सोमवार, 13 दिसंबर 2021

ख़तरनाक दौर

 




दोस्तों

ये बहुत ख़तरनाक दौर है 

इस दौर में कवि होना ख़तरनाक है 

क्यूँकि आपकी कोई भी कविता 

उन्हें नागवार गुज़र सकती है 

आपकी कविता राष्ट्रवादी ग़ुब्बारे की 

हवा निकाल सकती है 

वो बहुत कमज़ोर होता है 

और कविता आप जानते हैं 

अक्सर बहुत तीखी होती है 

लेकिन फिर भी 

कुछ मुहज़ोर लोग 

कवि बने रहने की बेतुकी 

ज़िद पे अड़े हुए हैं 


इस दौर में औरत होना भी ख़तरनाक है 

क्यूँकि औरत की छाया से 

अक्सर ही धर्म की धोती खुल 

जाती है 

कुछ लोग सोचते हैं कि ख़तरा 

बाहर है 

लेकिन औरत होना 

चारदीवारी के भीतर 

घर के सबसे सुरक्षित कोने में भी 

ख़तरनाक है 

लेकिन में देख रहा हूँ 

की इन चेतावनियों पर आपका 

कोई ध्यान नहीं है 

क्यूँकि ये जो सामने खड़ी है मेरे 

ये औरत होने की ज़िद पे अड़ी हैं 


यूँ इस दौर में 

मुसलमान होनाईसाई होनाहिंदू होना 

अगर आप दलित हैं तो 

या आदिवासी या नास्तिक होना 

ख़तरनाक है 

क्यूँकि राष्ट्रवाद की मूल परिभाषा में 

एक धर्म की ही गुंजाइश होती है 

राष्ट्र कोई ज़मीन का टुकड़ा नहीं होता 

वो तो दिमाग़ में पलता है 

इसलिए जिन धर्मों को आप मानते हैं 

या नहीं मानते 

वो अगर राष्ट्रवादी धर्म नहीं है 

तो आपको ख़तरा है 

ये आपके लिए ख़तरनाक है 

ओहो आपको मेरी ये बात भी लगता है 

समझ नहीं आयी 

के फिर भी आप अपनी धार्मिक पहचान को 

संभाल के रख रहे हैं 


अच्छा ये आख़री बात 

देखिए और कुछ चाहे मत  सुनिए 

पर ये समझ लीजिए 

इस दौर में इंसान होना 

इंसानियत की जद्दोजहद करना 

इंसानियत को मानना 

इंसान को प्यार करना 

इंसान होने के लिए आवाज़ उठाना 

ये सब ख़तरनाक है 

बहुत ख़तरनाक है 

हाँ आप गाय हो सकते हैं 

चाहें तो भैंस या बकरी 

मोर 

हाँ ये सब इंसान होने से 

कम ख़तरनाक है 

आज के दौर मैं 


अब यही देखिए 

ये कविऔरतेंये धर्म को मानने वाले 

नास्तिक 

दलित छात्र मजदूर 

ये रिक्शा चलाने वाले 

चाय बनाने वाले 

ये सब यहाँ जमा हो जाएँ 

तो ये ख़तरनाक है 

ये राष्ट्रवाद के लिए 

जहालत के लिए 

सत्ता के लिए 

चाहे वो देश की हो

या यूनिवर्सिटी की 

ख़तरनाक है 


अब आप पूछेंगे कि रास्ता क्या है 

तो देखिए 

एक रास्ता तो ये है कि

गाय हो जाइए 

गोबरदूधपेशाब 

सब वो काम मे ले लेंगे 

मोर हो जाइए 

कम से कम आँसू तो 

किसी काम आएगा 

इंसान होने की मत सोचिए 

ना पसीनाना लहूऔर ना तड़प 

इंसान इस सत्ता के लिए किसी काम 

का जीव नहीं है 


और दूसरा रास्ता ये हो सकता है 

की इंसान होने की ज़िद पे अड़े रहिए 

और सच में इस सत्ता के लिए 

इस सत्ता की हिंसा के लिए 

ख़तरनाक हो जाइए 

क्यूँकि सबसे ख़तरनाक 

इंसान होने की कोशिशज़िदऔर लड़ाई होती है 

सोमवार, 6 दिसंबर 2021

बक्सा



कहीं देखा है आपने? सुना है? रेषम के कामदार कपड़े से मढ़ा हुआ, सोने की तारों के काम वाला बक्सा। पुरानी जमींदारियों में शायद होता हो, राजा-महाराजाओं के जमाने में तो ज़रूर ही होता होगा। क्योंकि जब राजा और रानियां अपने जेवर और जवाहरात रखते होंगे तो उन्हे कहां रखते होंगे। जवाहरात संभालने के लिए बक्से को विषेष तो होना होगा ना। वैसे बक्से दिखते ही उनमें रखे माल की कीमत कल्पना में आ जाती है। ऐसे बक्से खाली भी हों तो उनकी कीमत बहुत होती होगी। क्यों? पर क्या ऐसे बक्सों की कीमत, फिर चाहे उनमें माल हो या ना हो, सबके लिए एक सी होती होगी ? इस लिहाज से सोचा जाए तो बताइए भला, राजाओं के लिए, रानियों के लिए, जवाहरात की कीमत होगी या उसके बक्से की? मुझे लगता है कि वो जवाहरात निकाल कर बक्से को फेंक दिया करते होंगे। मैं ने कई बार इसे अपनी कल्पना में देखा। रानी ने जवाहरात निकाले और बक्सा फेंक दिया, और उसके आगे देखा कि एक बहुत ही ग़रीब बच्चे ने वो बक्सा उठा लिया। वो ग़रीब बच्चा उस बक्से को अपने घर ले आया। उसकी मां ने उस कीमती, रेषम के कामदार कपड़े से मढ़े बक्से को बच्चे से ले लिया और उसे संभाल कर रख लिया। किसी के लिए वो बक्सा बेकाम था, किसी के लिए वो बक्सा ही बेषकीमती हो गया। 

आपके लिए क्या बेषकीमती या सिर्फ कीमती है, ये इस पर निर्भर करता है कि आपको क्या हासिल है। मुझे याद पड़ता है वो बक्सा जो जालीदार था। मेरी दादी उस पर ताला लगा कर रखती थी। और उस बक्से में रहता था, मक्खन, घी, गुड़, गोंद के लड्डू और शक्कर। ये सफेद वाली चीनी नहीं, जिसे आप शक्कर कहते हैं, वो गुड़ वाली शक्कर जो गर्मी में पिघल कर पानी हो जाती है। और आप यकीन मानिए मेरे लिए वो किसी भी जवाहरात से ज्यादा कीमती थी। मैं उसे चुराता था। यूं मैं घी, गुड़, लड्डू सबकुछ चुरा कर खा जाता था। लेकिन शक्कर मुझे विषेष प्रिय थी। मेरी दादी उस शक्कर को बचाती थी, छुपाती थी। और मैं उसे चुराता था, खाता था। दादी और पोते का यही खेल चलता था। 

चारों तरफ जाली वाला वो बक्सा दादी के कमरे में पीछे की तरफ रहता था, हो सकता है दादी उसमें पैसे भी रखती हो। मैं ने कभी ध्यान नहीं दिया। दादी को जब भी पैसे की जरूरत होती थी, वो एक छोटा सा बटुआ अपने घाघरे के कमरबंद से निकालती थी, कभी - कभी मैने दादी को तकिये के नीचे से भी पैसे निकालते देखा था, और कभी - कभी पैसा टांड पर भी होता था। हो सकता है कि वो लोहे  के जालीदार बक्से में भी पैसा रखती हो, पर मुझे कभी ख्याल ही नहीं आया कि वहां पैसा हो सकता है। लेकिन इस बात का मुझे पूरा यकीन था कि शक्कर सिर्फ और सिर्फ वहीं होती थी। लकड़ी का वो बक्सा जिसमें बीच में एक तल्ला लगा था, नीचे की तरफ कुछ सामान होता था और उपर की तरफ कुछ सामान होता था। मेरे मतलब का सामान उपर की तरफ होता था। मैं चुपके से चाबी उठाता था, बिना आवाज किए ताला खोलता था और चुपके से मुठ्ठी भर शक्कर निकालता था। अब मेरे एक हाथ की मुठ्ठी में शक्कर होती थी और ताला खुला होता था। मैं कच्चा चोर था। शक्कर मिल गई, काम खत्म। मैं बिना ताला बंद किए शक्कर लेकर भाग जाता था, और अपने हाथ से चाट-चाट कर शक्कर खाता रहता था। बक्से की कीमत मेरी निगाह में वही थी कि उसमें शक्कर थी। 

मेरे बचपन का वो हमसफर बहुत देर तक मेरे साथ रहा। मेरी निगाह कभी इस तरफ नहीं गई कि वो बक्सा बहुत पुराना था। उस बक्से की लकड़ी की रंगत मेरी नज़र में कभी नहीं आई। मैने कभी नहीं सोचा कि उस बक्से की लंबाई - चैड़ाई क्या है, उसकी जाली गंदी है या साफ है। जब दादी ने पिता के घर से दूर फाॅर्म हाउस पर डेरा डाला तो मुझसे पूछा गया कि क्या मैं दादी के साथ रहना चाहूंगा। मैं ने फौरन हां कर दिया। पर सच तो ये है कि मैं दादी के पीछे, दादी के साथ नहीं गया था। मैं तो उस बक्से के पीछे गया था। जालीदार बक्से के पीछे, जिसमें शक्कर होती थी। मेरे लिए वो बक्सा बहुत कीमती था। बहुत कीमती। 


कुछ सालों बाद, जब मैं ने पढ़ाई पूरी कर ली, नौकरी करने लगा। अपना घर बना लिया। अकेले रहने लगा था। दादी कब की फौत हो चुकी थी। सभी को ये लगता था कि मैं दादी को बहुत प्यार करता था। उसके पीछे ये मामला भी था कि सब को लगता था कि मैं सबसे ज्यादा दादी के साथ रहा था इसलिए जाहिर है कि मैं सबसे उस से सबसे ज्यादा प्यार करता था। शायद इसीलिए एक दिन मुझे बुलाया गया और कहा गया कि ये देख ये बक्सा जो है, दादी का, ये तो बहुत दिनों से इस्तेमाल नहीं हो रहा है, तो सोच रहे हैं कि तुम इसे ले लो, रख लो, संभाल लो, और फिर धीरे से कहा, ” अगर चाहते हो तो?” अब कहानी को भावनात्मक बनाने के लिए मैं बहुत कुछ कह सकता हूं। कि कैसे मैने उस बक्से को बाहों में भर कर चूम लिया। कैसे मेरी आंखों के आगे बचपन की वो सारी यादें फिर से जिंदा हो गई जो उस बक्से और दादी के साथ जुड़ी थी। कि कैसे मैने दौड़ कर उसे उठा लिया और अपने कमरे में जाकर सजा दिया। लेकिन दरअसल हुआ यूं कि मैने उस मैले, गंदे, चीकट बक्से को देखा। वो बक्सा जिसके पीछे किसी जमाने में मैं ने घर छोड़ दिया था। वो बक्सा जिसके साथ मेरी बचपन की यादें जुड़ी थीं। वो बक्सा जिसने मुझे शक्कर दी थी। फिर बिना कुछ सोचे जवाब दिया, ”मुझे नहीं चाहिए, जो मर्जी कीजिए इसका। ” और पलट कर वापिस अपने घर चला गया। 


बुधवार, 1 दिसंबर 2021

कुछ गज़लों जैसा

 


सच या कोई बहाना होगा

दिल को ये समझाना होगा

वफा की बातें कौन करे 

बेवफा!! सारा जमाना होगा

शाम हुई तो घर को लौटे

सुबह को फिर से जाना होगा

कुछ सिक्कों की खातिर बेचा

खुद को ”कपिल” कमाना होगा






मेरे सपनों का ये कहना है
मुझे अभी और जिंदा रहना है

किसके इजलास में पेषी होगी
जहां मुझे अपना बयान कहना है

सब खामोष हैं यादों के रफीक़
ग़म को अभी और जिंदा रहना है



सुबह निकली दिन हुआ है देखिए
क्या हुआ, कैसे हुआ, बस देखिए

नये पत्ते मचल करके खिल गए
झर गए पत्ते पुराने देखिए

आज फिर से ये यकीं आया मुझे
ख्वाब पूरे हो रहेंगे, देखिए

हर घड़ी का हम करें कैसे हिसाब
बेसबब बीता है जीवन देखिए

बोल के जो कुछ नहीं समझा सके
चुप में कैसे समझ लेंगे, देखिए

मैं वही हूं कुछ भी तो बदला नहीं
आपको दिखता हूं कैसा देखिए

अब भी सूनी राह को तकते हैं हम
आ ही जाए क्या पता वो, देखिए



सारी दुनिया गोल-मोल है
हर सच में, सच बहुत पोल है

तन्हा दिल, दुनिया की बातें
क्या समझे, क्या तौल- मोल है।

आपकी हस्ती बहुत बड़ी है
मेरे कद में बहुत झोल है।




दर्द का दिल से क्या रिष्ता है
हवा समंदर बादल पानी





आसमान के आंसू थाम लो
चलो फिर उसका नाम लो

बहुत गहरे से सदा उठेगी
ज़रा मगर सब्र से काम लो




रात तारों की चादर पे सो जाएगी
जब भी हमें तेरी याद आएगी

चांद फिर बाद-ए-सबा से पूछेगा
कहां जाती है, लौट के कब आएगी

हवा दरख्तों की चोटयों पर चढ़ी
उतरेगी हरसू पसर जाएगी

ख्वाब आखों में कब तक रहेंगे भला
मेरी उम्मीद सबको नज़र आएगी

मुझको इतना यकीं तो है मेरा जां
आएगी, आएगी, तू ज़रूर आएगी



जिन रस्तों पर चले थे हमतुम
वो रस्ते गुमनाम रहे

दिल तो साफ था लेकिन मुझ पर 
कई सौ-सौ इल्जाम रहे 
दुनिया वालों को समझा दो
अपने काम से काम रहे

जिन सपनों की नींव बनाई
अब उनके भी दाम रहे

हाथों में तकदीर थी मेरी
हाथ मगर बेकाम रहे

उनसे कुछ उम्मीद बची थी
पर वो भी गुमनाम रहे







हम जो हरदम मुकद्दर से लड़ते हुए
तेरे दर पे किसी दम खड़े हो गए
ये भी माना कहीं रौशनी थी मगर
अपने साये ही हमसे बड़े हो गए
सूरज निकला नहीं सांझ होने को है
हो गया रास्ता जिंदगी का बड़ा
चांद की राह मुश्किल बहुत है मगर
रात के बुत किनारों पे ही सो गए
हमने माना वफा की है आदत हमें
तुमसे उम्मीद थी बावफा तुम भी हो
हम तो अपनी निभाते रहे उम्र भर
तुम कहीं से कहीं पर खड़े हो गए

क्या बुरा किया

 तुमने कहा, हमने मान लिया

कहो तो, क्या बुरा किया


यूं भी ये जां तेरी ही है

ले ली, तो क्या बुरा किया


दिल छोड़ो, बेकार की बातें हैं

इसे तोड़ा, तो क्या बुरा किया


ये हार जीत कौन जानेगा

खोया पाया, तो क्या बुरा किया


आपकी हर अदा क़ातिल है 

मर गए हम, तो क्या बुरा किया


अब क्या देखना बाकी है



हार भी देख ली, और जीत को भी देख लिया

जिंदा नारों की तपिष, खुषबुएं, चारों सिम्त

ग़में दौरा, ख्वाहिषों की परवाज़

हाकिम को आज़मा के देख लिया


तुम आए ना आए, कोई रंज नहीं

हौंसला एक और जंग लड़ने का 

मेरे हर दिल अजीज़ साथी

तेरी आवाज़ मेरे साथ रही


मैने चाहा था किसी और वक्त

खेतों में जाउं, हंसू गाउं

सुब्ह फसलों को पानी लगाते हुए

गीली मिट्टी की ताज़ा गंध में 

बह जाउं

फैल जाउं हर दाने में, बस जाउं


पहाड़ों से समन्दर तक

जंगलों से मैदानो तक

गूंजती है लाखों आवाज़ें

इन्हीं आवाजों में मेरी 

आवाज़ भी शामिल है

तेरी आंखों में मेरे आसूं

तेरे होठों पे जज़्बा है मेरी हंसी


लड़के जीते हैं एक मंजिल

रास्ता और बाकी है अभी

चलना देखा है मैने खेतों का

फस्लों का, खून का, उम्रों का

अब क्या देखना बाकी है।


दिन का भूत - रात का भूत

 




बात उन दिनों की है जब मैं दुनियावी मामलों को समझने लगा था। सुबह जल्दी उठने की आदत वहीं से लगी है। मैं बहुत सुबह, यानी सूरज निकलने से भी पहले उठता था। बहुत सारे काम करने के बाद, जिनका जिक्र मैं यहां नहीं करना चाहता, नहाता - धोता था और फिर ध्यान के लिए बैठता था। उन दिनों बहुत सारे धर्म-ग्रन्थों को पढ़ डाला था। मत्स्य पुराण, षिव पुराण, ब्रम्ह पुराण, रामायण, गीता और भी ना जाने क्या - क्या। उन्ही दिनों कुंडलिनी जागरण का चस्का लगा। त्राटक करता था और ध्यान में ऐसी गहरी आस्था थी मेरी कि लगता था जैसे बस देहरी पर पहुंच गया हूं, बस एक कदम बाकी है। खै़र कहानी ये नहीं है। ये तो कहानी की पृष्ठभूमि है, क्योंकि इसे जाने बिना आपको समझ नहीं आएगा कि मैं इतना घनघोर आस्तिक अचानक नास्तिक क्यूं बन गया। 
तो हुआ कुछ यूं कि यही दिन थे जब मैं रात को देर से घर आया करता था। मेरे घर के रास्ते में, यानी घर तक पहुंचने वाली गली सुनसान थी, मेन रोड के पास ही थी, लेकिन कुछ इस तरह थी कि मेन रोड़ छोड़ने के बाद ही सुनसान, घुप्प अंधेरी सड़क पर पांव पड़ते थे। अब इस गली के मैने कई किस्से कई लोगों से सुन रखे थे। कुछ को म्यूनिसिपैलिटी के नलके पर भूत बैठा दिखा था, किसी को गली में आते या जाते हुए भूत दिखा था, और कुछ को तो उनकी बैठक में भूत का अहसास हुआ था। जी नहीं, जिन लोगों को भूत दिखे थे, उन्हें मैं नहीं जानता, कभी मिला भी नहीं। बस उनके किस्से लोगों की जुबानी सुने थे। जिन्हे भूत का अहसास हुआ था उन्हें मैं जानता था। अब मामला ये था कि जिन्हे मैं जानता नहीं था, उन्होने भूत देखा था, और जिन्हे मैं जानता था, उन्होनेे भूत नहीं देखा था। 
अब यहां आपसे एक सवाल है, जिसका जवाब मुझे नहीं चाहिए। आप खुद ही खुद से सवाल कीजिए और उसका जवाब खुद को दे लीजिए। अगर खुदा नहीं होता, ”यानी ईष्वर नहीं होता” - तो क्या भूत का असतित्व संभव होता? भई जिस तरह की पारलौकिक, या अलौकिक शक्ति भूत की बताते हैं, वो बिना ईष्वरीय शक्ति के तो संभव नहीं लगती। या इसे इस तरह मान लें कि भूत में यकीन आप तभी कर सकते हैं जब आपका ईष्वर में यकीन हो। यदि ईष्वर में यकीन नहीं होगा तो भूत में भी यकीन नहीं होगा। ये तर्क की बात है और इसमें आस्था की कोई जगह या जरूरत नहीं है। माफ कीजिएगा, ये मेरा खुद से सवाल का जवाब है। अब क्योंकि कहानी मेरी है तो मैने अपना जवाब आपको दे दिया है। आपका अगर कोई जवाब है तो उसे अपने पास रखिए। 
ये सवाल - जवाब तो खैर जाने दीजिए। बात भूत की हो रही थी - और मामला उन दिनों का था जब मैं घनघोर आस्तिक था, खूब वेद-पुराण तक पढ़ता था, श्लोक - मंत्र रटे हुए थे, संस्कृत में पारंगत था, हनुमान चालिसा कंठस्थ थी, दुर्गा और शक्ति के श्लोक याद थे और उन्हीं के सहारे खुद को अलौकिक मानव बनाने के चक्कर में था। मेरा यकीन मानिए मैने हठयोग तक किया। यानी सर्दियों में बिना कुछ पहने रात को पानी में खड़े रह कर - षिव स्त्रोत का पाठ और गर्मियों में तपते सूरज के नीचे चारों तरफ आग जला कर घ्यान का अभ्यास। मैं पूर्ण ब्रहम्चारी था, हस्तमैथुन नहीं करता था, वीर्य को तेज का कारण मानता था, और इसे धर्म के प्रति अपने त्याग और तपस्या का एक महान अध्याय मानता था। अब ऐसे महान तपस्वी का भला भूत क्या बिगाड़ेगा।
तो दोस्तों, सर्दियों का समय था और मैं अपने दोस्तों पर, अपने तप और ज्ञान का रौब झाड़ कर, ”वो मुझे महापंडित कहते थे, कुछ गुरुजी या ऋषि भी कहते थे” वापस घर जा रहा था। रास्ता वही, जो मैने पहले बताया, सुनसान, घटाटोप अंधेरा। करीबन एक किलोमीटर का रास्ता। एक तरफ दीवार, दूसरी तरफ झाड़ और पेड़, थोड़ आगे जाने पर गली के दो हिस्से हो जाते हैं, एक दांयी तरफ दूसरा सीधा। वहीं पर लगा है म्यूनिसिपैलिटी का नल। वो नल जिससे सारे मुहल्ले वाले पानी भरते हैं। मैं ने देखा कि कोई उस नल की थेगली पर बैठा है - या बैठी है। मेरा मन थोड़ा लरजा। ध्यान से देखा तो लगा कि वो बैठी है, उसका बदन हिल रहा है। मेरा कदम लड़खड़ाया और चाल धीमी हो गई, या रुक गई। मैं आगे नहीं जाना चाहता था, लेकिन घर जाने का यही एक रास्ता था। मैंने आंखे सिकोड़ कर ध्यान से देखा, देखना चाहा। सफेद साड़ी थी, बदन हिल रहा था। मैने और ध्यान से देखा। बदन हिल रहा था, जैसे वो रो रही हो। लेकिन कोई आवाज़ नहीं थी। नैनी को भी ऐसी ही बुढ़िया रोती मिली थी। मेरा दिल एक बार फिर लरज़ा और फिर भीगे हुए कुत्ते की तरह कूं-कूं करने लगा। मुझे सारे श्लोक भूल गए, दुर्गा शप्तसती भूल गई, हनुमान चालिसा....हां, भूत पिसाच निकट नहीं आवै - महावीर जब नाम सुनावै.....बस यही याद रहा। इसके आगे नहीं, इसके पीछे नहीं। बस भूत - पिसाच निकट नहीं आवै - महावीर जब नाम सुनावै...। बस यही, बार -बार यही। और ये भी स्वर में नहीं, मन में। मन में यही बार - बार दुहराते हुए मैं आगे बढ़ा। बढ़ता रहा, शायद इस उम्मीद में कि जब तक मैं उसके पास पहुंचूंगा वो गायब हो जाएगी, कोई और भी आ जाएगा। भूत के सामने भगवान भले भाग जाए, इंसान का बड़ा सहारा होता है। क्योंकि अब तक भूतों की जो भी कहानी सुनी थी, उसमें भूत हमेषा अकेले इंसान को ही पकड़ते हैं, भूतों को एक से ज्यादा इंसान होने से डर लगता है। 
कोई नहीं आया, ना कोई गया। भूत - पिसाच निकट नहीं आवै - महावीर जब नाम सुनावै के अलावा कुछ सूझ नहीं रहा था। सर्दी की उस रात मेरी बगल में पसीना आ गया, जो मुझे महसूस हो रहा था। मैं धीरे-धीरे वहां पहुंच रहा था जहां वो बुढ़िया भूतनी बैठी थी, नल की थड़ी पर, रो रही थी। मेरे बदन का रोयां-रोयां पुकार रहा था कि आगे नहीं जाना, पीछे जाओ, लेकिन कोई अद्भुत शक्ति मुझे उसकी तरफ खींच रही थी, ”मतलब घर की तरफ” पीछे जाने का कोई तर्क नहीं था। घर तो जाना ही था, डर ने पैर जड़ कर दिए थे, या यही डर था जो मुझे आगे खींच रहा था। हे भगवान, अब क्या होगा। क्या होगा - हे भगवान। मेरी सांसे भी फंस कर आ रही थी, बहुत धीमे - बहुत धीमे। मैं दांयी तरफ हो गया, बिल्कुल झाडों के करीब, ताकि उससे दूर - दूर रहते हुए अपने घर की तरफ मुड़ जाउं। मैं उसके बिल्कुल करीब पहुंच चुका था। मेरे करीब पहुंचते ही वो उठी, मेरे दिल ने जवाब दे दिया। पैर पानी हो गए, और मैं बैठ गया। 

थोड़ी देर बार होष आया तो वो गायब हो चुकी थी। मैं ज़मीन पर पड़ा था। मैने खुद को संभाला। खड़ा हुआ और कांपते पैरों से घर की तरफ बढ़ चला। मेरा दिल धाड़ - धाड़ करके बज रहा था। मैने एक भूतनी देखी थी, भूतनी - जो गायब हो गई थी। भूत या भूतनियां अक्सर गायब हो जाते हैं। मिल कर गायब हो जाना ही उनका मुख्य काम है। या हो सकता है कि वो - महावीर का नाम सुन के गायब हो गई हो। 

दूसरे दिन मुझसे ध्यान नहीं लग सका। जैसे ही आंख बंद करता था, मुझे वो नल की थेगली पर बैठी दिखाई देती थी, उसका बदन हिल रहा था। लेकिन फिर मेरा अनुभव मेरे दिमाग के हिसाब से आगे बढ़ने लगा, मेरी बंद आंखों से वो दिखने लगा जो मेरी खुली आंखों ने नहीं देखा था। वो उठी थी, उसकी लाल अंगारों जैसी आंखें थीं, जिनसे खुन के आंसूू टपक रहे थे। वो सच में रो रही थी। फिर मुझे देख कर वो मुस्कुराई और गायब हो गई। भूत या भूतनियां अक्सर गायब हो जाते हैं। मिल कर गायब हो जाना ही उनका मुख्य काम है।

महामानव-डोलांड और पुतिन का तेल

 तो भाई दुनिया में बहुत कुछ हो रहा है, लेकिन इन जलकुकड़े, प्रगतिशीलों को महामानव के सिवा और कुछ नहीं दिखाई देता। मुझे तो लगता है कि इसी प्रे...