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सैर कर दुनिया की गाफिल जिंदगानी फिर कहांजिंदगानी गर कुछ रही तो नौजवानी फिर कहां.....
बचपन में, शायद स्कूल की किसी किताब में उसने ये शेर पढ़ा था। नौजवानी तो ना जाने कब खत्म हो गई थी, लेकिन जिंदगानी के जितने दिन उसने गुजारे थे, वो सब दुनिया की सैर में ही गुजारे थे। नौजवानी फिर कहां....सोचते हुए वो हंस पड़ा, इस दुनिया के हर हिस्से के किस्से उसके पास थे, कहीं जेब कट गई थी तो, उसे लोगों से पैसे मांगने पड़े थे, कहीं दो दिन की आशिकी में उसने रातें जाग कर, बारिश में भीग कर गुजारी थी। कहीं गलतफहमी में पुलिस ने उसे पकड़ कर हवालात में डाल दिया था, तो कहीं लोकल शादियों में बैंड बजाने वालों ने उसे रात को ठहरने की जगह दी, और नदी किनारे उसका बिस्तर लगाया था। कहीं घरों में घुस आने वाले बादलों में उसकी मूंछों पर ओस की बूंदे जमा हो गई थीं और कही उसे पानी की कमी के चलते एक लीटर पानी तीन दिन चलाना पड़ा था।
अब तो उसे ये भी याद नहीं था कि उसका बचपन कहां गुजरा था, या शायद वो याद नहीं करना चाहता था। याद करके आखिर होता भी क्या.....उसका बचपन किसी भी कोण से खास नहीं था, ना ज्यादा दुख देखा, ना ज्यादा सुख देखा। एक शहर में, एक सामान्य बच्चे का जैसा बचपन हो सकता था वैसा ही था उसका बचपन। इसीलिए उसे अपना बचपन ना तो याद था, ना ही वो उसे याद करता था। जवानी का किस्सा अलबत्ता अलग ही था। अपनी जवानी की हर घटना उसे ऐसे याद थी, जैसे अभी हुई हो। हालांकि नौजवानी से सबको प्यार होता है, आखिर नौजवानी ही वो उम्र होती है जिसमें इंसान अपने दिल के अरमान पूरे करता है या कम से कम पूरे करने की कोशिश करता है। उसे अपनी नौजवानी के बारे में यही बात सबसे ज्यादा पसंद थी, उसने अपनी नौजवानी में हर वो काम किया था जिसे करने की उसने सोचा था।
वहीं, उसी उम्र में उसने ये तय कर लिया था कि कहीं टिक के रहना, कहीं घर-परिवार बनाना, मकान बनाना, उसके बस का काम नहीं है, और उसने ये जिंदगी बना ली थी, हाथों में हुनर था, वो हर तरह का काम कर सकता था, पढ़ा-लिखा था, इसलिए ऑफिस का काम कर सकता था, ठीक-ठाक मैकेनिक भी था, खाना अच्छा बना लेता था, अंग्रेजी, के अलावा हिन्दुस्तान की कई भाषाएं आसानी से बोल लेता था, और सबसे बड़ी बात, पैसे को लेकर चिक-चिक नहीं करता था। इसलिए जहां भी जाता था, आसानी से नौकरी हासिल कर लेता था, कुछ दिन वहीं रहता था, घूमता था और फिर चल देता था, अपने अनंत जिंदगी के सफर पर।
अपनी इसी जिंदगी में उसे प्रेम भी हुआ, उसका दिल भी टूटा, एक बार नहीं, कई-कई बार उसने अपनी इस सफरी जिंदगी से किनारा करने की कोशिश भी की, कभी प्रेम के चक्कर में, कभी सिर्फ इसलिए कि उसे लगा कि वो थक गया है, और उस वक्त वो जो भी कर रहा है, वो उसकी जिंदगी का सबसे अच्छा मौका है, इसलिए उसे टिके रहना चाहिए। लेकिन......लेकिन वो कभी टिक के नहीं बैठा, टिक के नहीं बैठ सका।
लेकिन अब शायद इस जिंदगानी से सफर को हटा कर ठिकाना बनाना चाहिए। क्या अजीब मामला था, पूरी जिंदगी इधर से उधर घूमने के बाद आज उसे लग रहा था कि उसे टिक जाना चाहिए। वैसे भी उसे यहां आए हुए ग्यारह महीने हो चुके थे। इससे पहले वो नौशहर में था, और यहां सिर्फ इसलिए चला आया था कि वहां बोर हो गया था, वहां वो हाइवे के एक ढाबे में चाय, नाश्ता बनाता था, मालिक उससे जितना संभव हो सम्मान से ही पेश आता था, शायद इसलिए कि वो सुबह अंग्रेजी का अखबार पढ़ता था और सभी ग्राहकों से बहुत तमीज से बात करता था। हाइवे के ढाबे पर अक्सर शहर के नौजवान रईस खाना-वाना खाने आते थे, जबसे उन्हे पता चला कि वो ना सिर्फ अंग्रेजी में बात कर सकता है, बल्कि काफी पढ़ा-लिखा है, मॉर्डन टेक्नॉलॉजी को जानता है, तो कुछ लड़के उसके दोस्त बन गए, और वो ढाबा खास मशहूर हो गया। मालिक को पैसे से मतलब था, वो वहां ठीक-ठाक खुश था, बस बोर हो गया था, छोटा सा शहर था, और लोग बहुत ही आम थे, बहुत ज्यादा आम थे, इसलिए वो बोर हो गया था, अब जब उसे जाना था तो एक दिन उसने शहर को विदा कहा, और ढाबे पर रुके हुए ट्रक पर अपना बैग रखा और निकल लिया।
वो ट्रक यहां धनोसर संतरे लेकर आया था, सो वो भी ट्रक के साथ धनोसर आ गया, यहां से अहमदाबाद सिर्फ 80 किलोमीटर था, इसलिए वो अहमदाबाद आ गया। पहले तो एक सस्ते से होटल में कमरा लिया और फिर काम की तलाश में निकला, ये उसका स्थापित रूटीन था। किसी भी शहर में जाओ तो पहले दो-तीन शहर का जायज़ा लो और फिर जहां संभव हो वहां काम की तलाश करो, हाथ में हुनर हो और कैरियर बनाने या अमीर बनने की चाह ना हो तो आराम से काम मिल जाता है। उसे भोलाभाई पटेल मॉल में एक साइबर कैफे में नौकरी मिल गई, मालिक ने उसका सर्टिफिकेट देखा, उसके पास कुछ लेटर भी थे, और सबसे बड़ी बात बहुत आधुनिक मोबाइल भी था, खैर 8000 रु. माहवार पर वो साइबर कैफे में काम करने लगा।
मालिक पास में ही रहता था, वो सुबह आकर मालिक के घर जाता था, वहां से साइबर कैफे आकर सफाई करता था, बाकी कम्प्यूटर और पिं्रटर को ठीक-ठाक करता था और फिर काम शुरु करता था। वो जानता था कि इस तरह वो मालिक का मेन्टेनेन्स का खर्चा भी बचा रहा था, लेकिन उसके लिए ये आरामदेह काम था। उसे पढ़ने का शौक था, यहां उसे पढ़ाई का पूरा मौका मिलता था, जिस बस्ती में वो रहता था, वो पास ही थी, सस्ती थी, और शहर के लोग बहुत दिलचस्प थे। यूंही करते-करते उसे यहां पूरे ग्यारह महीने हो गए थे। वो पिछले ही महीने यहां से कहीं और जाने की सोच रहा था कि उसका ख्याल बदल गया।
साइबर कैफे में अक्सर आस-पास के लोग ही आते हैं, रोज़ के लगे-बंधे ग्राहक, ऐसा बहुत कम होता है कि वहां नये या अनजान ग्राहक आएं, और जो अनजान ग्राहक आते भी थे वो अपना काम करते थे और चले जाते थे। हर ग्राहक से चाहे वो रेगुलर हो या नया, वो आई डी लेता था और तभी उन्हे इंटरनेट पर काम करने देता था। दोपहर का समय था और कैफे के सिर्फ दो केबिन फिल थे, वो एक भारतीय लेखक का अंग्रेजी उपन्यास पढ़ रहा था और खुद को कोस रहा था कि उसने बेकार ही उस पर पैसा खर्च किया, जब उसने साइबर कैफे में कदम रखा। ”भैया कुछ पिं्रट करवाना है” उसने गुजराती में कहा,
”जी”
”प्रिंट निकलवाने हैं”
”अच्छा.....क्या है”
”मेल में है....”
तब उसने उसे गौर से देखा, खास गुजराती चेहरे-मोहरे वाली, सूती सलवार-कमीज, हाथ में एक फोल्डर, वो कोई कामकाजी युवती थी।
”आई डी.....”
”क्या....”
” मेल के लिए तो आई डी देनी होगी.....”
”आई डी......?”
”हां....कुछ भी चलेगा, वोटर आई डी, डी एल....या कुछ और.....”
”ओह....लेकिन....आई डी तो इस वक्त मेरे पास नहीं है......बस एक मेल ही खोलना है मुझे.....”
”बिना आई डी के तो नहीं होगा.....”
”अरे भैया बहुत जरूरी है.....”
”बिना आई डी के तो नहीं होगा....मैम....” उसने रटा-रटाया जवाब दिया। अभी कुछ ही दिन पहले, पास के ही एक साइबर कैफे में रेड पड़ी थी, वहां से किसी ने किसी को कोई मेल भेजी थी, तब मालिक ने आई डी को लेकर उसे और सख्ती बरतने को कहा था।
”कुछ करो ना भैया....मेरा तो घर बहुत दूर है.....और ये ऑफिस वाले......आज एप्लीकेशन का भी आखिरी दिन है....इन्होने एक जरूरी कागज खो दिया है.....मैं जब तक घर जाकर आई डी लाउंगी तब तक तो ऑफिस बंद हो जाएगा.......”
”आई डी के बिना तो नहीं हो सकता मैम....सॉरी....” आखिर वो कर भी क्या सकता था.....
”अच्छा ऐसा करो ना....तुम खोल लो कम्प्यूटर....तुम मेरा मेल खोल लो......बस कुछ डॉक्यूमेंट प्रिंट करने हैं.....”
उसने सांस छोड़ी......”सॉरी मैम......मैं ये भी नहीं कर सकता.....” वो अपनी कुर्सी पर बैठ गया.....अब तक वो खड़ा हुआ था....लेकिन अब वो सचमुच में कुछ नहीं कर सकता था।
उसकी शक्ल मायूस हो गई थी, जरूरी काम हो तो सबकी हो जाती है। उसने इधर-उधर देखा और फिर मोबाइल निकाल कर फोन करने लगी। वो अंग्रेजी में बात कर रही थी, और उसे भला-बुरा कह रही थी, शायद अपनी किसी सहेली से मदद की गुहार कर रही थी, आखिर ये भी तो कहना ही था कि वो बेकार ही ज़िद कर रहा है, खुद को बहुत इंर्पोटेंट साबित करने की कोशिश कर रहा है, और सारे मर्द एक ही जैसे होते हैं। फिर आखिरकार उसने फोन रख दिया, शायद उसकी सहेली भी उसकी कोई मदद नहीं कर पाई थी। लेकिन कुछ सलाह तो उसने जरूर दी होगी, इसीलिए वो अब तक वहां खड़ी थी।
”अच्छा सुनो......तुम पिं्रट कितने का निकालते हो....”
”पांच रु. पेज....”
” तो तुम मुझे दस रुपये पेज ले लो, बीस रुपये ले लो......”
वो वैसे ही गरदन हिलाने लगा.....”नहीं हो सकता मैम.....बात पैसे की नहीं है.....”
”देखो....” उसने फोल्डर खोल लिया और उसमें से 500 का नोट निकाल लिया, ”मुझे सिर्फ दस-बारह पेज का पिं्रट निकलवाना है......बाकी जो भी बचे वो तुम रख लो.....लेकिन ये प्रिंट मेरे लिए बहुत जरूरी है.....तुम.....तुम कुछ भी करके बस ये प्रिंट निकाल दो.....”
वो सोच में पड़ गया......उसे लगा कि शायद वो पैसे को देखकर लालच में आ गया है......
”कर दो भैया.....इतने पैसे में तो कोई भी निकाल देगा.....”
”आजकल पुलिस की इतनी सख्ती है कि आप दस हजार भी देंगी तो बिना आई डी कोई नहीं निकालेगा मैम....” उसने अंग्रेजी में कहा, ”लेकिन आपके लिए शायद ये बहुत जरूरी है....इसलिए मैं कोई रास्ता सोच रहा हूं......आप ऐसा कीजिए.....आपके मोबाइल में नेट है क्या......”
”नहीं....”
”मेरे मोबाइल में है....आप मेरे मोबाइल से अपना मेल एक्सेस कीजिए और फिर अपने वो डॉक्यूमेंट मेरे मेल पर भेज दीजिए....मैं प्रिंट निकाल दूंगा.....”
”अच्छा......” वो थोड़ा सकते में थी....शायद उसने ये नहीं सोचा था कि ये शख्स जो इतना निर्विकार सा काउंटर पर बैठा है ऐसी अंग्रेजी बोल सकता है। उसने अपने मोबाइल पर नेट ब्राउज़र खोल कर उसे दिया, और फिर एक स्टेशन पर कम्प्यूटर को ऑन कर दिया। कुछ देर बाद जब उसके मेल पर डॉक्यूमेंट आ गए तो उसने वो डॉक्यूमेंट खोले, उन्हे देखा, अपने तरीके से उन्हे ठीक से सेट किया और फिर पिं्रट कमांड दे दिया।
”तुम.....आप ये पैसे रख लो....” वो अपने कागजात संभालती हुई बोली.....
”जी शुक्रिया..... पर मैं आपको इसलिए मना नहीं कर रहा था कि मुझे पैसे चाहिए थे या मैं खुद को इर्म्पोटेंट साबित करना चाहता था......” उसने प्रिंट के पैसे काट कर बाकी पैसे उसे दे दिए....
”आई....आई एम सॉरी......” वो साइबर कैफे से निकल गई.....
इस बात को दस-बारह दिन गुज़र गए और उसके जेहन से ये बात और वो महिला बिल्कुल निकल गए....तो एक दिन वो फिर आ गई......साइबर कैफे लगभग खाली पड़ा था।
”हाय....मैं याद हूं आपको...” उसने मुस्कुराते हुए कहा....
”बिल्कुल.....आई डी....हैलो.....” उसने भी मुस्कुराते हुए जवाब दिया....आज वो खूबसूरत लग रही थी....शायद परेशान नहीं थी इसलिए.....
”मैं बस उस दिन के अपने व्यवहार के लिए माफी मांगना चाहती थी......बहुत देर से आई हूं क्या......पहले तो मैं यही सोचती रही कि जाउं कि ना जाउं.......लेकिन फिर सोचा कि.....”
”उस दिन ऐसी कोई बात नहीं हुई थी कि आपको माफी मांगने की ज़रूरत हो.....आप परेशान थीं और ऐसे में इंसान कुछ कड़ी बातें कह ही देता है.....”
”नहीं नहीं.....आप....क्या ये साइबर कैफे आपका है.....”
”जी नहीं....मैं यहां नौकरी करता हूं......”
”ओह....”
चाय वाला उसके लिए चाय ले आया था,
”चाय पिएंगी आप...” उसके हां कहने से पहले ही वो लड़के को एक और चाय लाने की कह चुका था.....वो सामने वाली कुर्सी पर बैठ गई......उसने अपनी चाय का कप उसे थमा दिया और अपनी चाय का इंतजार करने लगा.....जब लड़का उसके लिए भी चाय ले आया तो उनके बीच कुछ हल्की-फुल्की बातें चलने लगीं। फिर वो चली गई। उसके बाद कुछ सिलसिला सा बन गया.....वो हफ्ते में दो या तीन बार आ जाती थी....कुछ बातें करती थी और चाय पीकर चली जाती थी। एक दिन उसने उससे पूछा कि क्या वो कम्प्यूटर के बारे में कुछ जानता था। उसके घर पर जो कम्प्यूटर था वो काफी दिनों से चला नहीं था, और अगर उसे कोई जहमत ना हो तो क्या वो उसे देख सकता है। इस तरह उसका उसके घर जाने का रास्ता बना। यही उसने पहली बार रेवती को देखा। रेवती उसकी बेटी थी, बहुत प्यारी सी, पहले ही दिन से वो रेवती से प्यार करने लगा, और रेवती से मिलने के लिए उसके घर जाने लगा, वो रेवती के साथ खेलता था, रेवती को पढ़ाता था और उसके साथ घूमने जाता था, उससे बात करता था। वो खुश थी, वो भी खुश था। वो बार बार उसके घर जाता रहा।
वो जानता था कि ये क्या सिलसिला है, क्या सिलसिला बन रहा है, उसके साथ ऐसे कई सिलसिले कई बार बन चुके थे। लेकिन उसने कुछ खास परवाह नहीं की, और वैसे ही जिंदगी जीता गया। लेकिन उसे रेवती से प्यार हो गया था, उसे लगता था कि वो अब ज्यादा खुश रहने लगा था, वो जब रेवती से मिलकर आता था तो उसे बहुत अच्छी नींद आती थी, हंसने का मन करता था, और वो अगली बार रेवती के साथ समय गुजारने की योजना बनाता था।
उसका अपने पति से तलाक हो चुका था, और वो किसी स्कूल में टीचर थी, उसके पति को रेवती से मिलने में कोई दिलचस्पी नहीं थी। इधर उसे लगता था कि वो कौन शख्स होगा जो रेवती से प्यार ना करे। वो कई बार रात को रेवती की मां, आनंदी के घर में ही रुक जाता था, सुबह रेवती को स्कूल छोड़ने जाता था, उसे बहुत अच्छा लगता था कि वो रेवती का हाथ पकड़ कर उसे बस में बैठाने जाता है, और सुबह-सुबह रेवती से ढेर सारी बातें करता था। कई बार शाम का खाना खाने के बाद वो रेवती को गोदी में उठाकर थपकियां देकर सुलाता था, और उसे ये भी बहुत अच्छा लगता था।
पहले उसने इधर-उधर कम्प्यूटर रिपेयर के काम पकड़ने शुरु किए, फिर उसने साइबर कैफे वाली नौकरी छोड़ दी और एक दूसरी नौकरी पकड़ ली जिसमें उसे ज्यादा पैसा मिलता था, फिर एक दिन जब आनंदी ने उससे कहा कि वो वहीं उनके घर पर रहे, तो उसने फौरन ये बात मान ली, आखिर इस तरह वो ज्यादा से ज्यादा समय रेवती के साथ गुजार सकता था।
आज आनंदी ने उसे बताया कि उसका अपने पति से तलाक फाइनल हो गया था, और अब वो आज़ाद थी। ये बात उसने बहुत अर्थपूर्ण तरीके से बताई थी, उसे आनंदी में उतनी ही दिलचस्पी थी जितनी किसी मर्द को किसी औरत में हो सकती है, लेकिन वो रेवती से प्रेम करने लगा था, उसने गहरी सांस ली। सैर कर दुनिया की गाफिल.....जिंदगानी सफर में गुजारी जा सकती है.....और ये भी हो सकता है कि जिंदगी को एक दिलचस्प सफर मान लिया जाए, जिसमें अगर कोई दिलचस्प मुकाम आ जाए तो......तो ठहर लिया जाए....उसने सोचा। रेवती डांस क्लास में गई थी, और वो पार्क में बैठा उसका इंतजार कर रहा था। सामने से रेवती आती दिखाई दी......वो हंस रही थी, बहुत खुश थी, उसे देखते ही उसके चेहरे पर मुस्कुराहट आ गई। उसने वहीं टिक जाने का फैसला कर लिया। आखिर जिंदगी के सफर में उसका मुकाम यही था, रेवती।

Bahot badiya. Aur likhen.
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