रों को ब्रहम् के जननांगों या पैरों से निकला हुआ बताया जाता है, या ये मान सकते हैं कि जिन लोगों को हराया गया, जो हार गए, दास बनाए गए, उन्हे कबीले में होने वाले सबसे निकृष्टम काम दिए गए, उन्हे हर वो यातना, या उत्पीड़न झेलने के लिए विवश किया गया जो दिया जा सकता था। जैसे नगर के बाहर रहना, उनके साथ छुआछूत बरतना, उनकी हत्या कर दिए जाने पर किसी तरह का प्रायश्चित नहीं होना। अब ज़रा सोचकर बताइए, शूद्रों की उत्पत्ति का आपको मिथकीय तर्क ज्यादा वज़नदार लगता है या फिर समाज के विकास के सिद्धांत पर आधारित ये तर्क।
विजेता जाति ने विजित जाति के साथ जो किया, अब तक भी जो किया, वो व्यवहार किन मूल्यों, मानकों पर तौला जाएगा, उसका प्रतिकार किस तरह किया जाएगा, इस स्थिति को व्यवस्था को किन मूल्यों व मानकों पर बदला जाएगा। आपके पास कुछ विकल्प हैं, जिनमें से एक तो ये है कि समाज की व्यवस्था को समझने वाले, इसका विश्लेषण करने वाले, और तात्कालिक व्यवस्था के मद्देनज़र इस व्यवस्था का प्रतिकार करने के अंबेडकर, और उनके जैसे महान विचारकों द्वारा दिखाए रास्ते और समाज में इस तरह की व्यवस्था परिवर्तन के जरिए समानता के विचार की स्थापना के लिए कार्य किया जाए। अपने समाज को वैज्ञानिक चेतना से समृद्ध किया जाए, उनमे नेतृत्व की क्षमता विकसित की जाए, और फिर सत्ता पर कब्जा किया जाए, या फिर एक और विकल्प ये भी हो सकता है, कि इस समाज को पूजने के लिए नये प्रतीक, दे दिए जाएं, और इनसे कहा जाए कि इन्हे पूजो, इन्हे मानो, बाकी कुछ करने की जरूरत नहीं है। दुश्मन के तौर पर सदियों से तुम्हारे शोषक रहे आर्य मौजूद हैं, उनसे घृणा करो, लेकिन उन्ही के देवी-देवताओं की तरह अपने देवी-देवता बना लो, उनकी परंपराओं और रूढ़ियों के सामने अपनी रूढ़ियों को खड़ा करो और फिर......बस हो गया सब कुछ।
अब आखिरी बात, फिल्म ”खुदा के लिए” का एक डायलॉग याद आ रहा है, मौलाना से जब कहा जाता है कि इस्लाम में दाढ़ी जरूरी है तो वो जवाब देते हैं, कि इस्लाम में दाढ़ी होती है, दाढ़ी में इस्लाम नहीं होता। इसलिए ये खास तुम्हारे लिए दोस्त, समुदाय बचेगा तो भाषा अपने-आप बच जाएगी, भाषा बचाने से समुदाय या जनजाति नहीं बचेगी। बल्कि समुदाय भी खत्म हो जाएगा, और भाषा भी।
आखिरी बात। ये मेरे व्यक्तिगत विचार हैं, और ये मेरा व्यक्तिगत मत है, कि दुर्गापूजा, और इस तरह के किसी भी त्यौहार का, खासतौर पर इसकी टीम-टाम का, इससे जुड़ी रूढ़ियों का विरोध होना चाहिए, बिल्कुल होना चाहिए, कस कर होना चाहिए। लेकिन इनके बरखिलाफ जनसंस्कृति, और जनकला का रास्ता अपनाना चाहिए, ना कि नई रूढ़ियों, और नये ईश्वरों को स्थापित करने का। आज की सबसे बड़ी जरूरत पूंजीवाद, साम्राज्यवाद, और नवउदारवाद के खिलाफ एक संगठित संघर्ष की है, क्योंकि जब तक ये शक्तियां मौजूद हैं, ना तो आपकी भाषा बचेगी, ना लोकपरंपरा, ना लोक संस्कृति, लेकिन अगर आप ये जंग जीत गए, तो जो नया समाज बनेगा, वो ऐसा समाज होगा जिसमें सभी के लिए समान अधिकार, एवं समान अवसरों की जगह होगी।


tyoharon ke liye ya yun kahen ki manoranjan ke liye hamari bhukh itni gehari hai ki jitne tyohar hon utna kam hai. Tyoharon ke peeche chupee bewakoofeeyon ka gyan ho paana isiliye aasan nahin.
जवाब देंहटाएंBilkul sahee vishleshan hai, naya nahin hai, par is par charcha karna behad zarooree hai. MIthkon se chutkara ho jaaye yo shayad brahaman men jo vyarth kampan hai wo thoda kam ho.
अच्छा है ...विस्तृत खूब गुना हुआ ..अनुभव और अनुभव पर आधारित ..अब्जी और अधिक विश्लेषण और तर्क वितर्क की बहस की गुजाएश पैदा करता हुआ ...
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंWell, asura ko shayad ahura mazda (sach ka saath dene wala) ke roop mein kahin aur pooja gaya. Woh shayad yahan se fed up ho gaya tha. Acha kiya. Aapko kitab likhni chahiye. Baapre kitna lamba... indian Dawkins.... but worth the read and funny :) and so true.
जवाब देंहटाएंSundar likha hai..well articulated,Interesting and a good debate...provoking the thought process to actually re-look into the mythology from a logical and scientific perspective...
जवाब देंहटाएंaur Suri ki baat bilkul sahi hai ki "manoranjan k liye bhookh itni gehari hai ki jitne tyouhaar hon utna kam" isiliye itne TV channels aur media ko bhi room mil jata hai...
Kuch points toh kafi striking hain aur sochne par majboor karte hain...jaise " aaj bhi aisa hota hai,jab hum goondon ka samarthan karte hain aur ye nahi dekhte ki wo barbar hai balki ye dekhte hain ki wo hamare dushmano k sath kaisa suluk karte hain" aur "budh ka udaharan aur naye prateekon ki sthapana"....
shayad hum sab mein aur hamare samaj mein vagyanik chetna ka abhaav aur netritva ki kshamta kis disha mein viksit ki jaye is baat ko hamesha hi aakhri darja diya jata raha hai aur isiliye pratikaar ke hone ki sambhavana bhi kamtar ho jati hai...
Waise poora lekh padhne k baad ek baar fir se pehla paragraph padhne se sawalon aur katakshon ki sari gunjaish ki itishri ho jati hai :) khoob bhalo likhe cho? smartly placed ;)
Bahut Sahi baat kahi hai aapney......
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