कहीं देखा है आपने? सुना है? रेषम के कामदार कपड़े से मढ़ा हुआ, सोने की तारों के काम वाला बक्सा। पुरानी जमींदारियों में शायद होता हो, राजा-महाराजाओं के जमाने में तो ज़रूर ही होता होगा। क्योंकि जब राजा और रानियां अपने जेवर और जवाहरात रखते होंगे तो उन्हे कहां रखते होंगे। जवाहरात संभालने के लिए बक्से को विषेष तो होना होगा ना। वैसे बक्से दिखते ही उनमें रखे माल की कीमत कल्पना में आ जाती है। ऐसे बक्से खाली भी हों तो उनकी कीमत बहुत होती होगी। क्यों? पर क्या ऐसे बक्सों की कीमत, फिर चाहे उनमें माल हो या ना हो, सबके लिए एक सी होती होगी ? इस लिहाज से सोचा जाए तो बताइए भला, राजाओं के लिए, रानियों के लिए, जवाहरात की कीमत होगी या उसके बक्से की? मुझे लगता है कि वो जवाहरात निकाल कर बक्से को फेंक दिया करते होंगे। मैं ने कई बार इसे अपनी कल्पना में देखा। रानी ने जवाहरात निकाले और बक्सा फेंक दिया, और उसके आगे देखा कि एक बहुत ही ग़रीब बच्चे ने वो बक्सा उठा लिया। वो ग़रीब बच्चा उस बक्से को अपने घर ले आया। उसकी मां ने उस कीमती, रेषम के कामदार कपड़े से मढ़े बक्से को बच्चे से ले लिया और उसे संभाल कर रख लिया। किसी के लिए वो बक्सा बेकाम था, किसी के लिए वो बक्सा ही बेषकीमती हो गया।
आपके लिए क्या बेषकीमती या सिर्फ कीमती है, ये इस पर निर्भर करता है कि आपको क्या हासिल है। मुझे याद पड़ता है वो बक्सा जो जालीदार था। मेरी दादी उस पर ताला लगा कर रखती थी। और उस बक्से में रहता था, मक्खन, घी, गुड़, गोंद के लड्डू और शक्कर। ये सफेद वाली चीनी नहीं, जिसे आप शक्कर कहते हैं, वो गुड़ वाली शक्कर जो गर्मी में पिघल कर पानी हो जाती है। और आप यकीन मानिए मेरे लिए वो किसी भी जवाहरात से ज्यादा कीमती थी। मैं उसे चुराता था। यूं मैं घी, गुड़, लड्डू सबकुछ चुरा कर खा जाता था। लेकिन शक्कर मुझे विषेष प्रिय थी। मेरी दादी उस शक्कर को बचाती थी, छुपाती थी। और मैं उसे चुराता था, खाता था। दादी और पोते का यही खेल चलता था।
चारों तरफ जाली वाला वो बक्सा दादी के कमरे में पीछे की तरफ रहता था, हो सकता है दादी उसमें पैसे भी रखती हो। मैं ने कभी ध्यान नहीं दिया। दादी को जब भी पैसे की जरूरत होती थी, वो एक छोटा सा बटुआ अपने घाघरे के कमरबंद से निकालती थी, कभी - कभी मैने दादी को तकिये के नीचे से भी पैसे निकालते देखा था, और कभी - कभी पैसा टांड पर भी होता था। हो सकता है कि वो लोहे के जालीदार बक्से में भी पैसा रखती हो, पर मुझे कभी ख्याल ही नहीं आया कि वहां पैसा हो सकता है। लेकिन इस बात का मुझे पूरा यकीन था कि शक्कर सिर्फ और सिर्फ वहीं होती थी। लकड़ी का वो बक्सा जिसमें बीच में एक तल्ला लगा था, नीचे की तरफ कुछ सामान होता था और उपर की तरफ कुछ सामान होता था। मेरे मतलब का सामान उपर की तरफ होता था। मैं चुपके से चाबी उठाता था, बिना आवाज किए ताला खोलता था और चुपके से मुठ्ठी भर शक्कर निकालता था। अब मेरे एक हाथ की मुठ्ठी में शक्कर होती थी और ताला खुला होता था। मैं कच्चा चोर था। शक्कर मिल गई, काम खत्म। मैं बिना ताला बंद किए शक्कर लेकर भाग जाता था, और अपने हाथ से चाट-चाट कर शक्कर खाता रहता था। बक्से की कीमत मेरी निगाह में वही थी कि उसमें शक्कर थी।
मेरे बचपन का वो हमसफर बहुत देर तक मेरे साथ रहा। मेरी निगाह कभी इस तरफ नहीं गई कि वो बक्सा बहुत पुराना था। उस बक्से की लकड़ी की रंगत मेरी नज़र में कभी नहीं आई। मैने कभी नहीं सोचा कि उस बक्से की लंबाई - चैड़ाई क्या है, उसकी जाली गंदी है या साफ है। जब दादी ने पिता के घर से दूर फाॅर्म हाउस पर डेरा डाला तो मुझसे पूछा गया कि क्या मैं दादी के साथ रहना चाहूंगा। मैं ने फौरन हां कर दिया। पर सच तो ये है कि मैं दादी के पीछे, दादी के साथ नहीं गया था। मैं तो उस बक्से के पीछे गया था। जालीदार बक्से के पीछे, जिसमें शक्कर होती थी। मेरे लिए वो बक्सा बहुत कीमती था। बहुत कीमती।
कुछ सालों बाद, जब मैं ने पढ़ाई पूरी कर ली, नौकरी करने लगा। अपना घर बना लिया। अकेले रहने लगा था। दादी कब की फौत हो चुकी थी। सभी को ये लगता था कि मैं दादी को बहुत प्यार करता था। उसके पीछे ये मामला भी था कि सब को लगता था कि मैं सबसे ज्यादा दादी के साथ रहा था इसलिए जाहिर है कि मैं सबसे उस से सबसे ज्यादा प्यार करता था। शायद इसीलिए एक दिन मुझे बुलाया गया और कहा गया कि ये देख ये बक्सा जो है, दादी का, ये तो बहुत दिनों से इस्तेमाल नहीं हो रहा है, तो सोच रहे हैं कि तुम इसे ले लो, रख लो, संभाल लो, और फिर धीरे से कहा, ” अगर चाहते हो तो?” अब कहानी को भावनात्मक बनाने के लिए मैं बहुत कुछ कह सकता हूं। कि कैसे मैने उस बक्से को बाहों में भर कर चूम लिया। कैसे मेरी आंखों के आगे बचपन की वो सारी यादें फिर से जिंदा हो गई जो उस बक्से और दादी के साथ जुड़ी थी। कि कैसे मैने दौड़ कर उसे उठा लिया और अपने कमरे में जाकर सजा दिया। लेकिन दरअसल हुआ यूं कि मैने उस मैले, गंदे, चीकट बक्से को देखा। वो बक्सा जिसके पीछे किसी जमाने में मैं ने घर छोड़ दिया था। वो बक्सा जिसके साथ मेरी बचपन की यादें जुड़ी थीं। वो बक्सा जिसने मुझे शक्कर दी थी। फिर बिना कुछ सोचे जवाब दिया, ”मुझे नहीं चाहिए, जो मर्जी कीजिए इसका। ” और पलट कर वापिस अपने घर चला गया।

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